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मुश्किल नहीं हकलाने और तुतलाने की समस्या का समाधान

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ज्यादातर बच्चे छुटपन में तुतलाते हैं और आगे सही बोलने लगते हैं। लेकिन कई बच्चे बड़े होकर भी तुतलाते रहते हैं। इसी तरह हकलाहट की समस्या भी अक्सर बच्चे के विकास में बाधक बनती है। हकलाने और तुतलाने से कैसे पाएं निजात, एक्सपर्ट्स से बात करके बता रही हैं प्रियंका सिंह...

किंग खान शाहरुख खान का 'डर' फिल्म में का...क...क...क... किरन बोलना फैन्स को भाता है। वैसे, शाहरुख ने तो फिल्म के लिए यह स्टाइल अपनाया, लेकिन फिल्म स्टार रितिक रोशन वाकई बचपन में हकलाते थे। इसकी वजह से वह स्कूल जाने से भी कतराते थे, खासकर जिस दिन मुंहजुबानी टेस्ट होता, वह कोई बहाना बनाकर स्कूल जाने से बचने की कोशिश करते थे। बाद में स्पीच एक्सपर्ट की मदद से उन्होंने अपनी इस कमी को दूर कर लिया और आज वह हमारे चहेते स्टार हैं। इसी तरह ब्रिटिश लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, साइंटिस्ट आइजक न्यूटन, ग्रीक फिलॉसफर अरस्तू को भी बोलने के लिए शब्द नहीं मिलते थे। लेकिन इन लोगों ने अपनी इस कमजोरी पर काबू पाकर अपने लिए अलग मुकाम बनाया।

वैसे हकलाने या तुतलाने की समस्या बेहद आम है लेकिन ज्यादातर मामलों में इसका इलाज मुमकिन है। आरना 5 साल की हो गई लेकिन बाकी बच्चों की तरह साफ नहीं बोल पाती। वह तुतलाती थी। क्लास में बच्चे उसका मजाक उड़ाते थे, इसलिए वह स्कूल भी नहीं जाना चाहती। आरना की मम्मी उसे चाइल्ड स्पेशलिस्ट की सलाह पर स्पीच थेरपिस्ट के पास लेकर गईं। 3 महीने के अंदर ही आरना करीब-करीब साफ बोलने लगी। 21 साल के मोहनीश जब बहुत खुश होते हैं तो उनकी जबान लड़खड़ाने लगती है। उन्होंने अपनी इस कमी को दूर करने की ठानी और शीशे के सामने खड़े होकर धीरे-धीरे बोलने की प्रैक्टिस करने लगे। कुछ ही महीनों में उन्होंने खुद में काफी सुधार पाया। इसी तरह 5 साल का अविरल अक्सर हकलाता था। पैरंट्स उसे सायकॉलजिस्ट के पास लेकर गए। काउंसलिंग में पता चला कि घर में पैरंट्स में झगड़ा काफी होता था। इससे अविरल की पर्सनैलिटी का सही विकास नहीं हो पा रहा था। धीरे-धीरे काउंसलिंग से अविरल पूरी तरह ठीक हो गया।

एक्सपर्ट्स के मुताबिक, हकलाने और तुतलाने के करीब 80-90 फीसदी मामलों को कोशिशों से पूरी तरह से ठीक किया जा सकता है। तुतलाने या हकलाने से बच्चों और बड़ों, दोनों में आत्मविश्वास कम होने लगता है। वे अपने मन के भावों को बोलकर जाहिर करने से बचने लगते हैं। बेहतर है कि छुटपन में ही इसका इलाज कराएं। आमतौर पर बच्चा 3-4 साल की उम्र तक साफ बोलने लगता है। ऐसा न हो तो बच्चों के डॉक्टर (पीडियाट्रिशन) को दिखाएं। अगर इलाज जल्दी शुरू किया जाए तो सुधार के चांस ज्यादा होते हैं, क्योंकि इस उम्र में थेरपी अच्छा असर करती है।

एक्सपर्ट्स पैनल

-डॉ. गिरीश सरदाना, स्पीच थेरपिस्ट, कैलाश हॉस्पिटल
-डॉ. विजय अग्रवाल, स्पीच पैथॉलजिस्ट, एम्स
-डॉ. संजीव बगई,सीनियर पीडियाट्रिशन
-डॉ. पामिला दुआ,आयुर्वेदिक एक्सपर्ट, एम्स
-डॉ. आरती नागपाल,स्पीच थेरपिस्ट, आर्टमीज़ हॉस्पिटल
-डॉ. शिशिर भटनागर, हेड, पीडियाट्रिक्स डिपार्टमेंट, मैक्स

कैसे होती है जांच
बच्चे के बोलने से बीमारी का अंदाजा लग जाता है। बच्चे का उच्चारण सुनने (आर्टिकुलेशन टेस्ट) के अलावा उसकी सुनने की क्षमता की जांच की जाती और मुंह व जीभ की बनावट भी चेक करते हैं। नवर्स सिस्टम की समस्या है तो MRI करके दिमाग की स्थिति चेक की जाती है। MRI की कीमत करीब 6000 रु. होती है।


तुतलाने और हकलाने में फर्क

तुतलाने और हकलाने के इलाज के लिए आमतौर पर दवाएं नहीं दी जातीं। सारा दारोमदार थेरपी पर रहता है। जरूरत पड़ने पर सर्जरी भी की जाती मसलन अगर जीभ की शेप और साइज गड़बड़ है तो सर्जरी की जाती है लेकिन ऐसा कम ही मामलों में होता है।

हकलाना
रुक-रुक कर बोलना, एक ही शब्द को बार-बार बोलना, तेज बोलना, बोलते हुए आंखें भींचना, होठों में कंपकपाहट होना, जबड़े का हिलना आदि।

तुतलाना
उच्चारण की समस्या होना और साफ नहीं बोल पाना। 'र' को 'ड़' या 'ल' बोलना आदि।

क्या है वजह
हकलाना
बोलने में काम आनेवाली मसल्स व जीभ पर कंट्रोल न होना
जनेटिक वजहें, मसलन पैरंट्स को है तो बच्चों में होने की आशंका
न्यूरोलॉजिकल वजहें यानी दिमाग के लेफ्ट साइड में कुछ गड़बड़ी होना
इन्वाइरन्मेंटल वजहें यानी किसी खास सिचुएशन में हकलाना मसलन फोन पर या इंटरव्यू में या फिर किसी का नाम या एड्रेस पर या फिर किसी शख्स को देखकर
नर्वस होने या एक्साइटमेंट में जीभ पर से कंट्रोल खोना
टेंशन, कमजोरी, डर, थकान या अपसेट होने पर भी हकलाहट बढ़ जाती है।

तुतलाना
टंग टाई यानी जीभ का नीचे ज्यादा चिपके रहना
सुनने में दिक्कत से सही शब्द नहीं समझ पाना।
आईक्यू कम होना
आदतन, मसलन बच्चा तुतलाकर बोलता है और बड़े लोग भी प्यार में वैसे ही बोलने लगते हैं तो बच्चे और ज्यादा तुतला कर बोलने लगता है।
खुद कैसे करें सुधार


माता पिता करें मदद...
बच्चा अगर तोतला बोलता है तो उसकी कॉपी बिल्कुल न करें। कई बार लोग प्यार में ऐसा करने लगते हैं और बच्चे को लगता है कि ऐसा करना अच्छा है। फिर धीरे-धीरे यह उसकी आदत बन जाती है।
टीचर्स कई बार तुतलाने वाले बच्चे को ज्यादा अटेंशन देते हैं, जिसे देखकर दूसरे बच्चे भी वैसे ही बोलने की कोशिश करने लगते हैं। टीचर सभी बच्चों के साथ एक जैसा बर्ताव करें।
बच्चे को दूसरों की बातें गौर से सुनने को कहें। उसे सही से सुनने की आदत होगी, तभी वह सही बोलने की कोशिश भी करेगा।
पहले बच्चे को एक शब्द बोलने को कहें। जब उसे सही तरीके से बोलने लगे, तब दूसरा शब्द सिखाएं।
कोशिश करें कि बच्चे को हकलाने के बारे में चिंतित न किया जाए। पैरंट्स अपने बच्चे के हकलाने को लेकर परेशान हो जाते हैं और बच्चे को भी कॉन्शस कर देते हैं। इससे बच्चे के विकास पर उलटा असर पड़ता है।
बच्चे की बातें काटे बिना धीरज से सुनें। बच्चा जब हकलाता है, तब बीच में टोके नहीं। उसे अपनी बात पूरी करने दें। उस पर झुंझलाएं नहीं।
बच्चे को यह लगना चाहिए कि आप उसकी प्रॉब्लम को समझ सकते हैं और उसका हिस्सा हैं। रोजाना बच्चे के लिए अलग से टाइम निकालें। उसके साथ बैठें, खेलें और उसे प्यार से समझाएं।
बच्चा जब भी बोले, उस पर ध्यान दें। हालांकि हमेशा उसी पर ध्यान लगाए रखें, यह भी सही नहीं है। इससे उसे फिजूल अटेंशन की आदत बनती है।
उसकी तारीफ करें। 'वाह, क्या बात है!' की बजाय 'वाह, तुमने कितनी मदद की' जैसे वाक्य बोलें।

वेबसाइट्स
stammeringcentre.org: हकलाने से जुड़ी ढेर जानकारी के अलावा टिप्स भी दिए गए हैं इस साइट पर। साथ ही बहुत-से बच्चे, पैरंट्स, टीचर्स और थेरपिस्ट भी यहां अपनी राय देते हैं।
stammer.in: इस साइट पर बहुत सारे लोगों के एक्सपीरियंस दिए गए हैं। इस समस्या से निपटने के उपाय भी बताए गए हैं।

जानकारी के लिए...
-मोबाइल ऐप
Stuttering Help Trial: इसमें शीशे के सामने पढ़ने से लेकर नए शब्द जोड़ने तक की तकनीक तक बताई गई है। ट्रायल ऐप फ्री है, जबकि एडवांस जानकारी पाने के वास्ते Stuttering Help Pro के लिए 200 रुपये खर्च करने होंगे। प्लैटफॉर्म: विंडोज़, एंड्रॉयड, ios

-Stutter Rater: हकलाने के लक्षण जानने के अलावा इलाज में भी मददगार है यह ऐप। प्लैटफॉर्म: विंडोज़, एंड्रॉयड, ios

-यू-ट्यूब विडियो
y2u.be/UxSR5IAa1rE: हकलाने की दिक्कत से कैसे निपटे फिल्म स्टार रितिक रोशन, देखें इस विडियो में, जोकि 4 मिनट का है।

-y2u.be/aSo94QeZXNQ: हकलाहट दूर करने के घरेलू उपाय जानने के लिए देखें यह विडियो। विडियो 3.5 मिनट का है।

स्पीच थेरपी
आमतौर पर तुतलाने का इलाज घर पर ही किया जा सकता है क्योंकि अक्सर इसकी वजह आदत होती है। बच्चे के साथ सही उच्चारण में बात करके और उसका भरोसा जीतकर इस समस्या से छुटकारा दिलाया जा सकता है। फिर भी अगर बच्चा 4-5 साल की उम्र में भी तुतलाए तो स्पीच थेरपिस्ट की मदद लेनी चाहिए। इसी तरह हकलाने की समस्या के लिए भी 4-5 साल की उम्र में स्पीच थेरपिस्ट की मदद ले सकते हैं। स्पीच थेरपिस्ट देखते हैं कि अगर एक पैरा में 160-180 तक ब्लॉक (रुकावटें) हैं तो बच्चे को समस्या है और इलाज की जरूरत है। अगर इससे कम ब्लॉक हैं तो इलाज की जरूरत नहीं है। इस समस्या से निपटने के लिए रिलैक्सेशन और एयरफ्लो एक्टिविटी (बोलते वक्त सांस लेने का तरीका) के अलावा काउंसिंग भी कराते हैं। स्पीच थेरपी के एक सेशन के लिए करीब 500-600 रुपये चार्ज किए जाते हैं। वैसे कुछ बड़े सरकारी अस्पतालों में यह थेरपी फ्री या बहुत कम कीमत में भी होती है। हफ्ते में 30-45 मिनट के 2-3 सेशन होते हैं। आमतौर पर 10-15 सेशन में फर्क दिखने लगता है लेकिन कई बार ज्यादा वक्त भी लग जाता है। ऐसे में नतीजे से लिए परेशान न हों, न ही थेरपिस्ट पर दबाव डालें। स्पीच थेरपिस्ट पैरंट्स, टीचर्स और बच्चे के दोस्तों तक से बात करके तकनीकें सिखाते हैं, ताकि मरीज को अपने आसपास के लोगों से सहायता और समझदारी मिल सके। जिन बच्चों को साथ में बिहेवियरल दिक्कतें (होंठ चबाना, नाक-कान में उंगली डालना, आंखें घुमाना आदि) भी होती हैं, उन्हें सायकायट्रिस्ट की मदद से बिहेवियरल थेरपी दी जाती है

यूं तो हकलाने का सबसे अच्छा इलाज स्पीच थेरपी और कुछ मामलों में सर्जरी है लेकिन आयुर्वेद में भी कुछ चीजों को असरदार पाया गया है। अणु तैल या षडबिंदु तैल के नस्य और दूध के नियमित सेवन के अलावा कल्याणक अवलेह, सारस्वत चर्ण, सारस्वत घृत, सारस्वतारिष्ट, कल्याणक घृत, ब्राह्मी घृत, कुमार कल्याण रस, रास्नादि क्वाथ, वचादि योग, अश्वगंधा तैल आदि का इस्तेमाल इस समस्या में मददगार होता है। दवाएं मरीज की उम्र और समस्या के मुताबिक दी जाती हैं।

नोट:
आयुर्वेदिक एक्सपर्ट की सलाह के बिना कोई दवा न लें।

नर्व्स की समस्या है हकलाने की वजह
अक्सर इसकी वजह न्यूरोलॉजिकल होती है यानी दिमाग की वाइरिंग में गड़बड़ी की वजह से होती है।


तनाव व घबराहट में ही हकलाते हैं लोग
यह सही है कि घबराहट में कई लोग हलकाने लगते हैं लेकिन यह भी सच है कि अगर किसी के सामने बहुत ज्यादा रिलैक्स हो जाएं तो भी लोग हकलाने
लगते हैं क्योंकि उन्हें वहां कंफर्ट लगता है कि वे जैसे हैं, वैसे रह सकते हैं। दोनों ही स्थितियां हलकाने की वजह बन सकती हैं।हकलाने का कोई इलाज नहीं है?हकलाने का इलाज मुमकिन है लेकिन थोड़ा वक्त लग सकता है। स्पीच थेरपी का सबसे ज्यादा असर कम उम्र में होता है इसलिए
हकलाने वाले बच्चे को 5 साल की उम्र तक थेरपी करा देनी चाहिए। बाद में स्पीच थेरपी कराने असर कम होता है।

कम IQ वाले होते हैं हकलाने वाले लोग
रिसर्च बताती हैं कि जो लोग हकलाते हैं, उनकी समझ में कोई कमी नहीं होती। वे जानते हैं कि उन्हें क्या चाहिए या वे क्या बोलना चाहते हैं, बस शब्द नहीं मिल पाते। हकलाने वाला शख्स भी नॉर्मल स्पीड से ही सोचता है।

ये हैं घरेलू नुस्खे...
रोजाना हरे या सूखे आंवले के चूर्ण का सेवन भी फायदेमंद हो सकता है।
एक चम्मच मक्खन के साथ रोजाना 5-6 बादाम खाएं।
एक चम्मच मक्खन में एक चुटकी काली मिर्च मिलाकर रोजाना खाएं।
10 बादाम, 10 काली मिर्च, मिश्री के कुछ दानों को एक साथ पीस कर 10 दिन खाएं।
दालचीनी के तेल की मालिश जीभ पर करने से मोटी जबान में फायदा होता है।
सोने से पहले 2 छुहारे खाएं और दो घंटे तक पानी न पिएं।

नोट: ये सब घरेलू उपाय हैं और इलाज में थोड़ी बहुत मदद कर सकते हैं लेकिन इनसे बीमारी पूरी तरह ठीक हो जाए, ऐसा मुमकिन नहीं है।

योग भी है मददगार

योग भी इसमें काफी असरदार है। शुरुआत जीभ की एक्सरसाइज से करें। खास एक्सरसाइज हैं: जीभ को जितना मुमकिन हो, बाहर निकालना (एक बार ठोड़ी की तरफ, दूसरी बार नाक की तरफ), जीभ को मुंह के अंदर दबाना, जीभ को मोड़कर तालू से लगाना आदि। इसके बाद ये योग करें:

सिंघ गर्जना: वज्रासन में घुटने खोलकर बैठ जाएं। गर्दन को थोड़ा आगे झुकाएं। फिर पूरी सांस भरकर जीभ को पूरी तरह बाहर निकालें और शेर की दहाड़ की तरह जोर से आवाज़ निकालें। ऐसा 10-12 बार करें।

अनुलोम-विलोम: लेफ्ट नथुने से सांस भरकर रोकें और फिर राइट साइड से निकालें। दोनों नथुनों से एेसा करें। कुल 5-7 मिनट करें।

डीप ब्रीदिंग: गहरी सांस लें। कुछ देर रोकें। फिर धीरे-धीरे निकालें। सांस को सही तरीके से कंट्रोल करने से स्पीच बेहतर होती है। करीब 5 मिनट करें।

उज्जायी प्राणायाम: गले से आवाज निकालते हुए गहरी सांस भरें। फिर लेफ्ट साइड से निकाल दें। कुल 15-20 बार करें।

ओम का उच्चारण: तेज आवाज में ओम का उच्चारण करें। कुल 10-11 बार करें।

इसके अलावा जब भी मुमकिन हो, शंख बजा सकते हैं। साथ ही गुब्बारा फुलाएं। इससे फेफड़ों और जीभ की मसल्स की ताकत बढ़ती है। शंख मुद्रा बनाएं: शंख मुद्रा से हकलाने और तुतलाने में फायदा मिलता है। यह मुद्रा कैसे बनाएं, इस विडियो से सीख सकते हैं: y2u.be/HPwYHW-OK7M

नोट: जब भी मुमकिन हो, शंख बजा सकते हैं। साथ ही गुब्बारा फुलाएं। इससे फेफड़ों और जीभ की मसल्स की ताकत बढ़ती है।

तुतलाने और हकलाने में फर्क
तुतलाने और हकलाने के इलाज के लिए आमतौर पर दवाएं नहीं दी जातीं। सारा दारोमदार थेरपी पर रहता है। जरूरत पड़ने पर सर्जरी भी की जाती मसलन अगर जीभ की शेप और साइज गड़बड़ है तो सर्जरी की जाती है लेकिन ऐसा कम ही मामलों में होता है।

हकलाना
रुक-रुक कर बोलना, एक ही शब्द को बार-बार बोलना, तेज बोलना, बोलते हुए आंखें भींचना, होठों में कंपकपाहट होना, जबड़े का हिलना आदि।
तुतलाना
उच्चारण की समस्या होना और साफ नहीं बोल पाना। 'र' को 'ड़' या 'ल' बोलना आदि।

क्या है वजह
हकलाना
बोलने में काम आनेवाली मसल्स व जीभ पर कंट्रोल न होना
जनेटिक वजहें, मसलन पैरंट्स को है तो बच्चों में होने की आशंका
न्यूरोलॉजिकल वजहें यानी दिमाग के लेफ्ट साइड में कुछ गड़बड़ी होना
इन्वाइरन्मेंटल वजहें यानी किसी खास सिचुएशन में हकलाना मसलन फोन पर या इंटरव्यू में या फिर किसी का नाम या एड्रेस पर या फिर किसी शख्स को देखकर
नर्वस होने या एक्साइटमेंट में जीभ पर से कंट्रोल खोना
टेंशन, कमजोरी, डर, थकान या अपसेट होने पर भी हकलाहट बढ़ जाती है।

तुतलाना
टंग टाई यानी जीभ का नीचे ज्यादा चिपके रहना
सुनने में दिक्कत से सही शब्द नहीं समझ पाना।
आईक्यू कम होना
आदतन, मसलन बच्चा तुतलाकर बोलता है और बड़े लोग भी प्यार में वैसे ही बोलने लगते हैं तो बच्चे और ज्यादा तुतला कर बोलने लगता है।
खुद कैसे करें सुधार

सांस लेना सीखें
हकलाने वाले लोगों की एक बड़ी समस्या, यह जानना होती है कि पढ़ते और बोलते समय सांस कब ली जाए। हकलाहट कम करने के सबसे बढ़िया तरीकों में से एक है सांसों को रेग्युलेट करना। सांस लेने की एक्सरसाइज करने से आवाज वापस पाने में बहुत सहायता मिल सकती है। जब आप बोलें और अगर हकलाएं, तो सांस लेना याद रखें। जो लोग हकलाते हैं, वे अक्सर हकलाहट शुरू होते ही सांस लेना भूल जाते हैं। रुकें और खुद को सांस लेने के लिए कुछ समय दें। कल्पना करें कि आप पानी में डुबकी लगाने जा रहे हैं और आपको डुबकी लगाने से पहले गहरी सांसें लेना जरूरी है। इससे सांस को नियमित करने में मदद मिलती है।

रिद्मिक तरीके से बोलें

रिद्मिक तरीके से बोलना काफी फायदेमंद साबित होता है। मसलन मे----रा---- ना---म--- यानी शब्दों को लंबा खींचकर बोलें। इससे हकलाने की समस्या में काफी राहत होती है।


खुद कैसे करें सुधार...

धीरे बोलें
बहुत तेज बोलने की बजाय धीरे-धीरे बोलने की आदत डालें। बोलने में स्पीड रेकॉर्ड बनाने की कोशिश न करें। आपका मकसद तेज बोलना नहीं, अपनी बात को ऐसे कहना होना चाहिए कि उसे समझा जा सके। जल्दी-जल्दी बोलने से हकलाहट बढ़ जाती है। इससे बचने के लिए धीरे-धीरे और रिलैक्स होकर बोलें। बोलने से पहले मन में सोच लें कि आप क्या बोलना चाहते हैं। फिर बोलें।

बोलकर पढ़ें
किसी किताब या अखबार को बोल-बोल कर पढ़ें। इस दौरान आप जो बोल रहे हैं, उस पर ध्यान दें। शुरू में तो यह मुश्किल लगेगा, लेकिन धीरे-धीरे आसान लगने लगेगा। कोशिश करें कि हाथ में लिए हुए कागज में, सही जगहों पर रुक कर सांस लेने के लिए, निशान लगा लिया जाए। इससे आप और बेहतर तरीके से बोल पाएंगे। अगर ऐसा करने का अवसर न मिले तो हर पंक्चुएशन पर, रुक कर सांस ले ली जाए।

शीशे के सामने बोलें
शीशे के सामने खड़े होकर बोलने की प्रैक्टिस करें। शीशे के सामने खड़े हो जाएं और सोचें कि शीशे में दिखने वाला शख्स कोई और है। फिर किसी भी विषय पर बात शुरू करें, मसलन आपका दिन कैसा रहा, आप क्या खाएंगे आदि। आप पाएंगे कि आपकी हकलाहट गायब हो रही है। यह सच है कि शीशे के सामने बात करना किसी से आमने-सामने बात करने से अलग है लेकिन इस तरह प्रैक्टिस करने से आत्मविश्वास बढ़ता है। जब आप किसी से बात करने की तैयारी करें, तो याद रखें कि आपने शीशे के सामने कितनी अच्छी तरह से बोला था। यह आपका आत्मविश्वास बढ़ाएगा। रोजाना खुद से 30 मिनट बातें करने की कोशिश करें।

मन को शांत करें
बोलने से पहले खुद को तैयार करें। गहरी सांस लें, शरीर को रिलैक्स करें और हकलाहट के बारे में बिल्कुल न सोचें। छोटी-छोटी बातों पर परेशान न हों। सोचें कि गलतियां तो सभी से होती हैं। बस, उन्हें सुधारने की जरूरत है। कहने से पहले, अपने शब्दों को याद कर लें। बातों के बीच-बीच में ठहराव लाएं, ताकि जब आप बोलें, तो अपने शब्दों को बीच-बीच में सोच भी सकें। बातें शुरू करने से पहले ही बहुत आगे की न सोचें। अपनी बात को साफ कर दें।

पहले से सोचें नहीं
कई बार लोग किसी से मिलना है तो 'क्या बोलना है' इसकी तैयारी करने लगते हैं लेकिन इससे हकलाहट बढ़ती है। ज्यादातर वक्त आप जैसा बोलते हैं, वैसे ही बोलें। जरूरत से ज्यादा ध्यान न दें कि आप क्या बोलना चाहते हैं और कैसे बोलना है। ऐसा करेंगे तो आपकी घबराहट बढ़ जाएगी और उसके साथ हकलाहट भी।

प्रैक्टिस करें
आप कोई विषय लेकर उस पर बोलने की प्रैक्टिस करें। जब आपके पास शब्द होंगे तो आप बेहतर बोल पाएंगे। इस तरह बोलने की प्रैक्टिस को रुटीन बना लें। नियमित रूप से प्रैक्टिस करने से आपको नए शब्द मिलेंगे और बोलने में रवानगी भी बढ़ेगी।

खुद को तैयार करें

बोलने से कुछ सेकंड पहले अपने होंठ फड़फड़ाएं। सिंगर गाने से पहले इसी तरह से वार्म-अप करते हैं। जो शब्द आप बोलने जा रहे हैं, उसका चित्र अपनी कल्पना में लाएं। अगर आप शब्दों की कल्पना कर सकते हैं, तो वे आपके हो जाते हैं और फिर उन्हें बोलने में आपको दिक्कत नहीं होती। अगर आप उनकी कल्पना नहीं कर सकते, तब वे आपके हो ही नहीं सकते। इसके अलावा, अगर आपको कोई प्रेज़ेंटेशन देना हो तो उसकी तैयारी तो कर ही लें, प्रैक्टिस भी कर लें।

बॉडी लैंग्वेज का सहारा लें
हमारे बोलने में हाव-भाव की अहम भूमिका होती है। जब आप बोलें, तो शब्दों के साथ, हाथ चलाएं, कभी-कभी कंधे और भौहें आदि भी। इससे आप अपने शब्दों को अच्छी तरह समझा पाएंगे। हालांकि यह बहुत ज्यादा नहीं होना चाहिए वरना खराब लगेगा। अगर आप भाषण दे रहे हों, तो किसी की भी ओर सीधे न देखें। लोगों के सिरों के ऊपर देखें या कमरे में पीछे किसी बिंदु पर। इस तरह आप नर्वस नहीं होंगे और हकलाने का चेन रिएक्शन शुरू नहीं होगा। फिर आप बेहतर ढंग से अपनी बात रख पाएंगे।

पॉजिटिव सोचें

निराशावादी नहीं, आशावादी बनें। कभी-कभी हकलाने का डर हकलाहट का कारण बन जाता है। खुद को बताएं कि आप ठीक हो जाएंगे। इससे आपको होने वाली किसी भी परेशानी से निपटने में मदद मिलेगी। जब आप सोचते हैं कि आप हकलाएंगे, तब आप उसके होने की संभावना को बढ़ा देते हैं। दिमाग को रिलैक्स करें। खुद से यह न कहें कि यह जीने और मरने का सवाल है। हकलाहट से चिढ़ तो होती है, लेकिन यह दूसरों के लिए उतनी बड़ी समस्या नहीं है, जितनी आपके लिए।

सपोर्ट ग्रुप जॉइन करें

कोई सपोर्ट ग्रुप जैसे कि stuttering.supportgroups.com, dailystrength.org आदि भी जॉइन कर सकते हैं। दुनिया भर में हकलाहट के लिए सैकड़ों सपोर्ट ग्रुप हैं। इस तरह के सपोर्ट ग्रुप में शामिल होने का फायदा यह है कि कई तरह की नई जानकारियां मिलती हैं। साथ ही, अपने जैसे लोगों का साथ मिलने से कॉन्फिडेंस भी बढ़ता है।


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अंगदान: जिंदगी मिलेगी दोबारा

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एक दिन हम सभी को इस दुनिया को छोड़कर जाना है, लेकिन जाते-जाते अगर हम किसी दूसरे को जिंदगी दे जाएं तो इससे बड़ा पुण्य का काम कोई और नहीं हो सकता। अंगदान के जरिए हम दूसरों की जिंदगी रोशन कर सकते हैं। एक्सपर्ट्स से बात करके अंगदान पर पूरी जानकारी दे रही हैं प्रियंका सिंह:

एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. एस. के. सरीन, डायरेक्टर, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ बिलियरी सांइसेज़
डॉ. उपेंद्र कौल, डायरेक्टर, बत्रा हार्ट सेंटर, बत्रा हॉस्पिटल
डॉ. प्रो. प्रवीण वशिष्ठ, हेड, कम्यूनिटी ऑपथैमॉलजी, आर.पी. सेंटर, एम्स
डॉ. विपिन त्यागी, कंसल्टेंट, नेफ्रॉलजी, सर गंगाराम हॉस्पिटल
डॉ. महिपाल सचदेव, चेयरमैन, सेंटर फॉर साइट

डेढ़ साल की नन्ही अस्मिता खेलते-खेलते छत से गिर गई। डॉक्टरों की तमाम कोशिशों के बावजूद अस्मिता की जान नहीं बचाई जा सकी। अस्मिता की ब्रेन-डेथ हो गई। ब्रेन-डेथ का मतलब है कि मरीज का दिमाग काम करना बंद कर देता है लेकिन दिल धड़कता रहता है और पल्स भी चालू रहती है। जब डॉक्टर निश्चिंत हो गए कि अस्मिता को अब बचाया नहीं जा सकता तो उन्होंने उसके पैरंट्स को अंगदान के लिए मनाया। पैरंट्स की रजामंदी से अस्मिता की दोनों किडनी 43 साल के एक शख्स को लगा दी गईं, क्योंकि दो छोटी किडनी मिलकर एक बड़ी किडनी के बराबर काम कर सकती हैं। अस्मिता का लिवर साढ़े चार साल के एक बच्चे को लगाया गया। इस तरह अस्मिता दुनिया के जाने के बाद भी अपने पैरंट्स की समझ से दो जिंदगियों को बचा गई।

शाश्वती (19 साल) राजस्थान के कोटा में रहकर पढ़ाई कर रही थीं। जॉन्डिस से उनका लिवर फेल हो गया। वह लिवर ट्रांसप्लांट के लिए दिल्ली के आईएलबीएल में भर्ती हुईं। तमाम कोशिशों के बावजूद शाश्वती को लिवर डोनर नहीं मिला। इस बीच तबीयत खराब होने से शाश्वती का ब्रेन डेड हो गया। पैरंट्स ने शाश्वती की दोनों किडनी दान कर दीं। उन्होंने सोचा कि डोनर का इंतजार करते-करते उनकी बेटी की जान तो चली गई तो क्यों ना उसके अंग दान कर किसी और की जिंदगी बचा लें।

इन दो मामलों से कुछ बातें साफ हैं। पहली: अंगदान के लिए कोई उम्र नहीं होती। बेहद छोटी उम्र में भी अंगदान कर किसी को जिंदगी दी जा सकती है। दूसरी: अगर किसी के शरीर का कोई अंग खराब है और उसकी जान नहीं बचाई जा सकती तो उसके शरीर के बाकी अंग दूसरों की जान बचाने के काम आ सकते हैं। तीसरी: हमारे देश में लाखों लोग अंगदान के इंतजार में जान गंवा देते हैं लेकिन उन्हें डोनर नहीं मिल पाता क्योंकि लोगों में अंगदान को लेकर जागरुकता नहीं है। अकेले लिवर के मामले देखें तो देश में 100 मामलों में बमुश्किल एक लिवर डोनर ही मिल पाता है। इसी तरह हर साल करीब पौने दो लाख किडनी ट्रांसप्लांट की जरूरत होती है, जिसमें से करीब 6000 ट्रांसप्लांट ही हो पाती हैं। इनमें भी केडेवर (किसी के देहांत के बाद किया गया दान) के मामले ना के बराबर होते हैं। इसी तरह हर साल करीब 50 हजार हार्ट और 20 हजार लंग्स की जरूरत होती है, जिनमें से बमुश्किल ही कुछ मिल पाते हैं। ऐसे में जरूरी है कि हम लोग अंगदान की शपथ लें ताकि इस दुनिया से जाने के बाद किसी दूसरे की दुनिया को रोशन कर सकें।

क्या है अंगदान
अंगदान का मतलब है कि किसी शख्स से स्वस्थ अंगों और टिशूज़ को लेकर इन्हें किसी दूसरे जरूरतमंद शख्स में ट्रांसप्लांट कर दिया जाए। इस तरह अंगदान से किसी की जिंदगी बचाई जा सकती है। मोटे तौर पर एक शख्स के अंगदान से अधिकतम 50 जरूरतमंद लोगों की मदद हो सकती है। अंगदान देहांत के बाद और कभी-कभी जीवित भी होता है।

किन-किन अंगों का दान
1. आंखें - 2
2. किडनी - 2
3. हार्ट
4. लिवर
5. पैनक्रियाज़
6. छोटी आंत (इंटेस्टाइन)
7. फेफड़े (लंग्स)
8. त्वचा (स्किन)
नोट: यूं तो 8 अंगों या टिशू का दान होता है लेकिन एक डोनर से कुल 50 तरह के ट्रांसप्लांट होते हैं जैसे कि हड्डियां, हार्ट वॉल्व, हैंड आदि को भी ट्रांसप्लांट किया जाता है। हमारे देश में लंग्स, पैंक्रियाज़, इंटेस्टाइन के ट्रांसप्लांट एकाध ही होते हैं।

कितनी तरह का अंगदान
- एक होता है अंगदान और दूसरा होता है टिशू का दान। किडनी, लंग्स, लिवर, हार्ट, इंटेस्टाइन, पैंक्रियाज़ आदि तमाम अंदरूनी अंगों का दान अंगदान के तहत आता है। टिशू दान में आंख, हड्डी और स्किन का दान आता है।
- ज्यादातर अंगदान किसी शख्स की मौत के बाद होते हैं लेकिन कुछ अंग और टिशू इंसान के जिंदा रहते भी दान किए जा सकते हैं। इनमें सबसे कॉमन अंग है किडनी, क्योंकि दान करने वाला शख्स एक ही किडनी के साथ सामान्य जिंदगी जी सकता है। लंग्स और लिवर के भी कुछ हिस्से को जीवित शख्स दान कर सकता है। लिवर के पास फिर से खुद को तैयार करने की क्षमता होती है इसलिए एक छोटे हिस्से से ही पूरा लिवर तैयार हो सकता है।
- मरने के बाद किए जाने वाले अंगदान में सबसे कॉमन है आंखों का दान क्योंकि घर पर होने वाली सामान्य मौत के मामले में सिर्फ इन्हें ही दान किया जा सकता है। बाकी कोई भी अंग तभी दान किया जा सकता है, जब इंसान की ब्रेन डेथ हो गई हो और उसे वेंटिलेटर या लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर ले लिया गया हो।

सामान्य मौत और ब्रेन डेथ का फर्क
-सामान्य मौत में इंसान के सभी अंग काम करना बंद कर देते हैं। ज्यादातर मामलों में पहले दिल की धड़कन रुकती है, जिससे दिमाग और शरीर के बाकी हिस्सों में खून का बहाव रुक जाता है। इसे कार्डिएक डेथ कहा जाता है। ऐसे में आंखों को छोड़कर जल्दी ही उसके सभी अंग बेकार होने लगते हैं। यही वजह है कि घर पर होने वाली सामान्य मौत की हालत में सिर्फ आंखों का दान किया जा सकता है।

- ब्रेन डेथ तब होती है, जब किसी भी वजह से इंसान के दिमाग को चोट पहुंचती है और वह काम करना बंद कर देता है। इस चोट की मुख्य रूप से 3 वजहें हो सकती हैं: सिर में चोट (अक्सर ऐक्सिडेंट के मामले में ऐसा होता है), ब्रेन ट्यूमर और स्ट्रोक (लकवा आदि)। ऐसे मरीजों का ब्रेन डेड हो जाता है लेकिन बाकी कुछ अंग ठीक काम कर रहे होते हैं - मसलन हो सकता है दिल धड़क रहा हो, पल्स चल रही हो, ब्लड प्रेशर ठीक हो। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह शख्स जिंदा है या उसके जिंदा लौटने की कोई भी संभावना है। इसमें इंसान वापस नहीं लौटता।

- कुछ लोग कोमा और ब्रेन डेथ को एक ही समझ लेते हैं लेकिन इनमें फर्क है। कोमा में इंसान के ठीक होने के चांस होते हैं। यह मौत नहीं है लेकिन ब्रेन डेथ में ऐसा नहीं है। दरअसल, पहले कार्डिएक डेथ को ही मौत माना जाता था लेकिन अब ब्रेन डेथ को ही मृत्यु माना जाता है। अगर ब्रेन खत्म तो जिंदगी खत्म।
- आंखों के अलावा बाकी सभी अंगों का दान ब्रेन डेड होने पर ही किया जा सकता है। जब मरीज के ठीक करने की सारी कोशिशें नाकाम हो जाती हैं और इंसान ब्रेन डेड घोषित हो जाता है, तभी अंगदान के बारे में सोचा जाता है। ब्रेन डेड की स्थिति में कई बार मरीज के घरवालों को लगता है कि अगर मरीज का दिल धड़क रहा है या पल्स चल रही हैं तो उसके ठीक होने की संभावना है। ऐसे में डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित करके उसके अंगदान की बात कैसे शुरू कर दी। लेकिन यह गलत सोच है। ब्रेन डेड होने का मतलब यही है कि इंसान अब वापस नहीं आएगा और इसीलिए उसके अंगों को दान किया जा सकता है।

कौन कर सकता है
कोई भी शख्स अंगदान कर सकता है। उम्र का इससे कोई लेना-देना नहीं है। नवजात बच्चों से लेकर 90 साल के बुजुर्ग तक अंगदान कर सकते हैं। हालांकि 18 साल से 65 साल तक की उम्र में अंगदान करना ज्यादा सही है। 18 साल से कम उम्र के बच्चों को अंगदान के लिए फॉर्म भरने से पहले अपने मां-बाप की इजाजत लेना जरूरी है। जहां तक जीवित शख्स के अंगदान (किडनी या लिवर) की बात है तो करीबी रिश्तेदार ही दान कर सकते हैं। इनमें माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, बच्चे शामिल हैं। अगर इनमें से कोई डोनर नहीं हो सकता तो कुछ और रिश्तेदार भी दान कर सकते हैं। इनमें दादा-दादी, नाना-नानी, मामा, मौसी, चाचा, ताऊ, पोता-पोती, चचेरे-ममेरे भाई-बहन आदि शामिल हैं। इन मामलों में रिश्ता साबित करने के अलावा यह भी साबित करना होता है कि दोनों के बीच में प्यार और आत्मीयता का गहरा संबंध है। साथ ही, इसमें पैसे का कोई लेन-देन शामिल नहीं है। इनमें से भी अगर कोई लालच या किसी चीज के बदले अंगदान कर रहा है तो वह गैरकानूनी है। मसलन किसी ने अपने भाई से कह दिया कि आप मुझे किडनी दे दें, मैं अपनी इतनी प्रॉपर्टी आपके नाम कर दूंगा, तो ऐसे कॉन्ट्रैक्ट गैरकानूनी हैं। ज्यादातर बड़े अस्पतालों में एक ट्रांसप्लांट ऑथराइजेशन कमिटी होती है, जिसमें डॉक्टर, वकील, सोशल ऐक्टिविस्ट आदि होते हैं। यह कमिटी तय करती है कोई व्यक्ति अपने किसी रिश्तेदार को अंगदान कर सकता है या नहीं। अगर अस्पताल में यह कमिटी नहीं है तो जिला या राज्य स्तर की ऑथराइजेशन कमिटी को संपर्क करना होता है।

कौन नहीं कर सकता
हैपेटाइटिस सी और बी, कैंसर, एड्स या एचआईवी, सिफलिस और रैबीज़ जैसी इन्फेक्शन वाली बीमारी से पीड़ित लोग अंगदान नहीं कर सकते। इसके अलावा अगर किसी की मौत टायफॉयड से हुई है तो भी अंगदान नहीं कर सकते क्योंकि उसके शरीर में वायरस मौजूद होगा। यानी अंगदान के लिए शरीर का वायरस-फ्री होना बहुत जरूरी है।

कैसे होता है
जिन लोगों की ब्रेन डेथ हो जाती है, उन्हें डॉक्टर वेंटिलेटर पर ले लेते हैं। फिर डॉक्टरों का एक पैनल पुष्टि करता है कि उसकी ब्रेन डेथ हो चुकी है। इसके लिए ईईजी (EEG) टेस्ट कर दिमाग की जांच की जाती है। इसके आधार पर कुछ समय बाद एक बार फिर पुष्टि की जाती है। इसके बाद घरवालों की इच्छा से और कानूनी प्रक्रिया पूरी करने के बाद मरने वाले के शरीर से अंगों को निकाल लिया जाता है। यह प्रक्रिया मरने के बाद जल्द-से-जल्द शुरू कर दी जाती है। इन अंगों को डॉक्टर जल्द-से-जल्द किन्हीं ऐसे मरीजों में ट्रांसप्लांट कर देते हैं, जिन्हें पहले से इनकी जरूरत रही हो। अंग प्रत्यारोपण करने वाले अस्पतालों के पास एक वेटिंग लिस्ट होती है। उसके हिसाब से जिस मरीज का नंबर होता है, उसमें अंग को लगा दिया जाता है। अंग लगाते वक्त मैचिंग के लिए ब्लड ग्रुप और दूसरे कई टेस्ट किए जाते हैं। अगर सब कुछ ठीक है तो अंग लगा दिया जाता है और अगर मैचिंग नहीं होती तो वेटिंग लिस्ट के अगले मरीज के साथ उसे मैच किया जाता है।

अंग कितने समय तक रहता है सही
डोनर की बॉडी से जितना जल्दी हो सके, अंगों को निकाल लेना चाहिए। निकालने के बाद 6 से 12 घंटे के अंदर अंगों का ट्रांसप्लांट हो जाना चाहिए। जितना जल्दी ट्रांसप्लांट होगा, उस अंग के काम करने की क्षमता और संभावना उतनी ही ज्यादा होगी। हर अंग को ट्रांसप्लांट किए जाने के लिए की टाइम लिमिट है:
- लिवर: 6 घंटे के अंदर
- किडनी: 12 घंटे के अंदर
- लंग्स: 4 घंटे
- हार्ट: 4 घंटे
- पैंक्रियाज़: 6 घंटे
- आंखें: 3 दिन के अंदर

आंखों का दान
- - कोई भी किसी भी उम्र में आंखों का दान कर सकता है। जीवित शख्स आंखें दान नहीं कर सकता। देश में हर साल करीब 2 लाख आंखों की जरूरत होती है और नैशनल प्रोग्राम फॉर कंट्रोल ऑफ ब्लाइंडनेस (NPCB) के जरिए हर साल 55 से 60 हजार आंखें मिल जाती हैं लेकिन समस्या यह है कि इनमें से करीब 40 फीसदी ही ट्रांसप्लांट हो पाती हैं। बाकी की क्वॉलिटी ट्रांसप्लांट के लायक नहीं होती इसलिए उनका इस्तेमाल रिसर्च आदि में किया जाता है।
- अगर आपकी नजर कमजोर है, चश्मा लगाते हैं, मोतियाबिंद या काला मोतिया का ऑपरेशन हो चुका है, डायबीटीज के मरीज हैं तो भी आप आंखें दान कर सकते हैं। यहां तक कि जिनको रेटिनल या ऑप्टिक नर्व से संबंधित बीमारी है, लेकिन कॉर्निया ठीक है, वे भी आंखें दान कर सकते हैं।
- रैबीज, सिफलिस, हैपेटाइटिस या एड्स जैसी इन्फेक्शन वाली बीमारियों की वजह से जिन लोगों की मौत होती है, उनकी आंखें दान नहीं की जा सकती।
- मौत के 6 घंटे के अंदर आई-बैंक वाले बॉडी से आंखों को ले लेते हैं। मृत शरीर के अंदर से आंखें लेने में इससे ज्यादा देर नहीं होनी चाहिए। इसके लिए मौत के बाद करीबी लोगों को आई-बैंक को फौरन सूचित करना जरूरी है।
- पूरी आंख के बजाय सिर्फ कॉर्निया ही निकाला जाता है। इससे देखने में आंखें पहले जैसी ही लगती हैं। आजकल ऐसी तकनीक आ गई है, जिससे एक कॉर्निया के अलग-अलग हिस्से कर 2-3 लोगों में लगा दिया जाता है यानी एक शख्स की आंखों से 4-5 लोगों की जिंदगी रोशन हो सकती है।
- जब तक आई बैंक वाले आएं, तब तक मरने वाले की दोनों आंखों को बंद कर देना चाहिए और आंखों पर गीली रुई रख देनी चाहिए। मुमकिन हो तो कोई ऐंटिबायॉटिक आई-ड्रॉप (Ciplox, Vigamox आदि) या लुब्रिकेटिंग आई-ड्रॉप (Tear Plus, Refresh Tears आदि) आंखों में डाल दें। इससे इन्फेक्शन का खतरा नहीं होगा। सिर के हिस्से को 6 इंच ऊपर उठाकर रखना चाहिए और पंखा बंद रखना चाहिए।
दूसरों को आंख लगाना
- आंख से निकालने के बाद आई-बैंक वाले कॉर्निया को एक खास सल्यूशन में रखते हैं, वह कुछ दिन सुरक्षित रहता है। आजकल 15-20 दिन भी कॉर्निया सुरक्षित रखा जा सकता है। हालांकि जितना जल्दी ट्रांस प्लांट कर दिया जाए, उतना अच्छा है। तीन दिन के अंदर लगाना अच्छा माना जाता है।
- कॉर्निया किसे लगाया जा रहा है, यह डोनर के घरवालों को नहीं बताया जाता और न ही जिसे लगाया जा रहा है, उसे यह सूचना दी जाती है कि किसकी आंख उसे लगाई गई है।
- यह आंख कॉर्नियल ट्रांसप्लांटेशन के जरिए किसी की आंख में रोशनी ला सकती है। कॉर्नियल ट्रांसप्लांट के 90 फीसदी से भी ज्यादा मामलों में कॉर्नियल अंधेपन की वजह से पीड़ित लोगों की रोशनी वापस आ जाती है।
- चूंकि कॉर्निया में ब्लड वेसल्स नहीं होतीं इसलिए इसे किसी को भी लगाया जा सकता है। लगाने से पहले मरीज के साथ मैचिंग करने की जरूरत नहीं होती।

कहां संपर्क करें
अंगदान के लिए
- वेबसाइट notto.nic.in पर जाकर या 24x7 हेल्पलाइन नंबर 180-0114-770 पर कॉल कर अंग दान कर सकते हैं। यह सरकारी ऑर्गनाइजेशन है, जो अंग दान और ट्रांसप्लांट को प्रोत्साहन देता है। - एम्स की वेबसाइट पर खुद को अंगदान के लिए रजिस्टर करा सकते हैं। इसके लिए aiims.edu/aiims/orbo/form पर जाएं या कॉल सेंटर नंबर 011-6590-0669 पर कॉल करें।
- वेबसाइट dehdan.org पर जाकर भी अंगदान कर सकते हैं। इनका हेल्पलाइन नंबर है 098101-27735
- वेबसाइट donatelifeindia.org पर जाकर भी अंगदान का फॉर्म भर सकते हैं। हेल्पलाइन नंबर है 079-6618-9000, जोकि 24x7 घंटे काम करता है।
- वेबसाइट mohanfoundation.org पर जाकर भी अंगदान कर सकते हैं। हेल्पलाइन नंबर है 180-0103-7100, जोकि 24x7 घंटे चालू रहती है।
आंखें दान करने के लिए
- नैशनल आई-बैंक, एम्स, दिल्ली। वेबसाइट: aiims.edu/en/national-eye-bank
- वेणु आई इंस्टिट्यूट ऐंड रिसर्च सेंटर। फोन: 011-2925-0952
- गुरु गोबिंद सिंह इंटरनैशनल आई-बैंक। फोन: 011-2254-2325
- गुरु नानक आई सेंटर। फोन: 011-2323-4612

कहां है दिक्कत
स्पेन और दूसरे कई विकसित देशों में नियम है कि अगर किसी को अंग दान नहीं करना तो उसे लिखकर देना होता है, वरना ब्रेन डेथ की स्थिति में उसके अंगों को जरूरतमंदों को लगा दिया जाता है। हमारे यहां इसका उलटा है। अगर कोई दान करना चाहता है तो उसे रजामंदी देनी होती है और ऐसे लोग भी विरले ही हैं। इसके अलावा, अगर डोनर के करीबी परिजन अगर इनकार कर दें तो भी दान नहीं हो सकता। अक्सर परिजन अंग दान करने से इनकार भी कर देते हैं जबकि अपने किसी करीबी या चहेते को जिंदा रखने की सही तरीका यही है कि उसका डीएनए या अंग किसी दूसरे में जिंदा रहे वरना तो उसकी हर निशानी उसी के साथ खाक हो जाएगी। यही नहीं, दूरदराज के इलाकों में तो सुविधा के अभाव की वजह से ही कई बार अंग दान मुमकिन नहीं हो पाता।

आप क्या करें
अंगदान सबसे बड़ा दान है क्योंकि इसकी मदद से इंसान कई जिंदगियों को जीवन दान देता है। इसलिए तय करें कि आपको अंगदान करना है। इसके लिए दो तरीके हो सकते हैं। कई एनजीओ और अस्पतालों में अंगदान से संबंधित काम होता है। इनमें से कहीं भी जाकर आप एक फॉर्म भरकर दे सकते हैं कि आप मरने के बाद अपने इस-इस अंग को दान करना चाहते हैं। आप जो-जो अंग चाहेंगे, सिर्फ वही अंग लिया जाएगा। आप सभी या कोई एक अंग दान कर सकते हैं। संस्था से आपको एक डोनर कार्ड मिल जाएगा, लेकिन इस कार्ड की कोई लीगल वैल्यू नहीं होती। इसके बाद अपने निकटतम संबंधियों को इस बारे में जानकारी दे दें कि मैंने अपने इन-इन अंगों को दान कर दिया है और मेरे मरने के बाद उन्हें इस काम को पूरा करना है। अगर आप फॉर्म नहीं भरते हैं, तो भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता। बस अपने निकटतम लोगों को अपनी इच्छा बताकर रखें। मौत हो जाने पर अंगदान की जिम्मेदारी आपके संबंधियों पर होगी क्योंकि उन्हें ही कॉल करनी है। अगर आपने फॉर्म नहीं भी भरा है तो भी अंगदान हो जाएगा। आपके फॉर्म भरने के बाद भी अगर संबंधी न चाहें तो अंगदान मुमकिन नहीं है। इसलिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि अपनी इच्छा के बारे में अपने निकटतम संबंधियों को बताकर रखा जाए कि आप कौन-कौन से अंगों का दान करना चाहते हैं। आंखों के अलावा दूसरे अंगों के दान के लिए परिवारजनों को कहीं भी कॉल करने की जरूरत नहीं है क्योंकि बाकी अंगों का दान होगा ही तब, जब मरीज की ब्रेन डेथ अस्पताल में हुई होगी और डॉक्टरों ने उसे फौरन जीवन बचाने वाले यंत्रों पर ले लिया होगा। अंगदान करते वक्त परिजनों का कोई खर्च नहीं होता।

मिथ मंथन
आंखें दान की तो अगले जन्म में अंधे पैदा होंगे।
अक्सर लोगों बात करते हैं कि इस जन्म में आंख दान करेंगे तो अगले जन्म में अंधे होकर पैदा होंगे। यह पूरी तरह अंधविश्वास है। वैसे भी आंखें समेत शरीर के सारे अंग तो चिता में जल जाएंगे या मिट्टी में दफन हो जाएंगे। इसी तरह अगर कोई किडनी या दिल दान कर देता है तो क्या अगले जन्म में वह बिना किडनी या दिल के पैदा होगा? क्या ऐसा मुमकिन है? यह सोच ही हास्यास्पद है। कई बार लोग धार्मिक आस्थाओं के कारण अंगदान करने से बचते हैं, लेकिन तमाम धर्म-आध्यात्मिक गुरु भी इस बात को कह चुके हैं कि अंगदान करना एक बड़े पुण्य का काम है क्योंकि इससे आप एक मरते हुए शख्स को जिंदगी दे रहे हैं और किसी को जिंदगी देने से बड़ा पुण्य भला क्या होगा!
अंग निकालते हुए पूरे शरीर की चीर-फाड़ कर डालते हैं।
इस काम को करते वक्त बॉडी में सिर्फ एक चीरा लगाया जाता है और उसी से अंग निकाल लिए जाते हैं। इस पूरे काम में बॉडी को पूरे सम्मान के साथ रखा जाता है और बाद में उसे साफ करके परिजनों को दे दिया जाता है। डॉक्टरों का कहना है कि जो शख्स अंग दान करता है वह सिर्फ एक शरीर भर नहीं होता, बल्कि एक डोनर होता है क्योंकि किसी की जान बचा रहा होता है इसलिए उसे पूरा सम्मान और तवज्जो दी जाती है।

दिल की धड़कन बंद होने पर ही होती है मौत।
कई बार दिमाग में चोट लगने से दिमाग काम करना बंद कर देता है जबकि दिल धड़कता रहता है या फिर पल्स भी चल रही होती हैं लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि वह शख्स जिंदा है। बल्कि ऐसी स्थिति में उसके अंग काम कर रहे होते हैं और जिन्हें दूसरों के इस्तेमाल किया जा सकता है। दिल की धड़कन बंद होना ही मौत ही निशानी नहीं है।

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जूते हैं शान से...

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किसी ने सही कहा है कि अगर किसी की फैशन की समझ जाननी हो तो उसके जूतों को देखो। जैसे सही वक्त पर सही बात करना जरूरी है, ठीक वैसे ही किसी भी ड्रेस के साथ सही वक्त पर सही जूते पहनना भी जरूरी है। एक्सपर्ट्स के सहारे आपके लिए हम लेकर आए हैं जूतों की पाठशाला...

कितने तरह के जूते
मूल रूप से जूतों को 3 कैटगिरी में बांटा जा सकता है:

1. फॉर्मल शूज़
इन जूतों में बेहतर क्वॉलिटी का लेदर इस्तेमाल होता है और इनकी पहचान इनकी चमकदार नोक होती है। इसमें शामिल हैं:



ऑक्सफर्ड: सूट के साथ पहने जाने वाले इन जूतों को फीतों के जरिए पंजों पर कसा जाता है। इनमें फीते 5-6 छेदों से होकर गुजरते हैं। जूते की नोक पर अलग से चमड़ा लगा होता है, जिसे ‘टो कैप’ कहते हैं।

डर्बी: लुक्स के मामले में तो ये ऑक्सफोर्ड की तरह ही हैं लेकिन इनमें फीते सिर्फ 2 जोड़ी छेदों से होकर भी गुजरते हैं। ये ऑक्सफर्ड के मुकाबले कुछ कम फॉर्मल होते हैं और पैंट-शर्ट पर बिना कोट के टाई पहनते वक्त पहने जा सकते हैं।

ब्रॉग: इन जूतों को खास बनाता है इनकी नोंक पर लगा छेद वाला डिजाइनदार पैच। इन जूतों में एक कलर या अलग-अलग तरह के टेक्स्चर और कलर वाले ऑप्शन भी आते हैं। ये डर्बी से कम फॉर्मल होते हैं और पार्टी में पहने जाते हैं।

मॉन्क: इन जूतों में फीते नहीं होते। एक स्ट्रैप राइट से लेफ्ट की तरफ बंद होता है। इसकी नोक नुकीली होती है और ये सूट के साथ पहने जाते हैं।

लॉफर्स: इन्हें स्लिप ऑन भी कहते हैं। ऐसा कहने का कारण है फीते न होने की वजह से इन्हें फटाफट पहनने और उतारने की आजादी। इनके ऊपर की तरफ डिजाइन के लिए बूटियां लगी रहती हैं। इसे चीनोज़ (कॉटन कैजुअल पैंट) या सेमी फॉर्मल पैंट के साथ पहना जाता है।

2. कैज़ुअल शूज़
स्नीकर: लेदर या दूसरे फैब्रिक से बने इन जूतों की नोंक कुछ छोटी होती है और फीते 6-7 छेदों से होकर गुजरते हैं। इन्हें चीनोज़, शॉर्ट्स और जींस के साथ पहना जा सकता है। ये लेदर और कपड़े, दोनों ऑप्शन में आते हैं। इसी कैटगिरी में स्लिप-ऑन स्नीकर भी आते हैं, जिनमें फीते नहीं होते और जो ज्यादा रंगबिरंगे होते हैं। इन्हें भी जींस या शॉर्ट्स के साथ ही पहनते हैं।

बोट: जैसा कि इनके नाम से ही पता चल रहा है कि इनकी शक्लो-सूरत नाव से मिलती-जुलती है। ये लेदर और कपड़े, दोनों ही ऑप्शन में आते हैं और बिना मोज़े के पहने जाते हैं। कैजुअल पैंट्स और शॉर्ट्स के साथ इन्हें पहना जाता है।

एस्पाड्रिल्स: ये कपड़े के होते हैं और इनमें फीते नहीं होते। इन्हें गर्मियों में शॉर्ट्स के साथ पहना जाता है।

बूट: रफ-टफ लुक्स और हाइकिंग या ट्रेकिंग जैसी ऐक्टिविटी के लिए बूट्स काफी मुफीद होते हैं। अमूमन ये ऐसे लेदर के बने होते हैं जिन पर पानी, धूल-मिट्टी और खरोचों का असर नहीं पड़ता। अपनी बनावट और स्टाइल के हिसाब से बूट्स में चुक्का, चेलसी, काऊबॉय, रशियन जैसे बूट आते हैं।

बूट्स को ज्यादातर जींस के साथ ही पहना जाता है। ड्रेस बूट्स और फैशन बूट्स जरूर फॉर्मल कपड़ों के साथ पहने जाते हैं।

लेडीज़ में भी बूट्स काफी पॉपुलर हैं। लेडीज़ में एंकल बूट, नी हाई, काऊबॉय, ग्लेडिएटर और चेलसी बूट्स काफी पॉप्युलर हैं।

3. स्पोर्ट्स
वैसे तो हर खेल के हिसाब से जूते पहने जाते हैं लेकिन फिर भी अमूमन 2 तरह के स्पोर्ट्स शूज़ ही ज्यादा पहने जाते हैं:

1. रनिंग शूज़: इन जूतों को भागने-दौड़ने के लिए डिजाइन किया जाता है। इन्हें डिजाइन करते वक्त इस बात का ध्यान रखा जाता है कि जूते का सोल लचीला और मुलायम हो। चूंकि ये जूते पैदल चलने में काफी आराम देते हैं इसलिए रोजमर्रा में भी इसे पहनना अच्छा रहता है। इन्हें जींस, स्पोर्ट्स ट्राउज़र्स और शॉर्ट्स के साथ पहना जाता है। किसी भी तरह की पैंट के साथ इन्हें न पहनें।

2. ट्रेनिंग शूज़: देखने में भले ही ये रनिंग शूज़ की तरह लगें लेकिन इन्हें जिम में रनिंग के अलावा दूसरी ऐक्टिविटी के लिए बनाया गया है। जहां रनिंग शूज़ को आगे-पीछे के मूवमेंट के लिहाज से डिजाइन किया जाता है, वहीं ट्रेनिंग शूज़ को चौतरफा मूवमेंट के लिहाज से बनाया जाता है। इसका सोल कम लचीला और मुलायम होता है जिससे ये वेटलिफ्टिंग और तगड़ी फिजिकल ऐक्टिविटी को झेल सकें। रनिंग शूज़ में पंजे और एड़ी जमीन से कम छूती है, जबकि ट्रेनिंग शूज़ का सोल जमीन पर पूरी पकड़ देता है। इन्हें भी जींस, स्पोर्ट्स ट्राउजर्स और शॉर्ट्स के साथ पहना जाता है। किसी भी तरह की पैंट के साथ इन्हें न पहनें।

नोट: लेडीज़ के लिए भी स्पोर्ट्स शूज़ मार्केट में आते हैं जो कमोबेश जेनट्स स्पोर्ट्स शूज की तरह ही होते हैं।

महिलाओं के लिए शूज़
इन्हें भी कई कैटगिरी में बांटा जा सकता है लेकिन मूलरूप से ये 5 तरह के होते हैं:




हाई हील: जैसा कि नाम से ही पता चल जाता है, इन शूज़ की एड़ी ऊंची होती है। इनमें भी कई तरह की हील्स आती हैं जैसे किटेन, स्टैलेटो, प्रिज्म, पपी, स्पूल, वेज आदि। इनमें किटेन और स्टैलेटो अपने हील साइज की वजह से ज्यादा खास हैं। किटेन हील की ऊंचाई ज्यादा-से-ज्यादा 2 इंच या 5 सेमी होती है जबकि स्टैलेटो 2 से शुरू होकर 4 इंच तक जाती है। ये ज्यादातर फॉर्मल मौकों पर ही पहने जाते हैं।

म्यूलेस: इन जूतों में खासियत है कि ये पीछे से कवर नहीं होते। इन्हें आप बैकलेस शूज़ भी कह सकते हैं। अपने जमाने में इन्हें मशहूर हॉलिवुड स्टार मार्लिन मुनरो ने काफी पॉपुलर बनाया था। इन्हें ज्यादातर स्कर्ट्स के साथ पहना जाता है।

स्लिंगबैक्स: ये जूते हील्स के ऊपर एक स्ट्रैप के जरिए पैरों को पीछे की ओर से बांधे रखते हैं। इन्हें स्कर्ट और कैप्री के साथ-साथ जींस और फॉर्मल पैंट्स के साथ भी पहना जा सकता है।

बैलेरिना या बैलीज़: ये आगे से ढके और बहुत कम हील्स वाली होती हैं। ये आगे से खुली और बंद, दोनों ही स्टाइल में आती हैं। इन्हें कैजुअल और फॉर्मल दोनों की मौकों पर पहना जाता है। डिजाइन और मटीरियल के अनुसार इन्हें फॉर्मल या कैजुअल कैटिगरी में बांटा जाता है। मसलन कपड़े वाली बैलीज़ कैजुअल और लेदर या रैक्सीन वाली फॉर्मल होती हैं। इनमें हील और फ्लैट, दोनों ऑप्शन मिलते हैं।

कोर्ट शूज़ः इन्हें पंप शूज़ भी कहते हैं। इनका लुक आगे से बैलीज़ की तरह लगता है लेकिन इनकी हील्स इन्हें अलग बनाती हैं। 2 इंच या इससे ज्यादा की हील्स होने की वजह से ज्यादातर इन्हें फॉर्मल कपड़ों के साथ ही पहना जाता है।

फ्लैट्स, क्रॉक्स, कोल्हापुरी, रेन या बीच शूज़ भी काफी पॉप्युलर हैं।

साइज फिट तो जूते हिट

हम कितने भी अच्छे दिखने वाले या ड्रेस के साथ मैच करने वाले जूते खरीद लें लेकिन अगर उनका साइज परफेक्ट नहीं है तो मज़ा फीका हो जाता है। ऐसे में सही शू साइज जानना बहुत जरूरी है। यह जानने के लिए कुछ गणित लगाना पड़ेगा। आइए जानते हैंः

- एक पेपर पर अपना पैर रखें और उसके चारों और पेंसिल से आउटलाइन बनाएं।
- अब इस शेप को स्केल के जरिए चारों तरफ से सीधी लाइनों से ढकें।
- लंबी और छोटी, दोनों ही लाइनों को इंच के हिसाब से नोट करें।
- अब इनमें से 3/16 घटा लें। ऐसा करने का कारण है कि जो लाइनें हम अपने पैरों के शेप के आसपास खींचते हैं, उन्हें कम करना पड़ता है।
- अब जो नंबर आपको मिला है, वही आपका शू साइज है। सही साइज जानने के लिए इस टेबल का इस्तेमाल कर सकते हैं।

महिलाओं के लिए साइज
- 4 = 20.8 सेमी (8.2 इंच)
- 4.5 = 21.3 सेमी (8.4 इंच)
- 5 = 21.6 सेमी (8.5 इंच)
- 5.5 = 22.2 सेमी (8.7 इंच)
- 6 = 22.5 सेमी (8.9 इंच)
- 6.5 = 23 सेमी (9.1 इंच)
- 7= 23.5 सेमी (9.3 इंच)
- 7.5 = 23.8 सेमी (9.4 इंच)
- 8 = 24.1 सेमी (9.5 इंच)

पुरुषों के लिए साइज
6 = 23.8 सेमी (9.4 इंच) in length
6.5 = 24.1 सेमी (9.5 इंच)
7 = 24.4 सेमी (9.6 इंच)
7.5 = 24.8 सेमी (9.8 इंच)
8 = 25.4 सेमी (10.0 इंच)
8.5 = 25.7 सेमी (10.1 इंच)
9= 26 सेमी (10.2 इंच)
9.5 = 26.7 सेमी (10.5 इंच)
10 = 27 सेमी (10.6 इंच)
10.5 = 27.3 सेमी (10.7 इंच)
11 = 27.9 सेमी (11.0 इंच)
11.5 = 28.3 सेमी (11.1 इंच)
12 = 28.6 सेमी (11.3 इंच)

इन बातों का भी रखें ध्यान
- जूते का साइज दोपहर के बाद नापें क्योंकि रात में रेस्ट करने की वजह से साइज में फर्क आ जाता है। जब हम कुछ घंटे चल लेते हैं तब साइज बढ़ जाता है।
- जब स्टोर में जूते खरीदने जाएं तो वैसे ही मोजे पहन कर जाएं जैसे अक्सर पहनते हैं। अगर पहन कर नहीं गए हैं तो स्टोर से ही मांग कर पहन लें।
- पैरों का साइज पूरी उम्र बदलता रहता है। बेहतर होगा हर बार खरीदने से पहले स्टोर में साइज चेक कर लें।
- अमूमन एक पैर दूसरे से कुछ बड़ा होता है। ऐसे में बड़े पैर के साइज के जूते खरीदें।
- पैर के अंगूठे और जूते की नोक में कम-से-कम आधा इंच का स्पेस होना चाहिए। अगर जूते की नोक के दबाने पर आपको अपनी कोई उंगली महसूस नहीं हो रही है तो इसका मतलब है कि साइज काफी ज्यादा है। अगर अंगूठा जूते से लगातार टकरा रहा है तो इसका मतलब है कि जूता टाइट है।
- जूते की लंबाई के अलावा इसकी चौड़ाई पर भी ध्यान दें। कई लोगों के पैर चौड़े होते हैं, ऐसे में साइज आधा इंच बढ़ा लें।
- खरीदने से पहले दोनों पैरों के जूते फीते कस कर पहनें और स्टोर में कम-से-कम 10 कदम चल कर देखें। पैर जहां पर मुड़ता है, वहां की फिटिंग जरूर देखें।

लेदर की पहचान
लेदर के जूते काफी खूबसूरत दिखते हैं लेकिन अब नकली लेदर के जूते भी मार्केट में आ चुके हैं। ये दिखते तो लेदर जैसे ही हैं लेकिन कुछ ही वक्त में दम तोड़ जाते हैं। आइए जानते हैं असली लेदर पहचाने के कुछ टिप्सः

- लेदर चूंकि नेचरल स्किन होती है, ऐसे में उस पर खरोच या रगड़ का निशान नहीं ठहरता। लेदर को खरोंचने या उसे नाखून से दबाने पर उस पर निशान नहीं बनते। अगर बनते भी हैं तो कुछ देर में गायब हो जाते हैं।

- असली लेदर का पता उसे सूंघ कर भी लगाया जा सकता है। जब आप असली लेदर को सूंघते हैं तो उसमें अजीब-सी बदबू आती है। हालांकि अब लेदर की महक वाले परफ्यूम भी आ रहे हैं, जिसके जरिए भी कस्टमर को बेवकूफ बनाया जा रहा है।

- जब आप लेदर की जैकेट, जूता या पर्स खरीदें तो आप उसकी सिलाई देखें और लेदर का पिछला हिस्सा देखें। असली लेदर का पिछला हिस्सा बहुत ही खुरदरा होता है और उसमें रेशे निकले होते हैं। इसकी पहचान आप सिलाई को पास से देखकर कर सकते हैं।

- अगर आप असली लेदर लेने की सोच रहे हैं तो इसकी सबसे सही पहचान है कि आप लेदर के छेद को ध्यान से देखें। लेदर में हमारी स्किन की तरह ही छेद होंगे जबकि नकली लेदर में ये सिर्फ टेक्स्चर ही होता है यानि सिर्फ डिजाइन बना होता है। ये छेद साफ-साफ बता देते हैं कि लेदर असली है या नहीं।

- असली लेदर में कभी भी ज्यादा फिनिशिंग नहीं होती। असली लेदर थोड़ा डल होता है और ज्यादा नहीं चमकता। असली चमड़े की फिनिशिंग दूसरे प्रोडक्ट्स के मुकाबले बहुत कम होती है।

- असली लेदर को जलाने की कोशिश करें। यह आसानी से जलता नहीं है और खूब देर तक जलाने की कोशिश करने पर इसमें अजीब-सी बदबू आती है। हालांकि ऐसा स्टोर पर करना मुमकिन नहीं होता।

- असली लेदर पर हमारे शरीर की तरह झुर्रियां होती हैं और लेदर को मोड़ने पर पड़े हुए निशान कुछ देर में ठीक हो जाते हैं जबकि नकली में ऐसा नहीं होता।

जूतों की सफाई
सफाई का सीधा फॉर्म्युला है: जैसे जूते वैसी सफाई। अगर जूते कपड़े के हैं तो उन्हें धो सकते हैं और अगर लेदर के हैं तो उन्हें पॉलिश कर सकते हैं। लेकिन किसी भी तरह के जूतों की सफाई करने से पहले जूतों के साथ मिले सफाई के निर्देश जरूर पढ़ें। कुछ जूतों को धोया जा सकता है और कुछ को नहीं।

ऐसे करें जूतों की धुलाई
- सबसे पहले जूतों के फीते और शू टंग (जूतों के अंदर सोल पर रखी जाने वाली पतली सी परत) को निकालें। जूतों के फीते अलग से साफ करें। इन्हें किसी ब्रश की मदद से भी साफ कर सकते हैं।

- जूतों में लगी धूल-मिटटी को साफ करें। अक्सर जूतों के साइड और तलवों में मिट्टी भर जाती है। इसे पुराने टूथब्रश की सहायता से अच्छी तरह साफ कर लें।

- अपने शूज़ को किसी पुराने तकिए के कवर में डालें और गांठ न लगाएं वरना जूते एक दूसरे-दूसरे से रगड़ने लगेंगे।

- पिलो कवर में बंद जूतों को वॉशिंग मशीन में डाल दें और साथ में दो पुराने तौलिए भी डाल दें। यह जूतों को डायरेक्ट रगड़ से बचाएंगे।

- मशीन में लिक्विड डिटर्जेंट और 4-5 बूंद विनेगर (सिरका) डालें और मशीन को धीमी स्पीड पर सेट करके ऑन करें।

- मशीन से निकालने के बाद जूतों को सूखने के लिए रख दें। जूतों को अच्छी तरह से सुखाने के बाद फीतों को वापस लगा दें।

अगर धोना हो हाथों से
- ब्रश की सहायता से जूतों पर लगी मिट्टी को साफ करें।

- जूतों के फीते और शू टंग को निकालकर पुराने टूथब्रश में जूतों के लिए आने वाले शैंपू को लगाकर जूतों को साफ करें। (शैंपू किस ब्रैंड का अच्छा और कितने रुपये में आता है)

- एक बर्तन में थोड़ा शैंपू का घोल बनाकर उसमें 5 मिनट तक जूते भिगोएं। फिर स्पॉन्ज या कपड़े से जूतों को हल्के हाथ से रगड़ें।

- जूतों को साफ करने के बाद अच्छी तरह से धोकर सुखा लें। जूतों को कभी भी सीधी धूप में न सुखाएं। इससे इनका कलर और टेक्स्चर खराब होने का डर रहता है।

लेदर के जूतों की देखभाल

सही पॉलिश चुनें: लिक्विड से लेदर शूज़ को नुकसान हो सकता है। लेदर शूज़ पर कभी भी लिक्विड-बेस पॉलिश का इस्तेमाल न करें। हमेशा वैक्स-बेस पॉलिश का इस्तेमाल करें।

पानी, धूल और नमी से बचाएः लेदर शूज़ को बारिश के दिनों में पहनकर निकलने या धूल-मिट्टी या गंदगी भरी जगहों पर जाने से बचें। अगर पहनना ही पड़े तो पानी से बचाने के लिए उन पर अलसी के तेल की कोटिंग कर सकते हैं। इससे पानी जूते के भीतर नहीं जाता।

रैक में रखें: लेदर शूज़ को हमेशा बंद शू-रैक के भीतर ही रखें जिससे उन पर धूल, नमी और सूरज की किरणें न पड़े। इससे शूज़ की चमक लंबे वक्त तक बरकरार रहती है।

शेप को बनाएं रखें: लेदर शूज़ की बनावट बहुत जल्दी बदल जाती है। पहनने के बाद जूतों को किसी बॉक्स में रखें और शू-ट्री का इस्तेमाल करें। शू-ट्री पैर के पंजे की तरह होता है जिससे जूते की शेप बनी रहती है। इसे मार्केट से खरीदा जा सकता है। यह 200-250 रुपये में मिल जाता है। अगर आप शू-ट्री का इस्तेमाल नहीं करना चाहते तो एक सॉफ्ट पेपर को कोनिकल शेप में रोल करके इसे जूतों के भीतर भर सकते हैं।

इन्हें भी आजमाएं
- अगर लेदर के जूते में बदबू आ रही है तो रात की बची बासी रोटी को जूते पर रगड़िए। इसके अलावा टी-बैग से जूतों को रगड़ें। इससे जूतों में आने वाली बदबू गायब हो जाएगी।

- वाइट सोल के जूतों को आप नेल पॉलिश रिमूवर से साफ कर सकते है।

- लेदर के जूते पर किसी निशान को दूर करने के लिए पेट्रोलियम जेली का इस्तेमाल करें।

- लेदर के जूते से पानी के दागों को हटाने के लिए पुराने टूथब्रश को सिरके में भिगो कर हल्के हाथ से सफाई करें।

- पैरों को ज्यादा आराम देने के लिए डॉक्टर सोल और जेल पैड का इस्तेमाल कर सकते हैं। यह जूते के भीतर कुशन की एक परत बना देता है जिससे पैरों पर लगने वाला झटका काफी कम हो जाता है। लेकिन इस बात का ध्यान रखें कि ये अच्छी कंपनी के हों।

- जूता काटने पर टेलकम पाउडर या आरारोट डाल सकते हैं।

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क्या हैं पीरियड्स से जुड़ी तकलीफें और गलतफहमियां...

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तमिलनाडु में 12 साल की लड़की ने हाल में खुदकुशी कर ली। वजह, पीरियड्स की वजह से उसे टीचर ने काफी डांटा था। इससे लड़की डिप्रेशन में आ गई। दरअसल, टीचर का यह रवैया बिल्कुल गलत था। पीरियड्स यानी मासिक धर्म किसी भी लड़की या महिला की जिंदगी का अभिन्न हिस्सा हैं। लेकिन हम लोग इस विषय पर खुलकर बात करने से बचते हैं, मानो यह कोई गुनाह हो। पीरियड्स से जुड़ी तकलीफों और गलतफहमियों से कैसे पाएं निजात, एक्सपर्ट्स से बात करके जानकारी दे रही हैं विनम्रता चतुर्वेदी

एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. जे. बी. शर्मा, सीनियर गायनिकलॉजिस्ट, एम्स
डॉ. नीरा अग्रवाल, सीनियर गायनिकॉलजिस्ट
डॉ. मारुति सिंह, सीनियर गायनिकॉलजिस्ट, कस्तूरबा हॉस्पिटल
सुरक्षित गोस्वामी, योग गुरु

मेन्स्ट्रूअल साइकल, महीना, मासिक धर्म, पीरियड्स को लड़कियां आम बोलचाल में डाउन भी कहती हैं। यह लड़कियों में होने एकदम सामान्य शारीरिक प्रक्रिया है। यह उतनी ही कुदरती है, जितना कि नाक का बहना। जन्म के वक्त से ही किसी भी लड़की की ओवरी या अंडाशय में पहले से लाखों अपरिपक्व अंडे मौजूद होते हैं। 12 से 15 साल की उम्र होते-होते ओवरी में से दसियों अंडे महीने में एक बार विकसित होने शुरू हो जाते हैं। इसके लिए एस्ट्रोजन और प्रोजेस्ट्रोन नाम के हॉर्मोन जिम्मेदार होते हैं। इस उम्र में लड़कियों के शरीर में कई बदलाव भी आते हैं, जैसे ब्रेस्ट और हिप्स का साइज बढ़ना। यह बेहद सहज प्रक्रिया है वैसे ही, जैसे कि छोटे बच्चे के दांत निकलना या उसका पहली बार चलना।

कैसे करें सामना
मां को 9-10 साल की उम्र में बेटी को इस बारे में जानकारी दे देनी चाहिए ताकि पीरियड्स शुरू होने पर उसे पहले से इस बारे में पता हो और वह तनाव का सामना करने से बच जाए। उसे यह भी बताएं कि यह बिल्कुल सामान्य प्रक्रिया है और यह जरूरी है। बच्ची के स्कूल बैग में पैड रखना चाहिए और उसे इसकी जानकारी होनी चाहिए। इसके अलावा, स्कूलों में टीचर्स को भी इसे लेकर संवेदनशील होना चाहिए। स्कूल में भी पैड और पेनकिलर मुहैया होने चाहिए।

क्या करें इस दौरान
1. साफ कपड़ा या पैड इस्तेमाल करें
सबसे जरूरी है कि आप साफ कपड़े या पैड का इस्तेमाल करें। अगर बाजार से सैनिटरी पैड्स खरीद रही हैं तो उसकी क्वॉलिटी में समझौता न करें। घर के पुराने कपड़े का इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है, बशर्ते कपड़े को अच्छी तरह धोकर धूप में सुखाया गया हो।

2. दिन में कम-से-कम 3 बार बदलें
कपड़े या पैड को दिन में कम-से-कम 3 बार बदलें। पीरियड्स के शुरुआती दिनों में जब खून का बहाव ज्यादा होता है तो तो 4-6 बार पैड बदलें। कई बार देखा गया है कि पीरियड्स के आखिरी दिनों में एक ही पैड 12-12 घंटे तक रह जाता है। ऐसा करने से प्राइवेट पार्ट के अंदर और आसपास बैक्टीरिया पैदा हो सकते हैं। बदबू भी आती है।

3. डांस और तेज एक्सर्साइज से बचें
पीरियड्स के शुरुआती 2-3 दिन तेज डांस या एक्सरसाइज न करें। हां, दर्द न हो तो नॉर्मल वॉक और सूक्ष्म क्रियाएं कर सकती हैं, जैसे कि गर्दन, कलाइयों, हाथों और पैरों का मूवमेंट आदि। कपालभाति या पेट अंदर-बाहर करने या उठने-बैठने वाले आसन नहीं करने चाहिए और अपने शरीर को आराम देना चाहिए। इस दौरान अनुलोम-विलोम, भ्रामरी प्राणायाम और ध्यान करना बेहतर है। इनसे तनाव कम होता है।

4. पैड को सही से डिस्पोज करें
घर या स्कूल-कॉलेज में किसी कागज या पुराने अखबार में लपेटकर फिर पॉलीथिन में रैप कर डस्टबिन में डालें। पैड या कपड़े को कभी भी खुले में न फेंके क्योंकि इससे इन्फेक्शन का खतरा रहता है। इसी तरह इसे कमोड या नाली में न बहाएं क्योंकि इससे कमोड जाम हो जाएगा। इस्तेमाल किए कपड़े या पैड को खुले में ना जलाएं लेकिन इनसिनरेटर का इस्तेमाल कर सकते हैं। इनसिनरेटर का चलन दफ्तरों में बढ़ा है। यह एक इलेक्ट्रिक मशीन है जिसमें वेस्ट मटीरियल को तेज तापमान पर जलाया जाता है। इसका इस्तेमाल कपड़े या पैड को जलाने के लिए भी किया जाता है और यह प्रदूषण नहीं फैलाता। मशीन की क्षमता साइज के हिसाब से होती है और एक तय सीमा (जैसे 200 पैड्स) तक भरने के बाद इसे ऑन किया जाता है। इसकी कीमत 5 हजार से लेकर 15 हजार रुपये तक होती है।

5. सेक्स से दूरी ही बेहतर
पीरियड्स के दौरान शरीर में थकान और दर्द होता है। ऐसे में सेक्स न करना ही बेहतर है। अगर दर्द न हो तो भी सेक्स नहीं करना चाहिए क्योंकि इस दौरान प्राइवेट पार्ट की संवेदनशीलता बढ़ जाती है। ऐसे में सेक्स के दौरान दर्द हो सकता है और दोनों पार्टनर्स को इन्फेक्शन का खतरा रहता है। पीरिड्स के आखिरी दिनों में सेक्स संबंध बनाए जा सकते हैं, लेकिन कॉन्डम का इस्तेमाल करें। असुरक्षित सेक्स न करें। हालांकि बेहतर है कि पूरे पीरियड्स के दौरान संबंध न बनाएं। वैसे, एक मिथ यह भी है कि पीरिएड्स के दौरान सेक्स करने से पुरुषों की सेक्स क्षमता कम होती है। दूसरा मिथ यह है कि अगर पीरियड्स में सेक्स किया तो प्रेग्नेंसी के चांस कम होते हैं लेकिन यह सही नहीं है। इस दौरान सेक्स करना भी पूरी तरह सेफ नहीं है।

7. ले सकते हैं पेनकिलर
शरीर में बहुत थकान और बुखार जैसा महसूस हो रहा है तो पैरासिटामॉल ले सकते हैं, जोकि क्रोसिन (Crocin), कालपोल (Calpol) आदि नाम से बाजार में मिलती है। हर 6 घंटे में एक गोली ले सकते हैं। पेट के निचले हिस्से, कूल्हे और कमर में तेज दर्द हो रहा है तो मेफटल-स्पास (Meftal Spas) या डी-साइक्लोमाइन (Dicyclomine) जोकि एब्डोसिन (Abdocin D), अमीगो (Amigo), पिपकोल (Pipcol) आदि नाम से मिलती है, इस्तेमाल कर सकते हैं। ज्यादा दर्द होने पर दिन में 3 बार गोलियां ले सकते हैं। दर्द लगातार बना रहे तो डॉक्टर को दिखाएं।

किसका क्या फायदा
1. कपड़ा

पुराने कपड़े का इस्तेमाल करने से पहले यह देखना जरूरी है कि कपड़ा साफ, मोटा और मुलायम हो, जैसे सूती चादर या साड़ी।
फायदाः इसे धोकर और सुखाकर दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है।
नुकसानः अगर कपड़ा गंदा रहा तो इंफेक्शन के पूरे चांस हैं और हमारे देश में यह आम समस्या है। इसकी ब्लड सोखने की क्षमता कम होती है। यह खिसक जाता है इसलिए ज्यादा मूवमेंट नहीं कर सकते। हालांकि, इसका उपाय कुछ एनजीओ ने निकाला है और वे पीरिएड्स के लिए कपड़े के ऐसे पैड बनाते हैं, जिनमें पीछे से फिक्स करने लिए हुक बना हो।
कीमतः घर के ही पुराने कपड़े का इस्तेमाल कर रही हैं तो कोई खर्च नहीं होगा।

2. सैनिटरी पैड
सैनिटरी पैड फर्स्ट वर्ल्ड वॉर के बाद बनने शुरू हुए। जख्मी सैनिकों का ब्लड सोखने के लिए मोटी रुई का इस्तेमाल किया जाता था। नर्सों को यह आइडिया अच्छा लगा और उन्होंने इसे खुद पर पीरिएड्स के दौरान इस्तेमाल किया। इसके बाद कंपनियों ने सैनिटरी पैड बनाने शुरू किए। जरूरत के हिसाब से ज्यादा ब्लड सोखने वाला, खास तरह की फ्रेग्रेंस (खुशबू) वाला पैड इस्तेमाल किया जा सकता है।
फायदाः सैनिटरी पैड मेडिकेटेड होता है इसलिए बिल्कुल सेफ है। यह खिसकता नहीं है। इससे लाइफ काफी आसान हो गई है।
नुकसानः इसे दोबारा इस्तेमाल नहीं कर सकते। कई पैड के अंदर बीच में पन्नी जैसा मटीरियल लगा होता है। इसे पूरी तरह नष्ट करना मुमकिन नहीं होता।
कीमतः कम-से-कम 40 रुपये में 6 पैड्स का पैक। क्वॉलिटी और साइज बढ़ने पर कीमत ज्यादा होती है। इनमें विस्पर (Whisper), स्टेफ्री (Stayfree), सोफी (Sofy) आदि कुछ बड़े ब्रैंड हैं।

3. मैनस्ट्रुअल पैंटी
मैनस्ट्रुअल पैंटी उन छोटी लड़कियों के लिए बेहद काम की है जिन्हें पीरियड्स हाल में शुरू हुए हैं। यह पैंटी मदद करती हैं क्योंकि इसमें पहले से ही कपड़े की एक मोटी लेयर लगी होती है, जो ब्लीडिंग को सोखती है। हमारे देश में अभी शुरुआत हुई है और ऑनलाइन खरीद सकते हैं। थिंक्स (Thinks), वकोल (Wacoal) और अडीरा (Adira) नाम के ब्रैंड्स प्रमुख हैं।
फायदाः कोई झंझट नहीं। जैसे पैंटी को पहनते हैं, वैसे ही पहनना होता है।
नुकसानः हेवी ब्लीडिंग में काम नहीं करती। इसके इस्तेमाल से पैड यूज करने की आदत खत्म हो जाती है।
कीमतः 200 से 300 रुपये तक

4. टैम्पून
टैम्पून बड़े शहरों में ही मिलते हैं। टॉयलेट सीट या स्टूल पर बैठकर टैम्पून के ऊपरी हिस्से को धीरे-धीरे वजाइना के अंदर डालना होता है। इसे 4 से 6 घंटे के बाद बदलती रहें। जब बदलना हो तो स्ट्रिंग या धागे को खींच कर टैम्पून को बाहर निकाल दें।
फायदाः पैड या कपड़े से होनेवाला भारीपन नहीं रहता। पैड के लगातार इस्तेमाल से आनेवाली बदबू इसमें नहीं आती। इससे मूवमेंट और आसान रहता है और गीलापन महसूस नहीं होता। कुछ टैम्पून को तो टॉयलेट में फ्लश भी किया जा सकता है।
नुकसानः कई लड़कियों के लिए टैम्पून को वजाइना के अंदर डालना दर्दभरा अनुभव हो सकता है। हो सकता है कि यह वजाइना की अंदरूनी मांसपेशियों को सूट न करें। हाल में एक रिपोर्ट में टैम्पून को सेहत के लिए नुकसानदेह बताया गया था। जिस मटीरियल से इसे बनाया जाता है, उससे हेल्थ के कई रिस्क हो सकते हैं।
कीमतः 350 रुपये से शुरुआत है। बड़े शहरों की केमिस्ट शॉप पर मिल सकता है। ऑनलाइन खरीदना हो तो हेलेन हार्पर (Helen Harper), टैम्पैक्स (Tampax) आदि ब्रैंड्स मौजूद हैं।

5. मेन्स्ट्रूअल कप
मेन्स्ट्रूअल कप्स टैम्पून का अडवांस्ड वर्जन है, जो सिलिकॉन से बनता है और इसमें अभी तक हेल्थ रिस्क मामले सामने नहीं आए हैं। इसे भी वजाइना के अंदर डालकर फिक्स करना होता है। ब्लड भर जाने के बाद इसे सिंक में धोकर दोबारा इस्तेमाल कर सकते हैं।
फायदाः इसे अब तक का सबसे बेहतर विकल्प माना गया है। कप को लगाकर आप स्वीमिंग भी कर सकती हैं, जोकि किसी दूसरे प्रोडक्ट के साथ मुमकिन नहीं है। इसे बैग में रखना भी आसान है।
नुकसानः शुरुआत में कप को वजाइना में डालना असहज हो सकता है। अपने प्राइवेट पार्ट के मुताबिक सॉफ्ट या हार्ड कप खरीदे। हालांकि, हार्ड कप इसलिए बेहतर हैं क्योंकि ये बेहतर फिक्स हो जाते हैं।
कीमतः मेन्स्ट्रूअल कप की कीमत 300 से 1200 रुपये तक है। यह शुरू में महंगा लग सकता है, लेकिन यह एक बार का इन्वेस्टमेंट है। इसे आप बरसों तक इस्तेमाल कर सकती हैं। लंबे अरसे में पैड के मुकाबले यह सस्ता पड़ा है। सिल्की (Silky), ओरियन (Orean) जैसे ब्रैंड्स ऑनलाइन मौजूद हैं। मेडिकल स्टोर में भी कप आने शुरू हो चुके हैं।

दर्द कम करने के घरेलू नुस्खे
1. हॉट वॉटर बैग में गर्म पानी भरकर पेट, पीठ और दोनों जांघों के बीच सिकाई करें। गुनगुने पानी से नहाने से भी आराम मिलता है। रात को सोते वक्त घुटनों के नीचे तकिया रखने से दर्द में राहत मिलती है।
2. अदरक या शहद डालकर चाय पीने से दर्द में आराम मिलता है और यह शरीर में पानी बनाए रखकर खून की कमी से लड़ने में भी मदद करता है।
3. एक प्याज का रस निकालें और एक चम्मच शहद के साथ मिलाकर लें। इससे खून का दौरा बढ़ता है, जिससे यूटरस की मसल्स को आराम मिलता है।
4. इस दौरान रोजाना एक चम्मच मेथी के दाने रातभर भिगोकर सुबह खाएं। दूध में हल्दी डालकर पीने से भी दर्द में फायदा होता है।


कॉमन हैं मूड स्विंग्स
PMS यानी प्री मेन्स्ट्रुअल सिंड्रोम एक शारीरिक और भावनात्मक बदलाव की वह प्रक्रिया है जो माहवारी से करीब 2 हफ्ते पहले शुरू हो जाती है। इस दौरान ब्रेस्ट और प्राइवेट पार्ट का नाजुक होना और शारीरिक थकान आम है। साथ ही, महिलाओं और लड़कियों के मूड पर भी खासा असर पड़ता है, जैसे चिड़चिड़ापन, ज्यादा गुस्सा आना या किसी बात को लेकर अति संवेदनशील हो जाना, कुछ भी अच्छा न लगना आदि। इन सारे लक्षणों के लिए फीमेल हॉर्मोन एस्ट्रोजन और प्रोजेस्ट्रॉन जिम्मेदार होते हैं। हालांकि थोड़ा असर सायकॉलजिकल भी होता है। मसलन आपको पता है कि पीरिएड्स होने वाले हैं तो आप सतर्क हो जाती हैं। हां, अगर बहुत ज्यादा डिप्रेशन या चिड़चिड़ापन हो तो डॉक्टर की सलाह लें। इस दौरान खाने-पीने और सोने का खास ख्याल रखें और अपने पसंदीदा काम करें ताकि मूड अच्छा रहे।

माहवारी या मेन्स्ट्रुअल साइकिल के 5 फेज होते हैं। ये पांच फेज लड़कियों के मूड पर काफी असर डालते हैं। आइए जानते हैं कि महीने के किस फेज में आपका कैसा मूड होगा :

- पीरियड फेज (1-5 दिन) : रिसर्च की मानें तो इन दिनों के दौरान आपके शरिर में एस्ट्राडियोल नाम का केमिकल बढ़ने लगता है। इस केमिकल का आपके शरीर में बढ़ना आपकी बॉडी में स्ट्रेस के हार्मोन के प्रभाव को कम करता है और इस दौरान आप कितनी भी तकलीफ में हों आपका मूड अच्छा ही रहता है।

- फॉलिक्यूलर फेज (6-10 दिन) : फॉलिक्यूलर फेज में महिलाएं लोगों से ज्यादा सहानुभूती रखती हैं. इस फेज में औरतों की बॉडी में प्रोजेस्ट्रोन नाम का हार्मोन कम हो जाता है जिसके कारण आप किसी की भी बात को संजीदगी से समझ सकते हैं।

- ओव्यूलेशन फेज (11-15 दिन) : इस फेज में आप सबसे ज्यादा कामुक महसूस करते हैं। महिलाओं के शरीर में इस फेज में एस्ट्रोजन की मात्रा सबसे ज्यादा होती है जो उन्हें ओव्यूलेशन के लिए भी तैयार करता है। और इसी कारण से इस फेज में महिलाएं कामुक और अधिक मिलनसार महसूस करती हैं।

- लूटियल फेज (16-22 दिन) : ये वो फेज है जब महिलाएं सबसे ज्यादा शांत रहती हैं। महीने के 16 वें दिन महिलाओं का शरीर एग रिलीज करता है। इस दौरान प्रोगेस्ट्रोन नाम का हार्मोन बढ़ने लगता है जिसके कारण महिला काफी शांत महसूस करती हैं।

- लूटियल फेज का अंत (23-28 दिन) : PMS यानी की पीरियड होने से एक हफ्ता पहले वाला फेज। इस दौरान प्रोगेस्टेरोन हार्मोन का लेवल महिलाओं के शरीर में बढ़ने लगता है। इसी की वजह से महिलाएं इस फेज में काफी मूडी हो जाती हैं।

मां बनने पर हो जाता है दर्द कम
मां बनने के बाद पीरियड्स का दर्द कम हो जाता है। ऐसा इसलिए है कि सेक्सुअल एक्टिविटी बढ़ने और डिलिवरी के बाद सर्विक्स खुल जाता है और माहवारी के दौरान ब्लड को निकलने में आसानी होती है। दर्द की समस्या किशोर उम्र की लड़कियों को ज्यादा होती है। 40 पार होने या मिनोपॉज की उम्र आने लगे और पीरिएड्स को लेकर दर्द हो तो डॉक्टर से मिलें क्योंकि इस उम्र में दर्द की वजह इंफेक्शन या कोई बीमारी भी हो सकती है। इस उम्र में दर्द और किशोरावस्था में दर्द के कारण अलग-अलग होते हैं।

पीरियड्स को आगे बढ़ाना हो तो?
अगर घर में कोई बड़ा फंक्शन, पूजा-पाठ या फिर अहम एग्जाम आदि हो तो कई बार लड़कियां पीरियड्स की डेट को आगे बढ़ाना चाहती हैं। इसके लिए दवा लेनी पड़ती है। इसके लिए नॉरेथिस्टेरॉन (Norethisterone) सबसे कॉमन दवा है, जो मार्केट में एमीनोव (Amenov), अल्ट्रोन क्रोनर (Altron Croner) आदि नाम से मिलती है। 30 रुपये में 10 टैब्लेट्स आती हैं। इसे पीरियड्स की डेट से कम-से-कम 1 हफ्ता पहले लेना शुरू कर दें और 1 दिन में एक बार खाएं। हालांकि, कोशिश करें कि पीरियड्स को आगे करने की दवा बार-बार न लें। बहुत जरूरी होने पर ही इसका इस्तेमाल करें। कई बार देखा गया है कि इस तरह की दवा लेने से कई दिनों तक माहवारी नहीं होती और जब होती है तो बहुत तेज दर्द होता है।

पीरियड्स में क्या खाएं
पीरियड्स और उससे पहले के प्री-मेन्सट्रुअल सिंड्रोम के दौरान खाने का खास ख्याल रखें। इस सिंड्रोम में बार-बार मूड बदलना, चिड़चिड़ेपन के साथ-साथ चटपटा खाने की इच्छा बढ़ जाती है। इस दौरान ताजे फल, सब्जियां आदि ज्यादा खाएं। ज्यादा चीनी और नमक के साथ-साथ तली-भुनी चीजों से भी परहेज करें और एक बार में ज्यादा न खाएं। जंक फूड कतई न खाएं और पानी खूब पिएं। इससे कई तरह के लक्षणों से लड़ने में मदद मिलती है।

1. अगर मीठा खाने का मन करें
मिठाई या पेस्ट्री के बजाय फल जैसे सेब, अनार, संतरा आदि खाएं। इनसे शरीर में खून की मात्रा बढ़ती है। डार्क चॉकलेट मूड स्विंग और चिड़चिड़ापन कम करने में मदद करती है।

2. खाने में विटामिन और आयरन जरूर हो
विटामिन ई की कमी दूर करने के लिए अंडा लें। आलू से मिलने वाला विटामिन बी6 खून की क्लॉटिंग यानी थक्कों को कम करता है, वहीं विटामिन सी वाले फल जैसे कि नींबू और संतरा आदि दर्द को कम करने में मदद करते हैं। विटामिन ए के लिए हरी और पत्तेदार सब्जियां खाएं ताकि शरीर में खून की मात्रा बढ़े।

3. चाय औऱ कॉफी ज्यादा न पिएं
दर्द को भगाने के लिए दिन में 2-3 बार अदरक और तुलसी वाली चाय पी सकते हैं लेकिन ज्यादा न पिएं। कैफीन की ज्यादा मात्रा आपकी तकलीफ को बढ़ा सकती है। वैसे, भी इस दौरान एसिडिटी और कब्ज होना आम है।

4. जरूरी फैटी एसिड्स
शरीर में होने वाली ऐंठन से निजात दिलाने के लिए जरूरी फैटी एसिड्स का सेवन जरूरी है। मछली, लौकी, सूरजमुखी के बीजों आदि में फैटी एसिड्स अच्छी मात्रा में मिल सकता है।


पुरुष, जिसने तोड़ा टैबू को
तमिलनाडु के अरुणाचलम मुरुगुनाथम 'पैडमैन' के नाम से पहचाने जाते हैं। इन्हें पीरियड्स के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं था और शादी हो गई। शादी के बाद पत्नी शांति ने इन्हें माहवारी के बारे में बताया और कहा कि वह महंगे सैनेटरी पैड्स खरीद नहीं सकतीं इसलिए कपड़े का इस्तेमाल करती है। मुरुगुनाथम के दिमाग के बात कौंधी और उन्हें लगा कि पैड्स तो घर में ही बनाए जा सकते हैं। उन्होंने रूई और सूती कपड़े से पैड बनाने शुरू किए जिससे एक पैड की लागत 10 पैसे से भी कम आई। पैडमैन ने इसे पहले खुद अपने अंडरवियर में डालकर इस्तेमाल किया। पत्नी को यह बात पता चली तो गुस्से में पति का घर छोड़ दिया। परिवार और मोहल्ले वाले ने उन्हें पागल करार और कहा कि ऐसे 'गंदे' काम करने की बजाय कोई ढंग का काम करो। कई बरसों की मेहनत के बाद आईआईटी मद्रास के पास पैडमैन का आइडिया पहुंचा और यहां से उनके काम को पहचान मिली।

आज पैडमैन एक सफल कारोबारी हैं और देश के कई राज्यों में उनके ऑर्गनाइजेशन के पैड पहुंचते है, जिसकी कीमत 1 रुपये है। सरकार इन्हें पद्मश्री से नवाज चुकी है और टाइम मैगजीन ने 100 सबसे प्रभावशाली लोगों की लिस्ट में शुमार किया है। मुरुगुनाथम पर इसी साल फिल्म 'पैडमैन' आने वाली है जिसमें अक्षय कुमार, सोनम कपूर और राधिका आप्टे होंगी।

मेन्स्ट्रूअल लीव पर बहस
पिछले दिनों मुंबई की डिजिटल मीडिया कंपनी 'कल्चर मशीन' ने महिलाओं को पीरियड्स के पहले दिन पेड लीव देना शुरू किया है। इस फैसले को काफी सराहना मिली क्योंकि आमतौर पर पहला दिन सभी महिलाओं के लिए कष्टकारी होता है। हालांकि, सीनियर जर्नलिस्ट बरखा दत्त पीरियड्स के दौरान लीव को बेवकूफाना आइडिया बताती हैं। उन्होंने ट्वीट किया कि यह महिलाओं को उनके वर्कप्लेस पर दूसरों से पीछे खींचेगा और वे अक्षम मानी जाएंगी। बरखा अपना उदाहरण देती हैं कि उन्होंने कैसे करगिल युद्ध की रिपोर्टिंग पीरियड्स के दौरान ही की थी। बरखा के ट्वीट और बयान से हालांकि ज्यादातर महिलाएं इत्तेफाक नहीं रखतीं। इनका कहना है कि कई लड़कियों का शरीर संवेदनशील होता है और उन्हें पीरियड्स के पहले और दूसरे दिन तेज दर्द होता है। थोड़े-बहुत दर्द की शिकायत को ज्यादातर महिलाओं को होती है। ऐसे में उन्हें लीव मिल जाएगी तो शरीर पर बुरा असर नहीं पड़ेगा। रही बात ऑफिस में खुद को साबित करने की तो पीरियड्स में जबरन काम करना सही नहीं है।

एक फैशन कंपनी में काम करने वाली सौम्या गुप्ता ने बताया कि उन्हें अक्सर पीरियड्स के दिनों में दर्द होता है। ऐसे में वह हमेशा पेन किलर खाकर काम करती है। शरीर पर बुरा असर पड़ने की बात उन्हें पता है, लेकिन उन्हें इसके अलावा कोई ऑप्शन नजर नहीं आता।

मिथ मंथन
आम धारणा है कि पीरियड्स के दौरान निकलने वाला खून गंदा और अपवित्र होता है। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि इन्हीं ब्लड वेसल्स के जरिए बच्चेदानी के अंदर बच्चा पलता है इसलिए कभी पीरियड्स शुरू जाएं तो सिर पर हाथ रख 'उफ्फ' कहने के बजाय इसे अपनी शारीरिक संरचना का हिस्सा मानें।

1. पीरियड्स में मंदिर? ना बाबा ना!
पीरियड्स के दौरान मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च या किसी भी धार्मिक स्थान पर जाने की मनाही होती है। हालांकि, यह मनाही कब और कैसे शुरू हुई, इसके बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। आज भी 99 फीसदी लड़कियां और महिलाएं पीरिएड्स के दौरान पूजा-पाठ नहीं करतीं क्योंकि इस दौरान वे खुद को 'अपवित्र' मानती हैं। यह धारणा पढ़े-लिखे और मॉर्डन परिवारों की भी है। हालांकि यह पूरी तरह गलत है।

2. रसोई में जाना मना है
कई घरों में पीरियड्स के दौरान लड़कियों को रसोई में घुसने नहीं दिया जाता। यह थिअरी पूरी तरह बकवास और दकियानूसी है। पीरियड्स में किचन में जाने और खाना पकाने से कोई अशुद्धता नहीं फैलती।

3. अचार नहीं छू सकतीं
कहा जाता है कि पीरियड्स के दौरान अगर अचार के डिब्बे को छू लिया तो सारा अचार खराब हो जाएगा लेकिन किसी भी रिसर्च या लैब में यह बात साबित नहीं हुई कि पीरिड्स में अचार छूने से वह खराब होता है। हां, पीरिड्स में अचार खाना कम कर देना चाहिए क्योंकि इस दौरान तेल और मसालेदार चीजें पाचन क्रिया को खराब कर सकती हैं।

4. बाल नहीं धोने चाहिए
अक्सर लड़कियों को बताया जाता है कि पीरियड्स के पहले दो दिन बाल नहीं धोने चाहिए। इस सलाह का कोई आधार नहीं है। इसके उलट गुनगुने पानी से अच्छी तरह नहाने से पीरियड्स के दर्द से राहत मिल सकती है।

5. पौधों को पानी नहीं देना चाहिए
दकियानूसी बातों में यह भी शामिल है कि पीरियड्स में पौधों को पानी नहीं देना चाहिए खासकर अगर तुलसी और पीपल को। जी नहीं, तुलसी या कोई भी पौधा पानी देने से नहीं, बल्कि पानी न देने से मुरझा सकता है।

6. अलग कमरे में सोएं
कई घरों में आज भी पीरियड्स के वक्त लड़की को अलग कमरे में अकेले रहने को कहा जाता है। इस दौरान खुद खाना पकाना होता है और बिस्तर के बजाय जमीन पर चटाई बिछाकर सोना होता है। यह अमानवीयता की इंतेहा है। इसके उलट लड़कियों को पीरिड्स में आरामदायक बिस्तर पर सोना चाहिए और दूसरों लोगों से घुलने-मिलने से इस दौरान होनेवाली तकलीफ या मानसिक बदलावों से निपटना भी आसान होता है।

7. पीरियड्स के खून से होता है जादू-टोना
पीरियड्स का खून नापाक है और इसलिए इससे काला जादू भी किया सकता है, इस तरह की फिजूल बातें सिर्फ गांवों में ही नहीं, बल्कि शहरों के पढ़े-लिखे लोग भी करते हैं। विश्वास नहीं होता तो बॉलिवुड ऐक्ट्रेस कंगना रनौत के एक्स बॉयफ्रेंड अध्ययन सुमन की बातें याद करें। उन्होंने आरोप लगाया था कि कंगना उन पर जादू-टोना करने के लिए अपने 'नापाक' खून का इस्तेमाल करती थीं।


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​ जीतें जिंदगी का गेम

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क्या मोबाइल पर खेला जाने वाला एक खेल, ऑफिस या घर का कोई तनाव या अपने मन का न होने की चिंता अपनी जिंदगी से बढ़ कर हो सकता है? कतई नहीं! कहते हैं कि जान है तो जहान है। इसलिए जिंदगी से हारने के बजाय उसे गले लगाएं। कैसे? एक्सपर्ट्स की मदद से बता रहे हैं अमित मिश्रा:

एक्सपर्ट पैनल
डॉ. समीर पारिख
सीनियर साइकायट्रिस्ट

अरुणा ब्रूटा
सीनियर साइकॉलजिस्ट

जितेन जैन
एथिकल हैकर

पवन दुग्गल
साइबर सिक्यॉरिटी एक्सपर्ट

आचार्य सुरक्षित गोस्वामी
योग गुरु

बचपन पर ब्लू वेल की दस्तक
हाल ही में फेसबुक पर एक महिला ने अपनी भतीजी की जिंदगी में ब्लू वेल गेम के दस्तक देने की कहानी कुछ ऐसे सुनाई: एक बार जब हम रात में पूरे परिवार के साथ बैठे थे तभी क्लास 1 में पढ़ने वाली मेरी भतीजी ने मुझसे सवाल किया, ‘बुआ यह ब्लू वेल गेम क्या होता है?’ पहले तो मुझे लगा कि शायद वह ‘वेल मछली’ के बारे में पूछना चाह रही है। मैंने उसे मछली के बारे में बताना शुरू कर दिया, लेकिन उसने मुझे बीच में ही रोकते हुए गेम के बारे में बताने को कहा। मैंने हैरान होकर पूछा कि उसे इस गेम के बारे में किसने बताया? उसने बताया कि स्कूल कैब में साथ जाने वाले क्लास 4 और 5 के बच्चों ने उसे इस गेम को डाउनलोड करके खेलने के लिए उकसाया। बाद में घर में एक मोबाइल पर ब्लू वेल गेम नाम का एक ऐप डाउनलोड हुआ भी मिला। पता नही यह असली गेम है या नहीं, लेकिन इसे देख कर बच्चों के भीतर घर करती भयानक उत्सुकता से सामना जरूर हुआ। मैंने अपनी भतीजी को इस गेम से दूर रहने के लिए भूत की कहानी सुनाई और उसने रोते-रोते इसे मान लिया। लेकिन मैं नहीं चाहती कि कोई भी बच्चा इस फंदे में फंसे।

बड़े भी नही हैं ब्लू वेल से सेफ
तमिलनाडु के कराईकल जिले में घातक ब्लू वेल गेम से बचाए गए 22 साल के युवक अलेक्जेंडर ने अपने भयावह अनुभव को साझा किया है। अलेक्जेंडर ने खुलासा किया कि उसके साथ काम करने वाले लोगों ने एक वट्सऐप ग्रुप बनाया था। इसी ग्रुप पर 2 हफ्ते पहले उसे यह गेम खेलने के लिए लिंक मिला। अलेक्जेंडर ने कहा कि यह गेम खेलना शुरू करने के बाद वह ड्यूटी पर चेन्नै वापस नहीं गया। उसने बताया, ‘इस ऐप या गेम को डाउनलोड नहीं किया जाना चाहिए। यह ऐसा लिंक है जिसे ब्लू वेल ऐडमिन गेम खेलने वाले लोगों के मुतााबिक बनाता है। ऐडमिन जो टास्क देता है, उसे हर रोज देर रात 2 बजे के बाद ही पूरा करना होता है। पहले कुछ दिन उसने निजी जानकारी और फोटो पोस्ट करने को कहा जो ब्लू वेल ऐडमिन ने इकट्टठा कर लीं। कुछ दिनों बाद अलेक्जेंडर से आधी रात को पास के एक कब्रिस्तान में जाने को कहा गया। उसे कब्रिस्तान में सेल्फी लेकर ऑनलाइन पोस्ट करने को कहा गया। अलेक्जेंडर के भाई अजीत का ध्यान उसके बर्ताव में आए बदलावों पर गया। उसने पुलिस को इस बारे में जानकारी दी। पुलिस अलेक्जेंडर के घर सुबह 4 बजे पहुंच कर उसे मौत के मुंह से बचा लिया।

कौन हैं निशाने पर?
अब तक अलग-अलग तरह के तनाव ही इंसान को आत्महत्या की तरफ ढकेलने का काम करते रहे हैं। लेकिन कुछ वक्त से एक खेल ने लोगों, खासतौर पर बच्चों को आत्महत्या की तरफ कदम बढ़ाने के लिए मजबूर कर दिया है। यह एक अलग तरह का चलन है। अब आत्महत्या नाम का शब्द सिर्फ उम्रदराजों की जिंदगी से ही नही बल्कि बच्चों की जिंदगी से भी वास्ता रखने लगा है।
क्यों बनते हैं बच्चे निशाने पर
- बच्चे भोले होते हैं और वे आसानी से दूसरों से प्रभावित हो जाते हैं।
- जो बच्चे काफी झगड़ालू या हाइपर एक्टिव हैं उनके इस तरह के गेम में फंसने की आशंका ज्यादा रहती है।
- ब्लू वेल चैलेंज के 50 दिनों में बच्चे गेम में दिखाए गए झूठ को सच समझने लगते हैं।
- वे भूल जाते हैं कि कोई भी गेम मनोरंजन और कुछ सीखने के लिए होना चाहिए न कि जान गंवाने के लिए। वे यह नहीं समझ पाते कि किसी भी जीत या रोमांच का मजा तभी है, जब जिंदगी हो।
- किशोर अक्सर साथियों के प्रेशर में भी रहते हैं और आसानी से ना नहीं कर पाते। दूसरों से अलग दिखने और करने की चाह में भी वे इस अंधेरे में घिरते जाते हैं।
- कोई भी गेम, ऐसे केमिकल रिलीज़ करता है, जो खुशी और उड़ान का अहसास कराते हैं। फर्क सिर्फ यह है कि फिजिकल खेल लंबे समय तक इस भाव को बरकरार रखते हैं, जबकि इस तरह के ऑनलाइन गेम तेजी से यह पैदा करते हैं और फिर तेजी से खत्म भी कर देते हैं। ये खेल किशोरों को एक नकली दुनिया में ले जाते हैं। कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जो वर्चुअल वर्ल्ड को ही असल जिंदगी समझने लगते हैं।

कहीं आपका बच्चा तो नहीं खेल रहा ब्लू वेल सचेत हो जाएं अगर:
- अचानक से बच्चे को अकेलापन अच्छा लगने लगे
- खाने और सोने के पैटर्न में अचानक बदलाव दिखें।
- शरीर पर कोई घाव या खरोंच के निशान हों।
- रात को 4-5 बजे तक जगते रहना। अक्सर ब्लू वेल चैलेंज में रात 2 बजे के आसपास टास्क पूरा करने का चैलेंज देते हैं।
- बच्चा घर से लगातार भाग जाने या मौत के बारे में पूछताछ कर रहा हो तो सतर्क हो जाएं।
- बहुत गुस्सा करना रहा हो।
- चिड़चिड़ा रहता हो
- ज्यादा मूड स्विंग्स हो रहे हों।
- बहुत जिद कर रहा हो।
- हिंसक हो जाता हो।
- पढ़ाई से मन चुराता हो।
- स्कूल जाने से बचता हो।
- क्लास में टीचर की बात न मानता हो और तंग करता हो

पैरंट्स कर सकते हैं मदद
बच्चा अगर किसी जाल में फंस रहा है तो समय रहते पैरंट्स उसे बचा सकते हैं। अगर वे समय पर सचेत हो जाएं तो उन्हें इसकी जानकारी हो सकती है। पैरंट्स को कुछ बातों का ख्याल रखना चाहिए:

- बच्चों से तकरीबन 30 मिनट रोज बात करने का नियम बनाएं। इसके लिए पहल आप करें या बच्चे से करने को कहें। इससे बच्चे के मन में चल रही बातों के बारे में जानने में मदद मिलेगी।
- उन्हें छोटी-छोटी बात पर न टोकें। अगर आप टोकेंगे तो वे आपको अपने मन की बात नहीं बताएंगे।
- उनसे बातचीत करें। उनके दोस्तों, शौक आदि के बारे में जानें, लेकिन ऐसे अंदाज में कि आप बातचीत कर रहे हैं, ना कि पूछताछ।
- बच्चों को ‘ना’ कहना सिखाएं। उन्हें बताएं कि उन्हें ऐसा कोई भी काम करने की जरूरत नहीं है जो उन्हें असुरक्षित या असहज महसूस कराए।
- उनके फैसलों का सम्मान करें। उनके डर को सुनें और उससे निकलने में उनकी मदद करें।
- देखें कि बच्चा कितना वक्त इंटरनेट पर बिता रहा है, कैसे गेम खेलता है और कौन-से प्रोग्राम देखता है। इसके लिए सर्फिंग हिस्ट्री चेक करते रहें। अगर बच्चा किसी खास वक्त की हिस्ट्री डिलीट कर रहा है तो इस बात की तफ्तीश करें कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।
- अपने वाईफाई राउटर में फायरवॉल के जरिए ब्लू वेल से जुड़े शब्दों को ब्लॉक कर दें। इसकी सेटिंग्स हर राउटर के हिसाब से अलग-अलग होती हैं। ऐसे में बेहतर होगा अपने सर्विस प्रोवाइडर की मदद लें।
- किसी भी तरह की चेकिंग करते वक्त अति का माहौल न बनाएं। ऐसा मुमकिन नहीं कि आप अपने मोबाइल में हर वक्त लॉक लगा कर रखें, लेकिन बच्चे के मोबाइल को मोबाइल अनलॉक रखने को कहें। बार-बार बच्चे का मोबाइल चेक करना उसके एक अलग तरह का तनाव और अविश्वास का माहौल पैदा कर सकता है।
- बच्चे के लिए गैजट इस्तेमाल करने का टाइम तय करें। अगर लगता है कि बच्चा कुछ ऐसा देख रहा है जो उसकी उम्र में उचित नहीं है तो उस साइट को ब्लॉक कर दें या ऐप को डिलिट कर दें। उन्हें ऐसा करने का कारण बताएं, न कि सिर्फ झिड़की देकर ऐसा करें।
- खुद भी मोबाइल, इंटरनेट, टीवी आदि पर ज्यादा वक्त न बिताएं। गैजट के संग और गैजट फ्री के तौर पर टाइम को बांटे, मसलन कब गैजट इस्तेमाल कर सकते हैं और कब नहीं, यह नियम बनाएं।
- पैरंट्स खासकर पिता का बच्चों के साथ वक्त बिताना जरूरी है। बेहतर होगा कि दोनों साथ में खेलें।
- अगर बच्चों में कुछ अजीब लक्षण नजर आएं तो उसे डाटें नहीं, बल्कि साइकॉलजिस्ट या काउंसलर की मदद लें।

पढ़ाई न कर दे जिंदगी खत्म
बच्चों पर पढ़ाई और करियर में सबसे आगे निकल जाने का दबाव उन्हें भीतर तक तोड़ देता है। कई बच्चे इनकी वजह से आत्महत्या की तरफ कदम बढ़ा लेते हैं। राजस्थान का कोटा शहर जितना होनहार स्टूडेंट्स के लिए जाना जाता है, उतना ही वह स्टूडेंट्स की आत्महत्या के लिए भी बदनाम है।
स्कूल-कोचिंग के स्टूडेंट्स में आत्महत्या के ये प्रमुख कारण हैं:

- बच्चे का पहली बार माता-पिता से अलग होना।
- सब्जेक्ट का सही चुनाव कर आगे की पढ़ाई न करना।
- बच्चों से परिवार की उम्मीदें बहुत ज्यादा बढ़ जाना।
- स्कूल या कोचिंग का बुरा टाइम मैनेजमेंट और लगातार पढ़ाई पर फोकस का दबाव बनाना।
- बिना नींद के लंबे वक्त तक पढ़ाई करना।
- किसी भी दोस्त से अपने अकेलेपन को न शेयर कर पाना

कैसे करें मदद
- बच्चों को सिर्फ अपनी इच्छा और महत्वाकांक्षा के लिए खुद से दूर न करें।
- दूसरे सफल बच्चों का लगातार उदाहरण देने से बचें।
- सफलता या असफलता को सिर्फ रिजल्ट से न नापें, बच्चे का प्रयास भी देखें।
- बच्चे के मानसिक या शारीरिक बदलावों को बार-बार अनदेखा न करें।
- अगर बच्चा लगातार गुमसुम है और खाने-पीने की भी इच्छा नहीं जता रहा तो उसे फौरन सायकायट्रिस्ट के पास ले जाएं।

वयस्कों की समस्या: इसमें मूल रूप से मानसिक, सामाजिक और आर्थिक कारण बड़ी भूमिका अदा करते हैं। इनमें स्टूडेंट्स से लेकर वे बिजनसमैन शामिल हैं जो किसी खास मुकाम पर पहुंचने की जद्दोजहद में खुद को एक ऐसे फंदे में फंसा लेते हैं जिससे बाहर आना मुमकिन नहीं होता।

आत्महत्या का भी है मनोविज्ञान
आत्महत्या के रोकथाम के लिए काम कर रही संस्थाओं के मुताबिक, सूइसाइड की तमाम वजहें होती हैं। मोटे तौर पर इन्हें 3 तरीके से देखा जा सकता है।
सामाजिक, आर्थिक और मेडिकल।
- सामाजिक कारणों में सबसे अहम हैं:
रिलेशनशिप: अफेयर, एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर व शादीशुदा जिंदगी से संबंधित समस्याएं होती हैं। इसके अलावा, परिवार, मित्रों और जान पहचान वालों के साथ आने वाली दिक्कतों के चलते भी लोग यह कदम उठाते हैं।
आर्थिक: बिजनेस का डूबना, नौकरी छूटना, आय का साधन न होना, कर्जे जैसी चीजें
मेडिकल: कारणों में लाइलाज शारीरिक और मानसिक बीमारी, गहरा डिप्रेशन और बुढ़ापा जैसी तमाम वजहें होती हैं।
- इसके अलावा आत्महत्या के बायलॉजिकल और जेनेटिक कारण भी होते हैं।
जिन परिवारों में पहले भी आत्महत्या हुई है, उनके बच्चों में इस रास्ते को अपनाने की आशंका बनी रहती है। जिनके परिवार में आत्महत्या या इसके प्रयासों का इतिहास रहा है उनके आत्महत्या की तरफ जाने के ज्यादा चांस होते हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह एक खास तरह का हॉर्मोन है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी दिमाग में असंतुलन लाकर आत्महत्या के लिए उकसाता है।

ऐसे देते हैं सिग्नल्स
आत्महत्या करने वाला हर शख्स ऐसा कदम उठाने से पहले अपने आसपास के लोगों को कई तरह के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संकेत देता है। थोड़ा सचेत और संवेदनशील रहकर इन संकेतों को पकड़ा जा सकता है और उसकी मन:स्थिति का अंदाजा लगाकर उनकी जान बचाई जा सकती है। इस क्षेत्र में काम कर रही एक वॉलंटियर वर्षा का कहना है कि कोई भी इंसान मरना नहीं चाहता। इंसान बेहद मजबूरी में अपने जीवन को खत्म करने का फैसला लेता है। हर आत्महत्या करने वाला 'क्राइ फॉर लास्ट हेल्प' की तलाश में रहता है। वह चाहता है कि कोई उसकी आखिरी पुकार को सुने। अगर वक्त रहते किसी ने उसकी पुकार सुन ली और मदद कर दी तो जिंदगी बचाई जा सकती है। हालांकि इन संकेतों को पकड़ने के साथ-साथ आपको उस व्यक्ति की मन:स्थिति और गतिविधियों पर भी गौर करना होगा।

‘लो’ से नहीं ‘हाई’ से डरें:
- अक्सर लोगों को लगता है कि आत्महत्या वही लोग करते हैं जो बुरे दौर से गुजर रहे होते हैं और बहुत ‘लो’ महसूस कर रहे होते हैं। असलियत इससे अलग है। ज्यादातर वो लोग सुसाइड का रास्ता चुनते हैं जो ‘हाई’ महसूस करते हैं।
- ऐसे लोग किसी खास वक्त में अचानक या तो ज्यादा बोलना शुरू कर देते हैं या गैरजरूरी खरीदारी करने लगते हैं।
- कभी अपनी रेग्युलर खुराक से ज्यादा खाने लगना और कभी कई दिनों तक कुछ भी न खाना भी इसका लक्षण है। ऐसा करने से रोकने पर काफी गुस्सा दिखाते हैं। इन लक्षणों को पहचान कर किसी को आत्महत्या से रोका जा सकता है।

ये भी हो सकते हैं सिग्नल्स :
- लोगों के बीच अचानक गुडबाय या अलविदा जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना या इसके मेसेज भेजना, इन्हें अपना स्टेटस बनाना वगैरह।
- अपनी चीजों के प्रति विरक्ति का भाव दिखाना।
- अचानक बिना वजह अपनी सबसे प्यारी चीज किसी को भी यूं ही दे देना।
- ऐसी स्थिति में नींद न होने के वावजूद बिस्तर पर पड़े रहते हैं। मनपसंद कामों में दिलचस्पी घट जाना।
- बात-बात पर भावुक होकर रोने लगना और नियम-कानून तोड़ने जैसी बातें करने लगना। कई बार नशे को अपना साथी मानकर ये इसकी गिरफ्त में भी आ जाते हैं।

अगर आ रहा है सुसाइड का खयाल
अगर खुद को नुकसान पहुंचाने वाले खयाल आ रहे हैं तो इन कामों में मन लगाएं:
- वॉक पर निकल जाएं, जॉगिंग या बाइक राइड पर भी जा सकते हैं।
- किसी म्यूजियम या लाइब्रेरी में जाएं।
- अपने फेवरेट पार्क या ठिकाने पर जाएं
- अगर किसी आर्ट या म्यूजिक से लगाव है तो उसकी प्रैक्टिस करें।
- अपना मनपसंद खाना बनाएं।
- अपनी भावनाओं को डायरी में लिखें।
- नहाएं और मनपसंद डिओ या सेंट लाएं।
- मन शांत करने वाला म्यूजिक जैसे गजल या क्लासिकल म्यूजिक सुनें।
- अगर खुली छत है तो जाकर आकाश और बादलों को निहारें।
- कोई नई किताब या मैगजीन पढ़ना शुरू करें।
- मन बेचैन हो तो सोने की कोशिश करें।
- साइकायट्रिस्ट से संपर्क करें।

ऐसे करें मदद
- अगर कोई नौकरी जाने पर बिजनस में नुकसान होने पर आत्महत्या की कोशिश करता है तो यह उसका अचानक नहीं बल्कि कई महीनों से चला आ रहा डिप्रेशन हो सकता है जो उसे खुद को खत्म करने की ओर ढकेल देता है। ऐसे में डिप्रेशन के शुरुआती लक्षणों को पहचान कर मदद की जा सकती है।
- डिप्रेशन के किसी भी तरह के लक्षण होने पर डॉक्टर के पास फौरन ले जाएं। इसे नजरअंदाज करना परेशानी का सबब बन सकता है।
- शुरुआती लक्षणों में होम्योपैथी और योग भी काफी कारगर साबित होता है।
अगर किसी को ज्यादा अग्रेशन महसूस होता है या वह ‘हाई’ फील करता है तो Stramonium 30, Belladonna 30, Hyosymus 30 में से किसी एक की 5 गोलियां दिन में 3 बार ली जा सकती हैं।
अगर किसी को बहुत ‘लो’ फील होता है तो Natrum mur 30, Gelsemium 30 में से किसी एक की 5 गोलियां दिन में 3 बार ली जा सकती हैं।
- हालात ज्यादा खराब होने पर एलोपैथी इलाज भी करवाया जा सकता है। याद रखें कि इलाज करवाने को पागलपन का इलाज कतई न समझें। यह बस एक मानसिक समस्या से निदान पाने का तरीका है।
नोट: किसी भी तरह की दवा लेने से पहले अपने डॉक्टर से सलाह जरूर कर लें।

ये योगासन और प्राणायाम करेंगे मदद
कपालभाति
अनुलोम विलोम
भ्रस्त्रिका
भ्रामरी
ओम जाप
इन्हें 5-10 मिनट करें।
आसन
सूर्य नमस्कार
उत्तानपादासन
पवनमुक्तासन
सेतुबंधासन
भुजंगासन
बिलाव आसन
5 मिनट से शुरू करके 15 मिनट तक जा सकते हैं।
नोट: किसी भी तरह का आसन एक्सपर्ट की देखरेख में ही करना शुरू करें।

हेल्पलाइन
आसरा (AASRA)
http://www.aasra.info
aasrahelpline@yahoo.com
+91 22 27546669

iCall
icall@tiss.edu
+91 22 25521111)

फोर्टिस स्ट्रेस हेल्प लाइन
083768 04 102
वक्त: 24x7
सुमैत्री
1, भगवानदास लेन, आराधना हॉस्टल कॉप्लेक्स बेसमेंट, नई दिल्ली-110001, फोन नंबर : 011- 24318883, 011-26864488
संजीवनी
ए-6, सत्संग विहार, कुतब इंस्टिट्यू शनल एरिया, नई दिल्ली-110067 फोन नंबर : 011-24318883, 011-26864488
द सैमेरिटंस
c/o लोजी वाडिया ट्रस्ट, रिद्धि सिद्धी कॉम्प्लेक्स सीएचएस, लालबाग पुलिस चौकी के बगल में डॉ. बी. आर अंबेडकर रोड, परेल मुंबई-400012, फोन : 022-32473267
आसरा
104, सनराइज आर्केड, प्लॉट 100, सेक्टर 16, कोपरखैराने, लालबाग पुलिस चौकी के बगल में, डॉ़ बी. आर. अंबेडकर रोड, परेल, नवी मुंबई-400701, फोन : 022-27546669

Facebook पर भी मिलेगी मदद
फेसबुक भी अपनी भावनाओं के इजहार और मदद पाने का फोरम बन चुका है।
- www.facebook.com/safety/wellbeing/suicideprevention/forme पर जाएं
- लेफ्ट साइड की लिस्ट में Suicide Prevention पर क्लिक करें।
- यहां पर मौजूद For Me और For a Friend नाम के दो टैब मिलेंगे जिनके जरिए आप मदद पा सकते हैं।
- यहां पर Resources टैब के नीचे अपने देश को सिलेक्ट करके हेल्पलाइन नंबरों की जानकारी भी ली जा सकती है।

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फर्स्ट-एड: जान बचाने का ज्ञान

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छोटी चोट, छोटी जलन, बीपी का अचानक बढ़ जाना जैसी समस्याएं बड़ी परेशानी में तब्दील न हो, इसलिए जरूरी है फौरी इलाज। यह इलाज तब ही मुमकिन है, जब हमारे पास फर्स्ट एड का सामान हो और हम उनका सही तरीके से इस्तेमाल करना जानते हों। ऐसी ही किसी इमर्जेंसी की स्थिति में कैसे करें फर्स्ट एड, एक्सपर्ट्स से बात करके जानकारी दे रही हैं प्रियंका सिंह

एक्सपर्ट पैनल
डॉ. अनूप मिश्रा, हेड, फोर्टिस सी-डॉक
डॉ. बिप्लव मिश्रा, प्रफेसर ऑफ सर्जरी, ट्रॉमा सेंटर, एम्स
डॉ. संदीप मिश्रा, प्रफेसर, कार्डियॉलजी, एम्स
डॉ. अनिल मिनोचा, हेड, नॉन-इनवेसिव कार्डियॉलजी, फोर्टिस
डॉ. अनुराग महाजन, हेड, इंटेंसिव केयर, पीएसआरआई हॉस्पिटल

अगर किसी को छोटी-मोटी चोट लगती है तो उसके लिए फर्स्ट एड किया जाता है, वहीं अगर चोट बड़ी है जैसे कि सड़क हादसा, इमारत से गिर जाना, चाकू लग जाना आदि तो वहां हमें बेसिक लाइफ सपोर्ट की जरूरत पड़ती है। बेसिक लाइफ सपोर्ट में 3 चीजें अहम होती हैं, जिन्हें ABC कहा जाता है:
1. A से एयरवेज: इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि मरीज को नाक या मुंह से सांस सही से आ रही हो। इसके लिए मरीज के आसपास भीड़ न लगने दें, पंखा चला दें या हाथ से पंखा करें ताकि मरीज को हवा मिल सके। अगर ऑक्सिजन मास्क उपलब्ध हो तो अच्छा है।
2. B से ब्रीदिंग: चेक करना होता है कि मरीज के सीने का मूवमेंट सही हो यानी फेफड़े काम कर रहे हों। अगर सांस रुकती हुई लगती है तो सीने को जोर-जोर से दबाएं। छाती के साथ फेफड़ा भी दबता है, जिससे सांस लेने में मदद मिलेगी।
3. C से सर्कुलेशन: देखते हैं कि सर्कुलेशन यानी खून का दौरा सही से हो रहा हो और नब्ज ठीक से काम कर रही हो। अगर नब्ज 110 से ऊपर हो जाए तो खतरा हो सकता है। तब फौरन डॉक्टरी मदद जरूरी है।

फर्स्ट एड बॉक्स में रखें ये चीजें
आपके घर और दफ्तर, दोनों जगह फर्स्ट एड बॉक्स जरूर होना चाहिए। उसके अंदर ये चीजें जरूरी हैंः
- एंटी-इन्फेक्टिव क्लीनिंग एजेंट: सेवलॉन (Sevlon) या डिटॉल (Dettol) और आयोडीन सलूशन जैसे कि बीटाडिन (Betadine) या सोफ्रामाइसिन (Soframycin) आदि
- पेन किलर: पैरासिटामोल (Paracetamol), एक्युपेन (Acupain), डामोडोल (Domadol), आइबोप्रोफिन (Ibuprofen), पीरियड्स के दर्द के लिए मैफटाल स्पास (Maftal Spas) आदि
- पेन किलर जेल: वॉलिनी (Volini), वॉवेरन (Voveran), डीएफओ (DFO) आदि
- एंटी एलर्जिक दवा: सिट्रिजिन (Cetirizine) जोकि सिट्रिजिन, एल्सेट (Alcet), बीटा गुड (Beta Good) आदि नाम से मिलती है।
- बुखार के लिए: पैरासिटामोल (Paracetamol) जोकि क्रोसिन (Crocin) और कालपोल (Calpol) आदि ब्रैंड नेम से मिलती है।
- बीटाडिन ऑइंटमेंट
- उलटी की दवा: डॉमपेरिडॉन (Domperidone) जोकि डोमाकेयर (Domacare), डोमेट (Domet), वोमिनडॉन (Vomidon) आदि ब्रैंड नेम से मिलती है।
- लूज मोशंस रोकने के लिए: रेसेसाडोट्रिल (Racecadotril) जोकि डोट्रिल (Dotril), नोडी (Nodi), कैडोट्रिल (Cadotril) आदि ब्रैंड नेम से मिलती है।
- ऐंटिबायॉटिक क्रीम जैसे कि फ्यूसिडिक एसिड (Fusidic Acid) और म्यूपिरोसिन (Mupirocin)
- क्रेप बैंडेज (Crepe Bandage)
- स्टिराइल गॉज (Gauze) ड्रेसिंग
- बैंड ऐड
- छोटी कैंची
- ग्लव्ज़
- थर्मामीटर

ध्यान रखें
- अक्सर फर्स्ट एड को हम अपडेट नहीं करते इसलिए उसमें रखी दवाएं एक्सपायर हो जाती हैं और हमें इसका पता तब लगता है, जब हमें उनकी जरूरत होती है |
- फर्स्ट एड बॉक्स पर मेडिकल इमर्जेंसी के नंबर जैसे कि पुलिस, नजदीकी हॉस्पिटल और फायर डिपार्टमेंट आदि का फोन नंबर लिखा होना चाहिए।
- अगर कोई इमर्जेंसी है तो फौरन मदद के लिए चिल्लाएं। साथ ही हॉस्पिटल और पुलिस को फोन करें|
- अगर कोई जख्मी है तो मदद आने तक उसे अकेला न छोड़े और सांत्वना देते रहें कि सब ठीक हो जाएगा।
- फर्स्ट एड के बाद मरीज को पानी या कुछ और पिलाने या खिलाने की कोशिश बिल्कुल न करें। अगर वह पानी मांगे तो भी डॉक्टर से बिना पूछे न दें।
- पेन किलर का इस्तेमाल कम-से-कम करें।

चोट लगना
- सबसे पहले साबुन और पानी से धोएं। फिर एंटी-इन्फेक्टिव क्लीनिंग एजेंट जैसे कि सेवलॉन या डिटॉल या आयोडीन सलूशन जैसे कि बीटाडीन या वोकाडिन (Wokadine) से चोट को साफ करें।
- अगर खरोंच या हल्की चोट है तो साफ करके उस पर बैंड ऐड लगा दें।
- चोट थोड़ी गहरी है तो साफ करने के बाद एंटी-सेप्टिक क्रीम बीटाडीन या सोफ्रामाइसिन क्रीम लगाकर पट्टी को तह करके उसके ऊपर लगा दें। कॉटन न लगाएं, वरना हवा अंदर नहीं जा पाएगी। इसके बाद ऊपर से पट्टी बांध दें।
- कई लोग चोट पर नीली दवा के नाम से जानी जानेवाली जेनशन वायलेट (Gentian Violet Paint) भी लगाते हैं लेकिन अब डॉक्टर इसे लगाने की सलाह नहीं देते क्योंकि यह स्किन के लिए नुकसानदेह है।
- अगर किसी लोहे की चीज या सड़क आदि पर गिरने से चोट लगी है तो 24 घंटे के अंदर टिटनस का इंजेक्शन भी लगवाएं। एक बार लगने के बाद यह 10 साल तक असरदार रहता है। अगर बच्चों का पूरा वैक्सीनेशन हुआ है और डीपीटी बूस्टर भी लग गया है तो 10 साल की उम्र तक टिटनस का इंजेक्शन लगवाने की जरूरत नहीं है।
- चोट से अगर बहुत दर्द हो रहा हो तो पेनकिलर के तौर पर पैरासिटामोल या आइबोप्रोफिन की एक टैब्लेट ले सकते हैं। बच्चों को पैरासिटामोल दे सकते हैं। डोज दवा की बॉटल पर लिखी होती है।

गुम चोट लगना
- जहां चोट लगी है, उस हिस्से की दिन में 3-4 बार 10-15 मिनट बर्फ से सिकाई करें। एक छोटा तौलिया लेकर उसमें बर्फ रख लें और उससे सिकाई करें। किसी बर्तन में बर्फ वाला ठंडा पानी भरकर उसमें रुमाल या तौलिया भिगोकर भी सिकाई कर सकते हैं। फ्रिज में रखे जेल पैकेट की मदद से भी ठंडी सिकाई की जा सकती है।
- फिर पेन किलर जेल या स्प्रे जैसे कि वॉलिनी, वॉवरेन, डीएफओ आदि लगाएं। जेल या स्प्रे लगाने के बाद मालिश न करें क्योंकि हमें उस हिस्से को ठंडा रखना है। मालिश से वह हिस्सा गर्म हो जाता है। ध्यान रखें कि गर्म पानी, बॉटल या जेल से सिकाई पुरानी चोट या पीरियड्स के दौरान की जाती है।
- अगर दर्द ज्यादा हो रहा है तो एक्सरे जरूर करा लें, वरना आगे जाकर दिक्कत हो सकती है।

सड़क हादसा
- सबसे पहले एक्सिडेंट के शिकार शख्स के शरीर से बहने वाले खून को रोकने की कोशिश करें। शरीर के जिस अंग से खून बह रहा है, उसे साफ कपड़े से टाइट बाधें। अगर कपड़ा नहीं है तो उस जगह को तब तक दबा कर रखें, जब तक कि खून निकलना बंद न हो जाए।
- कोशिश करके जितना जल्दी हो सके, मेडिकल हेल्प दिलाने की कोशिश करें।
- अगर दिख रहा है कि सिर में चोट लगी है और वह शख्स गर्दन या कमर को हिला नहीं पा रहा तो उसे ज्यादा हिलाएं-डुलाएं नहीं। धीरे से किसी सख्त जगह पर लिटाएं।
- उसके पैरों को नीचे कुछ सपोर्ट लगाकर हल्का ऊपर कर दें। ब्लड प्रेशर को मेंटेन करने के लिए हथेलियों और तलवों को रगड़े जिससे शरीर में गर्माहट बनी रहे।
- अगर ऐंबुलेंस या पुलिस मदद मिलने में वक्त लग रहा है तो मरीज को कार या टैक्सी में लिटाकर पास के अस्पताल ले जाएं।
- अगर मरीज हाथ या पैर में बहुत दर्द बता रहा हो तो लकड़ी का फट्टा या प्लास्टिक की चपटी स्टिक जैसी कोई चीज दर्द वाले हिस्से पर बांध दें। इससे वह हिस्सा ज्यादा हिलेगा-डुलेगा नहीं और हड्डी टूटने की स्थिति में ज्यादा नुकसान होने से बच जाएगा।
- अगर मरीज का कोई अंग कट गया है तो कटे अंग को साफ प्लास्टिक बैग में सील कर दें। अब इस सीलबंद पैकेट को एक बड़े प्लास्टिक बैग में रखें। साथ में बर्फ के कुछ टुकड़े भी डाल दें। इस पैकेट को लेकर मरीज के साथ प्लास्टिक सर्जन तक पहुंचाने की कोशिश करें। मुमकिन है तो एक प्लास्टिक बैग में बर्फ रखकर उसके अंदर दूसरे प्लास्टिक बैग में अंग को रखें। 2 घंटे के भीतर सर्जरी हो जाए तो अंग के वापस जुड़ने के काफी आसार रहते हैं।
- मरीज को पानी पिलाने या कुछ खिलाने की कोशिश न करें। वह पानी मांगे तो भी न दें क्योंकि ऐसा करने से अंदरुनी चोटों को नुकसान हो सकता है। साथ ही, उलटी हो सकती है, जिसके सांस की नली में जाने पर सांस रुकने की आशंका होती है।
नोट: अगर शरीर में कोई बड़ी चीज घुस गई है जैसे कि बड़ी कील, रॉड या चाकू आदि तो उसे निकलने की कोशिश बिल्कुल न करें। ऐसा करने से जख्म गहरा हो जाता है और ज्यादा खून बहने से मरीज के लिए खतरा बढ़ जाता है। साथ ही डॉक्टर के लिए भी दिक्कत होती है।

जल जाना
-सबसे पहले जले हुए हिस्से को 5-10 मिनट या तब तक ठंडे पानी में रखें, जब तक कि जलन कम न हो जाए। नल के बहते पानी में भी रख सकते हैं लेकिन पानी ठंडा होना चाहिए। ठंडे पानी में टॉवल भिगोकर उसे भी जले हिस्से पर रख सकते हैं।
- जले हिस्से को बर्फ वाले पानी में न रखें वरना उस हिस्से का तापमान बहुत गिर सकता है और ब्लड सप्लाई कम होने से नुकसान ज्यादा हो सकता है। साथ ही, सर्दी-जुकाम भी हो सकता है।
- फिर उस हिस्से को साफ कपड़े से हल्के हाथ से पोंछ लें। हल्का जला है तो कोई भी मॉश्चराइजिंग लोशन लगाकर छोड़ सकते हैं।
- अगर ज्यादा लाल हो गया है या छाले पड़ गए हैं तो छालों को फोड़ें नहीं। इनके ऊपर सिल्वर सल्फाडाइजीन (Silver Sulfadiazine) क्रीम लगाएं जो कि एलोरेक्स (Alorex), बर्निल (Burnil), हील (Heal), सिल्वरेक्स (Silverex) आदि ब्रैंड नेम से मिलती है। फिर चोट को खुला छोड़ दें या फिर हल्की पट्टी बांध दें।
- दर्द ज्यादा हो तो पेनकिलर की एक टैब्लेट दे सकते हैं।
- किसी घर या ऑफिस में आग लग जाए और फौरन बाहर निकल पाने की स्थिति में न हों तो जमीन पर लेट जाएं। चूंकि धुआं ऊपर की तरफ उठता है तो खड़े रहने से घुटन और सांस न ले पाने की समस्या पैदा हो सकती है।
- अगर किसी के शरीर में आग लग गई हो तो पानी आदि न डाल कर कंबल या मोटे कपड़े में उसे लपेट कर आग बुझाने की कोशिश करें।
- फिर पीड़ित को सुरक्षित स्थान पर ले जाकर जल्द-से-जल्द शरीर से कपड़े निकाल दें। जूलरी भी निकाल दें। इससे शरीर को कम नुकसान होगा।
- अगर जख्म ज्यादा हो तो हॉस्पिटल ले जाने तक उस पर ठंडा पानी डालते रहें ताकि जख्म गहरा न हो जाए।
नोट: जख्म पर टूथपेस्ट या किसी तरह का तेल लगाने की गलती न करें। इससे जख्म की स्थिति गंभीर हो सकती है और डॉक्टर को जख्म साफ करने में भी दिक्कत होगी।

किसी जानवर/कीट का काटना

कुत्ते या बंदर का काटना
- अगर किसी को कुत्ते या बंदर ने काट लिया है तो सबसे पहले पानी से खूब अच्छी तरह धोएं। फिर साबुन लगा कर धोएं। वहां पट्टी कतई न बांधें।
- अगर स्किन पर खरोंच या एक या दो दांतों के निशान भी दिखाई पड़ते हैं, तो भी 24 घंटे के अंदर एंटी-रैबीज इंजेक्शन लगवाना जरूरी है क्योंकि रैबीज का वायरस बरसों बाद भी ऐक्टिव हो सकता है और तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
- एंटी-रैबीज इंजेक्शन लगवाने के लिए अपने फैमिली डॉक्टर या जनरल फिजिशन से मिलें।
-अगर जख्म गहरा हो तो ऐक्टिव वैक्सिनेशन के तहत दो इंजेक्शन फौरन लगते हैं। इसमें एंटी-रैबीज सीरम को पहले मसल्स (बाजू या हिप्स) में और जहां कुत्ते, बिल्ली या बंदर ने काटा हो, इंजेक्शन के जरिए वहां डाला जाता है।
- इसके बाद पैसिव वैक्सिनेशन होता है, जिसमें 5 इंजेक्शन एक खास टाइम पीरियड में लेने होते हैं। पहला इंजेक्शन उसी दिन, दूसरा काटने के तीसरे दिन, तीसरा काटने के सातवें दिन, चौथा काटने के 14वें दिन और पांचवां काटने के 28वें दिन लगता है।

सांप का काटना
- घबराएं नहीं। काटे हुए हिस्से के आसपास के कपड़े और जूलरी हटा दें जिससे सूजन आने पर वे अटकें नहीं।
- घाव को पानी और साबुन या एंटी-सेप्टिक सलूशन (सेवलॉन, डिटॉल, आफ्टरशेव लोशन आदि) से अच्छी तरह से साफ करें। फिर उसे साफ कपड़े से ढक दें ताकि इन्फेक्शन न हो।
- उस हिस्से पर किसी भी किस्म का दबाव बनाकर जहर निकालने की कोशिश न करें, न ही कोई चीरा लगाएं।
- जहां काटा है, वहां से करीब दो-ढाई इंच ऊपर प्रेशर बैंडेज या रस्सी या किसी कपड़े से टाइट बांध दें। इससे उस हिस्से में खून का दौरा धीमा पड़ जाएगा और खून के जरिए जहर फैलने की आशंका कम हो जाएगी। ध्यान रहे कि इतनी मजबूती से न बांधें कि ब्लड-सर्कुलेशन पूरी तरह बंद हो जाए।
- मरीज को इस पोजिशन में रखें कि काटा हुआ हिस्सा हार्ट से नीचे के लेवल पर रहे।
- अगर मुंह से झाग आ रहा हो तो उसके दांतों के बीच रुमाल को तह करके लगाएं ताकि जीभ न कटे।
- उससे बात करते रहें ताकि वह होश में रहे। साथ ही सांत्वना भी देते रहें वरना उसे घबराहट हो सकती है, ब्लड प्रेशर लेवल गड़बड़ा सकता है और यहां तक कि हार्ट अटैक भी हो सकता है।
- इसके बाद पीड़ित शख्स को जल्द-से-जल्द अस्पताल ले जाएं, जहां एंटी-वेनम इंजेक्शन देकर इलाज किया जाता है।
नोट: एंटी-वेनम इंजेक्शन एक ही लगता है। एंटी-रैबीज़ की तरह इसका कोर्स नहीं होता। अगर जिस सांप ने काटा है, उसे मार दिया गया है तो उसे भी डॉक्टर के पास ले जाएं। इससे डॉक्टर को इलाज करने में आसानी होगी।

चूहे/छिपकली/बिच्छू/ ततैया का काटना
- बिच्छू/चूहे/ततैया आदि ने जहां काटा है, उस जगह को एंटी-सेप्टिक सलूशन (सेवलॉन, डिटॉल, आफ्टरशेव लोशन आदि) या साबुन से अच्छी तरह साफ कर लें।
- एंटी-एलर्जिक दवाओं जैसे कि सिट्रिजिन (Cetirizine) जोकि सिट्रिजिन, एल्सेट (Alcet), बीटा गुड (Beta Good) ले सकते हैं। इससे डंक का असर खत्म हो सकता है। हालांकि दवा कितनी मात्रा में लेनी है, यह डॉक्टर से पूछ लें तो बेहतर है वरना नुकसान भी हो सकता है।
- छिपकली के काटने से कोई नुकसान नहीं होता क्योंकि जहर छिपकली के ग्लैंड्स में नहीं, स्किन में होता है। छिपकली अगर आपके ऊपर गिर जाए तो उससे भी कोई नुकसान नहीं है। हां, छिपकली अगर आपके खाने-पीने के सामान में गिर जाए मसलन दूध, पानी या गर्म सब्जी आदि तो नुकसान होता है क्योंकि छिपकली की स्किन का जहर आसानी से इन चीजों में घुल जाता है।
-छिपकली गिरा खाना खा लेते हैं तो मुंह में उंगली डालकर उलटी करें और फौरन डॉक्टर के पास जाएं।
नोट: ततैया या मधुमक्खी के काटने पर लोहा घिसने या अचार बांधने जैसी नीम-हकीमी न करें, इससे इन्फ़ेक्शन का खतरा बढ़ता है। कई बार मधुमक्खी के काटने से तेज एलर्जिक रिऐक्शन एनाफायलैक्सिस (Anaphylaxis) हो सकता है। इसमें भयंकर सूजन और दर्द होता है। ऐसे में फौरन डॉक्टर के पास जाएं।

हार्ट की समस्या
हार्ट अटैक जैसी स्थिति में अगर वक्त पर मदद मिल जाए तो मरीज की जान बचाई जा सकती है। लेकिन इससे पहले यह जानना भी जरूरी है कि दिल की क्या बीमारी हो सकती है। उसी के मुताबिक फर्स्ट एड करें।
एंजाइना
- अगर छाती के बीच दर्द हो, सीने में भारी दबाव महसूस हो, घबराहट हो, सांस रुकती-सी लगे, आराम करने पर दर्द खत्म हो जाए तो एंजाइना का दर्द हो सकता है। इसके लिए सबसे पहले मरीज को आराम करने को कहें।
- ग्लाइसिरल ट्राइनाइट्रेट (Glyceryl Trinitrate) वाली 5 एमजी की गोली जीभ के नीचे रख लें। यह मार्केट में सॉरबिट्रेट (Sorbitrate) और आइसोर्डिल (Isordil) आदि ब्रैंड नेम नाम से मिलती है। यह फौरी राहत के लिए है। इसके बाद डॉक्टर को जाकर मिलें।

हार्ट अटैक
- अगर सीने के बीचो-बीच तेज दर्द हो जोकि लेफ्ट बाजू की तरफ बढ़ता महसूस हो, बहुत ज्यादा घबराहट हो, बेचैनी के साथ पसीना आए और आराम करने पर भी दर्द कम न हो हार्ट अटैक हो सकता है।
- मरीज को एस्प्रिन (Aspirin) की एक टैब्लेट दें। यह एस्प्रिन, डिस्प्रिन (Disprin), इकोस्प्रिन (Ecospirin) आधी चबाने के लिए दें और आधी जीभ के नीचे रखें। जो चबाएंगे वह पेट से जज्ब होगी और जीभ के नीचे वाली सलाइवा ( लार) के जरिए खून के अंदर जाएगी। इससे असर जल्दी होगा।
- इसके बाद मरीज को ऐसे अस्पताल में ले जाएं जहां सीसीयू (कोरोनरी केयर यूनिट) की सुविधा हो।
- अगर आपके पास कोई सवारी नहीं है या मदद के लिए कोई नहीं है तो एंबुलेंस को कॉल कर दें। इस बीच डॉक्टर से फोन पर बात कर उसे मरीज की सेहत की जानकारी दें।
- मरीज ने अगर टाई और बेल्ट बांध रखी है तो उसे खोलें। देखें कि मरीज ने शरीर पर टाइट होनेवाला कोई कपड़ा न पहना हो। उसके जूते खोलें और मोजे भी निकाल दें।
- मरीज को कुछ खिलाने-पिलाने की कोशिश न करें।

कार्डिएक अरेस्ट
- कार्डिएक अरेस्ट में मरीज का बीपी अचानक गिर जाता है और वह लड़खड़ाकर जमीन पर गिर जाता है। दिल की धड़कन एकदम तेज या बेकाबू होकर एकदम रुक जाती है। ऐसे में फौरन सीपीआर की जरूरत होती है। शुरुआती 10 मिनट के अंदर सीपीआर करना जरूरी है। हर मिनट के साथ बचने के चांस 10 फीसदी कम होते जाते हैं।
- मरीज को आराम से जमीन पर लिटा दें। इस काम को बेड पर नहीं करते। गर्दन को हल्का खींच कर सिर को थोड़ा ऊपर कर लें ताकि जीभ अंदर न गिरे। मरीज को हवा आने दें।
- इसके बाद फौरन सीपीआर शुरू करें। सीपीआर तब ही दें, जब सांस आना बंद हो जाए और नब्ज भी न मिले।
- मरीज के पास घुटनों के बल बैठ जाएं और अपने दोनों हाथों को मरीज की छाती के बीचो-बीच रखकर तेजी से सीपीआर करें।
- सीपीआर कैसे करें, देखें: yt.vu/O_49wMpdews
- अगर सीपीआर से मरीज की सांसें वापस आ जाती हैं तो इसके बाद उसे फौरन पास के हॉस्पिटल ले जाएं।

ब्लड प्रेशर अचानक बढ़ जाना
- अगर नीचे वाला ब्लड प्रेशर 110 और ऊपर वाला 200 से ऊपर चला जाए तो मरीज को एम्लोडिपिन (Amlodipine) की 5 एमजी की एक टैब्लेट देनी चाहिए। यह मार्केट में एस-न्यूमलो (S-Numlo), एम्लोवास (Amlovas), एम्लोगार्ड (Amlogard) नाम से मिलती है। 15 मिनट बाद फिर से ब्लड प्रेशर चेक करें। अगर ब्लड प्रेशर नीचे नहीं आया तो फिर से 5 एमजी की एक गोली दें। इसके बाद मरीज को डॉक्टर के पास ले जाएं।

नोट: ब्लड प्रेशर की कोई भी दवा बिना ब्लड प्रेशर चेक किए न दें। बेहतर है कि दवा डॉक्टर की सलाह पर ही लें। ये दवाएं उन्हीं के लिए हैं, जिन्हें ब्लड प्रेशर की पहले से समस्या है।

ब्लड प्रेशर अचानक गिर जाना
- मरीज के पैरों को थोड़ा ऊपर कर लिटा दें। इससे ब्रेन में खून का दौरा बढ़ जाता है। फिर डॉक्टर के पास जाएं।
- ऐसे में सॉर्बिट्रेट न दें, वरना ब्लड प्रेशर और गिर सकता है।
- कुछ लोग कहते हैं कि मरीज को कॉफी या चॉकलेट आदि देनी चाहिए लेकिन एक्सपर्ट्स का कहना है कि इन सबका कोई फायदा नहीं है। उलटे इन सबके चक्कर में समय बर्बाद हो जाता है। इसके बजाय सीधे डॉक्टर के पास जाएं।

चोकिंग यानी सांस नली में खाना फंस जाना
- खाने या पीने के दौरान सांस की नली में एक छोटा-सा कण भी फंस जाए तो मरीज न तो सांस ले पाता है और न कुछ बोल ही पाता है क्योंकि आवाज भी सांस की नली के जरिए ही आती है।
- बच्चे भी कई बार खाने की किसी चीज का बड़ा हिस्सा या सिक्का आदि निगल लेते हैं।
- सांस न आने से मरीज बेहद बेचैन, परेशान और घबरा जाता है। उसके गले से अजीब-सी आवाज निकलती है। अगर सही मदद न मिले तो मरीज के नाखून नीले पड़ने लगते हैं और होंठ सूखने लगते हैं। कभी-कभी मरीज बेहोश भी हो जाता है।
- यह तय हो जाए कि मरीज की सांस की नली में कुछ फंसा है तो सबसे पहले कमर के ऊपरी हिस्से के बीच में मुट्ठी बना कर धीमे-धीमे मुक्के मारना चाहिए। एक हाथ उसके माथे पर लगाकर रखें ताकि झटका न लगे। अगर फायदा नहीं हो तो हेमलिच मैनुवर (Heimlich Maneuver) करें। मरीज को बता भी दें कि आप ऐसा करने वाले हैं।

कैसे करें हेमलिच मैनुवर
- अपने दोनों पैरों में थोड़ा फासला रखते हुए मरीज के पीछे रखे हो जाएं और उसे हल्का झुकने को करें। फिर उसे पीछे से दोनों हाथों से पकड़ लें।
- आपके दोनों हाथ उसके सीने के एकदम नीचे और नाभि से ऊपर होने चाहिए।
- फिर जोर से उसके पेट के ऊपर वाले हिस्से को भीचें। फिर छोड़ें। जैसे कि आप उसे उठाने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा जल्दी-जल्दी लगातार 5 बार करें। अगर फंसी हुई चीज अब भी नहीं निकली तो एक राउंड यानी 5 बार फिर से करें।
- मरीज अगर गिर गया है तो उसे कमर के बल लिटाकर भी इस प्रक्रिया को कर सकते हैं। हेमलिच मैनुवर करने के अलग-अलग तरीके पढ़ें: goo.gl/oe5asa, देखें विडियो: y2u.be/SwJlZnu05Cw
- ऐसा करने से कई बार गले में फंसी चीज सामान झटके से बाहर आ जाती है। अगर फिर भी न निकले तो मेडिकल हेल्प आने तक कोशिश करते रहें लेकिन 20-25 मिनट से ज्यादा इंतजार न करें। बेहतर है कि मरीज को हॉस्पिटल ले जाएं।
नोट: गले के अंदर हाथ डालकर फंसी हुई चीज को निकालने की कोशिश न करें। समस्या बढ़ सकती है।

अस्थमा का अटैक पड़ना
- मरीज की जेब या बैग टटोलें और अगर इनहेलर है तो उसे फौरन इसे इस्तेमाल करने को कहें।
- मरीज के कपड़े ढीले कर दें ताकि वह रिलैक्स हो सके। मरीज के आसपास भीड़ न लगाएं और शांत रहें।
- मरीज को सीधा बिठाएं, अस्थमा अटैक के दौरान मरीज को लिटाना कतई नहीं चाहिए।
- कुछ खिलाने-पिलाने की कोशिश न करें। खाना-पानी सांस की नली में फंस सकता है और हालत ज्यादा बिगड़ सकती है।
- अगर मरीज बोल सकने की स्थिति में नहीं है तो जितनी जल्दी हो सके तो पास के अस्पताल जाने की कोशिश करें।

मिर्गी का दौरा पड़ जाना
- मरीज को आराम से करवट के बल लिटा लें। ऐसा करने से मुंह से निकलनेवाला थूक आदि फेफड़ों में नहीं जाता।
- दौरे से जीभ कटने का खतरा भी रहता है इसलिए पहले मरीज के दांतों के बीच रुमाल को फोल्ड करके रखें।
- मरीज अक्सर 4-5 मिनट में होश में आ जाता है इसलिए बहुत घबराने की बात नहीं है। बस बेहोशी के हालत में कुछ खिलाना-पिलाना नहीं है।
- मरीज को जूता न सुंघाएं, न ही मारपीट करें। न ही उसके दांतों में उंगली या चम्मच आदि डालें।

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वर्ल्ड हार्ट डेः दिल के लिए क्या है नया

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छोटा-सा दिल हमारे शरीर का सबसे अहम अंग है। इसने काम करना बंद किया तो जिंदगी खत्म। दिल की बीमारियों की जांच और इलाज के कई नए तरीके सामने आए हैं। इनके जरिए हम कैसे अपने दिल को ज्यादा सेहतमंद रख सकते हैं, 29 सितंबर को वर्ल्ड हार्ट डे स्पेशल पर एक्सपर्ट्स से बात करके आपको जानकारी दे रहे हैं प्रदीप सरदाना:

एक्सपर्टस पैनल

प्रो. एस. सी. मनचंदा
सीनियर कार्डियॉलजिस्ट, सर गंगाराम अस्पताल

डॉ. नरेश त्रेहन
चेयरमैन, मेदांता हार्ट इंस्टिट्यूट

डॉ. अशोक सेठ
चेयरमैन, फोर्टिस एस्कॉर्ट्स हार्ट इंस्टिट्यूट एंड रिसर्च सेंटर

प्रो. बलराम ऐरण
डीन और एचओडी, कार्डियो थॉरेसिक साइंसेज सेंटर, एम्स

डॉ. अचल शंकर दवे
सीनियर फिजिशन

दिल की बीमारी से बचाव कैसे मुमकिन है और जिन लोगों को यह बीमारी हो चुकी है, उनके इलाज और जिंदगी को कैसे आरामदेह बनाया जा सकता है, इस बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए हर साल 29 सितंबर को 'वर्ल्ड हार्ट डे' मनाया जाता है। 'वर्ल्ड हार्ट डे' की इस साल की थीम है 'शेयर द पावर' यानी आप पहले अपने दिल को ताकतवर बनाएं और फिर आपने यह कैसे किया, यह दूसरों के साथ साझा करें क्योंकि छोटे-छोटे बदलाव ही बड़ा बदलाव ला सकते हैं। अनुमान है कि देश में दिल के मरीजों की संख्या करीब 6 करोड़ है। हालांकि अच्छी खबर यह है कि बीते कुछ बरसों में लोग दिल की बीमारी को लेकर जागरूक हो रहे हैं और लाइफस्टाइल में बदलाव कर अपने दिल को मजबूत बनाने की दिशा में आगे बढ़ चुके हैं। साथ ही, नई तकनीक की बदौलत जांच और इलाज अब पहले से बेहतर हो गए हैं। खानपान में भी पहले से चली आ रहीं मान्यताओं में काफी बदलाव हुआ है।

कार्बोहाइड्रेट हैं फैट से ज्यादा खतरनाक
- पहले माना जाता था कि फैट्स कम लेने चाहिए, लेकिन नई स्टडी बताती हैं कि कार्बोहाइड्रेटस ज्यादा नुकसानदेह हैं। ऐसे में हेल्दी फैट्स तो सीमित मात्रा में लेने चाहिए लेकिन ट्रांस-फैट्स और कार्बोहाइड्रेटस कम लेने चाहिए। यह देखा गया है कि जो लोग फैट कम लेते हैं, वे ज्यादा लंबी उम्र नहीं जी पाते।
- अब सिर्फ खराब फैट्स (सैचुरेटिड और ट्रांस-फैट) लेने की मनाही है, जोकि दिल ही नहीं, पूरे शरीर की सेहत के लिए खतरनाक हैं लेकिन अच्छे फैट्स जरूर लेने चाहिए।
- अच्छे फैट्स में सरसों का तेल सबसे बेहतर है लेकिन यह कच्ची घानी का ही होना चाहिए। साथ ही देसी घी का भी इस्तेमाल भी सीमित मात्रा (रोजाना एक-दो छोटे चम्मच) में लाभदायक है। लेकिन इससे ज्यादा देसी घी बिल्कुल नहीं खाना चाहिए। आप इस घी को अगर सीधे सब्जी में या रोटी पर लगाकर खाएंगे तो बेहतर है। एक्स्ट्रा वर्जिन ऑलिव आयल भी अच्छा है। कभी-कभार नॉन-रिफाइंड सनफ्लार ऑयल (सूरजमुखी का तेल) और कॉर्न ऑयल (मक्की का तेल) भी इस्तेमाल कर सकते हैं। एक बार में दो या तीन तेल खाएं (जैसे कि सरसों का तेल, देसी घी और ऑलिव ऑयल) क्योंकि कोई भी एक तेल सारे गुणों से भरपूर नहीं होता। ऐसे में दूसरा तेल भरपाई कर देता है।
- खाने की किसी चीज को रिफाइंड करने से उसके कई अच्छे तत्व नष्ट हो जाते हैं और कई तरह की अशुद्धता भी आ जाती है इसलिए रिफाइंड चीजों को नहीं खाना चाहिए। मसलन, गेहूं का दलिया या आटा इस्तेमाल करें, लेकिन गेहूं से रिफाइंड किया हुआ मैदा न खाएं। ब्राउन चावल सीमित मात्रा में खाए जा सकते हैं लेकिन बरसों से प्रचलित रिफाइंड यानी सफेद चावल न खाएं। ऐसे ही सफेद चीनी की जगह ब्राउन शुगर या सफेद बूरा का इस्तेमाल किया जा सकता है। नॉन-रिफाइंड गुड़ तो सबसे बेहतर है। वैसे बाजार में चमकता रिफाइंड गुड़ भी उपलब्ध है लेकिन वह सेहत के लिए हानिकारक है। नॉन-रिफाइंड गुड़ कुछ कालापन लिए होता है, लेकिन वह सबसे बढ़िया होता है। इस गुड़ को डायबीटीज के मरीज भी कभी-कभार कम मात्रा में ले सकते हैं। वैसे मीठा सेहतमंद लोगों को भी कम ही खाना चाहिए।
- प्रोसेस्ड और प्रिजर्व्ड यानी डिब्बा और पैकेटबंद संरक्षित चीजें भी सेहत और खासकर दिल के लिए बेहद हानिकारक हैं। 'रेडी टु ईट' या 'सेमी कुक्ड फूड' आइटम मसलन सब्जियां, बिरयानी, परांठे, मिठाइयां आदि के अलावा पैक्ड जूस, एनर्जी ड्रिंक्स, सॉफ्ट ड्रिंक्स आदि भी दिल के लिए नुकसानदेह हैं।

जानें किसमें क्या
सैचुरेटिड फैट्स: घी, बटर, चीज, नारियल तेल, रेड मीट आदि। ये सर्दियों में जम जाते हैं इसलिए माना जाता है कि ज्यादा मात्रा में खाएं तो ये दिल की आर्टरीज़ में भी जम जाते हैं।

रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट: सफेद चीनी, सफेद चावल, सफेद मैदा आदि। तमाम मिठाइयों, फास्ट फूड, आइसक्रीम, बेकरी प्रॉडक्ट्स, नूडस्ल, बर्गर, पित्जा आदि इस कैटिगरी में आते हैं।

ट्रांस फैट्स: वनस्पति घी और जिस भी ऑयल को बार-बार गर्म किया जाए, उसमें ट्रांस-फैट आ जाते हैं। चिप्स, नमकीन, बेकरी प्रोडक्ट्स, जंक फूड आदि के अलावा बाहर के खाने (रेस्तरां से लेकर स्ट्रीट फूड तक) में ट्रांस फैट काफी होते हैं।

कुछ ऐसी हो दिल की खुराक!
- दिल की बीमारी का सबसे बड़ा कारण हाई ब्लड प्रेशर, डायबीटीज और कॉलेस्ट्रोल है इसलिए इनको बढ़ाने वाली चीजें जैसे कि नमक और चीनी का इस्तेमाल कम-से-कम करें। फुल क्रीम दूध से परहेज करें क्योंकि यह शरीर में फैट बढ़ाता है। रेड मीट दिल के लिए तो खतरनाक है ही, कैंसर की भी वजह बन सकती है। ज्यादा कार्बोहाइड्रेट्स वाली चीजें जैसे कि आलू, अरबी और शकरकंदी आदि भी कम खाने चाहिए।
- फास्ट फूड और जंक फूड के साथ मार्केट में मिलने वाली खाने की दूसरी चीजों से भी बचना चाहिए। इसका कारण यह है कि मार्केट में खाना बनाते वक्त कई जगहों पर सस्ते और घटिया घी-तेल और दूसरी चीजें इस्तेमाल होती हैं। सबसे खतरनाक यह है कि एक ही तेल में बार-बार तले जाने से खाने में ट्रांस-फैट्स बढ़ जाते हैं, जोकि सेहत के दुश्मन हैं। सबसे ज्यादा हानिकारक है तंबाकू। तंबाकू किसी रूप में (स्मोकिंग, गुटखा, पान आदि) न लें। तंबाकू दिल की बीमारी के अलावा अस्थमा और कैंसर जैसी बीमारियों की भी वजह बनता है।
- तो फिर क्या खाएं, ज़ाहिर है यह सवाल मन में उठता ही है। जो भी चीजें घर पर बनाई जाएं और अच्छे तेल का इस्तेमाल हो, वे सब खाई जा सकती हैं। यहां तक घर में अच्छे तेल में बने समोसे और पकौड़े जैसी चीजें भी कभी-कभार कम मात्रा में खाई जा सकती हैं।
- सेहत के लिए सबसे फायदेमंद हैं ताजे फल और सब्जियां। साथ ही ड्राई फ्रूट्स, नट्स और सीड्स जैसे बादाम, अखरोट, पिस्ता, मूंगफली, खरबूजा-तरबूज के बीज आदि भी सेहत के लिए अच्छे हैं। टोंड मिल्क और उससे बना दही, छाछ आदि सेहत के लिए अच्छे हैं। कभी-कभार थोड़ी मात्रा में बटर भी ले सकते हैं। साथ ही ग्रीन और ब्लैक टी भी पीनी चाहिए, जो कॉलेस्ट्रोल को कम करने में मदद करती हैं।
- नई स्टडी के मुताबिक दिल के मरीज हफ्ते में 3 बार पूरा अंडा भी खा सकते हैं, जबकि पीला भाग हटाकर सफेद हिस्सा तो रोज खाया जा सकता है। नॉन-वेज खाने वाले चिकन और फिश खा सकते हैं। लेकिन मात्रा कम रखें और कोशिश करें कि यह ज्यादा तला-भुना न हो।


जांच के नए तरीके
देश में दिल के मरीजों की बड़ी तादाद की वजह यह है कि लोग ब्लड प्रेशर, डायबीटीज और कॉलेस्ट्रोल की रेग्युलर जांच नहीं कराते। अगर जांच कराते हैं और कुछ गड़बड़ी पाई जाती है तो उसके प्रति गंभीर नहीं होते और आगे की जांच नहीं कराते लेकिन अब कुछ जांच ऐसी आ गई हैं, जिनसे किसी बड़ी जांच प्रक्रिया से गुजरे बिना भी दिल की बीमारी का पता आसानी से लग सकता है। ऐसे दो ब्लड टेस्ट हैं:
1. ट्रॉप टी (Trop T): इसे ट्रोपोनिन (Troponin) टेस्ट भी कहा जाता है। यह टेस्ट मरीज के ब्लड में मौजूद ट्रोपोनिन नामक प्रोटीन की मात्रा जांचकर बता देता है कि मरीज को दिल का दौरा पड़ा है या नहीं। इसकी कीमत करीब 1400-1600 रुपये होती है और सरकारी अस्पतालों में फ्री होता है।
2. एचएससीआरपी (HSCRP) टेस्ट: इसका पूरा नाम है हाई सेंसटिविटी सी रिएक्टिव प्रोटीन। जिनकी फैमिली में दिल की बीमारी की हिस्ट्री रही है, यह जांच उनके लिए खासतौर पर फायदेमंद है। जांच में सीआरपी काउंट बता देते हैं कि उस शख्स में दिल की बीमारी के कितनी आशंका है। इसकी कीमत 700-800 रुपये है और बड़े सरकारी अस्पतालों में फ्री होता है।
- इसके अलावा सीटी कोरोनरी एंजियोग्राफी (CT Coronary Angiography) ने भी जांच काफी आसान की है। पहले एंजियोग्राफी काफी तकलीफदेह थी लेकिन अब सीटी कोरोनरी एंजियोग्राफी की जाती है जोकि काफी सटीक नतीजे दे रही है। जिनकी आर्टरीज़ में शुरुआती लेवल की रुकावट है, जो आगे चलकर दिल के दौरे का कारण बन सकती है, या जिन्हें डायबीटीज है या जिनके परिवार में दिल की बीमारी रही है, उनके लिए यह जांच काफी फायदेमंद है।
- अब एमआरआई (MRI) से भी किसी के दिल की स्थिति का काफी हद तक पता चल जाता है जबकि इसके लिए पहले दिल की बायोप्सी करनी पड़ती थी।

आ गई हैं असरदार दवाएं
- आंकड़े बताते हैं कि देश में दिल के मरीज बेशक बढ़ रहे हैं लेकिन सर्जरी के मामले नहीं बढ़ रहे। इसी तरह पहले हर साल देश में 25 लाख लोग सालाना दिल की बीमारी की वजह से मौत के मुंह में जा रहे थे जिसके घट कर 20 लाख रह जाने की उम्मीद है। इसमें नई तकनीक और दवाओं का काफी अहम रोल है।
- कई दवाओं ने भी दिल से जुड़ी बीमारियों के खतरे को कम किया है। ऐसी ही एक दवा है स्टेटिन। जिसमें अटोर्वास्टेटिन (Atorvastatin), रोजुवास्टेटिन (Rosuvastatin) की गोली अलग-अलग ब्रैंड नेम जैसे कि अटोरसेव (Atorsave), रोज़ावेल (Rozavel) आदि के नाम से मार्केट में उपलब्ध है। यह गोली यों तो करीब 10 साल पहले ही आ गई थी लेकिन इसके सटीक नतीजे अब पूरी तरह सामने आ गए हैं। इससे कॉलेस्ट्रोल कम होता है और यह दिल के दौरे के खतरे को थोड़ा कम कर देती है। लेकिन एक्सपर्ट्स का मानना है कि डॉक्टर की सलाह के बिना किसी को भी यह दवा नहीं लेनी चाहिए। अगर कॉलेस्ट्रोल थोड़ा बढ़ा हुआ है, तब भी नहीं खानी चाहिए। अगर कॉलेस्ट्रोल बहुत ज्यादा हो या ब्लॉकेज हो, तभी इसे लेना चाहिए। जो लोग बरसों से डायबीटीज से पीड़ित हैं या जिनके परिवार में दिल की बीमारी का इतिहास है, वे इसे ले सकते हैं। जिन्हें हार्ट अटैक हो चुका है, उनके लिए तो यह अनिवार्य है।
- खून को पतला करने की भी एक अच्छी दवा हाल में आई है। हालांकि यह थोड़ी महंगी है। एक टैब्लेट करीब 70-72 रुपये की होती है। इस नई दवा के सॉल्ट को डैबिगट्रान (Dabigatran), रिव्राक्साबन (Rivaroxaban), अपिक्साबन (Apixaban) और एडोक्साबेन (Edoxaban) जैसे नामों से जाना जाता है। ये गोलियां मार्केट में प्रडक्सा (Pradaxa), जेरेल्टो (Xarelto), ऐलीकुइस (Eliquis), सवाय्सा (Savaysa) और लिक्सिअना (Lixiana) आदि ब्रैंड नेम से मिलती हैं। इस गोली का सबसे बड़ा फायदा यह है कि मरीज को बार-बार ब्लड टेस्ट नहीं कराना पड़ता, जबकि पहले खून पतला करने की दवा लेने वाले मरीज को बार-बार ब्लड टेस्ट कराना पड़ता था ताकि यह पता लग सके कि खून जरूरत से ज्यादा पतला तो नहीं हो गया। इस दवा के इस्तेमाल से हार्ट अटैक का खतरे भी कम हो जाएगा।
- एंट्रेसटो (Entresto) नाम की टैब्लेट का भी विदेशों में चलन शुरू हो गया है। चेशर (ब्रिटेन) में लेटन हॉस्पिटल के डॉ. आशीष दवे इस गोली को मरीजों पर ट्रायल और टेस्ट कर रहे हैं। उनका कहना है कि अभी तक इसके जो भी ट्रायल हुए हैं, वे अच्छे रहे हैं। इसके सेवन के बाद मृत्यु दर में 21 फीसदी कमी आंकी गई है। डॉ. त्रेहन का कहना है कि यह गोली हार्ट अटैक से पहले या हार्ट अटैक के बाद दिल कमजोर होने की स्थिति में दी जा रही है। डायबीटीज, वायरल इन्फेक्शन या फिर ज्यादा शराब पीने की वजह से अगर दिल कमजोर हो जाता है, तब भी यह गोली फायदेमंद साबित हो रही है।

सर्जरी बिना भी बेहतर इलाज मुमकिन
अब बिना सर्जरी के भी बड़ी संख्या में दिल के मरीजों का इलाज मुमकिन हो रहा है। इसकी वजह है बैलूनिंग, एंजियोप्लास्टी और डिवाइस क्लोजर तकनीक। बरसों पहले ओपन हार्ट-बायपास सर्जरी की जाती थी। करीब 30 साल पहले बैलूनिंग तकनीक आई, जिससे आर्टरीज को कुछ चौड़ा कर दिया जाता था लेकिन यह परमानेंट इलाज नहीं था। फिर कुछ बरस बाद स्टेंट आए जोकि दिल के मरीजों के लिए बहुत बड़ी राहत थी। अब सरकार ने इनके रेट काफी कम करके फिक्स कर दिए हैं, जो मरीजों के लिए राहत की बात है। बैलूनिंग, स्टेंट और डिवाइस क्लोजर लगाने के लिए अब सर्जरी या सर्जन की जरूरत नहीं होती। इस काम को कार्डियॉलजिस्ट ही कर लेते हैं। सर्जरी रोकने में डिवाइस क्लोजर तकनीक भी वरदान साबित हुई है। इसका सबसे बड़ा फायदा उन मरीजों को मिला है, जिनके दिल में छेद होता है। आमतौर पर यह दिक्कत जन्मजात होती है। दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल के निदेशक रहे और मशहूर डॉक्टर प्रो. एम. खलीलुल्लाह 1988 में यह तकनीक इंडिया लाए। डॉ. खलीलुल्लाह कहते हैं, 'यह तकनीक इतनी कामयाब और लोकप्रिय हो गई है कि क्लोज्ड हार्ट सर्जरी (जिसमें दिल को काम करता रहा था लेकिन चेस्ट को खोलना पड़ता था) तो वह अब बंद ही हो गई है। यह डिवाइस एक बहुत छोटी-सी छतरी की तरह होती है जिसे जांघ की नसों के जरिए डॉक्टर मरीज के दिल के पास पहुंचा देते हैं। अंदर जाकर यह छतरी पैराशूट की तरह खुल जाती है और फिर इसे दिल के छेद पर कुछ ऐसे चिपका दिया जाता है, जैसे टायर पर पंचर लगा दिया जाता है।

सर्जरी भी हुई आसान
अब छोटे-छोटे कट से ही दिल की सर्जरी हो जाती है। साथ ही, सर्जरी में डॉक्टर रोबॉट की मदद भी लेने लगे हैं। हाल में दिल के वॉल्व बदलने का काम भी बिना बड़े कट वाली सर्जरी के होने लगा है। इसे टीएवीआर (TAVR) यानी Transcatheter Aortic Valve Replacement कहा जाता है। इसके लिए 18 से 25 लाख रुपये तक का खर्च आ जाता है। उम्र या किसी और कारण से जिन मरीजों की सर्जरी मुमकिन नहीं है, उनके लिए यह तरीका बड़ी सौगात है। फिलहाल इस तकनीक से 70 साल या ज्यादा उम्र के लोगों का इलाज ही किया जा रहा है। उसका एक कारण यह है कि इसमें टिशू वॉल्व लगाए जाते हैं, जोकि 15 से 20 साल तक काम करते हैं। कम उम्र के लोगों में प्रॉपर सर्जरी से ही वॉल्व बदलने को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि उनमें मेटल वॉल्व लगाए जाते हैं, जो लंबे समय तक चलते हैं। फिर महंगा होने की वजह से भी हर कोई टीएवीआर तकनीक से इलाज नहीं कराता। डॉ. बलराम ऐरण बताते हैं, 'हम एम्स में हर साल करीब 1500 वॉल्व बदलते हैं लेकिन हम इन्हें टीएवीआर तरीके से नहीं बदल सकते क्योंकि इसमें जितना खर्च आएगा, उतने खर्च में हम सर्जरी के जरिए 25 लोगों के वॉल्व बदल देंगे। हां, यह जरूर है कि जिन वॉल्व में ब्लड क्लॉट नहीं होते, उन्हें हम (बैलून) तकनीक से खोल रहे हैं और उसमें भी प्रॉपर सर्जरी नहीं होती। इसका खर्च करीब 40 हजार आता है, जबकि सर्जरी का सिर्फ 10 हजार। लेकिन रकम का इतना फर्क लोग सहन कर लेते हैं।' माना जा रहा है कि 4-5 बरसों में टीएवीआर तकनीक ज्यादा विकसित और ज्यादा लोगों की पहुंच में आ जाएगी।

बढ़ने लगे हैं हार्ट ट्रांसप्लांट के मामले
किसी के हार्ट ट्रांसप्लांट की जरूरत तब होती है, जब किसी के दिल की पंपिंग यानी धड़कने की क्षमता काफी कम हो जाती है। कुछ मामलों में पेसमेकर लगाकर इस समस्या से निजात पाई जाती रही है तो कुछ में ट्रांसप्लांट किया जाता है। देश में पहला हार्ट ट्रांसप्लांट दिल्ली के एम्स में 1994 में हुआ था।तीन साल पहले तक देश में कुल 100 हार्ट ट्रांसप्लांट भी नहीं हुए थे लेकिन इन पिछले तीन बरसों में ही 300 से भी ज्यादा हार्ट ट्रांसप्लांट हो चुके हैं। वजह, यह है कि सरकार ने केंद्र में एक अलग संगठन नोटो (NOTO) यानी नैशनल ऑर्गन एंड टिशू ट्रांसप्लांट ऑर्गनाइजेशन का गठन कर दिया है। साथ ही राज्यों में सोटो (SOTO) और रोटो (ROTO) का भी गठन हो गया है। इससे अंगदान देने वालों को प्रोत्साहित करने के साथ उनके लिए नियम भी आसान हो गए हैं। लोगों में जागरूकता भी लाई जा रही है। साथ ही प्रशासन ऐसे इंतजाम करने लगा है कि किसी मृत शख्स के दिल को निकालने से लेकर उसे दूसरे शहर में ट्रांसप्लांट करने का काम कम-से-कम समय में किया जा सके क्योंकि दिल को निकालने से लेकर लगाने तक का काम अगर अधिकतम 6 घंटे में पूरा न हो तो वह दिल बेकार हो जाता है।

दिल वालों की दिल्ली में इंदौर के दिल
यह बात चौंकाती है कि दिल्ली के एम्स में पिछले कुछ वक्त में जो हार्ट ट्रांसप्लांट हुए हैं, उनमें से 5 दिल अकेले इंदौर से आए। पिछले करीब डेढ़ साल में इंदौर वालों ने दूसरे राज्यों में दिल भेजकर 14 लोगों को नया जीवन दिया है। यह सब मुमकिन हो पाया है 'इंदौर सोसाइटी फॉर ऑर्गन डोनेशन' के जरिए। संस्था के अध्यक्ष संजय दुबे आईएएस अधिकारी हैं और फिलहाल इंदौर के आयुक्त हैं जबकि संस्था के उपाध्यक्ष इंदौर के इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस अजय कुमार शर्मा हैं। संजय बताते हैं कि उनकी पत्नी सरकारी डॉक्टर हैं। एक दिन उनके मन में विचार आया कि अगर लोग अंगदान की अहमियत को समझें तो बहुतों की जान बचाई जा सकेगी। इसी सोच से 'इंदौर सोसाइटी फॉर ऑर्गन डोनेशन' की नींव रखी गई। इस संस्था से कई बड़े सरकारी अधिकारी और इंदौर के बड़े डॉक्टर जुड़े हैं। ये लोग मिलकर लोगों को अंगदान के लिए प्रेरित करते हैं, फिर दिल को बाहर भेजते हुए 'ग्रीन कोरिडोर' तैयार कराते हैं ताकि ट्रांसप्लांट में एक मिनट की भी देरी न हो। बकौल संजय, 'हम दिल दान देने वाले शख्स के परिवार के दो सदस्यों का अपनी संस्था की ओर से जिंदगी भर के लिए फ्री मेडिकल इंश्योरेंस भी कराते हैं। लोगों में यह भावना पैदा करनी होगी कि एक शख्स के अंगदान करने से 6 लोगों के परिवारों को जीवन मिल सकता है। तभी लोग हार्ट डोनेशन के लिए आगे आएंगे।'

तनाव से यारी, दिल पर भारी
देश के इन सभी टॉप डॉक्टरों का मानना है कि दिल की बीमारी का सबसे बड़ा कारण तनाव है। तनाव से ही हाई ब्लड प्रेशर होता है और शुगर लेवल भी बढ़ता है। इसके लिए कम-से-कम 6 घंटे की भरपूर नींद लेने के साथ नियमित योग करें। दिलचस्प बात यह है कि हमारे पांचों पैनलिस्ट डॉक्टर तमाम व्यस्तताओं के बावजूद नियमित योग और सैर करते हैं। इनका कहना है कि अगर दिल को सेहतमंद चाहते हैं तो रोजाना एक घंटा सैर करें। इसके लिए सिर्फ एक जोड़ी जूतों की जरूरत होती है लेकिन इससे दिल की बीमारी का खतरा 25 फीसदी कम हो जाता है।

नोट: हमने यहां कुछ दवाओं के नाम पाठकों की जानकारी बढ़ाने के लिए दिए हैं। कोई भी दवा डॉक्टर की सलाह के बिना न लें।

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बुजुर्गों से हैरान-परेशान

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बढ़ती उम्र अक्सर कई बीमारियों और समस्याओं की वजह बन जाती है। कई बार ऐसी स्थितियां पैदा हो जाती हैं कि घरवालों को लगता है कि बुजुर्ग पागल हो गए हैं या फिर उन्हें जानबूझ कर परेशान कर रहे हैं, जबकि असल में वे बीमार होते हैं और उन्हें सही देखभाल और प्यार की दरकार होती है। अगर घर में कोई ऐसी किसी बीमारी से पीड़ित है तो उससे कैसे निपटें, एक्सपर्ट्स से बात करके जानकारी दे रही हैं प्रियंका सिंह

एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. विनय गोयल, प्रफेसर, न्यूरॉलजी, एम्स
डॉ. प्रवीण गुप्ता, एचओडी, न्यूरॉलजी, फोर्टिस हॉस्पिटल
जी. पी. भगत, फाउंडर, गुरु विश्राम वृद्ध आश्रम
डॉ. राजीव अग्रवाल, इन्चार्ज, न्यूरो फिजियो यूनिट, एम्स

64 साल की माला वर्मा (बदला नाम) की बहू नीता ने अपनी कुछ फ्रेंड्स को घर बुलाया। माला भी उनसे मिलने ड्रॉइंग-रूम में आ गईं। नीता की एक फ्रेंड ने बातों ही बातों में पूछ लिया, 'अम्मा, आपके चाय पी?' इस पर माला गुस्से से बोलीं, 'बेटी, मुझे तो कई दिन से किसी ने चाय नहीं दी। मैं तो अब इन पर बोझ बन गई हूं ' यह सुनकर नीता बहुत नाराज हो गईं। वह अपनी सास पर चिल्लाने लगीं कि इनका कितनी भी ख्याल रखो, हमेशा बुराई ही करती रहती हैं। अभी थोड़ी देर पहले ही तो इन्हें चाय बनाकर दी थी। घर का माहौल बिगड़ता देख सहेलियों ने वहां से निकलने में ही भलाई समझी। शाम को पति ऑफिस से लौटा तो नीता ने उससे मां की शिकायत की। उसने भी मां पर काफी गुस्सा किया कि आप जान-बूझकर दूसरों के सामने हमें नीचा दिखाती हैं। घर में बहुत अशांति हो गई लेकिन किसी ने भी असल समस्या पर गौर नहीं किया। दरअसल, माया पिछले कुछ महीनों से अजीब-सा बर्ताव कर रही हैं। वह अक्सर लोगों के नाम भूल जाती हैं, सामान रखकर भूल जाती हैं, कभी-कभी जोर से बोलने या रोने भी लगती हैं। दिन में कई बार नहाती हैं और कभी-कभी कपड़े पहने बगैर बाथरूम से निकल आती हैं। घरवालों को लगता है कि वह जान-बूझ कर ऐसा कर रही हैं क्योंकि नीता से उनकी बनती नहीं है लेकिन माया बुढ़ापे की सबसे बड़ी बीमारियों में से एक डिमेंशिया से पीड़ित हैं। जानते हैं डिमेंशिया और बुढ़ापे की दूसरी बीमारियों के लक्षण और इलाज के बारे में ताकि बुढ़ापा पैरंट्स के साथ-साथ बच्चों के लिए बड़ी समस्या न बने।

डिमेंशिया
अगर किसी की याददाश्त इतनी कमजोर हो गई हो कि उसका असर रोजाना के काम पर पड़ रहा हो, मसलन वह भूल जाता हो कि कौन-सा महीना चल रहा है, किस शहर में रह रहा है, खाना खाया है या नहीं तो वह डिमेंशिया से पीड़ित हो सकता है। यह शब्द डीई (बिना) और मेंशिया (दिमाग) को जोड़कर बनाया गया है यानी दिमाग के काम करने की क्षमता का कम होना। इस बीमारी में दिमाग के कुछ खास सेल्स खत्म होने लगते हैं, जिससे उस शख्स की सोचने-समझने की क्षमता कम हो जाती है और बर्ताव में भी बदलाव आ जाता है। डिमेंशिया को दो कैटिगरी में बांटा जा सकता हैः एक, जिसका बचाव या इलाज मुमकिन है और दूसरा उम्र के साथ बढ़ने वाला। पहली कैटिगरी में ब्लड प्रेशर, डायबीटीज, स्मोकिंग, ट्यूमर, टीबी, स्लीप एप्निया, विटामिन की कमी आदि से होनेवाला डिमेंशिया आता है तो दूसरी कैटिगरी में अल्टशाइमर्स (Alzheimer's ), फ्रंटोटेंपोरल डिमेंशिया (FTD) और वस्कुलर डिमेंशिया आता है।

1. अल्टशाइमर्स सबसे कॉमन डिमेंशिया है। इसमें मेमरी लॉस के साथ-साथ मरीज का ओरिएंटेशन गड़बड़ा जाता है जैसे कि वह भूल जाता है कि घर में बाथरूम किधर है या फिर मार्केट में कौन-सी शॉप कहां है या कई बार तो वह अपने घर का रास्ता ही भूल जाता है।
2. FTD में भूलने के साथ-साथ मरीज के बर्ताव में बहुत बदलाव आ जाता है, मसलन वह बहुत जिद्दी हो जाता है, गुस्सा करने लगता है, चिड़चिड़ा हो जाता है।
3. वस्कुलर डिमेंशिया के लक्षण तो करीब-करीब अल्टशाइमर्स जैसे ही होते हैं लेकिन यह धीरे-धीरे नहीं, बल्कि स्ट्रोक के बाद अचानक होता है।

लक्षण
- किसी का नाम, चीज रखकर या शब्दों को भूल जाना
- अपने करीबियों को भी न पहचान पाना
- नई चीजें सीखने और फैसले लेने में दिक्कत होना
- एक ही बात को बार-बार दोहराना
- बेवजह गुस्सा आना, आक्रामक होना या परेशान रहना
- छोटे-मोटे काम जैसे कि ड्राइविंग, खाना पकाना, कपड़े पहनना, खाना खाना आदि में दिक्कत होना
- मतिभ्रम होना यानी किसी इंसान या जानवर आदि के होने का भ्रम होना
- उलटे-सीधे फैसले लेना जैसे कि गर्मियों में मोटा जैकेट पहन लेना या सर्दियों में भी जमीन पर सोना या कपड़े उतार देना

क्या हैं वजहें
- बढ़ती उम्र, आमतौर पर 60 साल से ज्यादा उम्र के लोग बनते हैं शिकार
- बहुत ज्यादा स्मोकिंग करना
- बिल्कुल एक्सरसाइज न करना
- ब्लड प्रेशर ज्यादा होना
- फैमिली हिस्ट्री होना
- जिनेटिक वजहों से पुरुष ज्यादा होते हैं शिकार
नोट: इस बीमारी की कोई एक वजह नहीं होती। हां, ऊपर दी गई वजहें बीमारी की आशंका को बढ़ा सकती हैं।

5 स्टेज होती हैं डिमेंशिया की
स्टेज 1: डिमेंशिया की शुरुआत में ऐसे कोई बदलाव नहीं आते, जिन्हें आसानी से पहचाना जा सके। मरीज अपनी जरूरतों और बातों का खयाल रख सकता है। हां, बातों को अक्सर भूलने लगता है।
स्टेज 2: दूसरी स्टेज है ज्यादा भूलना। ऐसे लोग अक्सर चीजों को रखकर भूल जाते हैं, लोगों का नाम भूल जाते हैं, समय-तारीख आदि भूल जाते हैं और क्या कर रहे हैं, यह भी भूल जाते हैं। इस स्टेज पर भी मरीज अपना खयाल बिना किसी की मदद के रख सकता है।
स्टेज 3: मरीज रोजाना के रास्तों में ही खो जाता है, बोलने में दिक्कत आने लगती है। उसका बर्ताव बदलने लगता है।
स्टेज 4: मरीज रुटीन के काम नहीं कर पाता। खाना खाने का तरीका उसे याद नहीं रहता, खुद से कपड़े नहीं पहन पाता, नहा नहीं पाता आदि। वह अपने परिवारवालों को नहीं पहचान पाता। उसे किसी की मदद की जरूरत पड़ती है।
स्टेज 5: डिमेंशिया की पांचवीं स्टेज बहुत खतरनाक होती है। मरीज की मेमरी बिल्कुल ही कम हो जाती है और उसे चीजें समझ नहीं आतीं। मरीज कोई भी काम बिना किसी की मदद के नहीं कर पाता।

डिमेंशिया के मरीजों की समस्या और समाधान
1. किसी चीज को रखकर भूल जाते हैं, लोगों के नाम से लेकर खाना खाना तक भूल जाते हैं और बाद की स्टेज में तो कपड़े पहनना भी याद नहीं रहता।
समाधान: सबसे पहले जान लें कि वे जान-बूझकर ऐसा नहीं कर रहे। जिस तरह किसी बीमार शख्स की देखभाल की जाती है, वैसे ही उनकी देखभाल की भी जरूरत है। कोशिश करें कि उनकी चीजों मसलन चाबी, वॉलेट, मोबाइल फोन आदि को हमेशा एक ही जगह पर रखें। उन्हें मोबाइल दें और रोजाना मोबाइल पर उनके बात करें ताकि उन्हें कॉल उठाने और फोन पर बात करने की आदत हो। उनके मोबाइल में ट्रैक मी ऐप डाउनलोड कर, उसे अपने फोन से सिंक कर लें। उनके हाथ में जीपीएस वाली घड़ी भी पहना सकते हैं। इससे उनकी लोकेशन की जानकारी आपको रहेगी। उनके गले में एक लॉकेट डालकर उस पर उनका नाम, घर का पता और परिवार के दो लोगों के मोबाइल नंबर लिख दें ताकि अगर वे कहीं भटक जाएं तो कोई आपको खबर कर दे।

2. गुस्सा बहुत आता है। मारपीट और गाली-गलौच पर उतारू हो जाते हैं। एक ही बात को बार-बार दोहराते हैं।
समाधान: उनसे बहस न करें, न ही चीखे-चिल्लाएं। याद रखें कि उन्हें आपकी बात समझ ही नहीं आ रही। आप गुस्सा ज्यादा करेंगे तो वे और भी गुस्सा करेंगे। यहां तक कि खुद को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं। हो सके तो उस वक्त वहां से हट जाएं। उनकी हर बात को उस वक्त 'हां' करें। अगर गलत लगती है तो भी 'हां' कर दें। बाद में बेशक वह काम न करें क्योंकि वे भी अक्सर थोड़ी देर बाद भूल जाएंगे कि उन्होंने क्या कहा था। जो डिमांड पूरी करना मुमकिन है, वह पूरी भी कर दें। इससे वे खुश हो जाएंगे।

3. पेट भरा होगा लेकिन दूसरों को खाते देख दोबारा मांग लेते हैं। खाना ज्यादा खाते हैं या खाना बेकार कर देते हैं। खाने की चीजें और दूसरे सामान उठाकर अपने पास रख लेते हैं।
समाधान: उन्हें एक बार में कम खाना दें ताकि दोबारा मांगने पर आप फिर से दे सकें। अगर थोड़ा-बहुत खाना बेकार हो जाता है तो भी इसे सामान्य मानते हुए परेशान न हों। उनकी पसंद की चीजें बनाएं। गौर करें कि वे कौन-सी चीज कब और कितना खाना पसंद करते हैं। इससे आपको उनकी खुराक का अनुमान हो जाएगा। अगर ज्यादा सामान अपने पास उठाकर रखा है तो उसमें से कुछ सामान चुपचाप उठा लें लेकिन सारा सामान न उठाएं, न ही उनके सामने उठाएं।

4. घर में तोड़-फोड़ या खुद को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते हैं।
घर में उन्हें कभी भी अकेला न छोड़े। फर्नीचर भी कम कर दें ताकि टकराकर उन्हें चोट न लगे। सीढ़ियों और बाथरूम में मजबूत हैंडरेल लगवाएं। घर में शीशे कम लगवाएं क्योंकि इससे अल्टशाइमर्स के मरीज को कन्फ्यूजन होता है और कई बार डर भी जाते हैं। कई मरीज रात भर रोते-चिल्लाते हैं या हाथापाई पर उतार आते हैं। इस हाइपर बर्ताव का इलाज है। न्यूरॉलजिस्ट को दिखाएं। दो-तीन महीने दवा खाने से यह समस्या हल हो जाती है।

5. कपड़ों में शू-शू पॉटी करने लगते हैं।
यह बहुत बात की स्टेज है। ऐसे में उन्हें डायपर लगाकर रखें और दिन में 3-4 बार डायपर बदलें। अगर पॉटी कर दी है तो उसे फौरन साफ कर दें। इससे वे उसे फैलाएंगे नहीं।

जांच
- डॉक्टर कई तरह की जांच कराते हैं। इनमें विटामिन बी12, अमोनिया, थायरॉइड जांच आदि शामिल हैं। हर टेस्ट: 600 से 1000 रुपये
- सिर का CT स्कैन, कीमत: 2000 रुपये लगभग, सिर का MRI: 5000 रुपये लगभग
- मिनी-मेंटल स्टेट एग्जामिनेशनः दिमाग की स्थिति जांचने के लिए यह टेस्ट किया जाता है। कुल 30 सवाल होते हैं, जिनमें से 24 से कम का सही जवाब देने पर मरीज को डिमेंशिया से पीड़ित माना जाता है। इस टेस्ट को सायकॉलिस्ट करते हैं और 1-2 घंटे लगते हैं।

इलाज
- डिमेंशिया के इलाज के लिए न्यूरॉलजिस्ट से मिलें। अगर डिमेंशिया की वजह विटामिन की कमी या दवाओं का साइड इफेक्ट है तो वह इलाज के साथ बेहतर हो सकता है। लेकिन प्रोग्रेसिव यानी वक्त के साथ बढ़नेवाले डिमेंशिया में सुधार की गुंजाइश काफी कम होती है।
- मोटेतौर पर ब्रेन में एसिटाइल कोलिन (मेमरी का बेसिक ट्रांसमीटर) को बढ़ानेवाली दवाएं दी जाती हैं लेकिन इनका असर थोड़ा-बहुत ही होता है।

डिमेंशिया पर मूवी
Still Alice (2014): इस फिल्म में एक महिला प्रफेसर की डिमेंशिया के खिलाफ लड़ाई को बहुत मार्मिक तरीके से पेश किया गया है। इस बीमारी की चुनौतियों को समझने में यह मूवी काफी मददगार साबित हो सकती है। प्रफेसर का किरदार निभाने वाली जूलियन मूर ने इस रोल के लिए एक्टिंग की दुनिया के दो सबसे बड़े अवॉर्ड अकेडमी और गोल्डन ग्लोब जीते।
कहां देखें: डीवीडी उपलब्ध


पार्किंसंस
यह सेंट्रल नर्वस सिस्टम की बीमारी है, जिसमें मरीज के शरीर के अंगों में बेकाबू कंपन होता है। यह हाथों से शुरू होकर पूरे शरीर में फैल जाता है। इसकी वजह दिमाग का शरीर की गतिविधियों का सही कंट्रोल न होना है। यह समस्या अक्सर हाथ में एक हल्के झटके से शुरू होती है और शरीर के एक हिस्से पर इसका असर ज्यादा होता है। धीरे-धीरे बढ़ते हुए यह पूरे शरीर में फैल जाती है। फिर मरीज अपने अंगों पर से कंट्रोल खोने लगता है। इसमें मोटेतौर पर तीन चीजें सामने आती हैं: 1. हर काम में धीमापन, 2. हाथों में कंपन, 3. शरीर के हिस्सों का सख्त हो जाना।

लक्षण
- हाथ या पैर में कंपन या झटका
- वॉक करते हुए हाथों का नहीं हिल पाना
- मूवमेंट धीरे होना मसलन धीरे चलना या कुर्सी से उठने में वक्त लगना
- हाथ-पैर और बाकी हिस्से काफी कड़क हो जाते हैं
- ऑटोमैटिक मूवमेंट जैसे कि पलक झपकना, स्माइल करना, हाथ हिलाना आदि में दिक्कत होना
- धीरे-धीरे, अटककर और धीमे-धीमे बोलना
- लिखने में दिक्कत होना
- निगलने में दिक्कत होना
- ब्लड प्रेशर में अच्छा उतार-चढ़ाव होना
- किसी चीज की महक नहीं आना

वजह
- बढ़ती उम्र, 60 साल या ज्यादा के लोगों में आशंका बढ़ जाती है
- खतरनाक केमिकल्स और पेस्टिसाइड्स के संपर्क में रहना
- ड्रग्स लेना
- सिर में चोट लगना
- बॉक्सरों को खतरा ज्यादा
नोटः इस बीमारी की असली वजह क्या है, इस बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन ये कुछ फैक्टर हैं, जो इसे बढ़ाते हैं।

जांच
- इसके लिए क्लीनिकल जांच होती है यानी डॉक्टर लक्षण देखकर बताते हैं कि पार्किंसंस है या नहीं।
- इसके अलावा TRODAT SPECT या F-Dopa PET टेस्ट से भी चेक कर सकते हैं। एम्स में एक टेस्ट की कीमत करीब 2000 रुपये है।

इलाज
- इस बीमारी का इलाज पूरी तरह मुमकिन नहीं है। हां, दवाओं से बीमारी की रफ्तार काफी धीमी की जा सकती है। दिमाग के न्यूरोट्रांसमीटर डोपामाइन को बढ़ाने के लिए लिवोडोपा (Levodopa) दवा दी जाती हैं। यह जेनरिक नाम है, जो मार्केट में अलग-अलग ब्रैंड नेम से मिलती है। इस दवा को लेने वाले मरीजों को प्रोटीन (दूध, दही, पनीर, अंडा, दाल आदि) दवा खाने से डेढ़-दो घंटे पहले या बाद में खाना चाहिए। साथ में बिल्कुल न खाएं, वरना दवा का असर कम हो जाएगा।
- साथ में अगर डिप्रेशन है या दूसरे इमोशनल मसले हैं, तो उनका इलाज किया जाता है। इसी तरह अगर यूरीन कंट्रोल नहीं होता, महक नहीं आती, कब्ज होती है या नींद की समस्या है तो उनके लिए अलग से दवा दी जाती है।
- डीप ब्रेन स्टिमुलेशन (DBS) सर्जरी काफी फायदेमंद है। यह एक न्यूरो सर्जिकल प्रक्रिया है, जिसमें डॉक्टर दिमाग के अंदर न्यूरोस्टिमुलेटर (ब्रेन पेसमेकर) लगाते हैं, जो ट्रांसप्लांट की गई बैटरी के जरिए दिमाग के खास हिस्सों में इलेक्ट्रिक तरंगे पहुंचाते हैं। एक नॉन-चार्जेबल बैटरी 4-5 साल चलती है और इसकी कीमत 5-6 लाख रुपये होती है, जबकि चार्जेबल बैटरी 10-12 साल चल जाती है लेकिन उसकी कीमत 9.5-11 लाख रुपये होती है। प्राइवेट अस्पतालों में सर्जरी का खर्च अलग आता है।

ध्यान रखें
- इस बीमारी के मरीजों के लिए दवा गाड़ी में पेट्रोल की तरह है यानी पेट्रोल डालेंगे तो गाड़ी चलेगी। इसी तरह, दवा खाएंगे तो चल पाएंगे, वरना चलना-फिरना भी मुमकिन नहीं होगा।
- फल और सब्जियों को गुनगुने पानी में अच्छी तरह धोकर खाएं। हमारे देश में पार्किंसंस की औसत उम्र 49.2 साल है, जोकि विदेशों में करीब 60 साल है। आशंका है कि इसकी वजह हमारे खाने में ज्यादा पेस्टिसाइड्स का इस्तेमाल भी सकती है।
- इस बीमारी में फिजियोथेरपी और एक्सरसाइज का बहुत बड़ा रोल है। मरीज इस बीमारी में अक्सर गिर जाता है और उसे चलने में दिक्कत होती है, इसलिए उसे बैलेंस बनाने, चलने का तरीका सिखाने के साथ-साथ लचक और मजबूती बढ़ाने वाली एक्सरसाइज करनी होती है।
नोट: यहां दी गई दवाएं सिर्फ जानकारी बढ़ाने के लिए दी गई हैं। कोई भी दवा डॉक्टर से पूछे बिना इस्तेमाल न करें।

पार्किंसंस पर मूवी
AWAKENINGS (1990)
फिल्म में पार्किंसंस के शुरुआती इलाज के दौरान मरीज को कैसा लगता है, यह दिखाया गया है। यह सच्ची कहानी एक ऐसे डॉक्टर की है, जो पार्किंसंस के पैशंट्स के साथ काम करना शुरू करता है। पार्किंसंस के मरीजों के हालात और उनकी देखभाल पर काफी रोशनी डालती है यह मूवी।
कहां देखें: यू-ट्यूब पर उपलब्ध

डिप्रेशन और अकेलापन
अक्सर बच्चे अपनी लाइफ में बिजी हो जाते हैं तो पैरंट्स को अकेलापन कचोटने लगता है। यह अकेलापन धीरे-धीरे डिप्रेशन का रूप ले लेता है और बुजुर्गों को लगने लगता है कि वे बेकार हैं और उनकी किसी को जरूरत नहीं है। डिप्रेशन से निपटने के लिए कुछ तरीके कारगर हो सकते हैं:
पैरंट्स के लिए इतना तो बनता है...
- रोजाना पैरंट्स के साथ कुछ देर बैठें। उनका हाल-चाल पूछें। इसके लिए कोई टाइम तय कर लें और रुटीन बना लें तो अच्छा है।
- वीकएंड पर उन्हें अकेला छोड़कर घूमने न जाएं। अगर वे साथ जाना चाहें तो उन्हें भी अपने साथ जरूर ले जाएं। नहीं जाना चाहें तो कभी-कभार अपना प्रोग्राम कैंसल करके उनके साथ छुट्टी बिताएं।
- उनकी पसंद की जगहों पर घुमाएं। उनके दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलवाने ले जाएं और उन्हें भी अपने घर बुलाएं।
- घर के छोटे-मोटे फैसलों में उनकी सलाह लें। अगर उनकी कोई बात पसंद नहीं आए तो भी फौरन काटे नहीं। उनकी बात को आराम से सुने और अपनी बात भी प्यार से उनके सामने रखें।
- बच्चों से दादा-दादी के साथ खेलने के लिए कहें। अपने बचपन की बातें वे बहुत खुश होकर शेयर करते हैं। बच्चों को भी ऐसी बातें सुनने में मजा आता है।
- बच्चे दादा-दादी के साथ सुडोकू, लूडो, बिजनेस बडी जैसे गेम भी खेल सकते हैं।
- अगर दूसरे शहर में रहते हैं तो भी रोजाना कम-से-कम एक बार फोन पर उनसे बात जरूर करें।

डिप्रेशन और अकेलेपन पर मूवी
Nebraska (2013)
कैसे बुढ़ापे का अकेलापन इंसान को जीने का एक जरिए खोजने पर मजबूर करता है, चाहे फिर वह लॉटरी खरीद कर इनाम जीतने की ललक ही क्यों न हो? इस मूवी की खासियत है बुढ़ापे के अकेलेपन को मजाकिया अंदाज में पेश करना। फिल्म बुजुर्गों के लिए दया भाव जताने पर नहीं, बल्कि उन्हें समझने पर जोर देती नजर आती है।
कहां देखें: यू-ट्यूब पर उपलब्ध

...ताकि न हो ऐसी बीमारियां
अगर पैरंट्स को कोई दिमागी दिक्कत नहीं है तो वे खुद को बिजी रखकर अकेलेपन को दूर कर सकते हैं। साथ ही, याददाश्त बढ़ाने के लिए कुछ एक्सरसाइज करें। वैसे भी मेमरी के बारे में कहा जाता है, Use it or loose it यानी अगर दिमाग का इस्तेमाल नहीं करेंगे तो उसे खो देंगे। इसके लिए आप अपने पैरंट्स को ये कुछ तरीके आजमाने की सलाह दे सकते हैं। आप खुद भी कम उम्र से ही इनमें से ज्यादातर चीजें कर सकें तो आगे जाकर भी सेहतमंद ही रहेंगे:
1. रोजाना 30-40 मिनट ब्रिस्क वॉक करें। साथ में योग और ध्यान भी करें। रेगुलर एक्सरसाइज और योग करने से किसी भी बीमारी की आशंका काफी कम हो जाती है। सूर्य प्राणायाम, कपालभाति और मेडिटेशन करें। मगर ताड़ासन, कटिचक्रासन, उत्तानपादासन, भुजंगासन, धनुआसन, मंडूकासन जैसे योग किसी योग्य एक्सपर्ट की देखरेख में करें। सूर्य नमस्कार डिप्रेशन से निपटने में काफी मददगार है। सूर्य नमस्कार करने का तरीका जानने के लिए देखें : nbt.in/suryanam
2. रिटायरमेंट के बाद भी अपना रुटीन सेट करें। रोजाना एक ही वक्त पर उठें। अपने लिए काम तलाशें। खुद को बिजी रखें। किसी सोशल कॉज यानी कामकाज से खुद को जोड़ लें, मसलन मेड के बच्चे को पढ़ाएं। अगर कुकिंग अच्छी है तो वह भी किसी को सिखा सकती हैं।
3. लोगों के साथ मेल-जोल बढ़ाएं। परिवारजनों और दोस्तों से मिलें। अगर रिश्तेदार या दोस्त पास में नहीं हैं तो कोई क्लब, कम्युनिटी या ऑर्गनाइजेशन जॉइन कर लें। वहां अपनी पसंद के लोगों के साथ टाइम बिताएं। पार्क जाएं और वहां अपने हमउम्र लोगों के साथ दोस्ती करें। उनके साथ ताश या शतरंज खेलें।
4. ऑनलाइन सोशल नेटवर्किंग भी टाइम पास करने का एक तरीका है। हालांकि यह किसी से सामने से मिलने-जुलने के बराबर अच्छा नहीं है। यहां आपको किसी पर भी भरोसा करने से पहले थोड़ा सोचना होगा। साथ ही, इसे हमेशा चेक करने के बजाय इसके लिए एक वक्त तय करें।
5. अगर कोई शौक था, जिसे जवानी के दिनों में पूरा नहीं कर पाए तो अब कर सकते हैं। मसलन गिटार या सितार बजाना, स्वीमिंग सीखना आदि। हमेशा कुछ-न-कुछ नया करें। कुछ ऐसा, जो आपने पहले न किया हो। हफ्ते में एक नया काम या चीज जरूर करें या सीखें।
6. अखबार और मैगजीन पढ़ें। अखबार के उन हिस्सों को पढ़ें, जिन्हें आमतौर पर छोड़ देते हैं। अपने आसपास के लोगों से खबरों के बारे में चर्चा करें।
7. अपनी पसंद का म्यूजिक सुनें। याद रखें, यह उदासी वाला न हो। बेहतर है कि एफएम सुनें। घर में टीवी पर कभी-कभार बाहर जाकर भी अपनी पसंद की फिल्में देखें।
8. ऑर्गनाइज्ड बनें। आमतौर पर चीजें फैली हों तो हम उन्हें जल्दी भूल जाते हैं। चीजों जैसे कि मोबाइल, चाबी, डायरी, पर्स आदि के लिए एक जगह तय करें और उन्हें वहीं पर रखें। अपने काम, अपॉइंटमेंट, इवेंट्स आदि को डायरी, प्लैनर या कैलेंडर में लिखकर रखें।
9. मल्टि-टास्किंग न करें। एक बार में एक ही काम करें। आप जो जानकारी हासिल करना चाहते हैं, अगर उसी पर फोकस करेंगे तो वह आपको जरूर याद रहेगी।
10. विजुअलाइजेशन भी दिमाग की कसरत का अच्छा तरीका है। आप जब भी जाम में फंसे हों, अपॉइंटमेंट के लिए इंतजार कर रहे हों या सोने की तैयारी कर रहे हों तो अपने बचपन से कोई घटना या जगह को सोचें। अपना कमरा, क्लास, कार... कुछ भी। इससे दिमाग ऐक्टिव होता है और तनाव से मुक्ति मिलती है।
11. रोजाना 7-8 घंटे सोने से मेमरी अच्छी रहती है।
12. डिप्रेशन, किडनी, थाइरॉयड, विटामिन बी-12 की कमी जैसी बीमारियों को हल्के में न लें। ये मेमरी पर खराब असर डालती हैं। इनका ढंग से इलाज कराएं।
13. घर की दीवारों को मजेदार और हटकर कलर करें या वॉलपेपर लगाएं। घर का डेकोर भी कलरफुल और दिलचस्प रखें। घर में खुशबूदार फूल सजाएं।
14. घर में कोई पेट रखें। डॉग अच्छा साथी हो सकता है।
15. पजल सॉल्व करें, जैसे कि सुडोकू, मैथ्स पजल या रीजनिंग पजल आदि। इनसे मेमरी अच्छी होती है।

डाइट पर दें ध्यान
- पोषण से भरपूर खाना खाएं, जिसमें कार्बोहाइड्रेट के साथ-साथ प्रोटीन और मिनरल भी भरपूर हों, जैसे कि ओट्स, गेहूं आदि अनाज, अंडे, दूध-दही, पनीर, हरी सब्जियां (बीन्स, पालक, मटर, मेथी आदि) और मौसमी फल।
- एंटी-ऑक्सिडेंट और विटामिन-सी वाली चीजें खाएं, जैसे कि ब्रोकली, सीताफल, पालक, अखरोट, किशमिश, शकरकंद, जामुन, ब्लूबेरी, कीवी, संतरा आदि।
- ओमेगा-थ्री को खाने में शामिल करें। इसके लिए फ्लैक्ससीड्स (अलसी के बीज), नट्स, सोयाबीन आदि खाएं।
- देखने में बदरंग खाने के बजाय रंगीन खाने पर फोकस करें जैसे कि गाजर, टमाटर, ब्लूबेरी, ऑरेंज आदि।
- दूध और दूध से बनी चीजें या अंडा खाएं। इनमें विटामिन बी12 अच्छी मात्रा में होता है। मछली भी बहुत फायदेमंद है।
- पानी खूब पिएं। नारियल पानी, छाछ आदि भी खूब पिएं।

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जानें अपनी बॉडी क्लॉक से जुड़ी सब बातें

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हर इंसानी शरीर की हर कोशिका में एक कुदरती घड़ी है जो उसकी जरूरी गतिविधियों को कंट्रोल करती है। इस बार मेडिसिन का नोबेल पुरस्कार उन तीन अमेरिकी वैज्ञानिकों को मिला है, जिन्होंने इंसान की बॉडी क्लॉक के राज खोले हैं। बॉडी क्लॉक से जुड़ी परेशानियों और निदान के बारे में एक्सपर्ट की मदद से जानकारी दे रहे हैं अमित मिश्रा:

क्या है बॉडी क्लॉक
इंसानी शरीर एक जैविक घड़ी के हिसाब से चलता है। हमारे मिज़ाज, हॉर्मोन के स्तर, शरीर के तापमान और पाचन क्रिया में लगातार उतार-चढ़ाव होता रहता है। एक्सपर्ट का मानना है कि सुबह दिल का दौरा पड़ने का खतरा भी इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि हमारा शरीर हर नए दिन की शुरुआत के लिए खुद को तेजी से तैयार कर रहा होता है। बेशक में बॉडी क्लॉक हमारे शरीर को नियंत्रित करती है और इसमें किसी भी तरह का बदलाव आने पर हमारे शरीर पर बहुत गहरा असर डालता है। किसी दूसरे देश जाने पर टाइम ज़ोन बदलते ही जेट लैग से होने वाली परेशानी भी इसका ही उदाहरण है। नए टाइम जोन में जाने पर शरीर खुद को सेट करने के लिए वक्त लेता है और लोग जेट लैग का अनुभव करते हैं।

अगर बिगड़ जाए बॉडी क्लॉक
बॉडी क्लॉक में बदलाव की वजह से शुरुआत में याददाश्त पर असर पड़ता हैं। लेकिन इसका बड़ा असर कई तरह की बीमारियों जैसे टाइप 2 डायबीटीज, कैंसर और दिल की बीमारी के रूप में सामने आते हैं। अगर हम बॉडी क्लॉक से छेड़छाड़ करते हैं तो पाचन क्रिया पर इसका गहरा असर पड़ता है।

क्या कंट्रोल करता है बॉडी क्लॉक
नोबेल पुरस्कार पाने वाले अमेरिकी वैज्ञानिकों ने एक ऐसे प्रोटीन (पीईआर) के बारे में पता किया है जो बॉडी क्लॉक को सही रखने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है। इसी वजह से शरीर की घड़ी सही काम करती है। इसमें असंतुलन आते ही शरीर की घड़ी गड़बड़ हो जाती है और शरीर बीमारियों में उलझता जाता है।

'रिदम' में रहना जरूरी
हमें लगता है कि रिदम बस म्यूजिक तक ही सीमित है, लेकिन सच यह है कि जिंदगी के हर पहलू में रिदम का होना बहुत जरूरी है। यह बात बॉडी क्लॉक के मामले में भी अहम है। हमारे शरीर की घड़ी अपने आसपास के माहौल के हिसाब से अपने लिए एक खास रिदम सेट कर लेती है। रिदम हर जिंदगी के लिए जरूरी है। मिसाल के तौर पर सोते वक्त जहां शरीर की गतिविधियां काफी धीमी पड़ जाती हैं, वहीं सुबह होने पर शरीर की अंदरूनी घड़ी ही इन्हें फिर से ट्रिगर करती है। अगर यह रिदम बिगड़ जाए तो सो कर उठने के बाद भी शरीर सही तरह से काम नहीं करेगा और रोजमर्रा की जिंदगी मुश्किल हो जाएगी।
को नतीजा यह है कि शरीर की घड़ी जिस तरह से शरीर को चलाती है, उस हिसाब से ही दिनचर्या बनाने से तंदुरुस्त जिंदगी पाई जा सकती है।

सबकी अलग-अलग बॉडी क्लॉक
हर इंसान की बॉडी क्लॉक थोड़ी अलग-अलग होती है, जो 22 घंटे से 25 घंटे के बीच की होती है। इसे ऐसे समझें कि जरूरी नहीं कि धरती पर 24 घंटे का दिन होने का मतलब शरीर भी इसे 24 घंटे का ही माने।
- जो लोग सुबह जल्दी उठते हैं, उनकी बॉडी क्लॉक 22 घंटे की होती है और जो देर से उठते हैं, उनकी बॉडी क्लॉक 25 घंटे की होती है। मतलब जो सुबह 5 बजे के आसपास उठते हैं उनकी बॉडी क्लॉक 24 घंटे के बजाय 22 घंटे में ही पूरी हो जाती है।
- औसतन बॉडी क्लॉक 24.5 घंटे की होती है।
- सूरज की रोशनी हमारी बॉडी क्लॉक को दुनिया के 24 घंटे के चक्र के साथ सामंजस्य बिठाने में मदद करती है। इसका मतलब है कि सुबह के वक्त आप सूरज की रोशनी के जितना संपर्क में रहेंगे, आपकी बॉडी क्लॉक उतनी तेज होगी। और वहीं शाम के वक्त सूरज की रोशनी के संपर्क में रहने से बॉडी क्लॉक धीमी होगी।

सही वक्त पर सही काम
शारीरिक रिदम के हिसाब से अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग काम के लिए बना है, मिसाल के तौर पर:
- सुबह 4:30 से 5 बजे: इस वक्त शरीर का तापमान सबसे कम होता है। सुबह के इस वक्त ठंड लगने के काफी चांस रहते हैं। एसी को इस वक्त बंद करने के लिए सेट करें।
- सुबह 6 बजे: इस वक्त शरीर तनाव बढ़ाने वाले हॉर्मोन कार्टिसोल का सबसे ज्यादा स्राव करता है। इसका कारण है कि इस समय शरीर जागने के लिए तैयार हो रहा होता है। ऐसे में इस वक्त जॉगिंग या भारी एक्सरसाइज से बेहतर रहता है योग करना।
- सुबह 7 बजे: शरीर में ब्लड प्रेशर तेजी से बदलता है। यही कारण है कि स्ट्रोक या हार्ट अटैक जैसे हादसे सुबह ज्यादा होती हैं। बीपी के पेशंट्स को किसी भी तरह की बीपी बढ़ाने वाली ऐक्टिविटी इस वक्त करने से बचें।
- सुबह 8:30 बजे: इस वक्त शरीर का बाउअल मूवमेंट सबसे तेज होता है। शौच जाने के लिए सबसे मुफीद वक्त है यह।
- सुबह 9 बजे: शरीर में टेस्टस्टेरॉन ज्यादा बनने लगता है। शरीर किसी भी तरह की ऐथलेटिक एक्टिविटी के लिए सबसे ज्यादा तैयार होता है। जिम जाकर ज्यादा देर और तगड़ा वर्कआउट करने के लिए सही वक्त होता है।
- सुबह 10 बजे: शरीर सबसे ज्यादा अलर्ट होता है। यही वजह है कि अमूमन ऑफिस में काम की शुरुआत इस वक्त रखी जाती है।
- दोपहर बाद 2:30 बजे से 5 बजे तक: इस वक्त शरीर बेहतरीन कोऑर्डिनेशन और रिएक्ट करने के हालात में होता है। बेहतर होगा कि इस वक्त फिजिकल एक्टिविटी वाला काम करें।
- शाम 5 बजे: शरीर मसल स्ट्रेंथ और कार्डियो वेस्क्युलर ऐक्टिविटी के लिहाज से सबसे मुफीद हालात में होता है। अगर मसल बनाना है और वजन घटाना है तो इस वक्त एक्सरसाइज करें।
- शाम 6:30 बजे: शरीर में ब्लड प्रेशर ज्यादा होता है। इस वक्त बीपी और दिल के मरीजों को सतर्क रहना चाहिए।
- शाम 7 बजे: शरीर का तापमान सबसे ज्यादा होता है। खुद को कूल रखें और बेहतर होगा कि किसी डिबेट या बहसबाजी से बचें।
- रात 9 बजे: शरीर में कुदरती रूप से नींद लाने वाला मेलाटोनिन बनना शुरू हो जाता है। बेड पर जाने का सबसे बेहतरीन वक्त है यह।
- रात 2 बजे: शरीर सबसे गहरी नींद में होता है। इस वक्त किसी को सोते से जगाने या किसी भी तरह की ऐक्टिविटी से बचें।
नोट: जैसा कि हम पहले भी बता चुके हैं कि जरूरी नहीं सबकी बॉडी क्लॉक एक तरह से ही चले। ऐसे में शारीरिक रिदम के हिसाब से कौन-सा वक्त किस काम के लिए सबसे मुफीद है यह एक आदर्श स्थिति है। हो सकता है कि किसी भी तरह की मजबूरी की वजह से इस घड़ी से अपनी घड़ी न मिल सके। लेकिन कोशिश करें कि यह आसपास ही रहे।

कितना सोएं, कब सोएं?
कुछ लोग रात में देर से सोते और सुबह देर से उठते हैं तो कुछ रात में जल्दी सोते और सुबह जल्दी उठते हैं। ज्यादातर लोग लगभग उसी वक्त सोते हैं, जब शरीर को नींद से सबसे ज्यादा लाभ मिलता है। उम्र का बॉडी क्लॉक और सोने के समय पर काफी ज्यादा असर पड़ता है। आइए जानते हैं कैसे:
- प्राकृतिक रूप से शरीर की संरचना इस तरह की है कि हम दिन में दो बार सोएं।
- रात में 7 से 8 घंटे की नींद और दिन में छोटी-सी झपकी।
- दोपहर तकरीबन 1 बजे हमारी शारीरिक ऊर्जा कम हो जाती है। अगर उस वक्त बॉडी क्लॉक झपकी लेने का संकेत दे रही है तो कुछ देर सोने से हिचकें नहीं। आपको जानकर हैरानी होगी कि चीन के सभी दफ्तरों में लंच के बाद झपकी लेने की परंपरा है और इसके लिए बाकायदा वक्त तय है।
- रोज दो बार सोने का यह संकेत हमारी बॉडी क्लॉक लगभग 10 साल की उम्र तक देती है।
- 10 से 20 साल के बीच शरीर हमें रात को देर से सोने और सुबह देर से उठने का संकेत भेजने लगता है।
- 20 साल की आयु के बाद हमारा स्लीपिंग पैटर्न फिर से बदलता है और हम सुबह जल्दी उठने लगते हैं।
- दिलचस्प यह है कि लगभग 55 साल की आयु में हम उसी समय सोते और उठते हैं जिस समय में हम 10 साल की उम्र में सोते और उठते थे। मतलब 55 साल की उम्र से ज्यादा के लोगों को 24 घंटे में दो बार सोने की जरूरत महसूस होती है।

इन बीमारियों का खतरा
डायबीटीज
- शरीर की बॉडी क्लॉक के खिलाफ जाने का सबसे पहला असर पाचन क्रिया पर दिखता है। ऐेसा शरीर में पैदा हुए एक खास तरह के कंफ्यूजन की वजह से होता है।
- जब बॉडी क्लॉक के खिलाफ जाकर कोई देर रात कुछ खाता है तो दिमाग न खाने का मेसेज भेजता है जबकि पेंक्रियाज को शरीर में खाना पहुंचने के बाद उसे पचाने के लिए एन्जाइम का स्राव करना पड़ता है।
- यह कंफ्यूजन कभी-कभार होने पर तो शरीर बैलेंस कर लेता है, लेकिन लगातार इस तरह की एक्टिविटी शरीर में हॉर्मोंस को असंतुलित कर सकता है। इससे टाइप 2 डायबीटीज का खतरा पैदा हो जाता है।
क्या करें
- टाइप 2 डायबीटीज में परहेज और दिनचर्या को रेग्युलर रखना सबसे जरूरी उपाय के तौर पर बताया गया है।
- रात का खाना 8 बजे से पहले खा लेना चाहिए, क्योंकि जैसे-जैसे रात होती है, हमारी बॉडी क्लॉक भी सोने की तैयारी शुरू कर देती है।
- अगर ऐसा न कर सकें तो अपने खाने के वक्त को तय करे लें। हमेशा उसी तय वक्त पर ही खाना खाएं। इससे बॉडी क्लॉक सही वक्त पर सही तरह से रिऐक्ट करेगी और हॉर्मोंस के संतुलन को बिगड़ने से बचाया जा सकेगा।

मोटापा

- बॉडी क्लॉक बिगड़ने से शरीर खाने को पूरी तरह से पचा नहीं पाता और वह फैट के रूप में शरीर के अलग-अलग भागों में जमा होने लगता है।
- अनियमित दिनचर्या रखने वालों या नाइट शिफ्ट करने वालों को मोटापा रेग्युलर शिफ्ट करने वालों के मुकाबले ज्यादा तेजी से आता है।
क्या करें
- सुबह भारी-भरकम नाश्ता करके और जैसे-जैसे दिन ढलता जाए, हल्का खाना खाकर वजन को काबू में रख सकते हैं।
क्या करें
- बॉडी क्लॉक के हिसाब से शरीर के सबसे ऐक्टिव वक्त पर (सुबह 9 बजे या दोपहर बाद 2-5 बजे के आसपास) एक्सरसाइज करने से मोटापा कम करने में तेजी से रिजल्ट मिलते हैं।
- वैसे एक्सरसाइज के लिए लिहाज से सबसे अच्छा वक्त दोपहर 2 से लेकर शाम 6 बजे तक का है। इस वक्त मांसपेशियां औसतन 6% ज्यादा मजबूत हो जाती हैं। इस वक्त शारीरिक ताकत बढ़ने का एक और कारण यह है कि हमारे फेफड़े शाम 5 बजे 17.6% बेहतर प्रदर्शन करते हैं।
- आंखों और हाथों के बीच का सामंजस्य भी इस वक्त सबसे अच्छा होता है। शरीर के जोड़ और मांसपेशियों की लचक भी शाम के वक्त बढ़ जाती है और इससे चोट का खतरा कई गुना कम हो जाता है।

कैंसर की बीमारी

- अब इस नतीजे पर पहुंचा जा चुका है कि लंबे वक्त तक बॉडी क्लॉक के डिस्टर्ब रहने से कैंसर का खतरा पैदा हो सकता है।
- लंबे वक्त तक बॉडी क्लॉक से छेड़छाड़ शरीर में हॉर्मोंस के स्राव को असंतुलित कर देता है। यह असंतुलन अगर लंबे वक्त तक बना रहे तो जींस में म्यूटेशन या बदलाव की आशंका रहती है। यह बदलाव ही कैंसर का कारण बनता है।
- चूंकि यह जीन में बदलाव की वजह से होता है ऐसे में इसके अगली पीढ़ी में जाने का भी खतरा बना रहता है।
क्या करें
- बॉडी क्लॉक के हिसाब से ही ज्यादा-से-ज्यादा जिंदगी जिएं।
- अगर ऐसा करना मुमकिन न हो तो इसमें वक्त-वक्त पर सुधार लाने की कोशिश करें।
- रेग्युलर एक्सरसाइज करते रहें। बॉडी क्लॉक को एक जैसा बनाए रखें, न कि बार-बार इसमें बदलाव लाएं।

अगर जागे 24 घंटे तो...
मेडिकल प्रफेशन से लेकर पुलिस तक, कई ऐसे प्रफेशन हैं जो 24 घंटे ड्यूटी करने पर मजबूर कर देते हैं। क्या हो सकते हैं इसके नतीजे:
- 24 घंटे लगातार जागने के बाद शरीर नशे में होने जैसा अहसास होता है। नींद पूरी न होने पर दिमाग नशे में धुत्त शराबी जैसा हो जाता है। जल्दबाजी में फैसले लेना, बोलते वक्त शब्दों को खा जाते हैं। अमेरिका में 17% जानलेवा रोड एक्सिडेंट नींद में गाड़ी चलाने की वजह से होते हैं। 6 घंटे सोने वालों के बीमार होने के आसार 7 घंटे की नींद लेने वालों के मुकाबले चार गुना ज्यादा होते हैं।
- बेहतर सेक्स लाइफ के लिए जरूरी है कि सेक्स के दौरान दिमाग पूरी तरह ऐक्टिव हो। सही तरह से नींद न लेने पर दिमाग फोकस नहीं कर पाता और इसका बुरा असर भी सेक्स लाइफ पर पड़ता है।
- जब सोते हैं, तो ब्रेन का एक हिस्सा हिपोकैंपस उस हर चीज को रिप्ले करता है, जो आपने जगते हुए सीखी है। इस तरह ये चीजें आपकी लॉन्ग टर्म मेमरी में सेव होती जाती हैं। बढ़िया नींद आपकी सतर्कता, फिर से याद करने और तार्किक क्षमता बढ़ाती है। ऐसे में एग्जाम से पहले पूरी रात जाग कर पढ़ने का आइडिया उल्टा पड़ सकता है।

ऐसे बिठाएं बॉडी क्लॉक से तालमेल
1. हर दिन एक ही समय पर उठें:
अच्छी नींद की शुरुआत दरअसल सुबह से ही हो जाती है। जिस वक्त आंखें खुलती हैं और रोशनी आंखों के पीछे की नसों तक पहुंचती है, बॉडी क्लॉक ऑन हो जाती है। इसी के साथ दिमाग से तरह-तरह के हॉर्मोन का निकलना शुरू हो जाता है। सूरज की रोशनी दिमाग को सक्रिय करती है। इसी से बॉडी क्लॉक और शरीर के बीच तालमेल स्थापित होता है।
2. नींद खुले तो उठ जाएं:
बीच रात में नींद खुल गई तो बिस्तर पर करवटें बदलते रहने से कोई फायदा नहीं। बेहतर होगा कि बिस्तर छोड़ दें और तब तक कुछ पढ़ें या फिर कोई और काम करें, जब तक कि दोबारा नींद न आ जाए। बिस्तर पर करवटें बदलते रहने से दिमाग को सही संदेश नहीं पहुंच पाता और वह यह तय नहीं कर पाता कि उसे पूरी तरह से सक्रिय हो जाना है या अभी आराम करना है।
3. वीकेंड गिफ्ट से सावधान:
सप्ताह के आखिरी दिनों में देर रात तक जागना और सुबह देर तक सोना, हमें किसी लग्जरी से कम नहीं लगता, पर खुद को यह छोटा-सा गिफ्ट देना बॉडी क्लॉक के साथ अत्याचार करने जैसा है। इससे शरीर का संतुलन बिगड़ जाता है।
4. बेवक्त न सोएं
अगर आप अपनी बॉडी क्लॉक से सही तालमेल बिठाना चाहते हैं तो बेवक्त सोने से बचें। अगर नींद आए, तब भी गलत वक्त पर न सोएं। सोने के सही वक्त मतलब रात 9 बजे के आसपास ही बिस्तर पर जाएं।
5. सूरज का सामना करें
चूंकि बॉडी क्लॉक का सीधा संबंध सूरज की रोशनी से है इसलिए सुबह उठने पर खिड़की के परदे खोल कर सूरज की रोशनी को चेहरे पर आने दें। इससे दिमाग में बॉडी क्लॉक को लेकर मेसेज तेजी से पहुंचेगा और क्लॉक को सही होने का वक्त मिलेगा। बेहतर होगा कि सोकर उठने के बाद मोबाइल की स्क्रीन देखने से पहले सूरज की रोशनी का सामना करें।
6. रात में रोशनी से बचें
रात में शरीर सोने की तैयारी कर रहा होता है। ऐसे में अगर आंखों पर तेज रोशनी पड़ेगी तो दिमाग में यही मेसेज जाएगा कि अभी सोने का वक्त नहीं आया है। मोबाइल आदि डिवाइसेज को रात में सोने से पहले तकरीबन 2 घंटे पहले ही देखना बंद कर दें। इससे बॉडी क्लॉक धीरे-धीरे सही होने लगेगी। वैसे भी मोबाइल की स्क्रीन से निकलने वाली ब्लू लाइट अनिद्रा को बढ़ाने का काम करती है।
7. रात में एक्सरसाइज से बचें
किसी भी हाल में शाम 7 बजे के बाद एक्सरसाइज न करें। इस वक्त बॉडी क्लॉक के हिसाब से दिमाग शरीर को ऐक्टिविटी धीमी करने का मेसेज भेजने लगता है और ऐसे में एक्सरसाइज करना दिमाग और शरीर के बीच कंफ्यूजन पैदा करेगा और इससे बॉडी क्लॉक से तालमेल बिगाड़ सकता है।
8. रात में चाय-कॉफी-शराब से बचें
चाय और कॉफी कैफीन और शराब एल्कोहल के जरिए शरीर को ऐक्टिव बने रहने के लिए लगातार उकसाते रहते हैं। शाम को 6 बजे के बाद किसी भी तरह ऐसा ड्रिक लेने से बचें जो शरीर को ऐक्टिव करने का काम करे।
9. जितना हो सके रिदम में रहें
हो सकता है कि पूरी तरह से बॉडी क्लॉक को फॉलो करना मुमकिन न हो सके लेकिन जितना हो सके इसे फॉलो करें। अगर ड्यूटी ईवनिंग शिफ्ट की है तो डिनर सही वक्त यानी 7-8 बजे के बीच कर लें। सुबह 8 बजे तक उठ जाएं और जरूरत पड़ने पर ऑफिस जाने से पहले दोपहर में झपकी ले लें।
10. नाइट शिफ्ट से बचें
नाइट शिफ्ट करना बॉडी क्लॉक पर सबसे बड़ा जुल्म है। हालांकि यह वक्त की जरूरत हैं। नाइट शिफ्ट लगातार करने से भी बुरा है बार-बार शिफ्ट का बदलना। अगर 3 महीने में 1 महीने के लिए नाइट शिफ्ट करना पड़े तो हर दूसरे महीने नाइट शिफ्ट करने से बेहतर है।

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रेरा का घेरा

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करीब 9 बरस पहले जब नोएडा एक्सटेंशन में फ्लैटों की बुकिंग शुरू हुई थी, तो किसी खरीदार ने नहीं सोचा था कि पजेशन मिलने में लगभग एक दशक लग जाएगा। दरअसल, नोएडा एक्सटेंशन ही नहीं, पूरे एनसीआर की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है। ऐसे में केंद्र सरकार ने बिल्डरों पर लगाम कसने के लिए करीब साल भर पहले एक कानून बनाया RERA यानी रियल एस्टेट रेग्युलेटिंग ऐक्ट। रेरा ने बिल्डरों पर कितना घेरा डाला, बता रहे हैं गुलशन राय खत्री और लोकेश के. भारती:

एक्सपर्ट्स पैनल
प्रेमलता, कंज्यूमर मामलों की एक्सपर्ट
मुरारी तिवारी, सीनियर एडवोकेट

अभय उपाध्याय, नैशनल कन्वीनर, फाइट फॉर रेरा
मनोज गौड़, वीपी, क्रेडाई नैशनल

राजीव तलवार, सीईओ, डीएलएफ

अपने घर का सपना सभी का होता है, लेकिन कई बार बुकिंग कराने और पैसा चुकाने के बावजूद इस सपने के अपना होने में बरसों लग जाते हैं। इससे खरीदार पर दोहरी मार पड़ती है। एक तरफ तो उसे किराया देना पड़ता है, दूसरी ओर ईएमआई यानी मासिक किस्त भी भरनी पड़ती है। यह स्थिति सालोंसाल बनी रहती है। खरीदार को राहत देने के लिए केंद्र सरकार ने रेरा कानून पास किया है।

केंद्र सरकार के RERA (रेरा) की मुख्य बातें
1. प्रॉजेक्ट रजिस्ट्रेशन जरूरी: बिल्डर के लिए रेरा में रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी है। खरीदार उसी प्रोजेक्ट में फ्लैट, प्लॉट या दुकान खरीदें, जो रेग्युलेटरी अथॉरिटी में रजिस्टर्ड हो। बिल्डर को अपना प्रोजेक्ट स्टेट रेग्युलेटरी अथॉरिटी में रजिस्टर करना होगा। साथ में प्रॉजेक्ट से जुड़ी सभी जानकारी देनी होगी। बिल्डर्स को प्रॉजेक्ट और टावर के हिसाब से रजिस्ट्रेशन नंबर दिया जाएगा।

2. जेल की सजा: अगर बिल्डर किसी खरीदार से धोखाधड़ी या वादाखिलाफी करता है तो खरीददार इसकी शिकायत रेग्युलेटरी अथॉरिटी से कर सकेगा। ऐसे में अथॉरिटी के फैसले को बिल्डर को मानना होगा। अगर वह इसका उल्लंघन करता है तो उसे तीन साल की सजा हो सकती है।

3. रियल एस्टेट एजेंट भी दायरे में: सिर्फ रियल एस्टेट कंपनियों को ही नहीं, बल्कि बिचौलिए की भूमिका निभाने वाले रियल एस्टेट एजेंटों को भी अपना रजिस्ट्रेशन कराना होगा। इन्हें एक तय फीस भी रेग्युलेटर के पास जमा करनी होगी। अगर ये एजेंट खरीदार से झूठे वादे करने के दोषी पाए गए तो इन्हें एक साल तक की सजा हो सकती है।

4. सरकारी प्रोजेक्ट भी दायरे में: प्राइवेट बिल्डर या डिवेलपर ही नहीं, हाउसिंग और कमर्शल प्रॉजेक्ट बनाने वाले डीडीए, जीडीए जैसे संगठन भी इस कानून के दायरे में आएंगे यानी अगर डीडीए भी वक्त पर फ्लैट बनाकर नहीं देता तो उसे भी खरीदार को जमा राशि पर ब्याज देना होगा। यही नहीं, कमर्शल प्रॉजेक्ट्स पर भी रियल एस्टेट रेग्युलेटरी कानून लागू होगा।

5. पांच साल तक जिम्मेदारी बिल्डर की: अगर बिल्डर कोई प्रॉजेक्ट तैयार करता है तो उसके स्ट्रक्चर (ढांचे) की पांच साल की गारंटी होगी। अगर पांच साल में स्ट्रक्चर में खराबी पाई जाती है तो उसे दुरुस्त कराने का जिम्मा बिल्डर का होगा।

6. प्रॉजेक्ट में देरी पर लगेगी लगाम: खरीदार को सबसे ज्यादा दिक्कत प्रॉजेक्ट्स में देरी से होती है। अक्सर खरीदारों के पैसे को बिल्डर दूसरे प्रोजेक्ट में लगा देते हैं, जिससे पुराने प्रोजेक्ट लेट हो जाते हैं। रेरा के मुताबिक, बिल्डर्स को हर प्रॉजेक्ट के लिए अलग अकाउंट बनाना होगा। इसमें खरीदारों से मिले पैसे का 70 फीसदी हिस्सा जमा करना होगा, जिसका इस्तेमाल सिर्फ उसी प्रॉजेक्ट के लिए किया जा सकेगा।

7. ऑनलाइन मिलेगी जानकारी: बिल्डर को अथॉरिटी की वेबसाइट पर पेज बनाने के लिए लॉग-इन आईडी और पासवर्ड दिया जाएगा। इसके जरिए उन्हें प्रॉजेक्ट से जुड़ी सभी जानकारी वेबसाइट पर अपलोड करनी होगी। हर तीन महीने पर प्रॉजेक्ट की स्थिति का अपडेट देना होगा। रेरा से रजिस्ट्रेशन के बिना किसी प्रॉजेक्ट का विज्ञापन नहीं दिया जा सकेगा।

8. देनी होगी पूरी जानकारी: रेरा के तहत सिर्फ नए लॉन्च होने वाले प्रॉजेक्ट्स ही नहीं आएंगे, बल्कि पहले से जारी प्रॉजेक्ट्स भी इसमें आएंगे। बिना कंप्लीशन सर्टिफिकेट वाले डिवेलपर्स को सारी जानकारी सार्वजनिक करनी होगी। मसलन वास्तविक सैंक्शन प्लान, बाद में किए गए बदलाव, कुल जमा धन, पैसे का कितना इस्तेमाल हुआ, प्रॉजेक्ट पूरा होने की वास्तविक तारीख क्या थी और कब तक पूरा कर लिया जाएगा। सभी राज्यों में रेग्युलेटरी अथॉरिटी को रियल एस्टेट प्रॉजेक्ट्स और रजिस्टर्ड रियल स्टेट एजेंट्स को नियंत्रित करना होगा। अथॉरिटी को एक वेबसाइट भी मेंटेन करनी होगी, जिसमें सभी प्रॉजेक्ट्स की जानकारी अपडेट होगी। केंद्रीय आवास एवं कार्य मंत्री हरदीप सिंह पुरी का कहना है कि रेरा ने लोगों की दिक्कतों को काफी कम किया है। राज्य सरकारें इसे उत्साह के साथ लागू कर रही हैं।

9. बुकिंग राशि: बिल्डर अडवांस या आवेदन शुल्क के रूप में 10 पर्सेंट से ज्यादा रकम नहीं ले सकेंगे, जब तक कि बिक्री के लिए रजिस्टर्ड अग्रीमेंट न हो जाए।

10. कंस्ट्रक्शन की क्वॉलिटी: पजेशन के 5 साल के भीतर अगर कोई टूट-फूट होती है बिल्डर को बिना कोई पैसा लिए 30 दिन के भीतर मरम्मत करानी होगी।

11. देरी से डिलिवरी पर मुआवजा: अगर खरीदार को वक्त पर पजेशन नहीं मिलता है तो खरीदार अपना पूरा पैसा ब्याज समेत वापस ले सकता है या फिर पजेशन मिलने तक हर महीने ब्याज ले सकता है।

12. शिकायतें होंगी दूर: सभी राज्यों में रियल एस्टेट अपीलीय ट्रिब्यूनल का गठन किया जाएगा। अगर किसी शख्स को अथॉरिटी के किसी फैसले या आदेश पर ऐतराज हो तो वह ट्रिब्यूनल के सामने अपील दाखिल कर सकता है।

खरीदार कैसे करें शिकायत
अगर आप भी अपने बिल्डर से नाखुश हैं तो रेरा में ऑनलाइन शिकायत कर सकते हैं। सभी राज्यों ने रेरा के लिए अलग-अलग वेबसाइट्स बनाई हैं। सबसे पहले तो यह देखना होगा कि क्या वह प्रॉजेक्ट रेरा में रजिस्टर्ड है? यह जानकारी रेरा की वेबसाइट से मिल जाएगी।

स्टेप 1
पहले राज्य की वेबसाइट पर जाएं और अपना यूजर आईडी व पासवर्ड क्रिएट करें। कुछ वेबसाइट्स पर बिना आईडी बनाए भी शिकायत कर सकते हैं।

स्टेप 2
इसके बाद वेबसाइट के होम पेज पर ही complaint को क्लिक करें। उसके बाद register complaint में जाकर पूरी डिटेल्स भरें। आप किसी बिल्डर के खिलाफ शिकायत कर रहे हैं उसकी डिटेल्स भरें, फिर अपनी।

स्टेप 3
प्रॉपर्टी से संबंधित सभी डॉक्युमेंट्स मसलन पेमंट रसीद, अग्रीमेंट की कॉपी, लेआउट प्लान आदि को स्कैन कर डाउनलोड करना होगा।

स्टेप 4
फिर पेमंट करना होगा। यह ऑनलाइन या ऑफलाइन दोनों तरीके से हो सकता है। यूपी, दिल्ली, हरियाणा में यह 1000 रुपये है और महाराष्ट्र में 5000 रुपये।

स्टेप 5
इसके बाद आपको कंप्लेंट नंबर मिलेगा। इस नंबर और डॉक्युमेंट्स को मिलाकर 3 या 5 कॉपी तैयार कर लें। यह हर राज्य के अनुसार अलग-अलग है।

स्टेप 6
इन तैयार कॉपी की एक हार्डकॉपी रेरा को, एक बिल्डर को देनी होगी और एक अपने पास रखनी होगी। फिर complaint के अंदर ही कंप्लेंट नंबर डालकर अपनी शिकायत का स्टेटस चेक करते रहें।

नोट: हरियाणा में चूंकि अभी वेबसाइट नहीं बनी है, इसलिए वहां पर ऑफलाइन ही शिकायत करें। फीस 1000 रुपये है, जोकि रेरा अथॉरिटी के नाम डिमांड ड्राफ्ट बनाकर देना होगा।

कंस्यूमर फोरम में केस है तो...
अधिकारियों का कहना है कि कई शिकायतकर्ता ऐसे हैं, जिन्होंने कंस्यूमर फोरम में भी मामला दाखिल किया हुआ है। ऐसे में एक ही मामला दो जगह नहीं चल सकता। कंस्यूमर को अगर रेरा में शिकायत करनी है तो पहले उपभोक्ता फोरम से अपना मामला वापस लेना होगा। अगर वे कंस्यूमर फोरम में ही मामला चलाना चाहते हैं तो उन्हें रेरा में शिकायत नहीं करनी चाहिए।

दिल्ली
प्रॉजेक्ट रजिस्ट्रेशन के लिए आए आवेदन: 16
रजिस्टर हुए प्रॉजेक्ट: 0
अब तक मिली शिकायतें: 3
शिकायतों पर फैसला: 1
फीस: 1000 रुपये

डीडीए का रोल
दिल्ली में डीडीए के उपाध्यक्ष ही अंतरिम रेग्युलेटर के रूप में काम कर रहे हैं।
वेबसाइट: dda.org.in/rera

ऑफिस का पता
14वां फ्लोर, विकास मीनार,
आईटीओ, नई दिल्ली - 110002
ईमेल: secretary_dda.org.in

हरियाणा रेरा
वेबसाइट: अभी बनी नहीं
अब तक हरियाणा रेरा की वेबसाइट नहीं बनी है लेकिन प्रॉजेक्टस का रजिस्ट्रेशन ऑफलाइन शुरू हो चुका है। शिकायत भी ऑफलाइन ही करनी होगी।
प्रॉजेक्ट रजिस्ट्रेशन के लिए आवेदन: 590
रजिस्टर हुए प्रॉजेक्ट: 310
एजेंट रजिस्ट्रेशन के लिए आए आवेदन: 519
रजिस्टर किए गए एजेंट: 460
मिली शिकायतें: 166 (ईमेल से मिली हैं लेकिन ज्यादातर आधी-अधूरी हैं)
रेरा अथॉरिटी के सामने आईं कंप्लीट शिकायतें: 18
सुलझाई गई शिकायतें: 0
फीस: 1000 रुपये

ऑफिस का पता
हुडा परिसर
सेक्टर-6, पंचकूला, हरियाणा - 134109
ईमेल: office.rera.hry @ gmail.com

यूपी रेरा
वेबसाइट: up-rera.in
रजिस्टर्ड प्रोजेक्ट के खिलाफ शिकायतें: 650
अन-रजिस्टर्ड प्रॉजेक्ट के खिलाफ शिकायतें: 39
अब तक सुलझाए गए मामले: 0, लेकिन शिकायतों पर नोटिस जारी कर दिए गए हैं।
शिकायतों पर कार्रवाई के लिए व्यवस्था: रेरा समेत 11 अधिकारियों को इस मामले में शिकायतों की सुनवाई और फैसले का अधिकार देते हुए नियुक्त किया गया है। इनमें से कुछ यूपी में ही अलग-अलग शहरों के विकास प्राधिकरणों के प्रमुख अधिकारी भी हैं। लेकिन हितों का टकराव न हो, इसके लिए तय किया गया है कि अगर किसी विकास प्राधिकरण के खिलाफ शिकायत होगी तो उसी प्राधिकरण का अधिकारी शिकायत पर फैसला नहीं दे सकेगा। यह शिकायत किसी दूसरे विकास प्राधिकरण को ही सुनवाई के लिए भेजी जाएगी।

यूपी रेरा का पता
फर्स्ट फ्लोर, जनपथ मार्केट
हजरतगंज, लखनऊ - 226001
ईमेल: contactuprera@gmail.com

वेबसाइट: maharera.mahaonline.gov.in (दमन-दीव और दादरा नगरहवेली के लिए भी यही साइट है)
कुल रजिस्टर हुए प्रॉजेक्ट: 13,950
कुल रजिस्टर हुए एजेंट: 10,000
रेरा को मिली कुल शिकायतें: 470
अधूरे दस्तावेज की वजह से पेंडिंग: 221
जिन मामलों पर सुनवाई चल रही है: 214
जिन मामलों पर हुआ फैसला: 46
फीस: 5000 रुपये

ऑफिस का पता
महाराष्ट्र रियल एस्टेट रेग्युलेटरी अथॉरिटी
थर्ड फ्लोर, ए-विंग, स्लम रिहेबलिटेशन अथॉरिटी
एडमिनिस्ट्रेटिव बिल्डिंग, अनंत कनेकर मार्ग
बांद्रा (ई), मुंबई 400051
फोन: 022- 2659-0036
ईमेल: maharera.helpdesk@gmail.com

कुछ कॉमन सवाल

रेरा क्या है? क्या अलग-अलग राज्य में इसके नियम अलग-अलग हैं?
रेरा का मतलब है रियल एस्टेट रेग्युलेटरी अथॉरिटी। संसद ने यह कानून इसलिए पास किया ताकि रियल एस्टेट सेक्टर में पारदर्शिता आए और आशियाना खरीदने वालों को बिल्डरों के हाथों धोखाधड़ी से बचाया जा सके। संसद ने इस कानून को पास किया लेकिन इस कानून के तहत नियम बनाने का अधिकार राज्य सरकारों को है लेकिन केंद्र सरकार ने मॉडल नियम बनाए हैं ताकि राज्य उनके आधार पर अपने राज्य के लिए नियम बना सकें।

रेरा में शिकायत करने का तरीका क्या है?
रेरा में शिकायत करने का सभी जगह तरीका एक जैसा ही है। सभी राज्यों की रेग्युलेटरी अथॉरिटी के लिए अपनी अपनी वेबसाइट बनाना अनिवार्य है। इस वेबसाइट पर जाकर कोई भी खरीदार या बिल्डर शिकायत दर्ज करा सकता है। इसके अलावा रेरा के चेयरमैन को लिखित में भी शिकायत की जा सकती है। खरीदार चाहे तो ऐसे बिल्डरों के खिलाफ भी शिकायत कर सकता है जो रेरा में अभी रजिस्टर्ड नहीं हुए हैं।

रेरा में संतुष्ट नहीं होने पर कोर्ट जा सकते हैं?
अगर शिकायतकर्ता रेरा के फैसले से संतुष्ट नहीं है तो वे इसके खिलाफ अपीलीय अथॉरिटी में जा सकते हैं। अगर अपीलीय अथॉरिटी से भी शिकायतकर्ता संतुष्ट नहीं होता तो वह राज्य के हाई कोर्ट में जा सकता है।

दिवालिया होने पर क्या रेरा की कोई भूमिका है?
अगर कोई बिल्डर या उसकी कंपनी दिवालिया होती है तो भी रेरा लागू होगा। मसलन नोएडा के जिन बिल्डरों पर दिवालिया होने की कवायद हो रही है, उन्हें भी अपने प्रॉजेक्ट रेरा में रजिस्टर कराने होंगे। अगर वहां भी बिल्डर गलत जानकारी देता है तो उस पर भी कार्रवाई हो सकेगी।

क्या रेरा पर डाली गईं डिटेल्स का वेरिफिकेशन होता है?
बिल्डर को रजिस्ट्रेशन के वक्त प्रॉजेक्ट से जुड़े दस्तावेज देने होते हैं। इनमें स्थानीय निकायों की ओर से मिले 'नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट' भी शामिल हैं। ये दस्तावेज बिल्डरों को एक हलफनामे के साथ देने होते हैं। इस हलफनामे में उसे बताना होता है कि वह जो जानकारी और दस्तावेज दे रहा है, वे सही हैं। ऐसे में अगर फ्रॉड करके नकली दस्तावेज डाले जाते हैं तो डिवलेपर पर उसी तरह की कानूनी कार्रवाई हो सकती है, जैसी धोखाधड़ी के मामले में किसी शख्स के खिलाफ होती है।

क्या रेरा में रजिस्ट्रेशन करा लेने से बिल्डर पूरी तरह भरोसेमंद हो जाता है?
प्रॉजेक्ट के रजिस्टर कराने का अर्थ यह माना जाना चाहिए कि बिल्डर ने जो घोषणाएं की हैं, वे खरीददार के लिए ही नहीं, सरकार के लिए भी मानी जाएंगी। ऐसे में अगर बिल्डर अपनी घोषणा से पीछे हटता है या फिर उसमें हेराफेरी करता है तो यही उसके खिलाफ सबूत माना जाएगा। इसके अलावा यह भी है कि अगर बिल्डर की ओर से दी गई जानकारी पर किसी को संदेह है तो वह रेग्युलेटर के सामने शिकायत कर सकता है। इस शिकायत पर भी जांच होगी और अगर संदेह सही पाया जाता है तो बिल्डर के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है।

किसी बिल्डर ने वेबसाइट पर पजेशन डेट 2019 दी है, जबकि फ्लैट बेचते वक्त वह खरीदार को 2020 बोल रहा है। ऐसे में क्या करें?
यूपी में कई ऐसे प्रॉजेक्ट हैं, जिनमें पजेशन 2014-15 में देने का वादा किया गया था, उनके अब पूरा होने की तारीख 2022 या 2023 बताई गई है। बीते दिनों इन मामलों की शिकायत रेरा के पास आवंटियों ने की है। रेरा से जुड़े जांच अधिकारी इसकी जांच कर रहे हैं। वे इनका परीक्षण करेंगे और बताएंगे कि शिकायतें दुरुस्त हैं या नहीं। अगर खरीदारों की शिकायतें सही पाई गईं तो बिल्डरों, प्रमोटरों और डिवेलपरों से पेनल्टी ली जाएगी। ले-आउट प्लान सैंक्शन होने पर प्रॉजेक्ट के शुरू होने की तारीख से लेकर उसके खत्म होने की संभावित तारीख तक दर्ज होती है।

क्या सभी बिल्डरों ने रेरा में अपना रजिस्ट्रेशन करा लिया है?
यह जरूरी नहीं है। अलग-अलग स्टेट की रेरा अथॉरिटी इसकी जांच कर रही है। वैसे यूपी में अभी तक रेरा ने 39 ऐसे प्रॉजेक्ट पाएं हैं, जिनका रेरा में रजिस्ट्रेशन नहीं कराया गया है। रेरा ने इन सभी बिल्डरों को नोटिस जारी किया है। जवाब आने के बाद रजिस्ट्रेशन न कराने के लिए पेनल्टी लगाई जाएगी। जिनको नोटिस भेजा गया है, उनमें से 29 गौतमबुद्धनगर के, दो आगरा के, दो बरेली के, चार मोदीनगर के और लखनऊ व बनारस के एक-एक प्रोजेक्ट हैं।

रेरा के फैसले को मानने के लिए बिल्डर कितने मजबूर हैं?
बिल्डर को भी रेरा का फैसला मानना होगा। हां, खरीदार की तरह ही उसके पास भी अपीलीय अथॉरिटी के पास अपील करने का अधिकार होगा।

रेरा के नियम किस तरह के फ्लैट पर लागू नहीं होते?
रेरा के नियम 500 वर्ग मीटर से कम जमीन पर बने या फिर आठ से कम अपार्टमेंट पर लागू नहीं होंगे। अगर कोई बिल्डर 400 वर्ग मीटर जमीन पर 10 फ्लैट बनाता है तो वह भी रेरा के दायरे में आएगा। इसी तरह से अगर कोई बिल्डर 500 वर्ग मीटर से ज्यादा की जमीन पर 8 से कम फ्लैट बनाता है, तो भी वह रेरा के दायरे में ही आएगा। हालांकि राज्यों के अनुसार, यह एरिया और नंबर अलग-अलग हो सकता है।

दिल्ली में शिकायत कैसे की जा सकती है?
ऑनलाइन और ऑफलाइन, दोनों ही तरह से लेकिन शिकायत और दस्तावेज की हार्ड कॉपी जमा करानी होगी। अभी ऑनलाइन फीस की व्यवस्था नहीं है इसलिए ड्राफ्ट बनवाकर देना होगा।

किसी भी खरीदार को प्रॉपर्टी खरीदते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
रेरा के तहत अपने बिल्डर की पूरी जानकारी हासिल करें। रेरा के तहत हर राज्य की अपनी वेबसाइट है। वेबसाइट पर हर बिल्डर को रजिस्टर करना होता है। बिल्डिंग प्लान, सैंक्शन प्लान, कॉमन एरिया, मिलने वाली सुविधाएं, पजेशन कब मिलेगा जैसी तमाम डिटेल्स डालनी होती हैं। यहां रजिस्टर करने के बाद उसे एक नंबर मिलता है। जिसे भी घर चाहिए वह रेरा की वेबसाइट पर जाए और उस नंबर को भरे, इसके बाद डिवेलपर्स के बारे में सारी जानकारी पेज पर आ जाएंगी। पजेशन के टाइम के साथ यह भी पता चलेगा कि अभी प्रॉजेक्ट की क्या स्थिति है जबकि रेरा आने से पहले ऐसा कोई सोर्स या रास्ता नहीं था, जहां से इतनी सारी जानकारी मिल सकती थी।

अगर किसी ने बहुत पहले फ्लैट बुक कराया लेकिन उसे पजेशन अभी तक नहीं मिला है। वह क्या करे?
इसके लिए बहुत ही आसान उपाय हैं। वह दो काम कर सकता है। पहला है बिल्डर का कंप्लीशन सर्टिफिकेट चेक कर लें। यह एक काफी भरोसेमंद डॉक्युमेंट है जो यह बताएगा कि आपकी बिल्डिंग ठीकठाक बनी है या नहीं, बिल्डर ने जो वादे किए थे, उन्हें पूरा किया गया है या नहीं है। अगर कंप्लीनशन सर्टिफिकेट मिला है तो इसका मतलब है कि एरिया की लोकल अथॉरिटी ने यह तसदीक कर दी है कि कंस्ट्रक्शन का काम लेआउट प्लान के अनुसार ही हुआ है। दूसरा है कि यह चेक करें कि आपका फ्लैट रेरा के तहत आता है या नहीं। हर राज्य के अपने नियम हैं निर्माणाधीन प्रॉजेक्ट को लेकर। ज्यादातर जोर इस बात पर दिया जाता है कि अगर कंप्लीनशन सर्टिफिकेट नहीं हों, तो क्या करें। जैसे यूपी का ही मसला लें। अगर किसी प्रॉजेक्ट के 60 फीसदी यूनिट बिक चुके हैं या प्रॉजेक्ट का पजेशन पूरा हो चुका है और आरडल्ब्यूए का गठन किया जा चुका है तो आप निर्माणाधीन प्रॉजेक्ट की परिभाषा से बाहर हैं। अगर आपका प्रॉजेक्ट तीन-चार साल भी पुराना है लेकिन ये दोनों में से कोई भी बात आपके प्रॉजेक्ट पर लागू नहीं होतीं तो आपके प्रॉजेक्ट पर भी रेरा के नियम लागू होंगे। और आप उनके खिलाफ रेरा के पास जा सकते हैं और उससे वे सभी चीजें हासिल कर सकते हैं, जो खरीदार ने आपसे वादा किया था।

क्या ऐसे बिल्डरों के खिलाफ शिकायत कर सकते हैं, जो रजिस्टर्ड नहीं हैं?
बिलकुल, ऐसे डिवेलपर के खिलाफ शिकायत की जा सकती है लेकिन यह देखना होगा कि रेरा ऐक्ट के तहत ऐसे बिल्डर उसके दायरे में आते हैं या नहीं। जो बिल्डर इसके दायरे में आते हैं, उनके खिलाफ शिकायत की जा सकती है। कानूनन ऐसे बिल्डरों को अपने प्रॉजेक्ट रजिस्टर कराने होते हैं।

अगर किसी ने विज्ञापन में रेरा में रजिस्ट्रेशन का नंबर दिया है तो उसे कैसे चेक करेंगे?
बिल्डर ने अगर विज्ञापन में रेरा रजिस्ट्रेशन का नंबर दिया है तो स्टेट रेरा की वेबसाइट पर जाकर उस नंबर को डालने पर बिल्डर और उसके प्रोजेक्ट के बारे में पूरी जानकारी आ जाएगी। अगर किसी ने गलत जानकारी दी है तो उसे प्रॉजेक्ट की कीमत के 10 फीसदी के बराबर पेनल्टी भी देनी होगी यानी 1000 करोड़ के प्रॉजेक्ट पर 100 करोड़ की पेनल्टी लगेगी। वहीं कानून को नहीं मानने पर 2 साल की सजा का भी प्रावधान है।


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जब हो हवा बीमार...

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प्रदूषण लोगों को बीमार बना रहा है। बढ़ते प्रदूषण से राहत के लिए दिल्ली-एनसीआर में दिवाली के मौके पर पटाखों की बिक्री को बैन भी कर दिया गया। हालांकि प्रदूषण अब भी खतरनाक लेवल पर बना हुआ है। प्रदूषण से होने वाली समस्याओं और उनके निदान पर एक्सपर्ट्स से बात करके पूरी जानकारी दे रही हैं पूजा मेहरोत्रा

एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. अरविंद कुमार, चेयरमैन, चेस्ट एंड रोबॉटिक सर्जरी, सर गंगाराम अस्पताल
डॉ. जी. सी. खिलनानी, पल्मोनॉलजिस्ट, एम्स
डॉ. वाई. के. सैनी, सीनियर कंसलटंट, आयुर्वेद, बीएलके हॉस्पिटल
सुनील सिंह, योग गुरु

क्या आपको बेवजह आंखों में जलन महसूस होती है या फिर घर से निकलते ही सांस लेने में तकलीफ-सी महसूस होती है, अक्सर खांसी आने लगती है, कभी भी शरीर में खुजली लगने लगती है...? अगर हां, तो इसकी वजह प्रदूषण हो सकता है। प्रदूषण हमें बीमार कर रहा है। आंख, सांस की बीमारी से लेकर कैंसर तक की वजह बन रहा है प्रदूषण।
वायुमंडल में हर गैस की एक निश्चित मात्रा होती है। इन गैसों में से किसी की मात्रा जब तय मात्रा से ज्यादा हो जाए तो वह वायु प्रदूषण का कारण बन जाता है और यह स्थिति हेल्थ के लिए नुकसानदेह होती है।

कैसे पहचानें प्रदूषण के नुकसान को
हमारे शरीर का कोई ऐसा अंग नहीं जो प्रदूषण की चपेट में न हो। सिर के बाल से लेकर पैर के नाखून तक, सब पर प्रदूषण अपना असर छोड़ रहा है। वायु प्रदूषण के चलते जरिए जहरीले तत्व सांस में घुल कर शरीर में पहुंच रहे हैं और अपना असर शरीर के विभिन्न अंगों पर छोड़ रहे हैं। अब सवाल यह उठता है कि पता कैसे चले कि प्रदूषण हमें कैसे नुकसान पहुंचा रहा है? इसका आसान-सा तरीका है। अगर आपको अचानक सांस लेने में तकलीफ होने लगे, सांस खींचने में जोर लगाना पड़े तो समझ जाएं कि आप प्रदूषण की गिरफ्त में हैं। अचानक किसी इलाके में या फिर किसी खास वक्त आपकी आंखों से पानी आने लगे या आंख में जलन और खुजली शुरू होने लगे तो समझ जाना चाहिए कि आपकी आंखें प्रदूषण सह नहीं पा रहीं। इसी तरह आप घर से सही-सलामत निकले और अचानक सड़क पर आते ही गले में खिच-खिच या जलन महसूस होने लगे तो इसकी वजह प्रदूषण हो सकता है।

कौन फैला रहा है प्रदूषण
प्रदूषण भी दो तरह का है, एक कुदरती और दूसरा इंसानी यानी जो हम फैला रहे हैं।
कुदरती प्रदूषण
- जंगल में आग लग जाना
- ज्वालामुखी का फटना
- रेगिस्तान में धूल भरी आंधी चलना आदि
नोट: इस तरह के प्रदूषण को रोकना मुमकिन नहीं है, लेकिन इनका नुकसान भी ज्यादा नहीं है क्योंकि इनमें से ज्यादातर इंसानी बस्ती से दूर होते हैं।

इंसानी प्रदूषण
- पावर प्लांट से निकलने वाला पलूशन
- फैक्टरियों से निकलनेवाली जहरीली गैसें और अवशेष
- गाड़ियों, जेनरेटरों से निकलने वाला धुआं
- फसल कटाई के बाद खेतों में लगाई जाने वाली आग
- पेंट, हेयर स्प्रे, वार्निश आदि चीजों से फैलने वाला प्रदूषण
नोट: यह प्रदूषण ज्यादा खतरनाक है क्योंकि पर्यावरण के अलावा इसका सीधा असर हम इंसानों पर भी पड़ता है और यह पलूशन लगातार फैलता है।

किन-किन गैसों का क्या असर
ओजोन: अगर हवा में ओजोन की मात्रा बढ़ जाती है तो यह फेफड़ों के काम करने की क्षमता को सीधा प्रभावित करती है। सांस लेने में दिक्कत होने लगती है, अस्थमा के मरीजों के लिए दिक्कतें बढ़ जाती हैं।
नाइट्रोजन हाई ऑक्साइड (NO2): गैस का सीधा असर फेफड़ों पर होता है। अस्थमा के मरीजों में खांसी और ब्रोंकाइटिस की समस्या बढ़ जाती है और लंबे समय तक इस गैस के संपर्क में रहने से बच्चों में सांस की समस्या पैदा होती है। साथ ही याददाश्त पर भी इसका असर होता है।
सल्फर डाई ऑक्साइड (SO2): इसका सीधा असर आंखों और सांस की नली पर होता है। आंखों में खुजली और सांस की नली में जलन महसूस होने लगती है। सांस की नली में इन्फेक्शन के चांस बढ़ जाते हैं। यह गैस पानी के साथ मिलकर सल्फ्यूरिक एसिड बनाती है और एसिड रेन का कारण बनती है।

प्रदूषण से कौन-सी बीमारियां

आंखों पर असर
जो लोग फैक्टरी के पास या फिर ज्यादा प्रदूषण वाले इलाके में रहते हैं, उनकी आंखें अक्सर लाल हो जाती हैं, जलन होती है, पानी आने लगता है, खुजली होती है और ड्राईनेस की शिकायत रहती है। डॉक्टर अक्सर ऐसी परेशानियों में मरीजों को आट्रिफिशल आई वॉटर ड्रॉप देते हैं।
बचाव और इलाज
फैक्टरी में तो पूरे दिन ही धुआं निकलता रहता है, लेकिन सुबह और शाम ट्रैफिक के साथ पलूशन का लेवल सड़कों पर भी बढ़ जाता है। ऐसे समय में खास एहतियात बरतने की जरूरत होती है। अच्छी क्वॉलिटी वाले सनग्लास आंखों को धुएं और पलूशन के सीधे संपर्क में आने से भी बचाते हैं। डॉक्टर लूब्रिकेटिंग ड्रॉप्स जैसे कि जस्ट टियर, टियर प्लस, आईटोन, रिफ्रेश लिक्विजेल आदि डालने की सलाह देते हैं। इन दवाओं से पलूशन से होने वाली जलन के अलावा ड्राइनेस भी खत्म होती है।

स्किन और बालों पर असर
प्रदूषण से बालों का टेक्सचर खराब होता है और बाल गिरने लगते हैं। डैंड्रफ भी बढ़ जाती है। बालों की चमक खोने लगती है। इसी तरह स्किन पर दाग-धब्बे हो जाते हैं और वह रूखी व बेजान लगती है। प्रदूषण से चेहरे की चमक खोने लग जाती है। एग्जिमा, स्किन एलर्जी, रैशेज, उम्र से पहले झुर्रियां आने से लेकर स्किन के कैंसर तक की आशंका बढ़ जाती है।

बचाव और इलाज
अगर आप ज्यादा पलूशन वाले इलाके में रहते हैं तो बालों को खास देखभाल की जरूरत है। बाहर निकलें तो बालों को हमेशा ढककर रखें। हर दूसरे दिन अच्छी क्वॉलिटी के माइल्ड शैंपू से बालों को धोएं। धोने से पहले अगर तेल से सिर में मसाज की जाए तो भी बालों पर पलूशन का असर कम देखने को मिलता है। लेकिन धोने के बाद बालों में तेल नहीं रहना चाहिए। बालों को पलूशन से बचाने वाले कई तरह के सीरम भी बाजार में मिलते हैं। जहां तक संभव हो चेहरे और स्किन को पलूशन के सीधे अटैक से बचा कर रखें। बचाना मुमकिन नहीं हो तो खासकर चेहरे को दिन में 3-4 बार जरूर धोएं। पलूशन से बचानेवाले स्किन प्रॉडक्ट भी यूज कर सकते हैं।

प्रजनन पर प्रभाव
प्रदूषण से पुरुष और महिला, दोनों की सेक्सुअल परफॉर्मेंस और प्रजनन क्षमता प्रभावित होती है। स्पर्म और एग बनने की क्षमता कम हो जाती है। मिस-कैरिज, प्री-मच्योर डिलिवरी और बच्चे का वजन कम होने की आशंका इससे बढ़ जाती है। बच्चे के मानसिक और शारीरिक विकास पर भी असर पड़ता है।
बचाव और इलाज
रोकथाम के लिए बेहतर है कि ज्यादा पलूशन वाले इलाकों में जाने से बचें। घर से बाहर निकलते हुए मास्क पहनें।

दिल पर प्रभाव
ज्यादा प्रदूषित इलाके में रहनेवाले लोगों में हार्ट अटैक के खतरे ज्यादा होते हैं। हार्ट से जुड़ी दूसरी समस्याओं की आशंका भी बढ़ जाती है।
बचाव और इलाज
विशेषज्ञों को मानना है कि प्रदूषण से बचाव ही इलाज है। दिल के मरीजों को प्रदूषण वाली जगहों पर जाने से बचना चाहिए। अगर जाएं भी तो मास्क लगा कर जाएं। अगर दिल की समस्या हो तो प्रदूषित इलाकों से दूर शिफ्ट हो जाएं।

सांस की नली पर असर
प्रदूषण से सांस की नली पर बहुत असर होता है। उसमें जलन होने लगती है और सांस लेने में रुकावट महसूस होती है।

बचाव और इलाज
प्रदूषण वाली जगहों पर जाने से बचें और मास्क पहन कर रखें। कैंसर से लेकर पार्किंसंस और अल्टशाइमर्ज जैसी बीमारियां होने की आशंका भी बढ़ जाती है।

मास्क और एयर प्यूरीफायर की भूमिका
विशेषज्ञों की इस पर अलग-अलग राय है। कुछ का मानना है कि मास्क प्रदूषण से बचाव में कुछ हद तक मदद करता है, लेकिन कुछ कहते हैं कि इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। अच्छी क्वॉलिटी के N1 मास्क से थोड़ा-बहुत बचाव मुमकिन है, लेकिन सस्ते मास्क का कोई फायदा नहीं। यहां तक कि एयर प्यूरीफायर को भी ज्यादातर एक्सपर्ट किसी काम का नहीं समझते। फिलहाल बाजार में कई कंपनियों के एयर प्यूरीफायर मौजूद हैं और वे घर को प्रदूषणमुक्त बनाने का दावा करते हैं, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि प्यूरीफायर हवा को कितना शुद्ध कर रहा है, यह बताना मुश्किल है। भारतीय घर हवादार, बड़ी खिड़कियों वाले बनाए जाते हैं, उनमें ये किस तरह से काम करते हैं, इसके बारे में कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता है। वैसे, एयर प्यूरीफायर की कीमत 7000 रुपये से शुरू हो जाती है। फिलिप्स, शियोमी, केंट समेत कई कंपनियों के प्यूरीफायर मार्केट में मौजूद हैं।

कम करें घर का प्रदूषण
- अक्सर हम घर में पौधे लगाते हैं, लेकिन वे प्लास्टिक के सजावटी पौधे होते हैं। ये पल्यूशन को बढ़ाते हैं। इन पर धूल जमती है जो हमें साइनस और एलर्जी देती है। बेहतर होगा कि घरों में असली इनडोर प्लांट लगाएं।
- हम घर में दीया और अगरबत्ती, कपूर आदि जलाते हैं, लेकिन घर में जितना धुआं होगा, हमारा घर उतना अशुद्ध होगा। सीधा फंडा समझिए, जिस भी चीज को जलाने पर कार्बन (कालिख) निकलता है, वह सेहत के लिए नुकसानदेह है।
- घर में साफ-सफाई के साथ-साथ गद्दे-तकिये को भी धूप में रखें। अगर नहीं रख सकते तो हफ्ते में कम-से-कम एक बार उन्हें अच्छी तरह झाड़ें और इनके कवर बदलें।

आयुर्वेद
- नीम की पत्तियों को पानी में उबाल कर नहाएं और रात में सोने से पहले इस पानी से चेहरा धोएं तो प्रदूषण का असर कम होगा। नीम की तीन-चार पत्तियां सुबह-सुबह खाएं। ये हमारे खून को साफ करने में मदद करती हैं।
- घर में तुलसी लगाएं। तुलसी घर के प्रदूषण को कम करती है। हर दिन तुलसी की चार-पांच पत्तियों का सेवन करने से सांस की नली साफ रहती है।
- एक चम्मच हल्दी आधा चम्मच घी या शहद के साथ सुबह-सुबह खाली पेट लेने से कई बीमारियां दूर रहती हैं। हल्दी में एंटी-ऑक्सीडेंट होते हैं जो हमारे इम्यून सिस्टम को मजबूत करते हैं और हमें बीमारियों से लड़ने के लिए मजबूत बनाते हैं।
- गाय के घी की दो-तीन बूंदें सुबह उठने के बाद और रात में सोने से पहले, नाक के दोनों छेदों में डालें तो नाक पर प्रदूषण का बुरा असर कम होता है।
- गिलोय का जूस खाली पेट पिएं या फिर आधा चम्मच हल्दी के साथ लें। इससे इम्यून सिस्टम मजबूत होता है।
- शरीर की नियमित मसाज से भी बहुत फायदा होता है। अगर सरसों का तेल या देसी घी गर्म करके मसाज करते हैं तो यह ब्लड के सर्कुलेशन को बढ़ाता है और प्रदूषण से होने वाली कई बीमारियों से लड़ने में मदद करता है।

योग
- प्राणायाम प्रदूषण से लड़ने में मदद करता है। प्राणायाम करने के लिए ऐसा पार्क चुनें, जहां पेड़-पौधे बहुत हों और गाड़ियों की आवाजाही कम हो।
- अलोम-विलोम, कपालभाति, गहरी सांस और जलनेति क्रिया शरीर में प्रदूषण के प्रभाव को कम करती है। जलनेति एक्सपर्ट से सीखकर ही करें।

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...प्लांट करो ऑक्सिजन

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ताज़ी हवा न सिर्फ हमें प्रदूषण से होने वाली बीमारियों से बचाती है, बल्कि यह हमारे तन-मन को भी फ्रेश बनाए रखती है। अब घर के अंदर ताजा हवा कैसे मिलेगी, इसका जवाब बड़ा ही आसान है। दरअसल, ऐसे कई पौधे हैं, जो आपके घर में ऑक्सिजन की मात्रा बढ़ा सकते हैं। खासियत यह है कि ये न ज्यादा जगह घेरते हैं, न ही ज्यादा महंगे हैं। घर में प्रदूषण कम करनेवालों पौधों की जानकारी दे रहे हैं रजत त्रिपाठी...

एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ.सुभाष साहू, असिस्टेंट प्रफेसर, चौ. ब्रह्म प्रकाश आयुर्वेदिक हॉस्पिटल
डॉ. सौरभ पुरवार, आयुर्वेदिक एक्सपर्ट
कमल मिएटल, सीईओ, पहाड़पुर बिजनेस सेंटर

इनसे मिलेगी ताजा हवा
यों तो घर में पौधे लगाना लोग पसंद करते ही हैं और ज्यादातर सभी पौधे हमारे लिए अच्छे हैं लेकिन कुछ पौधे खासतौर पर घर में फैले एयर पलूशन को कम करते हैं। ऐसे ही कुछ पौधे हैं:

ऐलो वेरा (Aloe Vera)
- यह एयर पलूशन को सोखता है
- यह स्किन और बालों को तो सुंदर बनाता ही है, कब्ज और मोटापे को भी कम करता है
- इसे ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती
- ज्यादा पानी देने से यह पौधा खराब हो जाता है
- इसे सूरज की ज्यादा रोशनी की जरूरत होती है
- ठंड के समय इसे धुंध से बचाएं और धूप में जरूर रखें

मनी प्लांट (Money Plant)
- इसे छांव में रखें क्योंकि इसे ज्यादा धूप की जरूरत नहीं होती
- बोतल में पानी भरकर इसे लगा सकते हैं
- इसे काफी कम मेंटनेंस चाहिए

ग्रीन तुलसी (Green Tulsi)
- हवा को ताजा बनाए रखने के लिए काफी अच्छा पौधा है यह
- इसे रोजाना पानी और सूरज की रोशनी चाहिए
- आसानी से मिल जाता है यह पौधा
- सर्दी-जुकाम में राहत के अलावा इम्युनिटी भी बढ़ाता है यह

बोस्टोन फर्न (Boston Fern)
- इस पौधे को काफी पानी की जरूरत होती है, इसलिए लिविंग रूम में न रखें
- आप इसे बालकनी में रख सकते हैं।
- पौधे में नमी बनाए रखें, गीली मिट्टी दिखे तो भी पानी डालें, खासकर सर्दियों में इस बात का ध्यान रखें
- इसे सूरज की सीधी किरणों से बचाएं, लेकिन उजाले में रखें

गोल्डन पोथोस (Golden Pothos)
- साधारण लेकिन सुंदर दिखने वाला पौधा है यह
- इसे सूरज की रोशनी ज्यादा नहीं चाहिए
- इसे कम तापमान में रखना चाहिए
- इसे लिविंग रूम में रख सकते हैं
- इस पौधे को बच्चों की पहुंच से दूर रखें क्योंकि इसके संपर्क में आने पर शरीर पर लाल दाने हो सकते हैं और चेहरे पर सूजन आ सकती है।
- इसकी कीमत करीब 280 रुपये है

सेंसेवरिया प्लांट (Sansevieria Plant)
- पलूशन कम करने में काफी असरदार है यह पौधा
- यह 100 से भी ज्यादा केमिकल्स को सोख सकता है
- यह पौधा रात में भी ऑक्सिजन देता है
- इसे बेडरूम में रखें, कमरे में ताजगी बनी रहेगी
- इसे कम रोशनी की जरूरत होती है

क्रिसमस कैक्टस (Christmas Cactus)
- इस पौधे में सर्दियों में क्रिसमस के आसपास फूल खिलते हैं
- इसे कम धूप की जरूरत होती है
- इसे बालकनी में या खिड़की के पास रख सकते हैं

अशोक का पेड़ (Ashoka Tree)
- आप अपने घर के चारों तरफ अशोक के पेड़ भी लगा सकते हैं
- ये पेड़ पलूशन को कम करने में मदद करते हैं
- इन्हें रोजाना पानी और धूप की जरूरत होती है
- इस पौधे की कीमत 150 रुपये से शुरू होती है

ये पौधे भी करते हैं हवा साफ
नागफनी (Variegated Snake Plant), रबड़ (Ficus Tree), राजहंस लिली (Anthurium andraeanum), बैंबू पाम (Bamboo palm), पीस लिली (Peace Lily), क्रेसेंथिमम (Chrysanthemum), शेफ्रेला (Schefflera) आदि पौधे भी हवा साफ करने के लिए लिहाज से काफी अच्छे हैं। नासा की क्लीन एयर स्टडी में इन सभी पौधों को पलूशन कम करने के लिए लिहाज से काफी असरदार पाया गया।

घर में न लगाएं ये पौधे
- घर के आंगन में इमली का पौधा नहीं लगाना चाहिए। इसके पीछे वैज्ञानिक कारण है। इमली का पौधा भी दूसरे पौधों की तरह ही ऑक्सिजन देता है, लेकिन यह कार्बन डाइऑक्साइड ज्यादा छोड़ता है। यह गैस इंसानों के लिए हानिकारक है। ऐसे में इसे घर में लगाने से बचना चाहिए।
- कपास के पौधे को भी घर के आसपास लगाने से बचना चाहिए। इस पौधे से ग्रीनहाउस गैस निकलती हैं जोकि इंसानों के लिए हानिकारक होती हैं।

इन्हें ज्यादा देखभाल की जरूरत नहीं
- पौधों को नियमित रूप से पानी और सूरज की रोशनी की जरूरत होती है। ऐसे में अगर आप अक्सर कई दिनों तक घर से बाहर रहते हैं तो आपको लगता है कि घर में पौधे नहीं लगाने चाहिए लेकिन आप भी बेफिक्र होकर कुछ पौधे अपने घर में लगा सकते हैं, क्योंकि उन्हें नियमित देखभाल की जरूरत नहीं होती। ऐसा ही पौधा है एलो वेरा। इसके बारे में कहा जाता है कि अगर आप इसे अपने घर में एक बार ले आते हैं तो यह जल्दी आपके घर से नहीं जाता। इसके मोटे पत्ते इसे रफ एंड टफ बनाते हैं। इसे ज्यादा पानी की जरूरत नहीं है। अगर आपके घर में एलो वेरा का पौधा है तो आप बिना इसकी फिक्र किए छुट्टियों पर जा सकते हैं।
- मनी प्लांट को भी कम देखभाल की जरूरत होती है। आप इसकी बोतल का पानी बदलकर छुट्टियों पर जा सकते हैं।

अस्थमा के मरीज रखें ख्याल
- अस्थमा के मरीजों को घर में पौधे लगाते वक्त कुछ खास बातों का ख्याल रखना चाहिए। धूल और मिट्टी के कारण अस्थमा की शिकायत होती है। ऐसे में कोशिश करें कि घर में ऐसे पौधे लगाएं जिन्हें बिना मिट्टी के सिर्फ पानी में लगाया जा सके। ऐसे कुछ पौधे हैं: मनी प्लांट, पीस लिली, स्पाइडर प्लांट, धनिया, ऑरिगैनो आदि।। इसके अलावा, पौधों के पत्तों पर धूल जम जाती है और इससे अस्थमा के मरीजों को दिक्कत हो सकती है। इसके लिए जरूरी है कि आप सुबह और शाम नियमित रूप से पत्तों पर पानी का छिड़काव करें।

- अगर आप घर में मिट्टी वाले पौधे लगाते हैं तो कोशिश करें कि गमले की मिट्टी में नमी हो और वह उड़े नहीं। कई पौधों को ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती। ऐसे में इन पौधों के गमले में नमी नहीं रहती और घर में धूल के कण फैलने लगते हैं। ऐसी स्थिति में अस्थमा के मरीजों को सांस लेने में दिक्कत हो सकती है। बेहतर है कि जिस घर में अस्थमा के मरीज हों, वहां ऐसे पौधे न लगाए जाएं। अस्थमा के मरीजों को फूल वाले पौधे भी नहीं लगाने चाहिए। अस्थमा का अटैक हवा में मौजूद छोटे-छोटे कणों के कारण होता है। फूल वाले पौधों के कण भी मरीजों को दिक्कत दे सकते हैं।
- अस्थमा के मरीजों को अपने आंगन में शहतूत का पेड़ नहीं लगाना चाहिए। इसके पराग कण भी अस्थमा अटैक को न्यौता देते हैं।

ऑनलाइन करें ऑर्डर
अगर आपके घर के आसपास नर्सरी से इनडोर प्लांट न मिलें तो आप इन्हें ऑनलाइन ऑर्डर के जरिए भी मंगवा सकते हैं। ऐसी कई बेवसाइट्स हैं, जो दिल्ली और एनसीआर में ऑनलाइन पौधे बेचती हैं। आप lawnkart.com और nurturinggreen.in से पौधे ऑनलाइन मंगवा सकते हैं। आप चाहें तो बीज के जरिए भी पौधे उगा सकते हैं। आपको पौधे के बीज आपके घर के पास नर्सरी से मिल जाएंगे। आप चाहें तो पौधों के बीज भी ऑनलाइन खरीद सकते हैं।

ये बिल्डिंग खुद बनाती है ताजा हवा
दिल्ली के नेहरू प्लेस में एक ऐसी बिल्डिंग है, जो यहां काम करने वालों के लिए खुद ताजा हवा बनाती है। इस बिल्डिंग का नाम पहाड़पुर बिजनेस सेंटर है। इस 6 मंजिला बिल्डिंग में हर शख्स के लिए 4 पौधे हैं और पूरी बिल्डिंग में करीब 1200 पौधे लगाए गए हैं। मीटिंग रूम से लेकर कैफेटेरिया तक में पौधे लगे हुए हैं। यही नहीं, 50 हजार स्केवयर मीटर में फैले इस ऑफिस में पलूशन को चेक करने के लिए मॉनिटर भी लगाए गए हैं। बिल्डिंग को गर्मी से बचाने के लिए पूरी बिल्डिंग पर सफेद रंग किया गया है ताकि अंदर का तापमान न बढ़े। खिड़कियों पर जूट के परदे लगाए गए हैं। इस बिल्डिंग में काम करने वाले लोगों को ताजा और साफ हवा मिलती है। इससे उनके खून में ऑक्सिजन की मात्रा भी ज्यादा रहती है। 2008 में सरकार की ओर से इस बिल्डिंग को Healthiest Building of Delhi यानी दिल्ली की सबसे सेहतमंद बिल्डिंग का टाइटल भी मिल चुका है। इस बिल्डिंग को 1990 में बनाया गया।

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ड्रोनाचार्य की नई उड़ान

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मोबाइल पर अलर्ट आया है कि कुछ ही देर में आपके गेट पर ड्रोनजी पिज्जा डिलिवर करने वाले हैं। बाहर आकर रिसीव कर लें। शहर के नामी क्रिमिनल का चेहरा आकाश में उड़ते ड्रोन ने स्कैन कर लिया है और उसकी लोकेशन से लगातार ड्रोन कंट्रोल रूम को आगाह कर रहा है। जी नहीं, हम किसी हॉलिवुड की फिल्म की कहानी नहीं बता रहे बल्कि आने वाले वक्त की तस्वीर खींच रहे हैं। सरकार ने ड्रोन्स को रेग्युलेट करने के लिए पॉलिसी का पहला ड्राफ्ट तैयार कर लिया है। ड्रोन की दुनिया और उससे जुड़ी चुनौतियों बारे में विस्तार से बता रहे हैं अमित मिश्रा...


विदेश में ड्रोन के नियम कानूनों को लेकर एक पैरा चाहिए
ड्रोन को जब बनाया गया था तो यह महज एक खिलौना था। वक्त के साथ इसकी जरूरतें बदलने लगीं। जो कभी खिलौना था, अब उसका इस्तेमाल निगरानी रखने से लेकर युद्ध के मैदान में भी शुरू हो गया है। जैसे-जैसे कंप्यूटर स्मार्ट होते जा रहे हैं, ड्रोन भी स्मार्टनेस की तरफ बढ़ रहे हैं। एक्सपर्ट बताते हैं कि वह दिन दूर नहीं जब इंसानी कंट्रोल की दरकार धीरे-धीरे कम हो जाएगी और एक खास कमांड देकर सारा काम ड्रोन पर ही छोड़ा जा सकेगा। मिसाल के तौर पर फ्रांस की कंपनी हार्दिस ग्रुप ने सामान की गिनती करने वाला ड्रोन बनाया है। इसका नाम है-आईसी। एंड्रॉयड से चलने वाले इस ड्रोन में आप को उड़ने का डेटा भर फीड करना होता है, इसके बाद सारा काम यह खुद करता है।

दुनिया भर में ड्रोन का बोलबाला
ड्रोन की डिमांड की बात करें तो आज यह बिलियन डॉलर इंडस्ट्री में तब्दील हो चुकी है। सर्वे से लेकर वेयर हाउस मैनेजमेंट से लेकर सीमा की निगरानी और बम गिराने तक में इसका उपयोग हो रहा है। ई-कॉमर्स, ऑनलाइन शॉपिंग और रिटेल सेक्टर की ज्यादातर कंपनियां रख-रखाव यानी लॉजिस्टिक्स के लिए ड्रोन और रोबॉट का इस्तेमाल कर रही हैं। वे पैकिंग करते हैं, सामान को सलीके से रखते हैं और हर सामान का हिसाब भी रखते हैं। अमेरिकी रिटेल कंपनी वॉलमार्ट के देश भर में ढाई लाख से ज्यादा गोदाम हैं। इनमें छोटे-से-छोटा गोदाम भी 17 फुटबॉल के मैदान के बराबर होता है। ऐसे विशाल वेयरहाउस में आजकल रोबॉट और ड्रोन ही बड़ी जिम्मेदारियां निपटाते हैं। दुनिया भर में इन कामों को अंजाम दे रहे हैं ड्रोन:
- पुलिस और आर्मी के लिए सर्विलांस
- वेयर हाउस में सामान की गिनती और टैगिंग
- जमीन का सर्वे और अतिक्रमण के बारे में जानकारी जुटाना
- सामान की डिलिवरी का काम
- ऊंचे टावर और गहरी सुरंग के भीतर जाकर हालात का पता लगाना
- खदानों के भीतर जाकर जहरीली गैस आदि के बारे में बता लगाना
- फोटोग्राफी और मूवीज की शूटिंग के लिए
- खिलौने के तौर पर
- युद्ध में बम बरसाने वाले हथियार के तौर पर


क्या है ड्रोन
इसे आप एक ऐसा रोबॉट कह सकते हैं, जो उड़ सकता है। अमूमन चार पंखों से लैस ड्रोन बैटरी के चार्ज होने पर लंबी उड़ान भर सकते हैं। इन्हें एक रिमोट या खासतौर पर बनाए गए कंट्रोल रूम से उड़ाया जा सकता है। ड्रोन का मतलब है नर मधुमक्खी। असल में यह नाम उड़ने के कारण ही इसे मिला है। यह बिल्कुल मधुमक्खी की तरह उड़ता है और एक जगह पर स्थिर रहकर मंडरा भी सकता है। ड्रोन का इस्तेमाल पहली बार पहले विश्व युद्ध में ऑस्ट्रिया ने वेनिस पर बम बरसाने के लिए किया था। तब इन्हें 'फ्लाइंग बम' कहा गया था।

हमारे लिए नया है ड्रोन
भारत के लिए ड्रोन और ड्रोन का उपयोग दोनों ही शुरुआती अवस्था में है। यहां ड्रोन बनाने वाली ज्यादातर कंपनियां मुश्किल से 5 साल पुरानी हैं और सभी में एक बात कॉमन है कि उनके पास ज्यादातर काम सरकारी एजेंसियों का है। यह प्रोफाइल भी इन्हें दुनिया की बाकी मार्केट से अलग बनाता है। जहां यूरोप और अमेरिका में ड्रोन का इस्तेमाल प्राइवेट इंडस्ट्री धड़ल्ले से कर रही है, वहीं भारत में बिजनेस का बड़ा हिस्सा सरकारी एजेंसियों से आता है। ज्यादातर काम सर्वे का है। मिसाल के तौर पर रेलवे इससे अपने ट्रैक के आसपास की जमीन का सर्वे करवाती है। राज्य सरकारों की एजेंसियां जंगलों और हरियाली का सर्वे करवाती हैं। किसी आपदा के वक्त ड्रोन से नजर रखने का काम लिया जाता है।
मुंबई की एयरपिक्स नाम की ड्रोन बनाने वाली कंपनी के को-फाउंडर शिनिल शेखर का कहते हैं, 'ज्यादातर काम सर्वे का ही है। इसलिए ड्रोन निर्माता इस सेक्टर में ही ड्रोन को लेकर आते हैं क्योंकि पैसा इसी में है। हालांकि काम के लिहाज से अब भी इस सेग्मेंट में काफी जगह है।' बेंगलुरु स्थित ड्रोन बनाने वाली कंपनी स्काईलार्क के फाउंडर मुगिलान रामास्वामी ने का कहना है कि ड्रोन के उपयोग को लेकर देश में ज्ञान का अभाव है। ढेर सारा काम ऐसा है जो ड्रोन के सहारे बहुत आसानी से और कम कीमत पर इंसानी जान को खतरे में डाले बिना किया जा सकता है, लेकिन जानकारी की कमी की वजह से ऐसा नहीं हो पाता। अब भी हमें किसी नए कस्टमर को समझाने में काफी वक्त देने पड़ता है।

लॉ ने किया लिमिट
ड्रोन बड़े काम की चीज है तो इसके खतरे भी कम नहीं है। सुरक्षा के लिए इसे हमेशा से बड़ा खतरा माना जाता रहा है। ऐसे में इसके निर्माण और उपयोग को कानूनी दायरे में लाना जरूरी था। इसके लिए रूल्स और रेग्लुशंस की पहल करके सरकार ने जता दिया है कि वह सही रास्ते पर है। सरकार ने ड्रोन को रेग्युलेट करने के लिए उसे 5 सेग्मेंट में बांटा है और हरेक के उड़ान के लिए नियम बनाने का प्रस्ताव रखा है। पांच सेग्मेंट ये हैं - नैनो, माइक्रो, मिनी, स्मॉल और लार्ज
- नैनो में 250 ग्राम वजन से लेकर 150 किलो तक के ड्रोन शामिल हैं।
- माइक्रो (250 ग्राम से ज्यादा, लेकिन 2 किलोग्राम से कम) से उड़ान की सुविधा मुहैया कराने वालों को एक बार के लिए रजिस्ट्रेशन करना होगा होगा और विशिष्ट पहचान भी लेनी होगी। स्थानीय पुलिस को उड़ान की सूचना भी देनी होगी। ये ड्रोन 200 फीट की ऊंचाई तक उड़ान भर सकते हैं। ज्यादातर ड्रोन कंपनियां फिलहाल इस सेग्मेंट में काम कर रही हैं।
- मिनी या उससे ऊपर (2 किलोग्राम से लेकर 150 किलोग्राम या उससे ज्यादा वजन) के ड्रोन के लिए रजिस्ट्रेशन और विशिष्ट पहचान तो जरूरी है ही, साथ ही उन्हें हर उड़ान के लिए एयर ट्रैफिक कंट्रोलर से अनुमति भी लेनी होगी। ये 200 फीट की ऊंचाई तक उड़ान भर सकते है।
- 2 किलोग्राम से कम वजन वाले मॉडल एयरक्राफ्ट शैक्षणिक उद्देश्यों से 200 फीट की ऊंचाई भर सकते हैं।

यहां रहेगी ड्रोन पर रोक
- चालू हवाई अड्डे के पांच किलोमीटर के दायरे में ड्रोन नहीं उड़ाए जा सकेंगे।
- अंतरराष्ट्रीय सीमा या नियंत्रण रेखा से 50 किलोमीटर के दायरे में ड्रोन उड़ाने की इजाजत नहीं होगी।
- सेंट्रल दिल्ली के विजय चौक (जिसके आसपास राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री कार्यालय, संसद भवन, रक्षा मंत्रालय, गृह मंत्रालय, वित्त मंत्रालय वगैरह स्थित हैं) के 5 किलोमीटर के दायरे और गृह मंत्रालय की ओर से अधिसूचित क्षेत्र के आधे किलोमीटर के दायरे में ड्रोन उड़ाने की इजाजत नहीं होगी।
- चलती गाड़ी या जहाज से ड्रोन नहीं उड़ाया जा सकता है। साथ ही सैंक्चुरी वगैरह इलाकों में विशेष अनुमति लेने के बाद ही ड्रोन का इस्तेमाल किया जा सकेगा। ऐसा भी प्रावधान है कि अगर कोई ड्रोन रास्ता भटककर नो-ड्रोन जोन में जाता है तो उसे नष्ट किया जा सकेगा।
- ड्रोन के कमर्शल इस्तेमाल जैसे सामान की डिलिवरी आदि की भी अनुमति दी जा सकती है। ऐसा होने पर भारी भीड़ वाले इलाकों में सामान की डिलिवरी या जरूरत पड़ने पर मेडिकल से जुड़ी मदद, मसलन एक जगह से दूसरे जगह पर ब्लड पहुंचाना जैसे कामों में आसानी होगी और वक्त भी कम लगेगा।

कब पिज्जा और मोबाइल की ड्रोन से डिलिवरी
ड्रोन इंडस्ट्री में काम करने वाले तकरीबन हर एक्सपर्ट का मानना है कि भारत जैसे देश में यह दूर की कौड़ी है। अमेरिका में भी इसका इस्तेमाल बहुत सीमित स्तर पर ही हो रहा है। स्काई लार्क के मुगिलान रामास्वामी कहते हैं कि हमारे देश में रास्तों की मैपिंग से लेकर सिटी प्लानिंग तक, कुछ भी व्यवस्थित नहीं है। ऐसे में ड्रोन से डिलिवरी फिलहाल मुमकिन नहीं है। हो सकता है कि किसी खास कैंपस के भीतर इसे किया जा सके, लेकिन पूरे शहर या इलाके में ड्रोन से डिलिवरी करना बहुत मुश्किल होगा। इसके अलावा खुले आकाश में डिलिवरी का सामान लेकर निकले ड्रोन अपने यहां कई तरह की दिक्कतों का सबब भी बन सकते हैं। इसके लिए रूल्स क्या होंगे, इन पर भी काम करने की अभी जरूरत है।

दिक्कतें अभी तमाम हैं
- ड्रोन को इंपोर्ट करने और बनाने को लेकर अभी स्पष्ट गाइडलाइंस नहीं हैं।
- माइक्रो सेग्मेंट के ड्रोन का रजिस्ट्रेशन न होने पर दिक्कत हो सकती है। अगर कभी वह नो फ्लाई जोन में जाते हैं तो इसे उड़ाने वाले की पहचान कैसे होगी? पुलिस से जुड़े अधिकारियों का भी मानना है कि इसका फायदा शरारती तत्व उठा सकते हैं।
- ई-कॉमर्स साइट्स के इस्तेमाल किए जाने पर ड्रोन का ट्रैफिक कौन कंट्रोल करेगा। हवा में दो ड्रोन के टकराने, किसी पर गिर जाने जैसी स्थितियों पर भी ड्राफ्ट खामोश है।
- पूरे ड्राफ्ट में किसी भी तरह के दंड का कोई प्रावधान नहीं है।
- अगर कोई ड्रोन से विडियो बनाता है तो प्राइवेसी में दखल का मामला बनता है। इससे डील करने के बारे में ड्राफ्ट खामोश है।
- होम मिनिस्ट्री और डिफेंस मिनिस्ट्री पहले ही ड्रोन को लेकर काफी सख्त हैं। ऐसे में पॉलिसी बनाने में उनका दखल कितना होगा, इस बारे में स्थिति साफ नहीं है।
- राज्य सरकारों से फिलहाल ड्रोन पॉलिसी के बारे में कोई बात नहीं हुई है, जबकि कानून-व्यवस्था और नियमों को लागू करवाने की जिम्मेदारी उन पर ही होगी।

अमेरिका में क्या है रेग्युलेशन का हाल
ड्रोन के रेग्युलेशन को लेकर अमेरिका हमसे कुछ ज्यादा आगे नहीं गया है। प्रेजिडंट ट्रंप ने दो दिन पहले ही अनमैन्ड एयरक्राफ्ट यानी बिना पायलट वाले हवाई जहाजों को हवाई ट्रैफिक रेग्युलेट करने वाली संस्था एफएए यानी फैडरल एविएशन एडिमिस्ट्रेशन के दायरे में लाने की बात कही है। एफएए ने जो नियम कायदे ड्रोन्स के लिए बनाए हैं वे 21 दिसंबर से देश भर में लागू हो जाएंगे। फिलहाल अमेरिका में कुछ मोटे-मोटे नियम हैं जिनको ड्रोन उड़ाने वालों को मानना होता है।
- कोई भी इंसान या एजेंसी बिना परमिशन के ऐसे ड्रोन नहीं उड़ा सकती, जो इतनी दूर तक उड़ें कि कंट्रोल करने वाले को दिखाई ही न दें।
- रात में ड्रोन बिना अथॉरिटी की परमिशन के नहीं उड़ाए जा सकते।
- चूंकि एमजॉन जैसी कंपनियां लंबी दूरी तक ड्रोन से डिलिवरी करना चाहती हैं, ऐसे में वहेसरकार से एक खास पायलट प्रोजेक्ट के तहत परमिशन ले रही हैं।
- एमजॉन अमेरिका ड्रोन के जरिए आधे घंटे के भीतर सामान डिलिवर करने के वादे के साथ इस तरह की परमिशन मांग रहा है।
- एफएए वेब आधारित ड्रोन रजिस्ट्रेशन प्रोसेस शुरू करने के बारे में सोच रहा है, जिसमें कोई भी ड्रोन को इस्तेमाल करने से पहले 5 डॉलर या तकरीबन 400 रुपये फीस भर कर रजिस्ट्रेशन करा सकता है।
- अपने ड्राफ्ट में एफएए ने कहा है कि वह रजिस्ट्रेशन के पूरे प्रोसेस को 5 मिनट का रखना चाहता है।
- अमेरिकी सरकार एयर ट्रैफिक कंट्रोल को प्राइवेट हाथों में देने पर काफी तेजी से काम कर रही है। ऐसा होने के बाद ड्रोन को रास्ता दिखाने का काम भी इसके जिम्मे आ सकता है।
- नए ड्राफ्ट में ड्रोन के आपस में एक्सिडेंट या किसी पर गिर जाने को लेकर भी नियम हैं।
- बिना रजिस्ट्रेशन के ड्रोन उड़ाने पर 17 लाख रुपये से डेढ करोड़ रुपये तक की पेनल्टी और 1 साल तक की सजा का प्रावधान किए जाने का प्रस्ताव है।

क्या कहते हैं एक्सपर्ट
हमने होम मिनिस्ट्री से डिस्कस करने के बाद ही ड्रोन को लेकर ऐसा ड्राफ्ट तैयार किया है जिससे ड्रोन इंडस्ट्री में बिजनस करने की सहूलियत तो बढ़े और इसके गलत इस्तेमाल की कोई आशंका भी न रहे। -आर.एन. चौबे, सिविल ऐविएशन सेक्रेटरी

ड्रोन को लेकर सरकार की जल्दबाजी समझ से बाहर है। ड्राफ्ट इतना ढीला-ढाला है कि इसमें सेफ्टी, सिक्यॉरिटी और प्राइवेसी के मूल मामलों पर चर्चा तक नहीं की गई है। -विराग गुप्ता, ऐडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट

साइबर सिक्यॉरिटी पहले ही काफी पेचींदा मामला है ऐसे में ड्रोन को खुली छूट देना परेशानी का सबब बन सकता है। इस पर एक व्यापक पॉलिसी बनाने की जरूरत है न कि तुरत-फुरत में कोई फैसला लेने की। -पवन दुग्गल, साइबर कानून एक्सपर्ट

स्ट्रैटजिक लोकेशन हर शहर में होती है और इस तरह से बिना रजिस्ट्रेशन के किसी भी तरह के ड्रोन को ऑपरेट करने की छूट देना नैशनल सिक्यॉरिटी के लिए खतरा साबित हो सकता है। - एक पुलिस अधिकारी

शुरुआती तौर पर देखने से ड्राफ्ट काफी अच्छा है। इससे इंडस्ट्री को काफी फायदा होगा। हालांकि देश में बनने वाले ड्रोन और बाहर से आयात होने वाले ड्रोन पर पॉलिसी में सुधार की जरूरत है। हम फिलहाल इतने सक्षम नहीं कि खुद ही हर तरह के ड्रोन बना सकें। -मुघिलान थिरु रामास्वामी फाउंडर, सीईओ, स्काईलार्क ड्रोन

छोटे ड्रोन का इस्तेमाल संख्या के लिहाज से ज्यादा होता है, लेकिन ज्यादा कमाई वाले काम बड़े ड्रोन ही करते हैं। ऐसे में तगड़े रेग्युलेशन से इस सेग्मेंट के ड्रोन पर पड़ने वाले असर को वक्त के हिसाब से देख कर बदलाव करना चाहिए। रेग्युलेशन का वक्त-वक्त पर रिव्यू भी जरूरी है। -शिनिल शेखर, को-फाउंडर, एयर पिक्स

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दिल की बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं। युवाओं में हार्ट अटैक के मामले पिछले 15 साल में 100 फीसदी बढ़ गए हैं। हार्ट से जुड़ी बीमारियों और उनके इलाज के बारे में एक्सपर्ट्स से बात करके पूरी जानकारी दे रही हैं प्रियंका सिंह

एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. अशोक सेठ, चेयरमैन, फोर्टिस एस्कॉर्ट्स हार्ट इंस्टिट्यूट
डॉ. के. के. अग्रवाल, प्रेजिडंट, हार्ट केयर फाउंडेशन
डॉ. संदीप मिश्रा, प्रफेसर, कार्डियॉलजी, एम्स
डॉ. अनिल मिनोचा, हेड, नॉन-इनवेसिव कार्डियॉलजी, फोर्टिस
डॉ. मयंक गोयल, असिस्टेंट प्रफेसर, कार्डियॉलजी, राजीव गांधी सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल
डॉ. अंजुल जैन, कंसल्टंट कार्डियॉलजिस्ट

मोहनीश की उम्र 38 साल थी। वह रोजाना एक्सरसाइज करते थे और डाइट का भी ख्याल रखते थे। एक दिन अचानक बैडमिंटन खेलते-खेलते मोहनीश जमीन पर गिर पड़े। आसपास मौजूद लोगों ने उन्हें संभालने की कोशिश की लेकिन तब तक मोहनीश की जान जा चुकी थी। बाद में डॉक्टर ने मोहनीश की मौत की वजह कार्डिएक अरेस्ट को बताया। 51 साल के नरेश को एक दिन ऑफिस में बैठे-बैठे अचानक सीने में तेज दर्द हुआ। उनके पास में बैठे सहयोगी ने फटाफट उन्हें एस्प्रिन को गोली पानी में घोलकर पिलाई और फौरन पास में मौजूद क्लिनिक ले गए। डॉक्टर ने चेकअप किया तो पता लगा कि नरेश की दो आर्टरीज़ 70 फीसदी तक ब्लॉक हो चुकी हैं, जिस वजह से उन्हें हार्ट अटैक हुआ था। सहयोगी की समझ और सही वक्त पर इलाज मिलने से नरेश की जान बच गई।
ये मामले इस बात का संकेत हैं कि हार्ट की प्रॉब्लम से जुड़े मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। अक्सर लोग सही वक्त पर इसे लेकर सचेत नहीं होते इसलिए बीमारी बढ़ती जाती है जैसे कि हाई ब्लड प्रेशर के ज्यादातर मरीज यह सोचकर चलते हैं कि यह कॉमन-सी बात है लेकिन कई बार आगे जाकर हाई बीपी भी हार्ट फेल्योर की वजह बन सकता है क्योंकि धीरे-धीरे इससे दिल की नसें कमजोर होने लगती हैं। हालांकि अगर हाई बीपी नहीं हो लेकिन दूसरे रिस्क फैक्टर (फैमिली हिस्ट्री, कॉलेस्ट्रोल, मोटापा, डायबीटीज आदि ) हों तो भी हार्ट फेल्योर के चांस बढ़ जाते हैं।

हार्ट संबंधी बीमारियां
दिल से जुड़ी मेन बीमारियां हैं: एंजाइना, हार्ट अटैक, कार्डिएक अरेस्ट और हार्ट फेल्योर। बीमारी की गंभीरता के लिहाज से देखें तो ये चारों अलग हैं लेकिन ज्यादातर के लक्षण करीब-करीब एक जैसे ही होते हैं। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि अगर आप गाड़ी चला रहे हैं और ट्रैफिक में फंसकर गाड़ी रुक-रुक कर चल रही है, तो उसे एंजाइना मान सकते हैं। अगर इंजन चल रहा है लेकिन गाड़ी रुक गई है तो हार्ट अटैक होगा। अगर गाड़ी और इंजन, दोनों बंद हो गए हैं तो कार्डिएक अरेस्ट कह सकते हैं। अगर इंजन को हो रहे नुकसान को वक्त पर ठीक नहीं कराया और धीरे-धीरे वह बेकार हो जाए तो इसे हार्ट फेल्योर कहा जा सकता है।

दर्द से कैसे पहचानें बीमारी
आमतौर पर दर्द के अनुसार बीमारी को पहचानना मुश्किल है लेकिन फिर भी मोटा-मोटा अनुमान लगाया जा सकता है:

एसिडिटी
- एसिडिटी का दर्द सीने में एक खास बिंदु पर चुभता महसूस होता है। यह बड़े एरिया में फैला हुआ महसूस नहीं होता।
क्या करें
- 2-3 चम्मच एंटासिड (Antacid) ले लें। ये मार्केट में डाइजीन (Digene), म्यूकेन जेल (Mucaine Gel), एसिडिन जेल (Acidin Gel) आदि ब्रैंड नेम से मिलते हैं। अगर घंटे भर में दर्द इससे ठीक न हो और बढ़ता जाए तो एंजाइना या हार्ट अटैक का दर्द हो सकता है।

एंजाइना
- अगर छाती के बीच में भारी दबाव महसूस हो, घबराहट हो, सांस रुकी-सी लगे, दर्द जबड़े की ओर जाए बढ़ता लगे, छोटा-मोटा काम (नहाने और खाने जैसे काम करने पर भी) करने पर भी दिल में दर्द महसूस हो और आराम करने पर दर्द बंद हो जाए तो एंजाइना हो सकता है।
- यह दर्द गुस्सा करने, मेहनत का काम करने, सीढ़ियां चढ़ने या चलने-फिरने पर बढ़ जाता है। थोड़ी देर आराम करने पर यह दर्द ठीक हो जाता है।
- अगर करीब 20 मिनट आराम करने के बाद भी दर्द कम न हो और घबराहट बनी रहे, पसीना आता रहे तो हार्ट अटैक का दर्द हो सकता है।
क्या करें
- मरीज आराम से लेट जाए। गुस्सा न करें, न ही परेशान हों।
- इस दर्द से फौरन मरीज को कोई नुकसान नहीं होगा, लेकिन यह दिल में किसी गड़बड़ी का इशारा है। दर्द बार-बार हो तो डॉक्टर के पास जाकर ईसीजी करा लें।
- जब दर्द हो तो ग्लाइसिरल ट्राइनाइट्रेट (Glyceryl Trinitrate) वाली 5 एमजी की गोली जीभ के नीचे रख लें। यह मार्केट में सॉरबिट्रेट (Sorbitrate) और आइसोर्डिल (Isordil) आदि ब्रैंड नेम नाम से मिलती है। इससे नस का साइज बढ़ जाता है और पूरा ब्लड पहुंच जाता है। यह फौरी राहत के लिए है। इसके बाद डॉक्टर को जाकर मिलें।
- इसके अलावा हार्ट रेट या ब्लड प्रेशर कम करने वाली दवाएं देते हैं। ब्लड प्रेशर कम होने से हार्ट के काम करने की रफ्तार कुछ कम हो जाती है।

हार्ट अटैक
- अगर सीने के बीचोंबीच तेज दर्द हो, दर्द लेफ्ट बाजू की ओर बढ़ता महसूस हो, सीने पर पत्थर जैसा दबाव महसूस हो, काफी घबराहट/बेचैनी हो, पसीना आए, लगे कि किसी ने दिल को जकड़ लिया है और दर्द कम होने के बजाय बढ़ता जाए तो हार्ट अटैक की आशंका होती है।
- अगर आपके हार्ट की धमनियों में कॉलेस्ट्रॉल जमा होने से कुछ ब्लॉकेज है लेकिन अचानक से वह फट जाए और नली को ब्लॉक कर दे तो हार्ट अटैक होता है। करीब 30 फीसदी लोगों में दर्द के अलावा हार्ट अटैक के बाकी लक्षण नजर नहीं आते।
- मरीज को फौरन 300 मिग्रा की एस्प्रिन (Asprin) पानी के साथ दें। यह मार्केट में डिस्प्रिन (Disprin), एस्प्रिन (Easprin), इकोट्रिन (Ecotrin) आदि ब्रैंड नेम से मिलती है। यह आर्टरी को ब्लॉक होने और खून के धक्के जमने से रोकती है लेकिन अल्सर या डेंगू के मरीज डॉक्टर से बिना पूछे इसे न लें।
- दिल के मरीज हैं तो सॉर्बिट्रेट या आइसोर्डिल भी ले सकते हैं। लेकिन अगर पहली बार इसे ले रहे हैं तो ब्लड प्रेशर अचानक काफी कम हो सकता है। इससे बेहतर एस्प्रिन लेना ही है क्योंकि वह सभी के लिए सेफ है। हां, एस्प्रिन न हो तो सॉर्बिट्रेट भी ले सकते हैं।
- इसके बाद बिना देर किए मरीज को कैथ लैब वाले अस्पताल ले जाएं। अगर दो घंटे में वहां पहुंचा मुमकिन नहीं है तो ऐसे किसी भी अस्पताल में ले जाएं, जहां मरीज को खून पतला करने वाली दवा दी जा सके। अटैक के पहले 3 घंटों में इलाज हो जाए तो ज्यादातर मरीजों को बचाया जा सकता है।

क्या करें
- आर्टरी के ब्लॉकेज को खोलने के लिए डॉक्टर सबसे पहले मरीज को क्लॉट बस्टर जैसे कि स्ट्रेपटोकायनेस (Streptokinase) या टेनेक्टेप्लेस (Tenecteplase) देते हैं।
- इसके बाद एंजियोप्लास्टी करके स्टेंट डाल देते हैं ताकि आर्टरी की रुकावट खुल जाए।
- हार्ट अटैक में गोल्डन आवर (घंटे) का नियम काम करता है। अगर एक घंटे में इलाज मिल जाए तो दिल की मांसपेशियों को नुकसान नहीं होता। अगर 12 घंटे बिना इलाज के निकल जाएं तो मसल्स पूरी तरह डैमेज हो जाती हैं और उनकी रिकवरी नहीं हो सकती।

कार्डिएक अरेस्ट
- कोई शख्स बिल्कुल ठीकठाक है और अचानक उसका बीपी एकदम नीचे (ऊपर वाला बीपी 90 तक) गिर जाए, शरीर पीला पड़ जाए, वह लड़खड़ाकर जमीन पर गिर जाए और उसकी धड़कन बहुत तेज या अनियमित होकर एकदम थम जाए तो इसे कार्डिएक अरेस्ट कहा जाएगा। कार्डिएक अरेस्ट अचानक मौत की सबसे बड़ी वजहों में से है।
- जिनको पहले हार्ट अटैक हो चुका हो, दिल की बीमारी की फैमिली हिस्ट्री हो, डायबीटीज हो या स्मोकिंग भी करते हों तो कार्डिएक अरेस्ट का खतरा बढ़ जाता है।
- अगर सांस/धड़कन रुकने के पहले 10 मिनट में सही इलाज मिल जाए तो बहुत सारे मरीजों को बचाया जा सकता है। ध्यान रखें, इलाज जितना जल्दी हो, उतना बेहतर है क्योंकि हर एक मिनट में करीब 10 फीसदी चांस कम हो जाते हैं।
क्या करें
- अगर अस्पताल में किसी को कार्डिएक अरेस्ट होता है तो डॉक्टर एडवांस्ड लाइफ सपोर्ट, शॉक, वेंटिलेटर आदि के जरिए 80 फीसदी तक मरीजों को बचा सकते हैं।
- कार्डिएक अरेस्ट के पहले 4 मिनट में अगर डॉक्टरी मदद मिल जाए तो पहले इलेक्ट्रिक शॉक मशीन से शॉक दिया जाता है और फिर चेस्ट कॉम्प्रेशन (सीपीआर) किया जाता है। अगर मदद अगले 5-10 मिनट में मिलती है तो पहले सीपीआर और फिर इलेक्ट्रिक शॉक मशीन का इस्तेमाल करना बेहतर है।
- अगर फौरन डॉक्टरी मदद मुमकिन नहीं है तो मरीज को आराम से जमीन पर लिटा दें। गर्दन को हल्का खींच कर सिर को थोड़ा ऊपर कर लें ताकि जीभ अंदर न गिरे। मरीज को हवा आने दें।
- इसके बाद मरीज के सीने के बीचोंबीच जोर से एक मुक्का मारें। इसे कार्डिएक थंप कहा जाता है। फिर फौरन CPR शुरू करें।
कैसे करें CPR
- मरीज के पास घुटनों के बल बैठ जाएं और अपना दायां हाथ मरीज के सीने पर रखें। इसके ऊपर दूसरा हाथ रखें और उंगलियों को आपस में फंसा लें।
- अपनी हथेलियों की मदद से अगले 10 मिनट के लिए सीने के बीच वाले हिस्से को जोर से दबाएं।
- एक मिनट में 80 से 100 की रफ्तार से बार-बार दबाएं, यानी 60 सेकंड में 100 बार सीने को दबाएं।
- ध्यान रखें कि जोर से दबाएं और तेज-तेज दबाएं। हर बार दबाते वक्त सीना एक-डेढ़ इंच नीचे जाना चाहिए।
- इसे लगातार करें, जब तक कि डॉक्टरी मदद न मिले। नब्ज देखने के लिए बीच में न रुकें।
नोट: बच्चों में सीपीआर के साथ-साथ मुंह-से-मुंह मिलाकर सांस भी देना चाहिए, बशर्ते मौत की वजह डूबना आदि न हो। बड़ों में मुंह-से-मुंह मिलाकर सांस देने की सलाह नहीं दी जाती। सीपीआर की ट्रेनिंग ज्यादातर सभी बड़े अस्पतालों में दी जाती है। ऐसे में इसे सीख लेना काफी काम का हो सकता है।
CPR सीखने के लिए देखें विडियो: yt.vu/O_49wMpdews

हार्ट फेल्योर
- लंबे समय से अगर दिल की बीमारी है और उसका सही से इलाज नहीं होता तो इससे हार्ट की मसल्स कमजोर हो जाती हैं। यह कमजोरी आगे जाकर हार्ट फेल्योर की वजह बन सकती है। आमतौर पर ब्लड पंप करने की हार्ट की क्षमता 60 फीसदी होती है। अगर वह घटकर 30 फीसदी रह जाए तो हार्ट फेल्योर का खतरा होता है।
- हार्ट अटैक या हार्ट से जुड़ी दूसरी बीमारियां, वायरल इन्फेक्शन, थायरॉयड, डायबीटीज, आर्थराइटिस भी कुछ मामलों में हार्ट फेल्योर की वजह बनता है। इसके अलावा पोटैशियम की कमी और कार्डियोमायोपैथी यानी इन्फेक्शन या शराब या ड्रग्स की वजह से दिल की मसल्स का क्षतिग्रस्त होना भी बड़ी वजह है।
- पैरों में सूजन, धड़कन का तेज होना, चलने के अलावा लेटने और बैठने पर भी सांस फूलना आदि इसके लक्षण हैं क्योंकि जब हार्ट कमजोर हो जाता है तो वह ब्लड आगे की तरफ नहीं भेज पाता। ऐसे में पंप किया ब्लड लंग्स और दूसरे हिस्सों में जाने लगता है।

क्या है इलाज
- इलाज के तौर पर यूरीन पास करने वाली दवाएं यानी डाययूरेटिस जैसे कि फ्यूरोसिमाइड (Furosemide) दी जाती है। यह लैक्सिस (Lasix), टेबमिड (Tebemid), फर्सिमिड (Fursimide) आदि ब्रैंड नेम से मिलती है।
- जरूरत पड़ने पर ऐस इन्हिबिटर (ACE inhibitor) दवा दी जाती है। यह दवा हार्ट के अंदर के प्रेशर को कम करती है।
- इसके अलावा बीटा ब्लॉकर दी जाती हैं। इनमें कई ब्रैंड नेम हैं, जैसे कि एसबुटोलॉल (Acebutolol), एटेनोलॉल (Atenolol), मेटोप्रोलॉल (Metoprolol) आदि। ये दवाएं हार्ट रेट को कम कर लंबे समय में हार्ट की एफिसिशंसी बढ़ाती हैं।
- हार्ट के अंदर के प्रेशर को कम करने और हार्ट को मजबूत करने वाली दवा भी दी जाती है, जिसका जेनरिक नेम है आरनी (Arni) और यह गायमडा (Gymada), टिडमस (Tidmus) आदि ब्रैंड नेम से मिलती है।
- अगर हार्ट की क्षमता 20 फीसदी से कम हो जाए तो LVAD पंप लगाया जाता है। यह एक तरह का आर्टफिशल हार्ट होता है। पंप और सर्जरी, दोनों का खर्च करीब 50-60 लाख रुपये आता है।
- जरूरत पड़ने पर हार्ट ट्रांसप्लांट भी किया जाता है। लेकिन ये मामले काफी कम होते हैं। साल भर में 150-170 हार्ट ट्रांसप्लांट होते हैं।

कौन-से टेस्ट
आमतौर पर डॉक्टर 3 टेस्ट कराते हैं:
1. ट्रोपोनिन टेस्ट (Troponin Test): यह टेस्ट ट्रोपोनिन प्रोटीन का लेवल चेक करता है। यह प्रोटीन हार्ट की मसल्स के डैमेज होने पर निकलता है। कीमत: 1000-1200 रुपये
2. ईसीजी (ECG): यह हार्ट की इलेक्ट्रिकल गतिविधियों के जरिए दिल पर पड़ने वाले प्रेशर को चेक करता है। कीमत: 200-400 रुपये
3. इको कार्डियोग्राम (Eco Cardiogram): यह कार्डिएक अल्ट्रासाउंड होता है। कीमत: 1800-2000 रुपये

क्या कहती है स्टडी
इंटरनैशनल कॉनजेस्टिव हार्ट फेल्योर (Inter-CHF) ने भारत समेत 6 देशों में स्टडी की और पाया कि अपने देश में हार्ट फेल्योर की पहचान होने के एक साल के अंदर ही 23 फीसदी मरीजों की मृत्यु हो गई। दक्षिण पूर्वी एशिया में यह दर 15 फीसदी, दक्षिण अमेरिका में 9 फीसदी, पश्चिमी एशिया में 9 फीसदी और चीन में 7 फीसदी रही। इस रिसर्च के अनुसार एक-तिहाई मरीजों की मृत्यु अस्पताल में दाखिल होने के दौरान हुई है और एक-चौथाई मरीजों की बीमारी की पहचान के तीन महीने के अंदर। पूरी दुनिया में इस वक्त 26 करोड़ लोग हार्ट फेल्योर से पीड़ित हैं। इनमें से 5.4 फीसदी भारत में हैं। 2030 तक इस आंकड़े के 25 फीसदी बढ़ने के आसार हैं। हार्ट फेल्योर की वजहों में धमनियों में ब्लॉकेज, हार्ट अटैक, कार्डियोमायोपैथी हो सकते हैं। इसके अलावा तनाव और बहुत ज्यादा काम करने से भी यह समस्या हो सकती है। दिल को नुकसान पहुंचाने वाली वजहों में डायबीटीज, हाई बीपी, किडनी की बीमारी और थायरॉयड की समस्या हो सकती है। एम्स में कार्डियॉलजी डिपार्टमेंट में प्रफेसर डॉ. संदीप मिश्रा के अनुसार देश में इस समस्या के बढ़ने की वजह है लोगों में जागरुकता की कमी, आर्थिक बोझ और हेल्थकेयर सुविधाओं की कमी। साथ ही जेनेटिक वजहें भी हैं। इससे बचाव के लिए बहुत जरूरी है कि शुरुआती स्टेज में बीमारी का पता लगाया जा सके और मरीज को सही इलाज मिल सके। इस स्टडी में 6 देशों के 108 सेंटरों में 5823 मरीजों को शामिल किया गया।

कैसे पहचानें की दिल फिट है!
अगर आप रोजाना 3 से 4 किमी तेज कदमों से चल सकते हैं और ऐसा करते हुए आपकी सांस नहीं उखड़ती या सीने में दर्द नहीं होता तो मान सकते हैं कि आपका दिल सेहतमंद है। अगर दिल के मरीज हैं और दो मंजिल सीढ़ियां चढ़ने या 2 किमी पैदल चलने के बाद सांस नहीं फूलता तो सामान्य लोगों की तरह एक्सरसाइज कर सकते हैं, वरना डॉक्टर से पूछकर एक्सरसाइज करें।

दिल की बीमारी से बचाव के लिए टेस्ट
40 साल की उम्र में ब्लड प्रेशर (BP) और कॉलेस्ट्रॉल के लिए लिपिड प्रोफाइल टेस्ट करा लें। अगर रिस्क फैक्टर (फैमिली हिस्ट्री, स्मोकिंग, शराब पीना आदि) हैं तो 25 साल से ही टेस्ट कराएं। अगर सब कुछ ठीक निकलता है तो 2 साल में एक बार टेस्ट करा लें। अगर समस्या लगती है तो डॉक्टर ईसीजी और इको कराने के लिए कहते हैं। ब्लड प्रेशर टेस्ट की कीमत 100-120 रुपये और लिपिड प्रोफाइल टेस्ट की कीमत 600-800 रुपये होती है।

सही रीडिंग
कोलेस्ट्रॉल 200 तक
ब्लड प्रेशर अपर बीपी लोअर बीपी
नॉर्मल 130 से नीचे और 85 से नीचे

एक्सर्साइज
- दिल की बीमारी से बचने के लिए रोजाना कम-से-कम आधा घंटा कार्डियो एक्सरसाइज करना जरूरी है। इससे वजन कम होता है, बीपी कम हो जाता है और दिल की बीमारी की आशंका 25 फीसदी कम हो जाती है।
- कार्डियो एक्सरसाइज में तेज वॉक, जॉगिंग, साइकलिंग, स्विमिंग, एरोबिक्स, डांस आदि शामिल होते हैं। तेज वॉक जॉगिंग यानी हल्की दौड़ से भी बेहतर साबित होती है क्योंकि जॉगिंग में जल्दी थक जाते हैं और घुटनों की समस्या होने का खतरा होता है। वॉक और ब्रिस्क वॉक में फर्क यह है कि वॉक में हम 1 मिनट में आम तौर पर 40-50 कदम चलते हैं जबकि ब्रिस्क वॉक में 1 मिनट में लगभग 80 कदम चलते हैं। जॉगिंग में 160 कदम चलते हैं।
- 5 मिनट डीप ब्रिदिंग, 10 मिनट अनुलोम-विलोम और 5 मिनट शीतली प्राणायाम करें। शीतली प्राणायाम खासतौर पर मन को शांत रखता है और बीपी को मेंटेन करता है।
- 15 मिनट के लिए मेडिटेशन करें।

...गर है दिल की बीमारी
- किसी भी एक्सरसाइज के दौरान अगर बेचैनी, दर्द, उलटी, घबराहट आदि हो, तो वहीं रुक जाएं। डॉक्टर को दिखाने के बाद ही फिर से एक्सरसाइज का प्लान करें।
- हल्की फिजिकल एक्सरसाइज के तौर पर रोजाना 45-50 मिनट वॉक करें। एक बार में नहीं कर सकते तो 15-15 मिनट के लिए तीन बार में करें।
- जॉगिंग या एयरोबिक्स से पहले डॉक्टर से सलाह ले लें, क्योंकि बीपी का लोअर लेवल बढ़ता है।
- रोजाना करीब 30 मिनट कार्डियो एक्सरसाइज जैसे कि साइक्लिंग, स्वीमिंग आदि करें।
- हेवी एक्सरसाइज जैसे कि वेट लिफ्टिंग आदि न करें।
- योग और प्राणायाम करें। दिल के मरीज भस्त्रिका न करें तो बेहतर है।
- ऐसे आसन डॉक्टर की सलाह के बिना न करें, जिनमें सारा वजन सिर पर या हाथों पर आता है, जैसे कि मयूरासन, शीर्षासन आदि।
- शवासन करें। आंखें बंद करके पूरे शरीर के अंगों को बारी-बारी से महसूस करें। इससे मांसपेशियों का तनाव कम होता है। इससे बीपी दूर होता है।

ध्यान रखें 10 बातें
1. स्मोकिंग न करें। इससे दिल की बीमारी की आशंका 50 फीसदी बढ़ जाती है।
2. अपना लोअर बीपी 80 से कम रखें। ब्लड प्रेशर ज्यादा हो तो दिल के लिए काफी खतरा है।
3. फास्टिंग शुगर 80 से कम रखें। डायबीटीज और दिल की बीमारी आपस में जुड़ी हुई हैं।
4. कॉलेस्ट्रॉल 200 या इससे कम रखें। इसमें भी LDL यानी बैड कॉलेस्ट्रॉल 130 से कम रहना चाहिए। जिनको हार्ट की बीमारी हो, उनका LDL 100 से कम हो तो बेहतर है।
5. रोजाना कम-से-कम 45 मिनट सैर और एक्सरसाइज जरूर करें।
6. तनाव न लें। दिल की बीमारियों की बड़ी वजह तनाव है।
7. रेग्युलर चेकअप कराएं, खासकर अगर रिस्क फैक्टर हैं। साथ ही, कार्ब, नमक और तेल कम खाएं।
8. डायबीटीज है तो शुगर के अलावा बीपी और कॉलेस्ट्रॉल को भी कंट्रोल में रखें।
9. फल और सब्जियां खूब खाएं। दिन भर में अलग-अलग रंग के 5 तरह के फल और सब्जियां खाएं।
10. रेड मीट में कम खाएं। यह वजन बढ़ाने के अलावा दिल के लिए भी नुकसानदेह है।

कॉमन गलतियां
1. बीपी को हल्के में लेना: अक्सर लोगों को लगता है कि हाई ब्लड प्रेशर खतरनाक बीमारी नहीं है और वे इसे नजरअंदाज करते रहते हैं। लेकिन अगर यह लंबे समय तक बनी रहे तो हार्ट की मसल्स मोटी हो जाती हैं और हार्ट अटैक की आशंका बढ़ जाती है।
2. ज्यादा गर्भनिरोधक लेना: महिलाएं ओरल कॉन्ट्रासेप्टिव लेती हैं लेकिन इन्हें बरसों तक लगातार लेने से दिल की बीमारी की आशंका बढ़ जाती है। बेहतर है कि किसी भी कॉन्ट्रासेप्टिव का इस्तेमाल करने से पहले उसके साइड इफेक्ट्स भी जान लें।
3. ओवर एक्सरसाइज: अक्सर लोग ज्यादा एक्सरसाइज कर लेते हैं, जिससे शरीर में पानी की कमी और थकावट, दोनों हो जाते हैं। इससे दिल पर प्रेशर पड़ता है।
4. सॉर्बिट्रेट लेना: कई बार लोग सीने में दर्द होने पर एस्प्रिन की बजाय सॉर्बिट्रेट ले लेते हैं लेकिन यह सही नहीं है। सॉर्बिट्रेट सिर्फ दिल के मरीजों को लेनी चाहिए।

दिल की सेहत के साथी फूड
क्या खाएं
- हाई फाइबर और लो फैट वाली डाइट जैसे कि गेहूं, ज्वार, ओट्स, बाजरा आदि का आटे या दलिया
- फ्लैक्स सीड्स (अलसी के बीज), आधा चम्मच रोजाना
- एक-दो लहसुन एक कली रोजाना
- 5-6 बादाम और 1-2 अखरोट रोजाना
- जामुन, पपीता, सेब, आड़ू जैसे लो-ग्लाइसिमिक इंडेक्स वाले फल
- हरी सब्जियां, साग, शलजम, बीन्स, मटर, ओट्स, सनफ्लावर सीड्स आदि
- ऑलिव ऑयल, कनोला, तिल का तेल और सरसों का तेल, थोड़ी मात्रा में देसी घी भी अच्छा
- मछली। चिकन भी खा सकते हैं लेकिन यह ज्यादा तला-भुना और मसालेदार न हो
न खाएं
- मक्खन, मलाई, वनस्पति घी आदि सैचुरेडिट फैट
- मैदा, सूजी, सफेद चावल, चीनी, आलू यानी सफेद चीजें
- पैक्ड चीजें मसलन पैक्ड जूस, बेकरी आइटम्स, सॉस आदि
- रोजाना आधे चम्मच से ज्यादा नमक न लें
- बहुत मीठी चीजें (मिठाई, चॉकलेट) आदि

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जहरीली धुंध को ऐसे करें कुंद

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एक्सपर्ट्स पैनल

डॉ. के.के. अग्रवाल
हार्ट स्पेशलिस्ट, प्रेसिडेंट आईएमए

डॉ. राजकुमार
हेड, डिपार्टमेंट ऑफ रेस्पिरेटरी एलर्जी एंड इम्यूनोलॉजी
पटेल चेस्ट इंस्टिट्यूट

डॉ. संदीप मिश्रा
कंसलटेंट कार्डियॉलजिस्ट, एम्स

डॉ. रेखा शर्मा
डाइटिशन

आचार्य बालकृष्ण
पतंजलि योग संस्थान

हर तरफ धुंध आंखों और गले में चुभता धुंआ। आपका स्वागत है खुद के बनाए गैस चैंबर में। जी हां, हमारे आसपास जो गहरा प्रदूषण नजर आ रहा है, वह हमारी ही देन है। अब वक्त है बद से बदतर होते हालात को अच्छी तरह समझने और उनसे निपटने का। क्या है प्रदूषण और कैसे निपटें इससे, एक्सपर्ट की मदद से बता रहे हैं अमित मिश्रा:
क्या है दमघोंटू हवा में
तकरीबन 8 तरह के तत्व मिलकर पर एक खतरनाक मिक्सचर तैयार कर देते हैं। इनमें शामिल हैं:
PM10 : पीएम का मतलब होता है पार्टिकल मैटर। इनमें शामिल है हवा में मौजूद धूल, धुंआ, नमी, गंदगी आदि जैसे 10 माइक्रोमीटर तक के पार्टिकल। इनसे हार्ट पेशंट्स को परेशानी हो सकती है।
PM2.5 : 2.5 माइक्रोमीटर तक के ये पार्टिकल साइज में बड़े होने की वजह से ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। यह अस्थमा के पेशंट्स और आम लोगों के लिए काफी खतरनाक होता है।
NO2 : नाइट्रोजन ऑक्साइड, यह वाहनों के धुंए में पाई जाती है।
SO2 : सल्फर डाई ऑक्साइड, गाड़ियों और कारखानों से निकलने वाले धुएं से निकल कर यह फेफड़ों को काफी नुकसान पहुंचाता है।
CO : कार्बन मोनो ऑक्साइड, गाड़ियों से निकल कर फेफड़ों को घातक नुकसान पहुंचाता है।
O3 : ओजोन, दमे के मरीज और बच्चों के लिए बहुत नुकसानदेह है।
NH3 : अमोनिया, फेफड़ों और पूरे रेस्परटरी सिस्टम के लिए खतरनाक।
Pb : लेड, गाड़ियों से निकलने वाले धुएं के अलावा मेटल इंडस्ट्री से निकला है। यह लोगों की सेहत को नुकसान पहुंचाने वाला सबसे खतरनाक मेटल है।

क्या है AQI
वातावरण में मौजूद हवाओं के मिक्सचर को औसत 24 घंटे तक नापने के बाद एक इंडेक्स तैयार किया जाता है। इसे देश की सरकार ने एयर क्वॉलिटी इंडेक्स का नाम दिया गया है। इसके तहत हवा को 6 कैटगिरी में बांटा गया है:
0-50 : अच्छा
50-100 : संतोषजनक
101-200 : हल्की प्रदूषित - फेफड़ों, दमा और हार्ट पेशंट्स के लिए खतरनाक
201-300 : बुरी तरह प्रदूषित - बीमार लोगों को सांस लेने में तकलीफ हो सकती है।
301-400 : बहुत बुरी तरह प्रदूषित - आम लोगों को भी सांस की बीमारी की शिकायत हो सकती है।
401-500 : घातक रूप से प्रदूषित - हेल्दी और बीमार दोनों ही तरह के लोगों के लिए खतरनाक है।

ऐप बताएंगे AQI
SAFAR - Air :
खासियत - इस पर रियल टाइम एयर पॉल्युशन अपडेट देखे जा सकते हैं।
- साइन-अप करके वक्त-वक्त पर अलर्ट भी मंगाए जा सकते हैं।
- टोल फ्री नंबर 18001801717 पर अंग्रेजी के अलावा हिंदी सहित कई रीजनल भाषाओं में जानकारी ली जा सकती है।
- ऐप के अलावा जानकारी safar.tropmet.res.in पर भी मिल सकती है।
कमियां
- इसमें सिर्फ चुनींदा शहरों के ही अपडेट मिल पाते हैं।
- टोल फ्री नंबर पर फोन मिलना काफी मुश्किल भरा है। कई बार ट्राई करने के बाद भी फोन बिजी बताता रहा।
प्लैटफॉर्म: एंड्रॉयड, आईओएस
कीमत फ्री

Sameer:
खासियत- मैप पर एयर क्वॉलिटी दिखाने का बहुत आसान इंटरफेस।
- जीपीएस ऑन होने पर खुद-ब-खुद आसपास के लोकेशन की हवा की क्वॉलिटी बता देता है।
- इसके जरिए फोटो खींच कर कंप्लेंट भी की जा सकती है।
- इसके जरिए कंप्लेंट का स्टेटस भी जाना जा सकता है।
कमियां:
- डाउनलोड करने के बाद जितनी बार भी इसमें लॉगइन की कोशिश की यह लगातार क्रैश होता रहा।
- कहां फोटो अपलोड करनी है और कैसे जानकारी लेनी है, इसके लिए दूसरा ऐप डाउनलोड करना होता है।
प्लैटफॉर्म: एंड्रॉयड, आईओएस
कीमत - फ्री

इन बीमारियों का खतरा
- खांसी
- ब्रॉन्काइटिस
- दिल की बीमारी
- त्वचा संबंधी रोग
- बाल झड़ना
- आंखों में जलन
- नाक, कान, गला, फेफड़े में इंफेक्शन
- ब्लड प्रेशर के रोगियों को ब्रेन स्ट्रोक की समस्या
- दमा के रोगियों को अटैक पड़ सकता है
- किसी-किसी केस में प्री मच्योर डिलिवरी हो सकती है

...तब जाएं डॉक्टर के पास
अगर नीचे दिया गया कोई भी लक्षण नजर आए तो डॉक्टर के पास जाएं:
- सांस लेने में तकलीफ होने पर या सीढ़ियां चढ़ने या मेहनत करने पर हांफने लगना
- सीने में दर्द या घुटन महसूस होना
- 2 हफ्ते से ज्यादा खांसी आना
- 1 हफ्ते तक नाक से पानी या छींके आना
- गले में लगातार दर्द बने रहना

बच्चों को जरा बचा कर रखें
बच्चे प्रदूषण के इस माहौल से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। 5 साल से कम के बच्चों की इम्यूनिटी काफी कमजोर होती है इसलिए उन्हें एयर पलूशन से रिस्क ज्यादा होता है।
- अगर बच्चे स्कूल जाते हैं तो अटेंडेंट से रिक्वेस्ट कर सकते हैं कि बच्चों को मैदान में खिलाने के बजाए इनडोर ही खिलाएं।
- धूल भरी और भारी ट्रैफिक वाले मार्केट्स में बच्चों को न ले जाएं।
- टू-वीलर में बच्चों को लेकर न निकलें।
- बच्चों को कार में बाहर ले जाते वक्त शीशे बंद रखें और एसी चलाएं।
- बच्चों को भी थोड़ी-थोड़ी देर पर पानी पिलाते रहें। ताकि शरीर हाइड्रेट रहे और इनडोर पलूशन से होने वाला नुकसान भी कम हो।

बुजुर्गों का भी रखें खास ख्याल
उम्रदराज लोगों को बिगड़ती हवा काफी परेशान कर सकती है। उन्हें भी बच्चों की तरह काफी सावधानी की जरूरत है।
ये उपाय करें:
- पलूशन लेवल बढ़ने पर बाहर जाने से बचें।
- सुबह-सुबह घर से न निकलें। धूप निकलने के बाद ही घर से बाहर निकलें।
- किसी बीमारी की दवाएं ले रहे हैं तो रेग्युलर लेते रहें। ऐसा न करने पर हालत खराब हो सकती है।
- इस मौसम में ज्यादा एक्सरसाइज (ब्रिस्क वॉक या जॉगिंग आदि) न करें। घर पर रहकर प्राणायाम और योग करना ही काफी होगा।
- सर्दियों में अगर बाहर निकलना ही पड़े तो अच्छी क्वॉलिटी का मास्क लगाकर निकलें।
- टू-वीलर या ऑटो में सफर की बजाय टैक्सी या कंट्रोल माहौल वाले मेट्रो या एसी बसों में ही यात्रा करें।

क्या करें दिल के मरीज
- हार्ट पेशंट्स के लिए ट्रैफिक से निकलने वाले धुंए से ज्यादा खतरनाक पार्टिकुलेट्स मैटर (पीएम) होते हैं। ऐसे में पीएम 10 या पीएम 2.5 की बढ़ी मात्रा नुकसान पहुंचा सकती है।
- जितना हो सके घर पर ही रहें। प्रदूषण से बचाव ही उपचार है।
- अगर बाहर जाना ही पड़े तो मास्क लगा सकते हैं लेकिन अगर मास्क लगाने के बाद उलझन महसूस हो तो फौरन उतार दें।
- ट्रैफिक के पीक आवर्स में बाहर जाने से बचें। अगर घर से काम करने या आफिस के लिए वक्त चुनने का ऑप्शन मिलें तो उसे लें।
- किसी भी तरह की दिक्कत महसूस होने पर अपने डॉक्टर से फौरन संपर्क करें।
- सुबह वॉक पर न जाएं। धूप निकलने का इंतजार करें। घर से चेक करके निकलें कि एरिया में पीएम 10 और पीएम 2.5 का लेवल क्या है। अगर बहुत ज्यादा बढ़ा है तो जाने से बचें।

क्या करें अस्थमा के मरीज
- बाहर जाने से बचें। घर पर रहें और भीतर भी अगरबत्ती, धूप आदि न जलाएं। अगर घर के बाहर जा रहे हैं तो अपना इन्हेलर साथ ले जाएं।
- एयर प्यूरिफायर अस्थमा के पेशंट्स को राहत दे सकता है। चूंकि यह पार्टिकुलेट्स मैटर के साथ ही गैसों को भी फिल्टर कर देते हैं। अगर एयर प्यूरिफायर नहीं है और बहुत परेशानी हो रही है तो कमरा बंद करके एसी चला लें।
- बेहतर होगा कि ऐसे वक्त में किसी भी तरह की एक्सरसाइज से बचें।
- किसी भी तरह के मास्क को इस्तेमाल करने से पहले बेहतर होगा कि आपने डॉक्टर की राय ले लें। कई बार अस्थमा के पेशंट्स में मास्क पहनने पर दम घुटने की शिकायतें भी सुनने को आती हैं।

ऐसा करेंगे, तभी बचेंगे
- कुछ दूरी के लिए साइकल से या पैदल जाएं। बाइक या कार ले जाने से बचें। जितना हो सके कार पूल करें या पब्लिक ट्रांसपोर्ट से सफर करें। अगर वाहन इस्तेमाल करना ही पड़े तो रेग्युलर सर्विसिंग किया हुआ अच्छी हालत में मौजूद वाहन ही इस्तेमाल करें। डीजल के वाहन इस्तेमाल करने से बचें।
- घर या ऑफिस में कैंडल, धूप या अगरबत्ती न जलाएं।
- अगर स्मोक करते हैं, तो इस बंद कर दें।
- अगर कहीं पर धूल-मिट्टी नजर आए तो वहां पानी का छिड़काव करें।
- घर और ऑफिस की गीले पोंछे से सफाई करें।
- जब कभी आप कहीं बाहर से आएं तो इस बात का ध्यान रखें की किसी अच्छे फेसवॉश से चेहरा जरूर धोएं, ताकि आपके चेहरे पर चिपकी धूल साफ हो जाए। साथ ही, त्वचा को बहुत रूखा भी न बनाएं, क्योंकि जाड़े में वैसे भी त्वचा को अतिरिक्त नमी की जरूरत होती है।
- एक अच्छे क्लिंजर से अपनी त्वचा की सफाई करें, क्योंकि यह त्वचा को गहराई तक साफ करता है और प्रदूषण के हानिकारक प्रभाव से उसे मुक्त करता है।
- घर से बाहर जाते वक्त पानी पीकर निकलें। इससे शरीर में ऑक्सिजन की सप्लाई सही बनी रहेगी और वातावरण में मौजूद जहरीली गैसें कम नुकसान पहुचाएंगी।
- नाक के भीतर के बाल हवा में मौजूद बड़े डस्ट पार्टिकल्स को शरीर के भीतर जाने से रोक लेते हैं। हाइजीन के नाम पर नाक के भीतर के बालों को पूरी तरह से ट्रिम न करें।
- बाहर से आने के बाद गुनगुने पानी से मुंह, आंखें और नाक साफ करें। हो सके तो भाप लें।
- साइकल से चलने वाले लोग भी मास्क लगाएं। चूंकि वे हेलमेट नहीं लगाते इसलिए उनके फेफड़ों तक बुरी हवा आसानी से पहुंच जाती है। बाइक पर हेलमेट के नीचे भी मास्क लगाना बेहतर रहेगा।

कौन सा मास्क खरीदें
- कई एक्सपर्ट मानते हैं कि मास्क भी इस लेवल के प्रदूषण के सामने बेहाल हो जाते हैं। खासतौर पर साधारण हरे या नीले क्लीनिकल मास्क ज्यादा काम के नहीं होते और लगभग हर तरह के एयर पलूशन के सामने बेअसर साबित होते हैं।
- अगर बाहर जाने की जरूरत पड़ जाए तो N95 लेवल का मास्क प्रयोग करें। एक बात ध्यान रखें कि N95 लेवल के मास्क सिर्फ धूल-मिट्टी जैसी चीजों को रोकते हैं। यह ट्रैफिक में गाड़ियों के ऑयल से पैदा हुए धुएं में पाई जाने वाले खतरनाक गैसों को नहीं रोक सकता।
- अगर सांस लेने में ज्यादा परेशानी हो तो मास्क लेने के लिए डॉक्टर से भी राय ली जा सकती है।
- वैसे मार्केट में Vogmask, Neomask, Totobobo, Respro, Venus और 3M जैसी कंपनियों के मास्क अच्छे माने जाते हैं।
- क्वॉलिटी के हिसाब से इनकी कीमत 150 रुपये से 5000 रुपये तक हो सकती है।

मास्क लगाने का सही तरीका
- अगर मास्क चेहरे से बिल्कुल चिपका नहीं है तो इसे लगाने के कोई फायदा नहीं होता। इसे मुंह और नाक के आसपास पूरी तरह से चिपका होना चाहिए।
- बड़ी दाढ़ी वालों के लिए यह कतई कारगर नहीं होता क्योंकि दाढ़ी की वजह से लीकेज बनी रहती है।

तब न पहनें मास्क
- हार्ट पेशंट्स और दमे के मरीज मास्क पहनने में सावधानी बरतें। अगर मास्क पहनने के बाद सांस फूले या उलझन महसूस हो तो उसे इस्तेमाल न करें। हो सकता है कि मास्क से पूरी तरह से आपको ऑक्सीजन न मिल रही हो या मास्क के भीतर तापमान बढ़ रहा हो। पेशंट्स किसी भी तरह का मास्क या रेस्परटर यूज करने से पहले अपने डॉक्टर से जरूर राय लें।

ये हैं मास्क में बेहतरीन ऑप्शन
3M
खासियत:
- हर साइज में बेहतर फिट
- काफी सस्ते और कारगर
खामी: एक या दो दिन तक ही इस्तेमाल कर सकते हैं।
कीमत : 200 रुपये तकरीबन

TOTOBOBO Mask
खासियत:
- बेहतरीन क्वॉलिटी और काफी कारगर
- पूरे मास्क को नहीं बल्कि सिर्फ फिल्टर ही बदलना पड़ता है।
खामी: काफी महंगे
कीमत: 2000 रुपये तकरीबन, 250 रुपये प्रति फिल्टर
नोट: मार्केट में इनके अलावा भी अच्छे मास्क उपलब्ध हैं। मार्केट में कीमतों में फर्क हो सकता है।

घर के भीतर भी होता है पलूशन
प्रदूषण सिर्फ बाहर ही नहीं है। जिस तेजी से बाहर प्रदूषण बढ़ रहा है, उसी तेजी से यह घर के भीतर भी घुस रहा है। कभी किचन में लगे वेंटिलेशन फैन को देखें। अगर उस पर ज्यादा कालिख जम रही है तो समझ जाएं कि किचन में प्रदूषित हवा नुकसानदायक स्तर तक बढ़ चुकी है।
- एसी के फिल्टर और पीछे की तरफ की वेंट में अगर ज्यादा धूल या कालिख जमा हो रही है तो यह इस बात की ओर इशारा है कि घर में प्रदूषित हवा ज्यादा है।
- बिजी हाइवे या सड़कों के किनारे बने मकानों, कारखानों के करीब बने मकानों में स्वाभाविक तरीके से धूल और मिट्टी के साथ कार्बन पार्टिकल पहुंच जाते हैं।
क्या करें:
- किचन में इलेक्ट्रॉनिक चिमनी लगवाएं।
- किचन में बेहतर वेंटिलेशन रखें।
- घर के भीतर अगरबत्ती और धूप न जलाएं।
- जब भी कुछ जलता है तो वह उस जगह पर ऑक्सीजन की मात्रा को कम करता है। ऐसे में दीए या दीपक जलाना घर में ऑक्सीजन को कम कर सकता है।
- अगर घर के आसपास बिजी रोड या कारखाने हों तो खिड़की-दरवाजों को हैवी ट्रैफिक के वक्त बंद रखें। इससे भले ही पूरा बचाव न हो, लेकिन धूल-मिट्टी कम मात्रा घर में घुस पाएगी।

क्या एयर प्यूरिफायर से मिलेगी राहत
- फिलहाल इस बात की कोई इंडिपेडेंट साइंटिफिक स्टडी सामने नहीं आई है कि एयर प्यूरिफायर इस्तेमाल से इनडोर एयर पलूशन से कितनी राहत मिलती है। हालांकि कई एयर प्यूरिफायर डेमो जोन में प्रयोग करके दिखा चुकी हैं कि कुछ ही मिनटों में यह एयर क्वॉलिटी में बदलाव ला सकता है।
- इसे इस्तेमाल करने वालों का कहना है कि इससे हालात बदतर होने से तो बच जाते हैं, लेकिन घातक हालात में यह कारगर नहीं रहता।
- इससे जरूर दमे या एलर्जी के पेशंट को राहत मिलती है, लेकिन आम लोगों की सेहत में यह भारी सुधार करता है, ऐसा देखने में नहीं आया है।
- कई स्टडीज यह भी दावा करती हैं कि एयर प्यूरिफायर भले ही हवा की सफाई करता है, लेकिन यह डिवाइसेज खुद ही ओजोन और निगेटिव आयन वातावरण में छोड़ती है। इससे हालात सुधरने के बजाय बिगड़ने लगते हैं।
- एयर प्यूरिफायर के बेहतर तरीके से काम करने के लिए जरूरी है कि घर पूरी तरह से सील हों। हमारे देश में ऐसे घर कम ही होते हैं, जो पूरी तरह से एयर टाइट हों। अगर ऐसा नहीं होगा तो जिस तेजी से एयर प्यूरिफायर उसे साफ करने की कोशिश करेगा उसी तेजी से प्रदूषित हवा घर में आ जाएगी।
- अगर एयर प्यूरिफायर खरीदना चाहते हैं तो ऊंचे HEPA (हाई इफिशंसी पार्टिकुलेट एयर) मतलब ज्यादा-से-ज्यादा महीन कणों को रोकने लायक फिल्टर और हाई क्लिन एयर डिलिवरी रेट हो, मतलब तेजी से गंदी हवा को साफ करने की दर तेज हो।
- एयर प्यूरिफायर की पलूशन के हिसाब से 3-6 महीने में सर्विसिंग करवानी होती है और फिल्टर आदि बदलवाने होते हैं। ऐसा न करने पर इसका फायदा नहीं मिलता।
- फिलहाल मार्केट में फिलिप्स, ब्लू एयर, यूरेका फॉर्ब्स, हनीवेल और केंट जैसी कंपनियों के एयर प्यूरिफायर 10 हजार रुपये से 90 हजार रुपये में मौजूद हैं। कीमतें कमरे का साइज और फिल्टर की क्वॉलिटी के हिसाब से बदलती हैं।

एयर प्यूरिफायर खरीदते वक्त इन बातों का रखें ध्यान
कमरे का साइज: सबसे पहली बात ध्यान में रखने लायक यह है कि कमरे कितना बड़ा है क्योंकि हर एयर प्यूरिफायर एक खास एरिया में मौजूद हवा को ही साफ कर सकता है। मार्केट में बहुत सारे एयर प्यूरिफायर हैं- कुछ छोटे से हैं तो कुछ बड़े। हमेशा वही मॉडल खरीदें जो आपके रूम साइज से ज्यादा एरिया की हवा साफ करने के लिए डिजाइन किया गया हो।

फिल्टर टाइप: एयर प्यूरिफायर में कौन सी किस्म का फिल्टर इस्तेमाल किया गया है, इस बारे में भी रिसर्च करें। फिल्टर पोलन, डस्ट, स्मोक, गंध और अन्य प्रदूषण फैलाने वाले कणों को फिल्टर करने की क्षमता रखता हो। चार तरह के फिल्टर उपलब्ध हैं- HEPA (हाई इफिशंसी पार्टिकुलेट एयर), चार्ज्ड मीडिया, ऐंटीबैक्टीरियल ऐंड जर्मीसाइडल और इलेक्ट्रो स्टैटिक प्रेसिपिटेटर। देखें कि एयर प्यूरिफायर में प्री-फिल्टर लगा है या नहीं, जो पालतू जानवरों के बाल और बड़े पार्टिकल्स को प्राइमरी स्टेज में ही हटाता है। याद रखें, आपको अच्छी हवा पाने के लिए फिल्टर भी लगातार बदलने होंगे।

एयर चेंज रेट: एयर चेंज रेट दिखाता है कि एयर प्यूरिफायर ने एक घंटे में कितनी बार पूरे कमरे की हवा को क्लीन किया है। अगर आपको 5 ACH (एयर चेंज रेट पर आवर) का एयर प्यूरिफायर मिलता है तो इसका मतलब है कि यह हर 12 मिनट में कमरे की हवा को चेंज कर देता है। अगर परिवार में किसी को अस्थमा है तो 5-6 ACH रेटिंग वाला एयर प्यूरिफायर खरीदें।

CADR रेटिंग: CADR का मतलब Clean Air Delivery Rate है। इससे पता चलता है कि एयर प्यूरिफायर कितनी तेजी से काम करता है। यह काउंट करता है कि कितनी क्यूबिक फीट हवा को एक मिनट में क्लीन किया जा सकता है। ज्यादा CADR नंबर का मतलब है कि बढ़िया एयर फिल्ट्रेशन। एयर प्यूरिफायर में तीन CADR नंबर होते हैं- डस्ट, पोलन और स्मोक के लिए।

पोर्टेबिलिटी और वजन: पोर्टेबिलिटी और वजन का ख्याल रखना भी जरूरी है। छोटे एयर प्यूरिफायर भी बड़े कमरों को क्लीन करने की क्षमता रखते है। वहीं बड़े साइज वाला प्यूरिफायर महंगा भी होगा और जगह भी ज्यादा घेरेगा।

शोर: एयर प्यूरिफायर से निकलने वाले शोर का भी ध्यान रखें। सभी एयर प्यूरिफायरों में लगे पंखे शोर पैदा करते हैं। ऐसे में कम शोर पैदा करने वाले प्यूरिफायर को खरीदने में ही समझदारी है।

इनसे बचें: कुछ खास टेक्नॉलजी वाले एयर प्यूरिफायर खरीदने से बचना चाहिए। जैसे कि UV फिल्ट्रेशन और आयनाइज्ड बेस्ड प्यूरिफायर नहीं खरीदने चाहिए। ये ओजोन गैस छोड़ते हैं, जिससे सांस लेने में दिक्कत हो सकती है।

एयर प्योरीफायर के ऑप्शन
Blueair 211
- HEPA फिल्टर के साथ आता है जो हवा से काफी हानिकारक तत्वों को फिल्टर कर सकते हैं।
- एक यूनिट 540 स्क्वेयर फुट तक एरिया वाले कमरे की हवा को पूरी तरह से फिल्टर कर सकता है।
खामी
- कुछ महंगा
- फिल्टरों की ज्यादा कीमत
कीमत: 25 हजार रुपये तकरीबन

Honeywell HAC25M1201W
- कम कीमत में HEPA फिल्टर का ऑप्शन।
- 323 स्क्वेयर फुट का कवरेज एरिया
खामी
- कमरे की बदबू को साफ नहीं कर पाता।
- फिल्टर की मोटाई कम, जिससे फिल्टर की क्वॉलिटी कमजोर
कीमत: तकरीबन 11 हजार रुपये
नोट: इनके अलावा भी मार्केट में अच्छे एयर प्यूरिफायर मौजूद हैं। मार्केट कीमतों में फर्क हो सकता है।

हवा फिल्टर करने वाले पौधे:
प्रकृति ने भी हमें कई ऐसे एयर फिल्टर दिए हैं जिन्हें लगा कर घर की हवा को साफ किया जा सकता है:
ऐलो वेरा
मनी प्लांट
ग्रीन तुलसी
बॉस्टोन फर्न
गोल्डन पोथोस
सेंसेवरिया प्लांट
क्रिसमस कैक्टस
अशोक का पेड़
स्नेक प्लांट
अरिका पाम

इन्हें खाएं जमकर
- विटामिन सी से भरपूर चीजें जैसे आंवला , नीबू , मौसमी , संतरा, अमरुद, खट्टे फल खाएं। इससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बनी रहेगी।
- दिन में दो-तीन बार नींबू का रस पानी में मिलाकर लें। इसमें नमक, चीनी ना मिलाएं।
- डाइट को लेकर सतर्क रहें। जितनी हो सके हरी-पत्तेदार सब्जियां खाएं। खाने में दाल और दही को शामिल करें। सलाद खाएं। इससे शरीर प्रदूषण से लड़ने के लिए तैयार हो जाएगा।
- अखरोट और काजू खाएं। इससे मैग्नीशियम और ओमेगा थ्री की अच्छी खुराक शरीर को मिलेगा और प्रदूषण से बचाव होगा।
प्रदूषण मुक्त दिन का रुटीन
1 - सुबह उठ कर पानी में चौथाई चम्मच जीरा और अजवाइन के साथ 4 लौंग डाल कर इलेक्ट्रिक स्टीमर से स्टीम लें। स्टीमर 200 से 400 रुपये में ऑनलाइन खरीदा जा सकता है।
2 - सुबह कुछ भी खाने से पहले 2-3 तुलसी के पत्ते, 3 काली मिर्च और 2 लौंग, छोटा टुकड़ा अदरक, चुटकी भर दालचीनी और 1 इलाइची को एक बड़े कप पानी में डाल कर उबालें। इसे पिएं।
3 - दोपहर 12 बजे 4 गाजर, 1 टमाटर और 1 आंवले का जूस पिएं।
4 - खाने के दो घंटे बाद चौथाई चम्मच हल्दी और 2 काली मिर्च को दूध के साथ उबालें और गुनगुना होने पर पिएं।
5 - अगर छाती में बहुत कफ महसूस हो रहा है तो कपूर को कूट कर गरम सरसों के तेल में मिलाएं और छाती पर गुनगुना ही लगाएं।
6 - रात को सोने से पहले फिर से सुबह जैसे स्टीम ली थी वैसे ही स्टीम लें।

जब कोई फैलाए प्रदूषण:
फिलहाल दिल्ली सरकार की प्रदूषण कंट्रोल करने वाली एजेंसी डीपीसीसी का एक वट्सऐप हेल्पलाइन नंबर 9717593574 है, जिस पर मेसेज करके कार्रवाई होने का इंतजार किया जा सकता है। कोई ऐसा हेल्पलाइन नंबर नहीं है जिस पर सीधे फोन करके प्रदूषण फैलाने वाले को रिपोर्ट किया जा सके। कूड़ा या पत्तियां जलाने से लेकर धूल-मिट्टी फैलाने तक के लिए पुलिस हेल्पलाइन नंबर (100) पर भी कॉल कर सकते हैं।

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ऐसे रहेगा दूर निमोनिया

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आम-सी बीमारी है निमोनिया लेकिन अगर सही इलाज न हो तो यह बड़ी परेशानी का सबब भी बन सकती है, खासकर बच्चों और बुजुर्गों में। एक्सपर्ट्स से बात करके निमोनिया के बारे में पूरी जानकारी दे रही हैं प्रियंका सिंह...

एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. राजकुमार
प्रफेसर और हेड, रेस्परेटरी डिपार्टमेंट, पटेल चेस्ट इंस्टिट्यूट

डॉ. इंदिरा विज
सीनियर पीडियाट्रिशन, मैक्स हेल्थकेयर

डॉ. आनंद जायसवाल,
डायरेक्टर, रेस्परेटरी और स्लीप मेडिसिन, मेदांता

डॉ. नरेश बंसल
सीनियर फिजिशन, सर गंगाराम हॉस्पिटल

क्या है निमोनिया
निमोनिया सांस से जुड़ी एक गंभीर बीमारी है, जिसमें फेफड़ों (लंग्स) में इन्फेक्शन हो जाता है। आमतौर पर बुखार या जुकाम होने के बाद निमोनिया होता है और यह 10-12 दिन में ठीक हो जाता है। लेकिन कई बार यह खतरनाक भी हो जाता है, खासकर 5 साल से छोटे बच्चों और 60 साल से ज्यादा उम्र के लोगों में क्योंकि उनकी इम्युनिटी कम होती है। दुनिया भर में होने वाली बच्चों की मौतों में 18 फीसदी सिर्फ निमोनिया की वजह से होती हैं। निमोनिया होने पर फेफड़ों में सूजन आ जाती है और कई बार पानी भी भर जाता है। बच्चों में आमतौर पर वायरल से निमोनिया होता है, जबकि स्मोकिंग करनेवालों में बैक्टीरिया से। निमोनिया को 2 कैटिगरी में बांट सकते हैं। एक कम्यूनिटी से होने वाला और दूसरा हॉस्पिटल से होनेवाला। पहली कैटिगरी में वायरस, बैक्टीरिया और फंगस आदि से होनेवाला निमोनिया आता है। दूसरी कैटिगरी का निमोनिया अमूमन तब होता है, जब कोई शख्स अस्पताल में किसी बीमारी का इलाज कराने के लिए भर्ती होता है लेकिन उसे इन्फेक्शन से निमोनिया हो जाता है या फिर किसी बीमार की तीमारदारी के लिए अस्पताल में रहनेवाले या उससे मिलने आनेवाले शख्स को भी निमोनिया हो सकता है।

क्यों होता है
निमोनिया ज्यादातर बैक्टीरिया, वायरस या फंगल के हमले से होता है। मौसम बदलने, सर्दी लगने, फेफड़ों पर चोट लगने के अलावा खसरा और चिकनपॉक्स जैसी बीमारियों के बाद भी इसकी आशंका बढ़ जाती है। इधर, प्रदूषण की वजह से भी निमोनिया के मामले बढ़ रहे हैं। टीबी, एचआईवी पॉजिटिव, एड्स, अस्थमा, डायबीटीज, कैंसर और दिल के मरीजों को निमोनिया होने की आशंका ज्यादा होती है।

लक्षण
- तेज बुखार
- खांसी के साथ हरे या भूरे रंग का गाढ़ा बलगम आना, कभी-कभी हल्का-सा खून भी
- सांस लेने में दिक्कत
- दांत किटकिटाना
- दिल की धड़कन का बढ़ना
- सांस लेने की रफ्तार बढ़ना
- उलटी
- दस्त
- भूख न लगना
- होंठों का नीला पड़ना
- बहुत ज्यादा कमजोरी लगना, बेहोशी छाना
नोट: इनमें से कुछ लक्षण दूसरी बीमारियों के भी हो सकते हैं। निमोनिया के लिए सबसे अहम लक्षण है बुखार के साथ बलगम वाली खांसी और सीने में हल्का दर्द होना। बुजुर्गों और डायबीटीज के मरीजों में कई बार बिना बुखार या बलगम के भी निमोनिया होता है। ऐसे में उन में चक्कर आना, खाना-पीना छोड़ देना, बहकी बातें करना जैसे लक्षण नजर आते हैं। वैसे, अगर बुखार धीरे-धीरे बढ़ता है तो बैक्टीरियल इन्फेक्शन हो सकता है और अगर तेजी से बुखार हो तो वायरल इन्फेक्शन हो सकता है। हालांकि बीमारी की वजह टेस्ट में ही पता लगती है।

टेस्ट
आमतौर पर डॉक्टर लक्षण देखकर बीमारी का अनुमान लगा लेते हैं। फिर भी जरूरत पड़ने पर कुछ टेस्ट कराए जाते हैं। ये टेस्ट हैंः
1. टोटल ब्लड काउंट (CBC)
कीमत: 100 से 200 रुपये, अगर आरबीसी (RBC) नॉर्मल रेंज 12000 तक से ज्यादा निकलता है तो इन्फेक्शन हो सकता है।
2. छाती का एक्सरे
कीमत: 500 से 800 रुपये, एक्सरे में फेफड़ों में सफेद धब्बे नजर आते हैं तो निमोनिया हो सकता है।
3. बलगम की जांच
कीमत: 100 से 200 रुपये, ग्राम स्टेन (gram stain) टेस्ट में पस सेल्स और बैक्टीरिया के नमूने नजर आते हैं। इसके बाद कल्चर टेस्ट कराकर बैक्टीरिया के प्रकार का पता लगाया जाता है।

इलाज
- लक्षणों और बीमारी की वजह के मुताबिक इलाज किया जाता है। बैक्टीरिया से होने वाले निमोनिया के लिए एंटी-बायोटिक दवा दी जाती है लेकिन तबीयत ठीक लगने पर एंटी-बायोटिक दवा बीच में बंद नहीं करनी चाहिए। एंटी-बायोटिक का पूरा कोर्स करना जरूरी है, वरना बीमारी लौट सकती है और दोबारा होने पर बीमारी ज्यादा गंभीर होती है और तब इलाज भी मुश्किल होता है।
- बैक्टीरिया वाला निमोनिया दो से चार हफ्ते में ठीक हो सकता है लेकिन वायरल से होनेवाला निमोनिया ठीक होने में ज्यादा समय लेता है। इसमें सिस्टम के आधार पर मैनेजमेंट होता है यानी बुखार, खांसी आदि के लिए दवा दी जाती है और कुछ दिनों में यह खुद-ब-खुद ठीक हो जाता है। हां, अगर स्वाइन फ्लू की वजह से निमोनिया हुआ है तो ओसेलटामिविर (Oseltamivir) दवा की जाती है, जोकि टेमीफ्लू (Temiflu), एंटी-फ्लू (Anti-flu) आदि ब्रैंड नेम से मिलती है।
- छोटे बच्चों और बुजुर्गों को कई बार अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत भी पड़ती है। वहां आईवी के जरिए फ्लूइड और जरूरत पड़ने पर ऑक्सिजन भी दी जाती है। अगर किसी अडल्ट का रेस्पिरेटरी रेट एक मिनट में 30 से ज्यादा हो जाए, बीपी 120/80 से नीचे चला जाए, पल्स रेट 120 से ऊपर चला जाए तो अस्पताल में एडमिट करने की जरूरत पड़ जाती है।
- मरीज को साथ में बुखार, खांसी की दवा दी जाती है। जरूरत पड़ने पर नेबुलाइज करके कफ को निकाला जाता है।
- बीमारी की गंभीरता के अनुसार आमतौर पर 10-14 दिन दवा देने की जरूरत पड़ती है।
- इस दौरान भरपूर आराम करें और पूरी नींद लें। आराम करने से रिकवरी जल्दी होती है।
- खूब सारा लिक्विड लें। साथ में जूस, नारियल पानी, नीबू पानी आदि भी लें।
- स्टीम लेना भी राहत दिलाता है। इससे गले को नमी मिलती है। दिन में 3-4 बार स्टीम लें।

जानलेवा कब होता है
आमतौर पर निमोनिया जानलेवा नहीं होता लेकिन अगर निमोनिया के दौरान सेप्टिमीनिया यानी सेप्टिक हो जाए तो मरीज की जान जा सकती है। हालात गंभीर होने पर मरीज को आईसीयू में भी भर्ती करना पड़ता है। वक्त पर सही इलाज न मिलने पर लंग्स के एयर पॉकेट में पानी भर जाता है। जो लोग वेंटिलेटर पर हैं, जो स्टेरॉयड लेते हैं, जिन्हें कैंसर है, खुली चोटें हैं, जिनको पहले से कमजोरी हो, उनके लिए निमोनिया घातक साबित हो सकता है।

लगवाएं टीका
निमोनिया का टीका डब्ल्यूएचओ के जरूरी टीकों की लिस्ट में नहीं है। लेकिन फिर भी इसे लगवा लेना चाहिए खासकर 2 साल से कम उम्र के बच्चों और 65 साल से ज्यादा उम्र के बुजुर्गों को। इसके अलावा जिन्हें खतरा ज्यादा है, उन्हें भी टीका लगवा लेना चाहिए। 2 साल से कम उम्र के बच्चों में निमोनिया की रोकथाम के लिए PCV13 टीका लगाया जाता है। यह करीब 13 तरह के निमोनिया से बचाता है और तीन साल तक असरदार होता है। वहीं अगर 2 साल से ज्यादा उम्र के बच्चों में टीका लगाया जाता है तो PPSV23 लगता है। यह 23 तरह के निमोनिया से रक्षा करता है। 2 साल से बड़े बच्चों में सिर्फ खास परिस्थितियों में ही यह टीका लगाया जाता है मसलन अगर बच्चे को सिकल सेल डिसीज़ हो, कोहलियर इम्प्लांट हो, एड्स हो, कैंसर हो, लिवर या दिल की बीमारी आदि हो। बच्चों को सालाना इन्फ्लुएंजा वायरल वैक्सीन भी लगवानी चाहिए। वह कई तरह के वायरस अटैक और कुछ तरह के निमोनिया से भी बचाव करता है।

बचाव कैसे करें
- 2 साल से छोटे बच्चों और 65 साल से ज्यादा उम्र के लोगों को टीका लगवाएं। जिनकी इम्युनिटी कमजोर है, उन्हें भी टीका लगवाना चाहिए।
- बहुत जरूरी न हो तो अस्पताल जाने से बचें। जाएं भी तो फालतू किसी डिपार्टमेंट में जाने या मरीजों से मिलने की कोशिश न करें।
- खांसते हुए मुंह पर नैपकिन रखें ताकि मुंह से कीटाणु निकालकर दूसरों पर हमला न करें। अगर किसी को खांसी है तो उससे थोड़ा दूर रहें।
- अगर बच्चे को खांसी है तो पूरी तरह ठीक होने तक स्कूल न भेजें ताकि दूसरे बच्चों को इन्फेक्शन न हो।
- खांसी अगर एक हफ्ते से ज्यादा वक्त से है तो डॉक्टर को दिखाएं। इसी तरह, अगर खसरा या चेचक (चिकन पॉक्स) निकलने के बाद खांसी होती है तो भी हल्के में न लें।
- छोटे बच्चों का खास ख्याल रखें। उन्हें सर्दी से बचाएं और धूप में जरूर रखें।
- ज्यादा पलूशन वाली जगहों पर जितना मुमकिन हो, न जाएं। जाना ही हो तो बेहतर क्वॉलिटी का मास्क पहनकर जाएं।
- स्मोकिंग न करें, न ही अपने आसपास किसी को स्मोकिंग करने दें।
- खुद की और अपने आसपास की साफ-सफाई का पूरा ख्याल रखें।
- मौसम बदल रहा है तो खुद का ध्यान रखें। खुद को ढक कर रखें, बहुत ठंडी चीजें न खाएं।

छोटे बच्चों का रखें खास ख्याल
छोटे बच्चों खासकर नवजातों की इम्युनिटी काफी कम होती है इसलिए वे निमोनिया का शिकार आसानी से बन जाते हैं। नवजात शिशुओं में कुछ लक्षण देखकर निमोनिया का अनुमान लगा सकते हैं, मसलन अगर 2 महीने के नवजात की सांसें एक मिनट में 60 से ज्यादा बार चल रही हैं, तो सचेत हो जाएं। इसी तरह, महीने से 1 साल तक के बच्चे की सांसें एक मिनट में 50 से ज्यादा और 1 से 5 साल के बीच के बच्चे की सांसें हर मिनट में 40 से ज्यादा बार चल रही हैं तो फौरन डॉक्टर को दिखाएं। इसके अलावा, बच्चे के होंठ या हाथ-पैर की उंगलियों का नीला पड़ना, दूध पीना छोड़ देना, अचानक सुस्त हो जाना, शौच या पेशाब से खून आना, तेज बुखार होना, शरीर का ठंडा पड़ जाना, झटके लगना, पेट फूल जाना, उलटियां होना, तलवों और हथेलियों का पीला पड़ जाना आदि लक्षण निमोनिया के हो सकते हैं।
ध्यान रखें
- बच्चे का कमरा साफ-सुथरा रखें।
- 2 साल की उम्र तक जितना मुमकिन हो बच्चे को मां का दूध पिलाएं।
- सही समय पर टीका जरूर लगवाएं।
- बच्चों को बार-बार न छूएं और बाहर से आते ही बिना हाथ धोए बच्चे को न उठाएं।
- बीमार या संक्रमित शख्स से नवजात को दूर रखें ।
- लक्षण नजर आने पर बच्चे का इलाज घर पर न करें, बल्कि फौरन डॉक्टर को दिखाएं।

आम गलतियां
1. सर्दी-जुकाम समझ कर हल्के में लेना
कई बार पैरंट्स निमोनिया को गंभीरता से नहीं लेते। वे इसे साधारण सर्दी-जुकाम मानकर घरेलू इलाज करते रहते हैं। इस बीच बीमारी बढ़ती जाती है। अगर बच्चे को वायरल है तो वह 4-5 दिन में खुद ठीक हो जाता है लेकिन अगर तेज बुखार के साथ बच्चे की सांस बहुत तेजी से चल रही है, जीभ नीली पड़ रही है, हाथों में नीलापन आ रहा है, बच्चा सुस्त हो जाता है, कुछ खा-पी नहीं रहा तो मामला गंभीर हो सकता है। तब घरेलू इलाज के बजाय डॉक्टर के पास जाएं।

2. बच्चों को खूब सारे कपड़े पहना देना
बच्चे को सर्दी से बचाना बहुत जरूरी है लेकिन निमोनिया के लिए आमतौर पर एंटी-बैक्टीरियल और एंटी-फंगल आदि दवाएं भी देनी पड़ती हैं। ऐसे में बच्चे को उतने ही कपड़े पहनाएं, जितने उसके शरीर को गर्म रखने के लिए जरूरी हों।

3. एंटी-बायोटिक दवाएं बीच में बंद कर देना
किसी भी बीमारी में अगर एंटी-बायोटिक दी जाती हैं तो उनका पूरा कोर्स करें, वरना बीमारी वापस आ सकती है। यह बात निमोनिया पर भी लागू होती है। पूरा इलाज न कराने से निमोनिया दोबारा हो सकता है।

मिथ और फैक्ट

सिर्फ सर्दी-जुकाम है निमोनिया
ऐसा नहीं है। यह सांस की नली और फेफड़ों का इन्फेक्शन है। सर्दी-जुकाम से आमतौर पर इसकी शुरुआत होती है।

सिर्फ सर्दियों और ठंडी जगहों पर होता है यह
निमोनिया किसी भी मौसम में और किसी भी जगह हो सकता है। हां, सर्दी के मौसम में इसकी आशंका ज्यादा बढ़ जाती है क्योंकि धुंध, धुएं और नमी की वजह से इस मौसम में निमोनिया के बैक्टीरिया और वायरस को पनपने का मौका ज्यादा मिलता है।

निमोनिया की रोकथाम मुमकिन नहीं है
इनडोर पलूशन को कम करके, साफ-सफाई का पूरा ख्याल रखकर और वैक्सीन लगवा कर निमोनिया को काफी हद तक रोका जा सकता है।

सीने पर विक्स लगाने से राहत मिलती है
विक्स से निमोनिया में किसी तरह की राहत नहीं मिलती। हां, अगर नाक बंद है तो उसे खोलने में यह जरूर मदद करता है।

घरेलू नुस्खों से इलाज मुमकिन है
यह पूरी तरह गलत है। सर्दी-जुकाम और खांसी आदि में घरेलू नुस्खे अक्सर काम कर जाते हैं लेकिन निमोनिया में दवाएं बहुत जरूरी हैं। उनका सही मात्रा में तय समय तक लेना भी बेहद जरूरी है। ध्यान रखें, कई बार एक्सरे में फेफड़े पूरी तरह साफ नहीं दिखते। इलाज पूरा होने के बाद भी कई बार फेफड़े पूरी तरह साफ होने में थोड़ा वक्त लग जाता है।

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साड्डा हक, ऐत्थे पढ़

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सुप्रीम कोर्ट
ने पिछले कुछ समय में ऐसे तमाम फैसले दिए हैं जो समाज में महिलाओं की हालत बेहतर करने में बड़ा रोल निभा सकते हैं। इन कानूनों में पहले के मुकाबले क्या फर्क आया है और क्या होगा इनका असर, एक्सपर्ट्स से बात करके जानकारी दे रहे हैं राजेश चौधरी...

एक्सपर्ट्स पैनल
एम. एल. लाहोटी, सीनियर एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
एस. एन. ढींगड़ा, रिटायर्ड जस्टिस, दिल्ली हाई कोर्ट
मुरारी तिवारी, एडवोकेट, दिल्ली हाई कोर्ट
अमन सरीन, एडवोकेट, दिल्ली हाई कोर्ट
अजय दिग्पाल, सरकारी वकील

सहमति से तलाक में इंतजार खत्म

पहले: तलाक में 6 महीने का था वेटिंग पीरियड
हिंदू मैरिज ऐक्ट 1955 में धारा-13(बी) में प्रावधान है कि पति और पत्नी सहमति से तलाक ले सकते हैं। तलाक के लिए जब याचिका दायर की जाती है तो दोनों पक्ष कोर्ट को बताते हैं कि उनके बीच सुलह की गुंजाइश नहीं है और दोनों तलाक चाहते हैं। याचिका में दोनों समझौते की तमाम शर्तें लिखते हैं। साथ ही, बताते हैं कि कितना गुजारा भत्ता होगा और बच्चे की कस्टडी किसके पास होगी। इसके बाद कोर्ट तमाम बातों को दर्ज कर दोनों को छह महीने का वक्त देता है, जिसे कूलिंग पीरियड कहते हैं। यह समय इसलिए दिया जाता है ताकि अगर गुस्से या आवेश में यह सब हुआ है तो गुस्सा शांत होने के बाद दोनों के पास फिर से साथ रहने का मौका हो। अगर इस पीरियड के अंदर उनके बीच सुलह नहीं होती तो 6 से 18 महीने के बीच दोनों सेकंड मोशन के लिए कोर्ट में अर्जी दाखिल कर दोबारा से तलाक के लिए कहेंगे और कोर्ट को बताएंगे कि समझौता नहीं हुआ और वे तलाक चाहते हैं। तब कोर्ट तलाक दे देता है।

अब: 6 महीने इंतजार जरूरी नहीं
तारीख: 12 सितंबर 2017
कोरमः जस्टिस ए. के. गोयल और जस्टिस यू. यू. ललित
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हिंदू मैरिज ऐक्ट के तहत आपसी सहमति से तलाक के लिए छह महीने का वेटिंग पीरियड अनिवार्य नहीं है। अगर दोनों पक्षों में समझौते की कोशिश नाकाम हो चुकी है और उन्होंने बच्चों की कस्टडी और दूसरे विवादों का आपसी सहमति से निपटारा कर लिया है तो कोर्ट अपने अधिकार का इस्तेमाल कर 6 महीने के वेटिंग पीरियड को खत्म कर सकता है।
नए फैसले के बाद
तलाक की अर्जी के एक हफ्ते बाद अदालत से छह महीने के इंतजार को खत्म करने की गुहार लगाई जा सकती है। हालांकि कोर्ट यह देखेगा कि दोनों पक्षों में समझौते की कोशिश हुई या नहीं, पति-पत्नी कितने समय से अलग-अलग रह रहे हैं। साथ ही, दोनों पक्षों में तमाम सिविल और क्रिमिनल मामलों में समझौता हुआ हो, गुजारा भत्ता और बच्चों की कस्टडी तय की गई, तभी फैसले पर आगे बढ़ सकते हैं।
दिल्ली के मामले में आया फैसला
दिल्ली के एक कपल ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर कहा था कि उनकी शादी 16 जनवरी 1994 को हुई थी। शादी के बाद दो बच्चे हुए। इसके बाद विवाद हुआ और 2008 से दोनों अलग रह रहे हैं। इस दौरान दोनों पक्षों में सिविल और क्रिमिनल विवाद शुरू हुआ। बाद में दोनों ने समझौता किया और 28 अप्रैल 2017 को कोर्ट के सामने सहमति से तलाक की अर्जी लगाई। इस दौरान बच्चे की कस्टडी उनके पिता के पास रही और महिला को गुजारा भत्ता के तौर पर 2.75 करोड़ रुपये देना तय हुआ। तीस हजारी कोर्ट में आपसी सहमति से तलाक की गुहार लगाते हुए दोनों ने छह महीने का वेटिंग पीरियड खत्म करने की गुहार लगाई और फिर मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने आया।
इसका फायदा किसे
कोर्ट उन मामलों में छह महीने के समय को खत्म कर सकता है, जिनमें समझौता हुआ, लेकिन फेल हो गया या फिर दोनों काफी समय से अलग रह रहे हैं। साथ ही यह देखना होगा कि दोनों की शादी कब हुई थी, कब से अलग रह रहे हैं, कब से केस पेंडिंग है, दोनों के बीच समझौते की कोशिश नाकाम रही या दोनों के बीच ज्यादातर मामले सुलझ गए हैं आदि। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसी स्थिति में पहली याचिका के 7 दिनों के बाद दोनों पक्ष वेटिंग पीरियड को खत्म करने की अर्जी के साथ सेकंड मोशन दाखिल कर सकते हैं और कोर्ट उक्त परिस्थितियों के आधार पर वेटिंग पीरियड को खत्म करने का फैसला ले सकता है।
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नाबालिग पत्नी से जबरन संबंध रेप के दायरे में

पहले:
नाबालिग पत्नी के साथ संबंध नहीं था अपराध
रेप को परिभाषित करने वाली धारा-375 में कहा गया था कि अगर 15 से 18 साल की पत्नी के साथ पति संबंध बनाता है तो वह रेप के दायरे में नहीं होगा। यह फैसला जिस विवाद में आया उसमें 18 साल से कम उम्र की लड़की के साथ शादी के बाद बनाए गए जबरन शारीरिक संबंध के कारण पति के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किए जाने का प्रावधान किए जाने की गुहार लगाई गई थी। कहा गया था कि 18 साल से कम उम्र की युवती के साथ पति का जबरन संबंध कायम करना, कानूनन उसे मिले अधिकार का उल्लंघन है।

अब:
नाबालिग पत्नी से संबंध रेप के दायरे में
तारीख: 11 अक्टूबर 2017
कोरमः जस्टिस मदन बी. लोकूर और जस्टिस दीपक गुप्ता
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 18 साल से कम उम्र की पत्नी से संबंध बनाए जाने के मामले में अब रेप का केस दर्ज हो सकता है। पत्नी अगर एक साल के भीतर शिकायत कर दे तो पति के खिलाफ मामला बनेगा। कोर्ट ने आईपीसी में इसे लेकर दिए गए अपवाद को असंवैधानिक करार दिया। अपवाद के तहत कहा गया था कि अगर 15 से 18 साल की उम्र की पत्नी के साथ पति संबंध बनाता है तो वह रेप नहीं होगा।

नए फैसले के बाद
- इस फैसले के बाद अब देश भर में अगर नाबालिग लड़की की शादी होती है और उसके साथ जबरन संबंध बनाए जाते हैं तो पति के खिलाफ रेप का केस दर्ज हो सकता है। पत्नी थाने में यह केस दर्ज करा सकती है।
- दरअसल हिंदू मैरिज ऐक्ट या मुस्लिम पर्सनल लॉ में 18 साल से कम उम्र की लड़की की शादी अमान्य नहीं है। हिंदू मैरिज ऐक्ट में प्रावधान है कि 18 साल से कम उम्र की लड़की और लड़के की शादी होने की स्थिति में उन्हें इस बात का हक होता है कि वे चाहें तो बालिग होने के बाद शादी को अमान्य करार दिए जाने के लिए अर्जी दाखिल कर सकते हैं। अगर वे ऐसा नहीं करते तो शादी जायज मानी जाएगी।
- नाबालिगों की शादी रोकने के लिए हालांकि देश में बाल विवाह निरोधक कानून है, लेकिन वास्तव में यह कभी प्रभावी ढंग से लागू नहीं हुई। इसी वजह से देश में नाबालिगों की शादी चलन में है।
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एक बार में तीन तलाक खत्म

पहले: मुस्लिम पुरुष एक बार में दे सकते थे तीन तलाक
तीन तलाक कानून के तहत मुस्लिम पुरुषों को यह हक था कि वे एक बार में तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) देकर पत्नी से अलग हो सकते थे। तीन तलाक चिट्ठी, फोन या फिर किसी और तरीके से भी दिया जा रहा था। इसके बाद निकाह के वक्त तय की गई मेहर की रकम देकर पति पत्नी से अलग हो सकता था।
अब: सुप्रीम कोर्ट ने इसे गैरकानूनी करार दिया
तारीख: 22 अगस्त 2017
कोरमः चीफ जस्टिस जे. एस. खेहर, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस रोहिंटन नरिमन, जस्टिस यू. यू. ललित और जस्टिस अब्दुल नजीर
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसले में मुस्लिम समुदाय में प्रचलित एक बार में तीन तलाक को खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फटाफट तीन तलाक अवैध, असंवैधानिक और अमान्य है। यह संविधान के अनुच्छेद-14 (समानता के अधिकार) का उल्लंघन करता है। वैवाहिक संबंध खत्म होने से पहले दोनों पक्षों के बीच समझौते की कोशिश जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तीन तलाक कुरान की रीति के भी खिलाफ है।
नए फैसले के बाद
- सुप्रीम कोर्ट ने एक बार में तीन तलाक को खत्म कर दिया है। अब एक बार में कोई तीन तलाक नहीं दे सकता बल्कि कुरान में तलाक की जो प्रक्रिया बताई गई है, उसी के तहत मुस्लिम पुरुष तलाक दे सकता है।
- तलाक के तीन तरीके बताए गए हैं: तलाक-ए-बिद्दत, तलाक-ए-अहसन और तलाक-ए-हसन। तलाक-ए-बिद्दत को खारिज कर दिया गया है, जबकि तलाक-ए-अहसन चलन में नहीं है। तलाक-ए-हसन चलन में है जोकि तीन महीने में पूरा होता है। महिला के पीरियड खत्म होने के बाद पुरुष तलाक कहता है लेकिन इस दौरान दोनों एक साथ रहते हैं और परिवार के बड़े-बुजुर्ग दोनों में सुलह कराने की कोशिश करते हैं।
- इस दौरान एक महीने के अंतराल पर पुरुष तलाक कहता है और तीन महीने तक अगर सुलह न हो पाए तो तलाक की प्रक्रिया पूरी हो जाती है, जिसके तहत तलाक मुकम्मल माना जाता है।
- इस फैसले से उन मुस्लिम महिलाओं को राहत मिली है, जिन्हें पति ने एक बार में तीन तलाक कहकर एकतरफा तलाक दे दिया था।

अगर कोई फटाफट तीन तलाक दे दे तो...
उसके खिलाफ पीड़ित अदालत का दरवाजा खटखटा सकती है। सिविल कोर्ट में वह अर्जी दाखिल कर कह सकती है कि उसका तलाक नहीं हुआ है क्योंकि तलाक तय नियमों के मुताबिक नहीं दिया गया। जबरन कोई घर से निकालता है या कोई भी हिंसा करता है तो घरेलू हिंसा कानून के तहत महिला केस दर्ज करा सकती है।
जिन्हें मिल चुका है तीन तलाक
जिन महिलाओं को नए कानून से पहले एक बार में तीन तलाक दिया जा चुका है, उन्हें नए फैसले से कोई राहत नहीं मिली है। जिस दिन फैसला हुआ यानी 22 अगस्त 2017 के बाद के मामलों में नया कानून लागू होगा।
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दहेज कानून: समिति की राय से पहले गिरफ्तारी नहीं

पहले: दहेज कानून का हो रहा था बेजा इस्तेमाल
1983 में आईपीसी के प्रावधानों में बदलाव कर धारा 498-ए (दहेज प्रताड़ना) और 1986 में धारा 304-बी (दहेज हत्या) का प्रावधान किया गया। इसके अलावा दहेज प्रताड़ना की शिकायत पर पुलिस 498-ए के साथ-साथ धारा-406 (अमानत में खयानत) का भी केस दर्ज करती है। दहेज प्रताड़ना में अधिकतम 3 साल कैद की सजा का प्रावधान है। यह गैर-समझौतावादी कानून है यानी दोनों पक्ष आसानी से केस खत्म नहीं कर सकते। अगर वे ऐसा चाहते हैं तो हाई कोर्ट में अर्जी दाखिल करनी होगी कि समझौता हो गया है। इसके बाद हाई कोर्ट के आदेश से केस रद्द हो सकता है।

अब: दहेज कानून के बेजा इस्तेमाल को रोकने की कोशिश
दिनांकः 27 जुलाई 2017
कोरमः जस्टिस ए. के. गोयल और जस्टिस यू. यू. ललित
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने 27 जुलाई को दिए फैसले में कहा कि दहेज प्रताड़ना संबंधी मामले में पुलिस सीधे आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर सकती। ऐसे मामले को देखने के लिए परिवार कल्याण समिति बनाई जाए और केस उसे रेफर किया जाए। जब तक समिति की रिपोर्ट न आ जाए, तब तक आरोपियों की गिरफ्तारी न की जाए। अदालत ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले अरनेश कुमार बनाम बिहार स्टेट मामले में कहा था कि बिना किसी ठोस कारण के गिरफ्तारी न हो। लॉ कमिशन ने भी कहा था कि मामले को समझौतावादी बनाया जाए। निर्दोष लोगों के मानवाधिकार को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। दरअसल, इस कानून के बेजा इस्तेमाल की काफी शिकायतें मिल रही थीं। ऐसे में न्याय प्रशासन में सहयोग के लिए सिविल सोसायटी को शामिल करना जरूरी समझा गया।

इस फैसले के बाद
- ऐसे मामले में न्याय प्रशासन को सिविल सोसायटी का सहयोग लेना होगा। देश भर के तमाम जिलों में परिवार कल्याण समिति बनाई जाएंगी। जिला लीगल सर्विस अथॉरिटी इन समितियों का गठन करेगी।
- समिति में कानून स्वयंसेवक, सामाजिक कार्यकर्ता, रिटायर्ड शख्स होंगे। जो भी केस पुलिस या मैजिस्ट्रेट के सामने आएगा, वह समिति को भेजा जाएगा।
-समिति तमाम पक्षों से बात करेगी और एक महीने में रिपोर्ट देगी। उस रिपोर्ट पर पुलिस और मैजिस्ट्रेट विचार के बाद ही आगे की कार्रवाई करेंगे।
-जब तक रिपोर्ट नहीं आएगी, तब तक किसी भी आरोपी की गिरफ्तारी नहीं होगी।
-अगर मामले में समझौता हुआ तो जिला जज द्वारा नियुक्त मैजिस्ट्रेट मामले का निपटारा कराएंगे और फिर मामले को हाई कोर्ट भेजा जाएगा ताकि समझौते के आधार पर केस बंद हो।

अभी क्या हालात
फिलहाल इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने कहा है कि वे दोबारा मामले का आकलन करेंगे। लेकिन जहां तक दिल्ली का सवाल है तो दिल्ली में पहले से ही दोनों पक्षों में समझौते की कोशिश कराई जाती है। दिल्ली में दहेज प्रताड़ना की शिकायत के बाद मामले को महिला सेल भेज दिया जाता है, जहां काउंसलर दोनों पक्षों को समझाता है और कोशिश होती है कि परिवार न टूटे लेकिन जब समझौते की कोशिश फेल हो जाती है, तब केस दर्ज होता है। अरनेश कुमार बनाम स्टेट ऑफ बिहार के केस में सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही कहा हुआ है कि दहेज प्रताड़ना समेत 7 साल तक कैद की सजा के मामले में जब जरूरी हो, तभी गिरफ्तारी हो। ऐसे में दहेज मामले में भी पुलिस पहले सीआरपीसी की धारा-41 का नोटिस देती है और जरूरी होने पर ही गिरफ्तारी होती है।
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बेटियों को मिला पुश्तैनी जायदाद में हक

पहले: महिलाओं को नहीं था पुश्तैनी जायदाद में हक
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा-6 में हिंदू महिला और पुरुषों को पैतृक जायदाद में बराबर हक दिया है। इसका मकसद हिंदू महिलाओं को उत्तराधिकार के मामले में बराबर हक देना है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत 2005 में यह व्यवस्था दी गई थी।
अब: कोर्ट ने माना कि महिला भी हो सकती है परिवार की कर्ता
दिनांकः जनवरी 2016
कोरमः जस्टिस नजमी वजीरी
फैसला: दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि हिंदू अनडिवाइडेड फैमिली (एच.यू.एफ.) में सबसे बड़ी फीमेल मेंबर भी कर्ता हो सकती है। संयुक्त हिंदू परिवार में कर्ता का दर्जा सबसे ऊपर होता है और वह परिवार के हित में जायदाद को मैनेज करता है और तमाम रीति-रिवाजों को निभाता है। सेक्शन-6 के तहत महिला और पुरुषों को पुश्तैनी जायदाद में बराबर का हक दिया गया है। यह कानून महिला को भी पाटीदार या साझीदार के तौर पर बंटवारे के मामले में समान अधिकार देता है। इस मामले में जो भी रुकावट थी, उसे 2005 में बदलाव कर दूर कर दिया गया था। ऐसे में ऐसा कोई कारण नहीं है जिससे हिंदू महिला को कर्ता न माना जाए।

इस फैसले के बाद
- हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा-6 के दायरे को बड़े पैमाने पर देखा गया है। उक्त धारा के तहत पुश्तैनी जायदाद में बेटे के बराबर बेटियों को अधिकार दिया गया।
- 2005 में इसके लिए जब कानून में बदलाव हुआ था तो वह मील का पत्थर साबित हुआ। इस फैसले के बाद महिलाओं को शादी के बाद भी मायके की जायदाद में बराबरी का दर्जा दिया गया था।
- हिंदू धर्म के नियमों के अनुसार पहले हिंदू अनडिवाइडेड फैमिली में सबसे बड़ा बेटा ही कर्ता होता था और उस पर परिवार की जिम्मेदारी होती थी। वही तमाम रीति-रिवाजों से लेकर परिवार के हित में प्रॉपर्टी को मैनेज करता था लेकिन अब महिला को भी कर्ता के तौर पर अधिकार दिए जाने के बाद वे भी उस जिम्मेदारी को निभाएंगी।
-इस दौरान कर्ता परिवार के लिए जायदाद खरीदने, बेचने, म्यूटेशन और बैंक अकाउंट ऑपरेट करने आदि का हक रखता है।
- जस्टिस ने कहा कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम बेनिफिशल कानून है और यह हिंदू पुरुष और महिला को समान अधिकार देता है।

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...ताकि ब्रेन स्ट्रोक न बन जाए मौत की वजह

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पैरालिसिस यानी लकवा लाइलाज नहीं है। वक्त पर सही इलाज होने से इस बीमारी का इलाज मुमकिन है और मरीज दूसरों पर आश्रित होने से बच जाता है। एक्सपर्ट्स से बात करके पैरालिसिस पर पूरी जानकारी दे रहे हैं चंदन चौधरी...

एक्सपर्ट्स पैनल

डॉ. कामेश्वर प्रसाद, एचओडी, न्यूरो विभाग, एम्स

डॉ. धीरज खुराना, इंचार्ज, स्ट्रोक प्रोग्राम, PGIMER, चंडीगढ़

डॉ. रोहित भाटिया, न्यूरोलॉजिस्ट, एम्स

चेतन उपाध्याय, योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा विशेषज्ञ

रविशंकर मणि पांडे, योग गुरु


ब्रेन स्ट्रोक से लड़ने वाली बहादुर लड़की
जिंदगी एक साइकल की तरह है और इसका बैलेंस बनाए रखने के लिए आपको लगातार चलना होता है, अल्बर्ट आइंसटाइन के इन शब्दों की अहमियत मुझे कुछ महीने पहले उस पता पता चली, जब एक दिन अचानक मेरे साथ कुछ ऐसा हुआ, जो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। यह 24 अप्रैल की बात है। बाकी दिनों की तरह ही मैं सोमवार को बिस्तर से उठने की हड़बड़ी में थी ताकि अपने दिन की शुरुआत कर सकूं लेकिन मैं ऐसा करने में नाकाम हो रही थी। तेज सिरदर्द के अलावा मुझे उलटियां भी हो रही थीं। उलटी करने के लिए बिस्तर से उठना मेरे लिए बेहद दर्दनाक और मुश्किल साबित हो रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है लेकिन मैं खुशनसीब हूं कि अपने अंकल के पास रह रही थी।

उन्होंने पहचान लिया कि मुझे कोई बड़ी बीमारी हुई है। उन्होंने फौरन एंबुलेंस बुला ली। मुझे अस्पताल ले जाया गया। शाम तक पापा भी कोलकाता से आ गए। तीन दिन आईसीयू में रहने और तमाम तरह के टेस्ट करने के बाद डॉक्टरों ने बताया कि मुझे सेरेब्रल थंब्रोसिस हुआ था जोकि एक तरह का ब्रेन स्ट्रोक होता है। मैं करीब 16-17 दिन अस्पताल में रही। इस दौरान मुझे केथेटर और डायपर तक लगा था यानी मैं पूरी तरह बिस्तर पर थी।

मुझे सिर्फ लिक्विड डाइट दी जा रही थी। मैं भूल चुकी थी कि ठोस डाइट क्या होती है। मैं रोटी-चावल के स्वाद के लिए तरस गई थी, जिन्हें मैंने पित्सा, बर्गर के लिए नजरअंदाज कर दिया था। मुझे लगा कि जिंदगी में कुछ नहीं बचा लेकिन मेरे पैरंट्स ने कोशिश नहीं हारी। वे लगातार मेरे साथ रहे और उन्होंने सकारात्मक सोच भी बनाए रखी। उन्हें पूरा यकीन था कि मैं जल्द अपने पैरों पर खड़ी हो सकूंगी। मेरे दोस्त भी मुझे मिलने आते रहे। कइयों से फोन पर बात होती थी।

जो आंटी मुझे गलतियों के लिए डांटती रहती थीं, उन्होंने मेरा पूरा साथ दिया। इस सबसे मेरा संबल बना रहा। मेरे फिजियोथेरपिस्ट ने भी काफी मदद की। ढेरों दवाएं और फिजियोथेरपी सेशन लेने के बाद जिस दिन मैं बिस्तर से उठकर वीलचेयर तक पहुंची, मेरे पैरंट्स ने अस्पताल में मिठाई बांटी। तब मुझे समझ आया कि कभी-कभी अपने पैरों पर खड़ा होना कितनी बड़ी बात हो सकती है। धीरे-धीरे पैरंट्स के विश्वास, डॉक्टरों की देखभाल, अपनों का साथ और खुद की कोशिशों से मैं नॉर्मल होने लगी।

बहरहाल, जिंदगी के इस दर्दनाक दौर से मुझे कई सबक भी मिले। सबसे पहले तो मैं अपने और परायों का फर्क समझ सकी। मुझे अहसास हुआ कि हमें अपनी छोटी-छोटी बीमारियों जैसे कि बुखार, खांसी-जुकाम या सिरदर्द को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए क्योंकि मुझे काफी पहले से सिरदर्द हो रहा था और कमजोरी महसूस हो रही थी। मैं उसी वक्त इसे गंभीरता से लेती तो शायद स्ट्रोक से बच जाती। हमें अपनी सेहत का पूरा ख्याल रखना चाहिए और हेल्दी खाना खाना चाहिए। भरपूर नींद लेनी चाहिए। कामकाजी और पर्सनल लाइफ के बीच बैलेंस बनाना चाहिए। और सबसे बड़ी बात, जिंदगी अनमोल है। इसे कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए। स्ट्रोक से जंग जीतने के बाद इस हफ्ते मैं फिर से अपनी नौकरी पर लौट रही हूं।
- महिमा तिवारी के फेसबुक पेज से

क्या है पैरालिसिस
पैरालिसिस को आमतौर पर लकवा, पक्षाघात, अधरंग, ब्रेन अटैक या ब्रेन स्ट्रोक के नाम से भी जाना जाता है। हमारे देश में हर साल 15-16 लाख लोग इसकी चपेट में आते हैं। सही जानकारी न होने या समय पर इलाज न मिलने से इनमें से एक-तिहाई लोगों की मौत हो जाती है, जबकि करीब एक-तिहाई लोग अपंग हो जाते हैं। करीब एक-तिहाई लोग वक्त पर सही इलाज मिलने से पूरी तरह ठीक हो जाते हैं।

क्या हैं वजहें
दिमाग हमारे शरीर का सबसे अहम हिस्सा है और पैरालिसिस का सीधा संबंध दिमाग से है। दरअसल शरीर के सभी अंगों और कामकाज का नियंत्रण दिमाग से होता है। जब दिमाग की खून की नलियों में कोई खराबी आ जाती है तो ब्रेन स्ट्रोक होता है, जो पैरालिसिस की वजह बनता है।

शरीर के दूसरे हिस्सों की तरह ही दिमाग में भी दो तरह की खून की नलियां होती हैं। एक जो दिल से दिमाग तक खून लाती हैं और दूसरी, जो दिमाग से वापस दिल तक खून लौटाती हैं। जो नलियां खून लाती हैं, उन्हें धमनी (आर्टरी) कहते हैं और जो दिमाग से वापस खून दिल तक ले जाती हैं, उन्हें शिरा (वेन) कहते हैं। यों तो पैरालिसिस धमनी या शिरा में से किसी की भी खराबी से हो सकता है, लेकिन ज्यादातर लोगों में यह समस्या आर्टरी में खराबी के कारण होती है।

दिल से दिमाग तक चार मुख्य नलियों से खून जाता है - दो गर्दन में आगे से और दो पीछे से। अंदर जाकर ये पतली-पतली नलियों में बंट जाती हैं ताकि दिमाग के हर हिस्से में खून पहुंच सके।

इसे हम पाइपलाइन के उदाहरण से भी समझ सकते हैं। घरों में पानी पहुंचाने वाली पाइपलाइन में कोई खराबी आएगी तो वह अमूमन दो नतीजे हो सकते हैं: पानी के दबाव के कारण या तो पाइप फट जाएगा या फिर लीक करेगा। इसी तरह दिमाग तक खून ले जाने वाली आर्टरी में अगर खराबी आएगी तो वह या तो फट जाएगी या फिर लीक करेगी।

अगर दिमाग के अंदर नली फट जाती है तो खून बाहर निकलकर जम जाता है। इसे ब्लड क्लॉट (खून का थक्का) कहते हैं। जैसे-जैसे खून की मात्रा बढ़ती जाती है 'क्लॉट' का साइज बढ़कर खून की नली या उसके जख्म को बंद कर देता है जिससे खून का निकलना बंद हो जाता है। लेकिन बहुत-से मरीजों में तब तक इतना खून निकल चुका होता है कि सिर में दबाव बढ़ जाता है और इससे दिमाग काम करना बंद करने लगता है। इससे सिरदर्द या उलटी होने लगती है। ज्यादा बढ़ने पर दबाव बेहोशी, पैरालिसिस, सांस अटकने आदि का कारण बनता है।

खून की नली के बंद होते ही दिमाग का वह हिस्सा काम करना बंद कर देता है। अगर दिमाग के इस भाग को आसपास से भी खून नहीं मिल पाता या खून की नली का क्लॉट ज्यों का त्यों पड़ा रहता है तो दिमाग के इस भाग को नुकसान पहुंचता है। यह स्ट्रोक का ज्यादा बड़ा और मुख्य कारण है।

स्ट्रोक की स्थिति में ब्लड क्लॉट खून की नली के अंदर होता है और खून के बहाव को बंद या कम कर देता है। ऐसे में दो काम अहम होते हैं: पहला, जहां नली के फटने के कारण खून बाहर निकला है, वहां से जल्दी-से-जल्दी थक्के को हटाना और दूसरा, आर्टरी जहां खून लेकर जा रही थी, वहां जल्द-से-जल्द खून पहुंचाना।

अगर समय रहते ऐसा न हो तो दिमाग पर असर पड़ता है और समस्या बढ़ने पर जान भी जा सकती है। यही वजह है कि पैरालिसिस के इलाज में टाइम बहुत अहम चीज हो जाती है। जल्दी इलाज मिल जाए तो ज्यादा नुकसान होने से बच जाता है।

ब्रेन हेमरेज और स्ट्रोक में फर्क
ब्रेन हेमरेज में खून की नली दिमाग के अंदर या बाहर फट जाती है। अगर अचानक या बहुत तेज सिरदर्द होता है या उलटी आ जाए, बेहोशी छाने लगे तो हेमरेज होने की आशंका ज्यादा होती है। ब्रेन हेमरेज से भी पैरालिसिस होता है।

इसमें दिमाग से बाहर खून निकल जाता है और इसे हटाने के लिए सर्जरी की जाती है और क्लॉट को हटाया जाता है। अगर किसी भी रुकावट की वजह से दिमाग को खून की सप्लाई में कोई रुकावट आ जाए तो उसे स्ट्रोक कहते हैं। स्ट्रोक और हेमरेज, दोनों से पैरालिसिस हो सकता है।

कैसे होता है
चाहे हेमरेज हो या स्ट्रोक, दिमाग का प्रभावित हिस्सा काम करना बंद कर देता है। दिमाग में बना क्लॉट आसपास के हिस्से को दबाकर निष्क्रिय कर देता है, जिससे वह काम करना बंद कर देता है।

ऐसे में उस हिस्से का जो भी काम है, उस पर असर पड़ता है। हाथ-पांव चलने बंद हो सकते हैं, दिखने, बोलने, खाना निगलने या बात समझने में मुश्किल आ सकती है। अगर दिमाग का बड़ा हिस्सा प्रभावित हो तो स्ट्रोक जानलेवा भी साबित हो सकता है।

पैरालिसिस अचानक होता है। अक्सर पीड़ित रात में खाना खाकर ठीक-ठाक सोने जाता है। सुबह उठता है तो पता चलता है कि हाथ-पांव नहीं चल रहा। खड़े होने की कोशिश करता है तो गिर जाता है। कई बार दिन में ही काम करते या खड़े-खड़े या बैठे-बैठे अचानक पैरालिसिस हो जाता है। हेमरेज अक्सर तेज सिरदर्द और उलटी से शुरू होता है। फिर शरीर का कोई अंग काम करना बंद कर देता है और बेहोशी आने लगती है।

क्या हैं वजहें

- हाई ब्लड प्रेशर

- डायबीटीज

- स्मोकिंग

- दिल की बीमारी

- मोटापा

- बुढ़ापा

किसको खतरा ज्यादा
-महिलाओं की तुलना में पुरुषों को खतरा ज्यादा है।
-बीमारी की फैमिली हिस्ट्री है तो 40-45 साल की उम्र में जांच के जरिए पता लगाना चाहिए कि हमें बीमारी का खतरा है या नहीं।
-उम्र बढ़ने पर इसका खतरा बढ़ जाता है। हालांकि हमारे देश में युवा मरीज ज्यादा हैं। यहां आमतौर पर 55-60 साल की उम्र में खतरा बढ़ना शुरू हो जाता है, जबकि पश्चिमी देशों में इसके -चपेट में आने की औसत उम्र 70-75 साल है। इसकी वजह जिनेटिक और खराब लाइफस्टाइल है।

कैसे कर सकते हैं खतरा कम

- बचाव के लिए हमें 20-25 साल की उम्र से ही सावधानियां बरतनी चाहिए। अगर हार्ट की बीमारी है तो उसकी उचित जांच और इलाज कराएं। 20-25 साल की उम्र से ही नियमित रूप से ब्लड प्रेशर चेक कराएं। डॉक्टर की सलाह पर खाने में परहेज करें और एक्सरसाइज बढ़ाएं।

- अगर आपका ब्लड प्रेशर 120/ 80 है तो अच्छा है। ज्यादा है तो 135/85 से कम लाना लक्ष्य होना चाहिए।

- अगर ब्लड प्रेशर की कोई दवा लेते हैं तो उसे नियमित रूप से लें। ब्लड प्रेशर ठीक जो जाए, तब भी डॉक्टर की सलाह पर दवा लेते रहें, वरना यह फिर बढ़ जाएगा। डॉक्टर से बिना पूछे न कोई दवा लें, न ही बंद करें।

- 35-40 साल की उम्र के बाद साल में एक बार शुगर और कॉलेस्ट्रॉल की जांच जरूर कराएं। अगर बढ़ा हुआ हो तो डॉक्टर की सलाह से दवा लें और परहेज करें।

- वजन कंट्रोल में रखें। 18 से कम और 25 से ज्यादा बॉडी मास इंडेक्स यानी बीएमआई (BMI) न हो। कोई बीमारी न हो तो भी 40 की उम्र के बाद ज्यादा नमक और फैट वाली चीजें कम खाएं।

ऐसे बचे रहें लकवे से

एक्सरसाइज है जरूरी

नियमित रूप से एक्सरसाइज और प्राणायाम करें। रोजाना कम-से-कम तीन से चार किमी ब्रिस्क वॉक करें। 10 मिनट में एक किलोमीटर की रफ्तार से 30-40 मिनट रोज चलें। साइक्लिंग, स्वीमिंग, जॉगिंग भी बढ़िया एक्सरसाइज हैं। आधा घंटा प्राणायाम और ध्यान जरूर करें। इनसे मन शांत रहता है। ठंड में, खासकर जनवरी में इसका खतरा ज्यादा होता है। ऐसा अक्सर एक्सरसाइज में कमी के कारण होता है। ऐसे में घर पर ही सही, एक्सरसाइज जरूर करें।

परहेज जरूरी है
स्मोकिंग से तौबा करें। शराब बिल्कुल न लें। अगर लेते हैं तो डॉक्टरी सलाह पर लें। ज्यादा-से-ज्यादा ताजे फल और हरी सब्जियां खाएं। नमक कम-से-कम खाना चाहिए। सलाद, रायता आदि में नमक न डालें। पैकेज्ड फूड या अचार न लें क्योंकि इनमें नमक अधिक होता है। महीने में एक शख्स को आधा किलो से ज्यादा घी-तेल नहीं खाना चाहिए। पानी खून के बहाव को बढ़ाता है इसलिए रोजाना कम-से-कम 8-10 गिलास पानी जरूर पिएं।

नोट: रात में खाना खाने के बाद और सुबह में पैरालिसिस का अटैक ज्यादा होता है। अगर बोलने में अचानक समस्या होने लगे, शरीर का एक तरफ का हिस्सा भारी महसूस हो, चलने में दिक्कत हो, चीज उठाने में परेशानी हो, एक आंख की रोशनी कम होने लगे, चाल बिगड़ जाए तो फौरन डॉक्टर के पास जाएं।

फेशियल पैरालिसिस
यह बहुत कॉमन है। यह चेहरे की मसल्स के कमजोर होने से होता है। यह वायरल इंफेक्शन या उसके बाद भी हो सकता है। मरीज में इस तरह का कोई लक्षण या हिस्ट्री नहीं होने के बावजूद यह हो सकता है। आमतौर पर मरीज की एक आंख और होठों पर असर पड़ता है। उसे बोलने और खाने-पीने में दिक्कत होती है। यहां तक कि वह सीटी भी नहीं बजा पाता। ज्यादातर मामले 6 महीने के अंदर ठीक हो जाते हैं। कई मरीज तो इलाज न मिलने पर भी ठीक हो जाते हैं। कुछ में इलाज लंबा भी चलता है।

आपके सामने हो किसी को लकवा अटैक
अगर किसी को अचानक हाथ-पैर चलाने में, देखने में, बोलने में या बात समझने में दिक्कत हो या अचानक ऐसा दर्द हो जैसा कभी न हुआ हो, तो जल्द-से-जल्द उसे हॉस्पिटल पहुंचाना चाहिए। इसके इलाज में अटैक के बाद के 6 घंटे बहुत अहम होते हैं। इलाज में देरी होने से अपंग होने से लेकर जान जाने तक की आशंका रहती है।
अगर खून की नली के अंदर ब्लड क्लॉट खून के दौरे को रोक रहा है तो उसको खत्म करने की दवा तकलीफ शुरू होने के तीन घंटे के अंदर मिल जानी चाहिए। इसके पहले सीटी स्कैन, एमआरआई, खून की जांच, ब्लड प्रेशर आदि की जांच करनी पड़ती है। इस दौरान अगर मरीज बेहोश हो जाए तो उसको एक करवट लिटा देना चाहिए ताकि मुंह की लार फेफड़े में न जा पाए।
इस बीमारी में मरीज को फिजियोथेरपी से बहुत मदद मिलती है। अस्पताल से घर आने पर भी फिजियोथेरपी कराएं। जितना दिन डॉक्टर कहें, उतने दिन फिजियोथेरपी जरूर कराएं।
पैरालिसिस के मरीजों को दूसरे अटैक से बचने के लिए पहले अटैक के एक साल तक ज्यादा सतर्क रहना चाहिए। पहले एक साल तक मरीजों में दूसरा अटैक होने का खतरा ज्यादा रहता है। दवाएं डॉक्टर से बिना पूछे बंद न करें। ब्लड प्रेशर और डायबीटीज कंट्रोल में रखें। कॉलेस्ट्रॉल सामान्य रखें। ब्लड क्लॉट न बने, इसके लिए अगर एस्प्रिन (Aspirin) या दूसरी कोई दवा दी गई है तो बिना डॉक्टरी सलाह के उसे बंद न करें। जिस कारण स्ट्रोक हुआ है, उसकी नियमित जांच करानी चाहिए और उस कारण को कंट्रोल में रखना चाहिए।

कैसे होता है इलाज
सबसे पहले मरीज का सीटी स्कैन किया जाता है। जरूरत पड़ने पर एमआरआई भी करते हैं। इसके अलावा, ड्रॉप्लर टेस्ट, सीटी एंजियोग्राफी, हार्ट इको, ईसीजी, शुगर, थायरॉयड आदि जांच करते हैं। खून की नली में अगर ब्लॉकेज है तो स्टंट लगाकर उसे खोलते हैं। इसके बाद लगातार मरीज को निगरानी में रखा जाता है।
अगर मरीज को कम नुकसान हुआ है तो अस्पताल से जल्दी छुट्टी मिल जाती है। आमतौर पर इलाज के तीन महीने में नतीजे सामने आने लगते हैं। हालांकि कई बार रिकवरी में दो-तीन साल का समय भी लग जाता है।
स्ट्रोक के बाद फिजियोथेरपी बहुत अहम है। अगर मरीज फिजियोथेरपी की एक्सरसाइज खुद सही से नहीं कर पा रहा हो तो परिवार को इसमें मदद करना चाहिए। मरीज की हालत धीरे-धीरे ही सुधरती है। ऐसे में परिवार वालों को सब्र रखना चाहिए। दिन में दो-तीन बार मालिश करें। यह फिजियोथेरपी का ही एक हिस्सा है। इससे खून का दौरा बढ़ता है।
आयुर्वेद में भी रिकवरी के लिए उपाय हैं। आमतौर पर अटैक आने पर हमें किसी अच्छे अस्पताल ही जाना चाहिए क्योंकि इसमें समय का खयाल रखना बहुत अहम होता है और इसमें देरी होने से नुकसान हो सकता है। बाद में रिकवरी के लिए आयुर्वेद में पंचकर्म थेरपी, रसराज रस, समीरपन्नग रस, एकांगवीर रस, वृहत् वात चिंतामणि रस, दशमूल तैल, महाविषगर्भ तैल आदि लाभकारी हैं।
गहरी सांस, ओम का उच्चारण, अनुलोम-विलोम (नाड़ीशोधन) प्राणायाम और भ्रामरी प्राणायाम से पैरालिसिस में फायदा होता है। मरीज को इन्हें रोजाना करना चाहिए।
बेहतर है कि मरीज को एयर मेट्रेस पर रखें। इसमें प्रेशर अपनेआप कम-ज्यादा होता है।
अगर यूरीन की पाइप लगी है तो उसकी साफ-सफाई बहुत जरूरी है। मरीज को तब तक मुंह से खाना न दें जब तक कि डॉक्टर न कहें।
अगर कोई बिस्तर से उठ नहीं सकता तो उसे लगातार एक ही स्थिति में न लिटाकर रखें। उसे हर 2-3 घंटे में करवट बदलवा देनी चाहिए। सारे प्रेशर पॉइंट्स (कुहनी, घुटने आदि) को सपोर्ट दें ताकि उन पर लगातार दबाव न रहे। जिस तरफ पैरालिसिस हुआ है, उस ओर के हिस्से को चलाते रहें। ऐसा दिन में कम-से-कम 3-4 बार करें वरना मसल्स में अकड़न हो जाती है।

मिथ्स और फैक्ट्स
-कबूतर खाने या उसका शोरबा पीने से यह ठीक हो जाता है।
ऐसी कोई बात नहीं है। मेडिकल हिस्ट्री में ऐसा कोई सबूत नहीं है। डॉक्टर इसे फिजूल बताते हैं।

- पैरालिसिस का कोई इलाज नहीं है।
ऐसा नहीं है, पैरालिसिस का इलाज मुमकिन है, बशर्ते मरीज को जल्द-से-जल्द सही इलाज मिल जाए।

-पैरालिसिस अपने आप ठीक हो जाता है।
अक्सर ऐसा नहीं होता। अगर होता भी है तो आगे ज्यादा घातक पैरालिसिस न हो, इसके लिए जांच और इलाज जरूरी है। पैरालिसिस को आमतौर पर लकवा, पक्षाघात, अधरंग, ब्रेन अटैक या ब्रेन स्ट्रोक के नाम से भी जाना जाता है। हमारे देश में हर साल 15-16 लाख लोग इसकी चपेट में आते हैं। सही जानकारी न होने या समय पर इलाज न मिलने से इनमें से एक-तिहाई लोगों की मौत हो जाती है, जबकि करीब एक-तिहाई लोग अपंग हो जाते हैं। करीब एक-तिहाई लोग वक्त पर सही इलाज मिलने से पूरी तरह ठीक हो जाते हैं।

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ब्रेन स्ट्रोक पर मास्टर स्ट्रोक

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पैरालिसिस यानी लकवा लाइलाज नहीं है। वक्त पर सही इलाज होने से इस बीमारी का इलाज मुमकिन है और मरीज दूसरों पर आश्रित होने से बच जाता है। एक्सपर्ट्स से बात करके पैरालिसिस पर पूरी जानकारी दे रहे हैं चंदन चौधरी

एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. कामेश्वर प्रसाद, एचओडी, न्यूरो विभाग, एम्स
डॉ. धीरज खुराना, इंचार्ज, स्ट्रोक प्रोग्राम, PGIMER, चंडीगढ़
डॉ. रोहित भाटिया, न्यूरोलॉजिस्ट, एम्स
चेतन उपाध्याय, योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा विशेषज्ञ
रविशंकर मणि पांडे, योग गुरु

ब्रेन स्ट्रोक से लड़ने वाली बहादुर लड़की
जिंदगी एक साइकल की तरह है और इसका बैलेंस बनाए रखने के लिए आपको लगातार चलना होता है, अल्बर्ट आइंसटाइन के इन शब्दों की अहमियत मुझे कुछ महीने पहले उस पता पता चली, जब एक दिन अचानक मेरे साथ कुछ ऐसा हुआ, जो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। यह 24 अप्रैल की बात है। बाकी दिनों की तरह ही मैं सोमवार को बिस्तर से उठने की हड़बड़ी में थी ताकि अपने दिन की शुरुआत कर सकूं लेकिन मैं ऐसा करने में नाकाम हो रही थी। तेज सिरदर्द के अलावा मुझे उलटियां भी हो रही थीं। उलटी करने के लिए बिस्तर से उठना मेरे लिए बेहद दर्दनाक और मुश्किल साबित हो रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है लेकिन मैं खुशनसीब हूं कि अपने अंकल के पास रह रही थी। उन्होंने पहचान लिया कि मुझे कोई बड़ी बीमारी हुई है। उन्होंने फौरन एंबुलेंस बुला ली। मुझे अस्पताल ले जाया गया। शाम तक पापा भी कोलकाता से आ गए। तीन दिन आईसीयू में रहने और तमाम तरह के टेस्ट करने के बाद डॉक्टरों ने बताया कि मुझे सेरेब्रल थंब्रोसिस हुआ था जोकि एक तरह का ब्रेन स्ट्रोक होता है। मैं करीब 16-17 दिन अस्पताल में रही। इस दौरान मुझे केथेटर और डायपर तक लगा था यानी मैं पूरी तरह बिस्तर पर थी। मुझे सिर्फ लिक्विड डाइट दी जा रही थी। मैं भूल चुकी थी कि ठोस डाइट क्या होती है। मैं रोटी-चावल के स्वाद के लिए तरस गई थी, जिन्हें मैंने पित्सा, बर्गर के लिए नजरअंदाज कर दिया था। मुझे लगा कि जिंदगी में कुछ नहीं बचा लेकिन मेरे पैरंट्स ने कोशिश नहीं हारी। वे लगातार मेरे साथ रहे और उन्होंने सकारात्मक सोच भी बनाए रखी। उन्हें पूरा यकीन था कि मैं जल्द अपने पैरों पर खड़ी हो सकूंगी। मेरे दोस्त भी मुझे मिलने आते रहे। कइयों से फोन पर बात होती थी। जो आंटी मुझे गलतियों के लिए डांटती रहती थीं, उन्होंने मेरा पूरा साथ दिया। इस सबसे मेरा संबल बना रहा। मेरे फिजियोथेरपिस्ट ने भी काफी मदद की। ढेरों दवाएं और फिजियोथेरपी सेशन लेने के बाद जिस दिन मैं बिस्तर से उठकर वीलचेयर तक पहुंची, मेरे पैरंट्स ने अस्पताल में मिठाई बांटी। तब मुझे समझ आया कि कभी-कभी अपने पैरों पर खड़ा होना कितनी बड़ी बात हो सकती है। धीरे-धीरे पैरंट्स के विश्वास, डॉक्टरों की देखभाल, अपनों का साथ और खुद की कोशिशों से मैं नॉर्मल होने लगी।
बहरहाल, जिंदगी के इस दर्दनाक दौर से मुझे कई सबक भी मिले। सबसे पहले तो मैं अपने और परायों का फर्क समझ सकी। मुझे अहसास हुआ कि हमें अपनी छोटी-छोटी बीमारियों जैसे कि बुखार, खांसी-जुकाम या सिरदर्द को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए क्योंकि मुझे काफी पहले से सिरदर्द हो रहा था और कमजोरी महसूस हो रही थी। मैं उसी वक्त इसे गंभीरता से लेती तो शायद स्ट्रोक से बच जाती। हमें अपनी सेहत का पूरा ख्याल रखना चाहिए और हेल्दी खाना खाना चाहिए। भरपूर नींद लेनी चाहिए। कामकाजी और पर्सनल लाइफ के बीच बैलेंस बनाना चाहिए। और सबसे बड़ी बात, जिंदगी अनमोल है। इसे कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए। स्ट्रोक से जंग जीतने के बाद इस हफ्ते मैं फिर से अपनी नौकरी पर लौट रही हूं।
महिमा तिवारी के फेसबुक पेज से

क्या है पैरालिसिस
पैरालिसिस को आमतौर पर लकवा, पक्षाघात, अधरंग, ब्रेन अटैक या ब्रेन स्ट्रोक के नाम से भी जाना जाता है। हमारे देश में हर साल 15-16 लाख लोग इसकी चपेट में आते हैं। सही जानकारी न होने या समय पर इलाज न मिलने से इनमें से एक-तिहाई लोगों की मौत हो जाती है, जबकि करीब एक-तिहाई लोग अपंग हो जाते हैं। ऐसे में इन्हें अपने परिवार वालों पर आश्रित होना पड़ता है। करीब एक-तिहाई लोग खुशकिस्मत होते हैं, जो वक्त पर सही इलाज मिलने से पूरी तरह ठीक हो जाते हैं और पहले की तरह की ही नॉर्मल जिंदगी जीने लगते हैं।

क्या हैं वजहें
- दिमाग हमारे शरीर का सबसे अहम हिस्सा है और पैरालिसिस का सीधा संबंध दिमाग से है। दरअसल शरीर के सभी अंगों और कामकाज का नियंत्रण दिमाग से होता है। बोलने, चलने-फिरने, देखने जैसे सभी काम दिमाग से ही कंट्रोल होते हैं। जब दिमाग की खून की नलियों में कोई खराबी आ जाती है तो ब्रेन स्ट्रोक होता है, जो पैरालिसिस की वजह बनता है।
- शरीर के दूसरे हिस्सों की तरह ही दिमाग में भी दो तरह की खून की नलियां होती हैं। एक जो दिल से दिमाग तक खून लाती हैं और दूसरी, जो दिमाग से वापस दिल तक खून लौटाती हैं। जो नलियां खून लाती हैं, उन्हें धमनी (आर्टरी) कहते हैं और जो दिमाग से वापस खून दिल तक ले जाती हैं, उन्हें शिरा (वेन) कहते हैं। यों तो पैरालिसिस धमनी या शिरा में से किसी की भी खराबी से हो सकता है, लेकिन ज्यादातर लोगों में यह समस्या आर्टरी में खराबी के कारण होती है।
- दिल से दिमाग तक चार मुख्य नलियों से खून जाता है - दो गर्दन में आगे से और दो पीछे से। अंदर जाकर ये पतली-पतली नलियों में बंट जाती हैं ताकि दिमाग के हर हिस्से में खून पहुंच सके। इसे हम पाइपलाइन के उदाहरण के जरिए भी समझ सकते हैं। घरों में पानी पहुंचाने के लिए पाइपलाइन का इस्तेमाल होता है। इनमें से कुछ पाइप मोटे होते हैं तो कुछ पतले। पानी के पाइप में कोई खराबी आएगी तो वह अमूमन दो नतीजे हो सकते हैं: पानी के दबाव के कारण या तो पाइप फट जाएगा या फिर लीक करेगा। इसी तरह दिमाग तक खून ले जाने वाली आर्टरी में अगर खराबी आएगी तो वह या तो फट जाएगी या फिर लीक करेगी।
- अगर दिमाग के अंदर नली फट जाती है तो खून बाहर निकलकर जम जाता है। इसे ब्लड क्लॉट (खून का थक्का) कहते हैं। जैसे-जैसे खून की मात्रा बढ़ती जाती है ‘क्लॉट’ का साइज बढ़ता जाता है और जल्द ही यह खून की नली या उसके जख्म को बंद कर देता है जिससे खून का निकलना बंद हो जाता है। लेकिन बहुत-से मरीजों में तब तक इतना खून निकल चुका होता है कि सिर के अंदर दबाव बढ़ जाता है और इससे दिमाग काम करना बंद करने लगता है। इस बढ़ते दबाव की वजह से सिरदर्द या उलटी होने लगती है। ज्यादा बढ़ने पर दबाव बेहोशी, पैरालिसिस, सांस अटकने आदि का कारण बनता है।
- खून की नली के बंद होते ही दिमाग का वह हिस्सा ऑक्सिजन के अभाव में भूखा-प्यासा तड़पने लगता है और काम करना बंद कर देता है। अगर दिमाग के इस भाग को आसपास से भी खून नहीं मिल पाता या खून की नली का क्लॉट ज्यों का त्यों पड़ा रहता है तो दिमाग के इस भाग को नुकसान पहुंचता है। यह स्ट्रोक का ज्यादा बड़ा और मुख्य कारण है। स्ट्रोक की स्थिति में ब्लड क्लॉट खून की नली के अंदर होता है और खून के बहाव को बंद या कम कर देता है। ऐसे में दो काम अहम होते हैं: पहला, जहां नली के फटने के कारण खून बाहर निकला है, वहां से जल्दी-से-जल्दी थक्के को हटाना और दूसरा, आर्टरी जहां खून लेकर जा रही थी, वहां जल्द-से-जल्द खून पहुंचाना। अगर समय रहते ऐसा न हो तो दिमाग पर असर पड़ता है और समस्या बढ़ने पर जान भी जा सकती है। यही वजह है कि पैरालिसिस के इलाज में टाइम बहुत अहम चीज हो जाती है। जल्दी इलाज मिल जाए तो ज्यादा नुकसान होने से बच जाता है।

ब्रेन हेमरेज और स्ट्रोक में फर्क
ब्रेन हेमरेज में खून की नली दिमाग के अंदर या बाहर फट जाती है। अगर अचानक या बहुत तेज सिरदर्द होता है या उलटी आ जाए, बेहोशी छाने लगे तो हेमरेज होने की आशंका ज्यादा होती है। ब्रेन हेमरेज से भी पैरालिसिस होता है। इसमें दिमाग से बाहर खून निकल जाता है और इसे हटाने के लिए सर्जरी की जाती है और क्लॉट को हटाया जाता है। अगर किसी भी रुकावट की वजह से दिमाग को खून की सप्लाई में कोई रुकावट आ जाए तो उसे स्ट्रोक कहते हैं। स्ट्रोक और हेमरेज, दोनों से पैरालिसिस हो सकता है।

कैसे होता है
- चाहे हेमरेज हो या स्ट्रोक, दिमाग का प्रभावित हिस्सा काम करना बंद कर देता है। दिमाग के अंदर बना क्लॉट आसपास के हिस्से को दबाकर निष्क्रिय कर देता है, जिससे वह काम करना बंद कर देता है। ऐसे में उस हिस्से का जो भी काम है, उस पर असर पड़ता है। हाथ-पांव चलने बंद हो सकते हैं, दिखने और खाना निगलने में दिक्कत हो सकती है, बोलने में परेशानी हो सकती है और बात समझने में मुश्किल आ सकती है। अगर दिमाग का बड़ा हिस्सा प्रभावित हो तो स्ट्रोक जानलेवा भी साबित हो सकता है।
- पैरालिसिस अचानक होता है। अक्सर पीड़ित रात में खाना खाकर ठीक-ठाक सोने जाता है। सुबह उठता है तो पता चलता है कि हाथ-पांव नहीं चल रहा। खड़े होने की कोशिश करता है तो गिर जाता है। कई बार दिन में ही काम करते या खड़े-खड़े या बैठे-बैठे अचानक पैरालिसिस हो जाता है। हेमरेज अक्सर तेज सिरदर्द और उलटी से शुरू होता है। फिर शरीर का कोई अंग काम करना बंद कर देता है और बेहोशी आने लगती है।
- फेशियल पैरालिसिस भी बहुत कॉमन है। यह चेहरे की मसल्स के कमजोर होने से होता है। यह वायरल इंफेक्शन या उसके बाद भी हो सकता है। मरीज में इस तरह का कोई लक्षण या हिस्ट्री नहीं होने के बावजूद यह हो सकता है।
नोट: दिमाग का दायां हिस्सा बाईं ओर के अंगों को कंट्रोल करता है और बायां हिस्सा दाईं ओर के अंगों को। ऐसे में अगर दिमाग के दाएं हिस्से में दिक्कत हुई है तो बाएं हाथ-पैरों पर असर पड़ेगा और बाएं में गड़बड़ी हुई है तो दाएं हाथ-पैरों पर।

क्या हैं वजहें
- हाई ब्लड प्रेशर
- डायबीटीज
- स्मोकिंग
- दिल की बीमारी
- मोटापा
- बुढ़ापा

किसको खतरा ज्यादा
- महिलाओं की तुलना में पुरुषों को खतरा ज्यादा है।
- बीमारी की फैमिली हिस्ट्री है तो 40-45 साल की उम्र में जांच के जरिए पता लगाना चाहिए कि हमें बीमारी का खतरा है या नहीं।
- उम्र बढ़ने पर इसका खतरा बढ़ जाता है। हालांकि हमारे देश में युवा मरीज ज्यादा हैं। यहां आमतौर पर 55-60 साल की उम्र में खतरा बढ़ना शुरू हो जाता है, जबकि पश्चिमी देशों में इसके चपेट में आने की औसत उम्र 70-75 साल है। इसकी वजह जिनेटिक और खराब लाइफस्टाइल है।

कैसे कर सकते हैं खतरा कम
रखें कंट्रोल में
- बचाव के लिए हमें 20-25 साल की उम्र से ही सावधानियां बरतनी चाहिए। अगर हार्ट की बीमारी है तो उसकी उचित जांच और इलाज कराएं। 20-25 साल की उम्र से ही नियमित रूप से ब्लड प्रेशर चेक कराएं। डॉक्टर की सलाह पर खाने में परहेज करें और एक्सरसाइज बढ़ाएं।
- अगर आपका ब्लड प्रेशर 120/ 80 है तो अच्छा है। ज्यादा है तो 135/85 से कम लाना लक्ष्य होना चाहिए।
- अगर ब्लड प्रेशर की कोई दवा लेते हैं तो उसे नियमित रूप से लें। ब्लड प्रेशर ठीक जो जाए, तब भी डॉक्टर की सलाह पर दवा लेते रहें, वरना यह फिर बढ़ जाएगा। डॉक्टर से बिना पूछे न कोई दवा लें, न ही बंद करें।
- 35-40 साल की उम्र के बाद साल में एक बार शुगर और कॉलेस्ट्रॉल की जांच जरूर कराएं। अगर बढ़ा हुआ हो तो डॉक्टर की सलाह से दवा लें और परहेज करें।
- वजन कंट्रोल में रखें। 18 से कम और 25 से ज्यादा बॉडी मास इंडेक्स यानी बीएमआई (BMI) न हो। कोई बीमारी न हो तो भी 40 की उम्र के बाद ज्यादा नमक और फैट वाली चीजें कम खाएं। ‌

परहेज जरूरी है
- स्मोकिंग से तौबा करें।
- शराब बिल्कुल न लें। अगर लेते हैं तो डॉक्टरी सलाह पर लें।
- ज्यादा-से-ज्यादा ताजे फल और हरी सब्जियां खाएं।
- नमक कम-से-कम खाना चाहिए। सलाद, रायता आदि में नमक न डालें। पैकेज्ड फूड या अचार न लें क्योंकि इनमें नमक अधिक होता है।
- महीने में एक शख्स को आधा किलो से ज्यादा घी-तेल नहीं खाना चाहिए।
- पानी खून के बहाव को बढ़ाता है इसलिए रोजाना कम-से-कम 8-10 गिलास पानी जरूर पिएं।

एक्सरसाइज है जरूरी
- नियमित रूप से एक्सरसाइज और प्राणायाम करें। रोजाना कम-से-कम तीन से चार किमी ब्रिस्क वॉक करें। 10 मिनट में एक किलोमीटर की रफ्तार से 30-40 मिनट रोज चलें। साइक्लिंग, स्वीमिंग, जॉगिंग भी बढ़िया एक्सरसाइज हैं।
- आधा घंटा प्राणायाम और ध्यान जरूर करें। इनसे मन शांत रहता है।
- ठंड में, खासकर जनवरी में इसका खतरा ज्यादा होता है। ऐसा अक्सर एक्सरसाइज में कमी के कारण होता है। ऐसे में घर पर ही सही, एक्सरसाइज जरूर करें।
नोट: रात में खाना खाने के बाद और सुबह में पैरालिसिस का अटैक ज्यादा होता है। अगर बोलने में अचानक समस्या होने लगे, शरीर का एक तरफ का हिस्सा भारी महसूस हो, चलने में दिक्कत हो, चीज उठाने में परेशानी हो, एक आंख की रोशनी कम होने लगे, चाल बिगड़ जाए तो फौरन डॉक्टर के पास जाएं।

अगर पैरालिसिस हो जाए
- अगर किसी को अचानक हाथ-पैर चलाने में, देखने में, बोलने में या बात समझने में दिक्कत हो या अचानक ऐसा दर्द हो जैसा कभी न हुआ हो, तो जल्द-से-जल्द उसे हॉस्पिटल पहुंचाना चाहिए। इसके इलाज में अटैक के बाद के 6 घंटे बहुत अहम होते हैं। इलाज में देरी होने से अपंग होने से लेकर जान जाने तक की आशंका रहती है।
- अगर खून की नली के अंदर ब्लड क्लॉट खून के दौरे को रोक रहा है तो उसको खत्म करने की दवा तकलीफ शुरू होने के तीन घंटे के अंदर मिल जानी चाहिए। इसके पहले सीटी स्कैन, एमआरआई, खून की जांच, ब्लड प्रेशर आदि की जांच करनी पड़ती है।
- इस दौरान अगर मरीज बेहोश हो जाए तो उसको एक करवट लिटा देना चाहिए ताकि मुंह की लार फेफड़े में न जा पाए।
- इस बीमारी में मरीज को फिजियोथेरपी से बहुत मदद मिलती है। अस्पताल से घर आने पर भी फिजियोथेरपी कराएं। जितना दिन डॉक्टर कहें, उतने दिन फिजियोथेरपी जरूर कराएं।
- पैरालिसिस के मरीजों को दूसरे अटैक से बचने के लिए पहले अटैक के एक साल तक ज्यादा सतर्क रहना चाहिए। पहले एक साल तक मरीजों में दूसरा अटैक होने का खतरा ज्यादा रहता है। दवाएं डॉक्टर से बिना पूछे बंद न करें। ब्लड प्रेशर और डायबीटीज कंट्रोल में रखें। कॉलेस्ट्रॉल सामान्य रखें। ब्लड क्लॉट न बने, इसके लिए अगर एस्प्रिन (Aspirin) या दूसरी कोई दवा दी गई है तो बिना डॉक्टरी सलाह के उसे बंद न करें। जिस कारण स्ट्रोक हुआ है, उसकी नियमित जांच करानी चाहिए और उस कारण को कंट्रोल में रखना चाहिए।

ऐसे होता है इलाज
- सबसे पहले मरीज का सीटी स्कैन किया जाता है। जरूरत पड़ने पर एमआरआई भी करते हैं। इसके अलावा, ड्रॉप्लर टेस्ट, सीटी एंजियोग्राफी, हार्ट इको, ईसीजी, शुगर, थायरॉयड आदि जांच करते हैं। खून की नली में अगर ब्लॉकेज है तो स्टंट लगाकर उसे खोलते हैं। इसके बाद लगातार मरीज को निगरानी में रखा जाता है।
- अगर मरीज को कम नुकसान हुआ है तो अस्पताल से जल्दी छुट्टी मिल जाती है। आमतौर पर इलाज के तीन महीने में नतीजे सामने आने लगते हैं। हालांकि कई बार रिकवरी में दो-तीन साल का समय भी लग जाता है।
- स्ट्रोक के बाद फिजियोथेरपी बहुत अहम है। अगर मरीज फिजियोथेरपी की एक्सरसाइज खुद सही से नहीं कर पा रहा हो तो परिवार को इसमें मदद करना चाहिए। मरीज की हालत धीरे-धीरे ही सुधरती है। ऐसे में परिवार वालों को सब्र रखना चाहिए।
- दिन में दो-तीन बार मालिश करें। यह फिजियोथेरपी का ही एक हिस्सा है। इससे खून का दौरा बढ़ता है।
- आयुर्वेद में भी रिकवरी के लिए उपाय हैं। आमतौर पर अटैक आने पर हमें किसी अच्छे अस्पताल ही जाना चाहिए क्योंकि इसमें समय का खयाल रखना बहुत अहम होता है और इसमें देरी होने से नुकसान हो सकता है। बाद में रिकवरी के लिए आयुर्वेद में पंचकर्म थेरपी, रसराज रस, समीरपन्नग रस, एकांगवीर रस, वृहत् वात चिंतामणि रस, दशमूल तैल, महाविषगर्भ तैल आदि लाभकारी हैं।
- गहरी सांस, ओम का उच्चारण, अनुलोम-विलोम (नाड़ीशोधन) प्राणायाम और भ्रामरी प्राणायाम से पैरालिसिस में फायदा होता है। मरीज को इन्हें रोजाना करना चाहिए।
- बेहतर है कि मरीज को एयर मेट्रेस पर रखें। इसमें प्रेशर अपनेआप कम-ज्यादा होता है।
- अगर यूरीन की पाइप लगी है तो उसकी साफ-सफाई बहुत जरूरी है। मरीज को तब तक मुंह से खाना न दें जब तक कि डॉक्टर न कहें।
- अगर कोई बिस्तर से उठ नहीं सकता तो उसे लगातार एक ही स्थिति में न लिटाकर रखें। उसे हर 2-3 घंटे में करवट बदलवा देनी चाहिए। सारे प्रेशर पॉइंट्स (कुहनी, घुटने आदि) को सपोर्ट दें ताकि उन पर लगातार दबाव न रहे। जिस तरफ पैरालिसिस हुआ है, उस ओर के हिस्से को चलाते रहें। ऐसा दिन में कम-से-कम 3-4 बार करें वरना मसल्स में अकड़न हो जाती है।

मिथ और फैक्ट
- पैरालिसिस का कोई इलाज नहीं है।
ऐसा नहीं है, पैरालिसिस का इलाज मुमकिन है, बशर्ते जल्द-से-जल्द सही इलाज मिल जाए।

- पैरालिसिस अपने आप ठीक हो जाता है।
अक्सर ऐसा नहीं होता। अगर होता भी है तो आगे ज्यादा घातक पैरालिसिस न हो, इसके लिए जांच और इलाज जरूरी है।

- कबूतर खाने या उसका शोरबा पीने से यह ठीक हो जाता है।
ऐसी कोई बात नहीं है। मेडिकल हिस्ट्री में ऐसा कोई सबूत नहीं है। डॉक्टर इसे फिजूल बताते हैं।

ज्यादा जानकारी के लिए
वेबसाइट
www.nhs.uk: पैरालिसिस से जुड़ीं अहम बातें यहां दी गई हैं।
webmd.com: पैरालिसिस की वजहों और इलाज के बारे में जानकारी पा सकते हैं यहां।

विडियो
goo.gl/x7fmf2: पैरालिसिस के मरीज की कैसे देखभाल करें, जानें इस 2 मिनट के विडियो से।
goo.gl/eJy5h2: करीब 3 मिनट के इस विडियो से जान सकते हैं कि ब्रेन स्ट्रोक से पहले हमारा शरीर कैसे संकेत देने लगता है।

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लाइलाज नहीं है सस्ता इलाज

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राजधानी दिल्ली का मैक्स हॉस्पिटल एक जिंदा नवजात को मरा बताकर पैकेट में बंद कर घरवालों को लौटाता है तो गुरुग्राम का फोर्टिस हॉस्पिटल डेंगू के इलाज के लिए 15 दिन में 16 लाख रुपये का बिल वसूलता है, वह भी तब जबकि वह मरीज की जान नहीं बचा पाया। दरअसल, इलाज के नाम पर प्राइवेट और बड़े अस्पताल इतना पैसा वसूलने लगते हैं कि इलाज खुद एक मर्ज बन गया है। आप सस्ता इलाज कैसे पा सकते हैं और गड़बड़ी होने पर कहां शिकायत कर सकते हैं, एक्सपर्ट्स से बात करके जानकारी दे रही हैं प्रियंका...

एक्सपर्ट्स पैनल
- डॉ. के. के. अग्रवाल, प्रेजिडंट, इंडियन मेडिकल असोसिएशन
- डॉ. अनिल बंसल, मेडिकल असोसिएशन के पूर्व अधिकारी
- डॉ. एन. वी. कामत, पूर्व स्वास्थ्य सेवा अधिकारी
- प्रेमलता, पूर्व जज, कंस्यूमर कोर्ट

बीमार हैं तो इलाज तो कराना ही पड़ेगा लेकिन बड़े सरकारी अस्पतालों में मरीजों की लाइन इतनी लंबी होती है कि सोचकर ही घबराहट होती है और छोटे सरकारी अस्पतालों के खराब हालात देखकर जाने की हिम्मत नहीं करती। हारकर मरीज प्राइवेट अस्पताल पहुंचता है तो वहां उसे महसूस होता है मानो किसी ने उसकी जेब ही काट ली हो। ऐसे हालात में हमें कोशिश करनी चाहिए कि फ्री में ना सही, 100 रुपये का इलाज हम 60 रुपये में करा सकें।

- इसके लिए हमें कुछ बातों का ध्यान रखना होगा जैसे कि अगर मरीज की हालत इमरजेंसी की है तो उसका खर्च उठाने की जिम्मेदारी राज्य की बनती है। ऐसे में अगर आपको लगता है कि मरीज की स्थिति गंभीर है और प्राइवेट अस्पताल में इलाज कराने की आपकी स्थिति नहीं है तो आप डॉक्टर से मरीज को सरकारी अस्पताल के लिए रेफर करा लें। इसके बाद उसे अच्छे सरकारी अस्पताल में ले जाएं, जहां फ्री में इलाज मुमकिन होगा।

- गंभीर बीमारियों जैसे कि हार्ट अटैक, पैरालिसिस, ब्रेन स्ट्रोक, एड्स आदि का इलाज कराना सरकारी अस्पतालों के लिए जरूरी है। ऐसी किसी बीमारी के इलाज से अस्पताल इनकार नहीं कर सकता। अगर माली हालत अच्छी नहीं है तो इन बीमारियों के इलाज के लिए प्राइवेट अस्पताल के बजाय सरकारी अस्पताल जाना बेहतर है।

- इमर्जेंसी यानी ऐसी स्थिति कि फौरन इलाज न मिला तो मरीज की जान जा सकती है तो प्राइवेट अस्पताल को भी मरीज का फर्स्ट-एड करना अनिवार्य है। इसके बाद चाहे तो प्राइवेट अस्पताल मरीज को अपनी एम्बुलेंस से किसी बड़े सरकारी अस्पताल में भेज सकता है लेकिन उसे शुरुआती इलाज देने से इनकार नहीं कर सकता, न ही मरीज को वहां से जबरन ले जाने के लिए मजबूर कर सकता है। हालांकि बाद में अस्पताल बिल भेजकर अपने खर्चे की वसूली कर सकता है।

अस्पताल से मांगें सस्ता इलाज
आप अस्पताल में जाकर भी अपनी जेब के मुताबिक इलाज की मांग कर सकते हैं। मोटे तौर पर हर अस्पताल खर्च के लिहाज से तीन तरह की सुविधाएं देता है: जनरल या इकॉनमी, पेड या प्राइवेट और डिलेक्स।

- जनरल वार्ड में 25-50 फीसदी ही खर्च मरीज को देना होता है, बाकी 50 फीसदी खर्च अस्पताल उठाता है। इसमें एक हॉल में करीब 8-10 मरीज होते हैं।

- प्राइवेट में मरीज 100 फीसदी खर्च उठाता है। इसमें मरीज को एक कमरा मिलता है। हालांकि इसमें भी कैटिगरी होती हैं, मसलन एक कमरे में तीन मरीज, दो मरीज या अकेले। उसी के अनुसार खर्च 60 फीसदी, 80 फीसदी और 100 फीसदी तक होता है।

- डिलेक्स सुविधा लेने पर खर्च 150 फीसदी तक हो जाता है। इसमें मरीज को लक्जरी सुविधाएं जैसे बड़ा कमरा और लिविंग रूम आदि मिलते हैं। सुपर डिलेक्स का मतलब है कि मरीज जितना चाहे, खर्च कर सकता है। ऐसे में अस्पताल भी उलटा-सीधा दाम वसूलते हैं।

- ध्यान रखें कि इन सभी कैटिगरी में इलाज का लेवल एक जैसा ही होता है। बस, सुविधाओं का फर्क है। अहम बात यह है कि कमरे की कैटिगरी के मुताबिक ही बाकी चीजों के रेट भी तय होते हैं। मसलन अगर आप जनरल वॉर्ड में दाखिल हैं तो जिस डॉक्टर की विजिट का चार्ज 100 होगा, वही प्राइवेट में 200-300 और डिलेक्स में 500 तक हो सकता है। कोई भी मरीज अस्पताल जाने पर मनमुताबिक सुविधा की डिमांड कर सकता है। वह अपने मरीज को किस कैटिगरी के तहत एडमिट करना चाहता है, यह उसका अधिकार है। इस तरह से सुविधाओं में कटौती करके मेडिकल बिल में भी कटौती की जा सकती है।

- यह डॉक्टर की जिम्मेदारी है कि वह मरीज का इलाज उसकी पॉकेट के मुताबिक करे इसलिए अगर बहुत पैसा खर्च करने की स्थिति नहीं हैं तो आप डॉक्टर को बता दें। फिर वह आपकी पॉकेट के अनुसार इलाज में कुछ तब्दीली कर सकता है जैसे कि अगर बुखार के लिए टेस्ट कराना चाहते हैं और मरीज की स्थिति खराब नहीं लग रही है तो आप टेस्ट के लिए रुक सकते हैं या फिर फीवर प्रोफाइल (मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया आदि की जांच) एक साथ कराने से बेहतर है कि जिस बुखार के लक्षण ज्यादा नजर आ रहे हैं, पहले उसी की जांच कराएं। वह न निकले तो दूसरा टेस्ट कराएं। इससे फालतू पैसे खर्च नहीं होंगे।

- बड़े अस्पताल के बजाय डिस्पेंसरी जाए। दोनों के रेट में काफी फर्क होता है। इसी तरह स्पेशलाइज्ड डॉक्टर के बजाय शुरुआत में जनरल फिजिशन के पास जाएं। स्पेशलाइज्ड डॉक्टर किसी एक ही अंग से जुड़ी समस्या को देखते हैं, जबकि जनरल फिजिशन पूरे शरीर से जुड़ी अलग-अलग बीमारियों के बारे में बता सकते हैं। फिर स्पेशलाइज्ड डॉक्टर की फीस भी आमतौर पर ज्यादा होती है। ज्यादा परेशानी लगे तभी स्पेशलाज्ड डॉक्टर के पास जाएं। जनरल फिजिशन को दिखाते हुए ध्यान रखें कि वह कम-से-कम एमबीबीएस हो और स्टेट मेडिकल काउंसिल से रजिस्टर्ड हो। इससे आप गलत हाथों में फंसने से बच जाएंगे।

सरकारी अस्पताल हैं अच्छा ऑप्शन
दिल्ली-एनसीआर के सरकारी हॉस्पिटल अब भी सस्ते इलाज के लिए बेस्ट माने जाते हैं। अच्छी बात यह है कि ऑनलाइन सिस्टम की वजह से लंबी लाइनों से निजात मिल चुकी है और घंटों पहले पहुंचने की कोई जरूरत नहीं रह गई है। दिल्ली के तीन सबसे बड़े सरकारी हॉस्पिटल एम्स, डॉ. राममनोहर लोहिया हॉस्पिटल और स्पोर्ट्स इंजरी सेंटर अब ऑनलाइन अपॉइंटमेंट की सुविधा दे रहे हैं। आधार कार्ड या आधार कार्ड के बिना, दोनों ही तरीके से अपॉइंटेमेंट ले सकते हैं। बिना आधार कार्ड के अपॉइंटमेंट लेने पर अपॉइंटमेंट वाले दिन हॉस्पिटल के काउंटर से अपॉइंटमेंट की रसीद लेनी होगी, वैसे फोन का मेसेज ही काफी है।
कैसे लें अपॉइंटमेंट..

इस लिंक पर जाएं। बताई गई जगह पर आधार कार्ड नंबर डालें। अगर आधार कार्ड नहीं है तो दूसरा ऑप्शन चुन पर आगे बढ़ें। इसमें सिर्फ मोबाइल नंबर मांगा जाएगा।

- आधार कार्ड वाले ऑप्शन को चुनने के बाद हॉस्पिटल और डिपार्टमेंट चुनना होगा।

- फिर अपॉइंटमेंट की तारीख और वक्त चुनें। इसके बाद आपके पास अपॉइंटमेंट कन्फर्म होने का मेसेज आ जाएगा।

- तय वक्त पर अस्पताल पहुंचें और लाइन में लगने के झंझट से बचें।

बाकी राज्यों में भी बेहतर
दिल्ली के अलावा दूसरे राज्यों में भी अच्छे सरकारी अस्पताल हैं। जैसे कि लखनऊ का राम मनोहर लोहिया संयुक्त चिकित्सालय पहला ऐसा सुपरस्पेशलिटी सरकारी अस्पताल है, जिसे नैशनल एक्रेडिएशन बोर्ड ऑफ हॉस्पिटल्स और हेल्थकेयर से एक्रिडिएशन मिला है। यहां किंग जॉर्ज्स मेडिकल कॉलेज, संजय गांधी पोस्टग्रैजुएट इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज और पीजीआई भी काफी अच्छा है। मुंबई का किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल और द ग्रांट गर्वनमेंट मेडिकल कॉलेज को भी बेहतर इलाज के लिए जाना जाता है।

ऐसे पाएं सरकारी मदद
आम लोगों से लेकर गरीबों के इलाज में मदद के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की बहुत सारी योजनाएं हैं। इनमें से खास हैं:

केंद्र सरकार की स्कीमें

प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष
इस कोष से कुदरती आपदाओं, हादसों, दंगों आदि के पीड़ितों को मदद मिलती है लेकिन हार्ट सर्जरी, लिवर ट्रांसप्लांट, कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए भी इस कोष से 2 लाख रुपये तक की मदद दी जाती है। यह सुविधा सरकारी अस्पताल में इलाज करा रहे गरीबी रेखा (BPL) से नीचे के शख्स को ही मिलती है। इसके लिए इलाके के सांसद से लेटर लिखवाना होता है। या तो सांसद खुद लेटर को प्रधानमंत्री कार्यालय भेजते हैं या फिर आपको खुद लेकर जाना होगा। ज्यादा जानकारी के लिए यहां क्लिक करें...

राष्ट्रीय आरोग्य निधि
केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की इस स्कीम का मकसद गरीबी रेखा से नीचे के मरीजों को मदद देना है। जानलेवा बीमारियों से पीड़ित लोगों को बेहतर इलाज के लिए एकमुश्त डेढ़ लाख रुपये तक दिए जाते हैं। यह रकम उस अस्पताल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट को भेजी जाती है, जहां मरीज का इलाज चल रहा हो। इसके लिए जरूरतमंद को मुख्य चिकित्साधिकारी के दफ्तर में आवेदन देता है।

स्वास्थ्य मंत्री विवेकाधीन अनुदान (HMDG)
जिन लोगों की सालाना पारिवारिक आय 1 लाख रुपये या उससे कम है और जिन बीमारियों का मुफ्त इलाज मुमकिन नहीं है, उन मामलों में इस कोष से मदद ली जा सकती है। इसके तहत 50 हजार से लेकर डेढ़ लाख रुपये तक की मदद दी जा सकती है। ज्यादा जानकारी के लिए जाएं: mohfw.gov.in या ईमेल करें: so.grants-mhfw@nic.in

स्वास्थ्य मंत्री कैंसर रोगी निधि (HMCPF)
कैंसर पीड़ित गरीब मरीजों को इस कोष से मदद दी जाती है। इसके लिए इलाज करने वाले सरकारी अस्पताल या क्षेत्रीय कैंसर केंद्र के डॉक्टर के साइन के बाद मेडिकल सुपरिटेंडेंट से साइन कराई हुई ऐप्लिकेशन जमा करनी होती है। 2 लाख रुपये तक की राशि दी जाती है और ज्यादा के लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को भेजा जाता है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (RSBY)
इसका मकसद देश में असंगठित क्षेत्र के कामगारों और गरीबी रेखा से नीचे रहनेवालों को बीमा कवरेज देना है। इसके तहत एक बार 30 रुपये देकर रजिस्ट्रेशन कराना होता है। इसके बाद 5 सदस्यों के हर परिवार को सालाना फ्लोटर आधार पर 30 हजार रुपये की बीमा राशि मिलेगी, यानी किसी भी सूचीबद्ध हॉस्पिटल में 30 हजार रुपये तक का इलाज करा सकते हैं। इलाज के लिए मरीज को नकद रुपये नहीं देने होते। स्मार्ट कार्ड के लिए पंचायत या ब्लॉक या वार्ड लेवल पर समय-समय पर कैंप लगाए जाते हैं। आधार कार्ड के जरिए इसे बनवा सकते हैं। ज्यादा जानकारी के लिए जाएं: rsby.gov.in

केंद्रीय सरकार स्वास्थ्य योजना (CGHS)
यह योजना केंद्र सरकार के रिटायर्ड कर्मचारियों और उनके अश्रितों के लिए है। इस कैटिगरी में आनेवाले कैंसर के मरीज सूचीबद्ध प्राइवेट अस्पतालों में भी टाटा मेमोरियल अस्पताल की दरों पर कैंसर सर्जरी करा सकते हैं। इसके अलावा मरीज किसी भी अस्पताल से अनुमोदित दरों पर कैंसर के इलाज का लाभ उठा सकते हैं।

कैंसर के मरीजों का रेल सफर फ्री
कैंसर के मरीज रेलवे में सफर कर सकते हैं। उनके सहायक को सेकंड क्लास के किराये का सिर्फ 25 फीसदी भुगतान करना पड़ता है। यह रियायत अपने घर से पास के कैंसर अस्पताल या कैंसर संस्थान की यात्रा और वापसी के लिए लागू है। फार्म indianrail.gov.in से डाउनलोड कर सकते हैं। इसी तरह इन लोगों को हवाईयात्रा में भी 50 फीसदी रियायत मिल सकती है। इस सुविधा के लिए मरीज को कैंसर अस्पताल/कैंसर संस्थान से जारी सर्टिफिकेट लगाना है, जो यह प्रमाणित करता हो कि उस मरीज का यहां इलाज हो रहा है।

एम्स का गरीब राहत कोष
इसके तहत डेढ़ लाख रुपये की अधिकतम मदद दी जा सकती है। एम्स को यह पैसा तमाम बड़ी कंपनियां सामाजिक जवाबदेही कोष के तहत देती हैं। जिनके पास आय-प्रमाणपत्र नहीं होते, उनकी मदद करने और फाइलें सांसद या विधायक के जरिए आगे बढ़ाने के लिए एम्स में 50 समाज कल्याण अधिकारी नियुक्त हैं। एम्स में करीब तीन हजार मरीज ऐसे आते हैं जिन्हें किसी-न-किसी राहत कोष से मदद की दी जाती है। हर शुक्रवार को इस तरह की फाइलों की पड़ताल और मंजूरी के लिए कमिटी बैठती है। लेकिन प्रक्रिया लंबी होने से समय लग जाता है। बाकी अस्पतालों में भी समाज कल्याण अधिकारी होते हैं जो गरीबों की मदद के लिए नियुक्त किए जाते हैं।

राज्य सरकार की योजनाएं

1. मुख्यमंत्री राहत कोष
हर राज्य का एक मुख्यमंत्री कोष होता है, जिससे गरीबों को इलाज के लिए भी रकम मुहैया कराई जाती है। इसके लिए इलाके के सांसद या विधायक से पत्र लिखवा कर आवेदन देना होता है। इसमें तय आवेदन के साथ इलाज कर रहे अस्पताल और डॉक्टर के जरूरी दस्तावेज अनिवार्य होते हैं। आय प्रमाणपत्र के साथ पूरे परिवार की आमदनी का सर्टिफिकेट भी देना होता है। इसके तहत 1.5 लाख रुपये तक की मदद दी जा सकती है। मुख्यमंत्री चाहें तो अपने विवेक से ज्यादा रकम भी मंजूर कर सकते हैं।

2. प्राइवेट अस्पतालों में भी फ्री बेड
राजधानी दिल्ली में सारे सरकारी अस्पतालों में दवाएं मुफ्त हैं। इसके अलावा प्राइवेट अस्पतालों में भी कुल 634 बेड गरीबों के लिए फ्री हैं। ये उन अस्पतालों में हैं, जिन्होंने दिल्ली सरकार से सस्ती जमीनें ली हैं। इन अस्पतालों को 10 फीसदी सीटें गरीबों के लिए रिजर्व रखनी पड़ती हैं। इन अस्पतालों और बेड की उपलब्धता के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए जाएं: dshm.delhi.gov.in

3. दिल्ली आरोग्य कोष
- 3 लाख रुपये या इससे कम सालाना कमाने वाला जरूरतमंद 5 लाख रुपये का इलाज सरकारी या सरकार द्वारा सहायता प्राप्त हॉस्पिटल से करवा सकता है। यह रकम कैंसर, दिल की बीमारी, एड्स जैसी गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए दी जाती है।
- इसके लिए भी जरूरी है कि मदद मांगने वाला तीन साल से दिल्ली का बाशिंदा हो। इसके सबूत के तौर पर एसडीएम ऑफिस से बना निवास प्रमाणपत्र (डोमिसाइल सर्टिफिकेट), राशन कार्ड, वोटर आईडी कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, आधार कार्ड और पासपोर्ट में से कोई एक दिया जा सकता है।
- अगर मरीज नाबालिग है तो माता-पिता के निवास प्रमाणपत्र की जरूरत होगी।
- फॉर्म के साथ डॉक्युमेंट्स की फोटोकॉपी, इलाज कर रहे डॉक्टर का इलाज का सर्टिफिकेट जिसमें इलाज और खर्च के बारे में लिखा हो, मरीज की डॉक्टर से अटेस्ट कराई गई दो फोटो, ट्रीटमेंट रेकॉर्ड की फोटोकॉपी लगाएं।
- भरा हुआ फॉर्म और सारे डॉक्युमेंट पेशंट वेलफेयर सेल, रूम नंबर 1, छठी मंजिल, डायरेक्टरेट ऑफ हेल्थ सर्विसिज़, एफ 7 कड़कड़डूमा (कोर्ट के पास), दिल्ली 100032, फोन 011-2230-6851 में अप्लाई करें।
- इसकी जांच संबंधित विभाग करता है और मरीज को सूचित करने के बाद चेक जारी करता है।

दिल्ली आरोग्य निधि
- इसके तहत अप्लाई करने का तरीका और जगह बिल्कुल आरोग्य कोष की तरह ही है। इसके तहत रकम डेढ़ लाख रुपये तक ही दी जाती है। यह सुविधा उन लोगों को मिलती है, जिनकी सालाना इनकम 1 लाख रुपये या उससे कम है।
- इसके तहत कुछ सरकारी हॉस्पिटल में ही इलाज मुमकिन है। ये अस्पताल हैं एम्स, सफदरजंग अस्पताल, आरएमएल और जी. बी. पंत।

प्राइवेट प्राइवेट अस्पताल में भी करा सकते हैं इलाज
-अगर दिल्ली में 3 साल से ज्यादा समय से रह रहे हैं और सरकारी अस्पताल में टेस्ट कराने में देर हो रही है या सर्जरी के लिए 30 दिन से ज्यादा का समय दिया गया है तो टेस्ट और सर्जरी प्राइवेट अस्पताल में भी करा सकते हैं। इसके लिए जिस डॉक्टर से इलाज करा रहे हैं, वह आपको फॉर्म भरकर देगा। इसके बाद आपके इलाज का पैसा सरकार देगी।
-रिहाइश का सबूत देने के लिए आधार कार्ड, पासपोर्ट, डीएल, वोटर आईकार्ड, नैशनल फूड सिक्योरिटी कार्ड और पांच साल से छोटे बच्चों के लिए बर्थ सर्टिफिकेट दे सकते हैं। इस कैटिगरी का लाभ उन लोगों को मिलेगा, जिनकी आमदनी 13,350 रुपये या इससे कम प्रति महीना है। पूरी जानकारी के लिए जाएं: dshm.delhi.gov.in/

जाएं ऑटोनॉमस हॉस्पिटल
दिल्ली के किसी भी ऐसे अस्पताल या इंस्टिट्यूट में जा सकते हैं, जिसे ऑटोनॉमस बॉडी चलाती है। दिल्ली में इंस्टिट्यूट ऑफ लिवर एंड बिलियरी साइंसेज (ILBS), राजीव गांधी सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल (ताहिरपुर), दिल्ली स्टेट कैंसर इंस्टिट्यूट, चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय, जनकपुरी सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल, मौलाना आजाद मेडिकल इंस्टिट्यूट फॉर डेंटल साइंसेज। इन अस्पतालों में काफी कम खर्च में बेहतरीन इलाज उपलब्ध है। जैसे कि ILBS में लिवर ट्रांसप्लांट के लिए करीब 10 लाख रुपये खर्च आता है जोकि प्राइवेट अस्पताल में करीब 20-25 लाख रुपये होता है। इसी तरह, राजीव गांधी सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल (ताहिरपुर) में कैंसर का इलाज दूसरी जगहों के मुकाबले काफी सस्ता और बेहतर है।

मोहल्ला क्लिनिक भी हैं
सरकारी डिस्पेंसरी या मोहल्ला क्लीनिक जा सकते हैं। ये सुबह 9 बजे से दोपहर 1 बजे तक खुलते हैं। अपने इलाके के मोहल्ला क्लिनिक की जानकारी के लिए देखें: www.delhi.gov.in

यूपी में इलाज की सुविधाएं

मुख्यमंत्री सहायता कोष
दिल्ली की तरह ही उत्तर प्रदेश (यूपी) में भी गरीबों की मदद के लिए मुख्यमंत्री सहायता कोष की मदद ली जा सकती है। आवेदन का तरीका और दस्तावेज तो कॉमन ही हैं लेकिन यूपी सरकार ने हाल में यह बदलाव किया है कि किसी के पास बीपीएल कार्ड न हो तो आय प्रमाणपत्र और सीएमओ से प्रमाणपत्र ही काफी है। जिला प्रशासन से वेरीफिकेशन होने के बाद संबंधित अस्पताल के खाते में यह रकम भेज दी जाती है। इसमें सामान्य तौर पर 50 हजार से 1.50 लाख रुपये तक की मदद मिलती है।

आरोग्य निधि
जिनके परिवार की सालाना इनकम 1 लाख से कम है, उन्हें आरोग्य निधि के तहत मदद की जाती है। यह आर्थिक मदद गंभीर बीमारियों के लिए दी जाती है। इसके लिए जिला प्रशासन से बना हुआ निवास प्रमाणपत्र और आधार कार्ड, वोटर कार्ड, राशन कार्ड में से कोई एक अन्य पहचानपत्र जरूरी होता है।
- फॉर्म के साथ डॉक्युमेंट्स की फोटोकॉपी, इलाज कर रहे डॉक्टर का सर्टिफिकेट जिसमें इलाज और खर्च के बारे में लिखा हो, मरीज की डॉक्टर से अटेस्ट कराई गई दो फोटो, ट्रीटमेंट रेकॉर्ड की फोटोकॉपी लगानी जरूरी है। जिले के सीएमओ ऑफिस के जरिए यह आवेदन किया जा सकता है।
- सीएमओ कार्यालय की जांच और प्रमाणपत्र के बाद यह निधि स्वास्थ्य विभाग जारी करता है।

सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज
- लखनऊ के डॉ. स्कंद शुक्ला के अनुसार यूपी के सभी सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज की सुविधा है। सरकारी अस्पताल में सिर्फ 1 रुपये का पर्चा बनवाकर मुफ्त इलाज करवाया जा सकता है। यहां ओपीडी से लेकर सभी उपलब्ध जांचें, सामान्य वार्ड में भर्ती और ऑपरेशन की मुफ्त सुविधा उपलब्ध है। प्राइवेट डीलक्स वॉर्ड लेने पर उसका किराया देना होगा।
- सरकारी अस्पतालों में करीब 500 दवाओं की लिस्ट है, जो सरकार मुहैया कराती है। ये दवाएं मरीजों को मुफ्त उपलब्ध हैं।
- यूपी में सभी 75 जिलों में कुल 175 जिला अस्पताल हैं। वहीं 821 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और 3,621 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। सभी में मुफ्त इलाज की सुविधा है।
- सरकारी मेडिकल कॉलेजों में डॉक्टर की ओपीडी फीस नहीं लगती लेकिन भर्ती होने और सर्जरी का खर्च मरीजों को वहन करना होता है।

सांसद-विधायक कर सकते हैं मदद
- एमपी/एमएलए को अपने एरिया के विकास के लिए हर साल एक निश्चित राशि मिलती है, जिसे वे किसी जरूरतमंद के इलाज के लिए भी खर्च कर सकते हैं।
- अपनी तरफ से निश्चिंत होने पर वे किसी जरूरतमंद को हॉस्पिटल में सिफारिश भी कर सकते हैं।
- इसके लिए अपने एरिया के लोकल एमपी/एमएलए से मिल कर उन्हें परेशानी बताएं और जरूरी रिपोर्ट व इलाज का खर्च बताएं।
- पूरी तरह से ताकीद हो जाने पर वे अपनी निधि से इलाज के लिए सरकारी या प्राइवेट हॉस्पिटल में भर्ती करा सकते हैं।
-विधायक अपनी निधि से 50 हजार रुपये से 1 लाख रुपये तक की मदद कर सकते हैं।

महाराष्ट्र में इलाज की सरकारी योजनाएं

महात्मा ज्योतिबा फुले आरोग्य योजना
- राज्य सरकार की ‘महात्मां ज्योतिबा फुले आरोग्य योजना’ गरीबों को इलाज में मदद लेने के लिहाज से सबसे प्रभावी योजना है।
- इसके तहत गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले मरीजों को 971 तरह की सर्जरी, इलाज आदि फ्री उपलब्ध कराया जाता है।
- बीमारी के अनुसार मरीजों को एक तय रकम इलाज के लिए दी जाती है।
- इसके तहत कैंसर, दिल की बीमारी, संक्रामक बीमारी आदि कई समस्याओं को कवर किया जाता है।

ऐसे मिलता है लाभ
- गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले मरीज जब इलाज के लिए अस्पताल जाते हैं तो अस्पताल ‘महात्मा ज्योतिबा फुले आरोग्य योजना’ के तहत उनका कार्ड बनाता है।
- मरीज खुद से भी वर्ली स्थित ‘महात्मां ज्योतिबा फुले आरोग्य योजना’ के दफ्तर जाकर आवेदन कर सकता है।
- फिलहाल राज्य के 486 सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों में ‘महात्मा ज्योतिबा फुले आरोग्य योजना’ के तहत मरीजों को लाभ दिया जा रहा है।

बीएमसी की सेवाएं
- मुंबई में बीएमसी अस्पतालों को स्वास्थ्य सेवाओं में बेहद अहम माना जाता है। महज 10 रुपये खर्च पर मरीजों को काफी हद तक फ्री दवाइयां और इलाज मिलता है।
- मुंबई में बीएमसी की कुल 4 प्रमुख, 6 स्पेशल, 18 पेरिफेरल, 28 प्रसूति गृह, 204 हेल्थ पोस्ट और 175 डिस्पेंसरी हैं।

प्राइवेट अस्पताल में भी इलाज
- मुंबई के 8 स्टेशनों पर ‘वन रुपी क्लिनिक’ की सुविधा है।
- ‘वन रुपी क्लिनिक’ पर 1 रुपये देकर कोई भी मरीज अपनी जांच करा सकता है।
- यहां मरीजों को मेडिकल जांच और दवाओं में भी छूट दी जाती है
- रेलवे और ‘मैजिक दिल’ के आपसी सहयोग से शुरू यह सेवा जल्द ही मुंबई के दूसरे स्टेशनों पर भी दिखेंगी।

चैरिटेबल अस्पताल
राज्य के सभी चैरिटेबल अस्पतालों में कुल बेड्स का 10 फीसदी अर्थिक रूप से कमजोर मरीजों के लिए आरक्षित रखा गया है।

धार्मिक संगठनों का सहारा
- गुरुद्वारा, चर्च, मंदिर आदि मेडिकल सेंटर चलाते हैं, जहां लोग फ्री या कम खर्चे में इलाज में करा सकते हैं। आप अपने इलाके के गुरुद्धारे, चर्च, मंदिर आदि में जाकर जानकारी हासिल कर सकते हैं।

एनजीओ करते हैं मदद
- Sameer Malik Heart Care Foundation, Being Human Foundation, HelpAge India, Uday Foundation जैसे कई एनजीओ लोगों को इलाज के लिए मदद करते हैं। इसके लिए इंटरनेट पर जाकर सर्च कर सकते हैं कि कौन-सा एनजीओ किस तरह की बीमारी में मदद देता है। इसके बाद उनकी वेबसाइट पर जाकर पूरी जानकारी हासिल कर सकते हैं और वहां दिए ईमेल पर उनसे कॉन्टैक्ट कर सकते हैं।
- इंडियन मेडिकल असोसिएशन (IMA) जैसी संस्थाओं से भी मदद मिल सकती है।

इन्हें भी जानें
- बहुत सारे डॉक्टर सुबह में जनरल ओपीडी और शाम को प्राइवेट ओपीडी करते हैं। जनरल ओपीडी काफी सस्ती होती है।
- वक्त-वक्त पर लगनेवाले कैंपों में जाकर भी इलाज करा सकते हैं।
- अक्सर लोग मेडिकल इंश्योंरेंस (मेडिक्लेम) करा तो लेते हैं लेकिन उनकी ज्यादा लिमिट ज्यादा नहीं होती लेकिन कम-से-कम 10 लाख रुपये वाला मेडिकल इंश्योरेंस लें ताकि बाद में किसी बड़ी बीमारी होने पर पछताना न पड़े।

कानूनी मदद कहां से लें

अगर अस्पताल इलाज से करे इनकार
अगर सरकार से मदद प्राप्त हॉस्पिटल बीपीएल कार्ड धारक किसी भी मरीज को मुफ्त इलाज करने से मना करता है और लिख कर देता है कि उसके पास इलाज करने की सुविधा उपलब्ध नहीं है तो इसकी शिकायत राज्य के डायरेक्ट्रेट ऑफ पब्लिक हेल्थ के पास की जा सकती है। सभी राज्यों के डायरेक्ट्रेट ऑफ पब्लिक हेल्थ की लिस्ट यहां देख सकते हैं: http://nidm.gov.in/pdf/links/health.pdf

अगर हो गलत या महंगे इलाज की शिकायत
- अगर आपको लगता है कि किसी डॉक्टर या अस्पताल ने ज्यादा पैसा वसूला है या गलत इलाज की वजह से मरीज की जान चली गई है तो आप स्टेट की मेडिकल काउंसिल में शिकायत कर सकते हैं। इसके अलावा, आप कंस्यूमर कोर्ट भी जा सकते हैं। आपको डिस्चार्ज पेपर, इलाज के रेकॉर्ड और एक एक्सपर्ट की राय की कॉपी चाहिए। अगर एक्सपर्ट की राय नहीं है तो भी आप कोर्ट जा सकते हैं।
- अगर डॉक्टर के गलत इलाज से मरीज की जान चली गई है तो आप पुलिस में केस भी दर्ज करा सकते हैं।
- इसके अलावा आप स्टेट की मेडिकल काउंसिल में भी शिकायत कर सकते हैं।

नोट: अगर आपको लगता है कि अस्पताल ने जबरन आपके मरीज को आईसीयू या वेंटिलेटर पर रखा हुआ है तो बेहतर है कि आप अपने फैमिली डॉक्टर से राय जरूर लें। ध्यान रखें कि कोई भी अस्पताल सेंकड ओपिनियन के लिए मरीज की जांच रिपोर्ट या इलाज की रिपोर्ट देने से इनकार नहीं कर सकता। अगर वह ऐसा करता है तो आप स्टेट की मेडिकल काउंसिल में शिकायत कर सकते हैं।

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