एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. पी. के. जुल्का कैंसर एक्सपर्ट, एम्स
डॉ. ए. के. झिंगन सीनियर डाइबटॉलजिस्ट, दिल्ली डाइबीटिक रिसर्च सेंटर
डॉ. विवेका कुमार कार्डियॉलजिस्ट, मैक्स हॉस्पिटल, साकेत
डॉ. संजय वाधवा प्रफेसर, डीपीएमआर, एम्स
डॉ. बी. एस राजपूत कंसल्टेंट ऑर्थोपेडिक एंड स्टेम सेल ट्रांसप्लांट सर्जन, मुंबई
डॉ. राजकुमार हेड, नैशनल सेंटर ऑफ रेस्पाइरेटरी अलर्जी, अस्थमा एंड इम्यूनॉलजी, नई दिल्ली
डॉ. अनूप गुप्ता आईवीएफ एक्सपर्ट
बीमारियों और इंसानों की लड़ाई हर साल कई नए मोर्चे खोलती है। जिस तेजी से बीमारियां अपना शिकंजा कसने की कोशिश करती हैं, उतनी ही तेजी से मेडिकल साइंस इनसे निपटने की कवायद तेज कर देता है। इस कवायद ने किन बड़ी बीमारियों में इलाज के नए साधन उपलब्ध कराए, एक्सपर्ट्स की मदद से बता रहे हैं अमित मिश्रा:
हार्ट केयर इस साल हिट इस साल दिल का ख्याल रखने वाली कई नई तकनीकें सामने आई हैं, जो मुश्किलें आसान करेंगी मिसाल के तौर पर - TAVI (ट्रांसकैथेटर एरोटिक वॉल्व इंप्लांट) नाम की खास तकनीक के जरिये हार्ट वॉल्व को ओपन हार्ट किए बिना ही रिपेयर किया जा सकता है। अब तक विदेशों में पॉपुलर इस तकनीक को भारत में मान्यता मिल गई है और यह दिल्ली और मुंबई के 8 हॉस्पिटलों में उपलब्ध है। खर्च: तकरीबन 15 लाख रुपये - इस साल आर्टिफिशल हार्ट की देश में एंट्री हो गई है। अब तक जहां हार्ट ट्रांसप्लांट के तौर पर किसी इंसान के हार्ट को दूसरे में ट्रांसप्लांट किया जाता था। अब पानी वाले टुल्लू की तरह का एक पंप हार्ट की जगह फिट किया जा सकता है। इस साल इसकी परमिशन अथॉरिटी ने दे दी है। फिलहाल इसे ट्रायल के तौर पर 3 लोगों में लगाया जा चुका है। इनमें से एक पेशंट की उम्र 70 साल है। आर्टिफिशल हार्ट की उम्र 15 साल होती है और इसे लगवाने का खर्च तकरीबन 60 लाख रुपये है। - दुनिया भर में खुद-ब-खुद घुल जाने वाले (अब्जॉर्बेबल हार्ट स्टेंट्स) स्टेंट्स काफी दिनों से पॉपुलर हैं लेकिन हमारे देश में इनकी राह इस साल आसान हुई है। अब मेटलिक स्टेंट्स की जगह भीतर ही घुल जाने वाले स्टेंट्स लगावाए जा सकते हैं। ये डेढ़ महीने में घुल जाते हैं। इन स्टेंट्स का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इनसे खून को पतला करने वाली दवाओं से मुक्ति मिल जाती है। स्टेंट्स घुल जाने के बाद इन दवाओं को खाना छोड़ा जा सकता है। फिलहाल ऐसे स्टेंट्स एक ही कंपनी Abbott बना रही है। कीमत: तकरीबन डेढ़ लाख रुपये - शरीर में पेसमेकर या आईसीडी जैसे इंप्लांट होने पर एमआरआई करना मुश्किल होता था। इस वजह से टेस्टिंग के लिए पेशंट को कई लंबी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता था। अब एमआरआई की एक ऐसी तकनीक आ गई है जो इन ऐसे पेशंट्स के टेस्ट आसानी से कर सकेगी। खर्च: 2 लाख रुपये - कोरोनरी सीटी एंजिओग्राफी (Coronary CT Angiography) के जरिए कम वक्त में ज्यादा सटीक तरीके से दिल का हाल जाना जा सकता है। इस तकनीक में कम वक्त में हार्ट की ज्यादा स्लाइड में तस्वीरें पाई जा सकती हैं। खर्च: 15 हजार रुपये प्रति टेस्ट - खास तरह के जिनेटिक मार्कर के जरिए पता लगाया जा सकता है कि किसे वैस्क्युलर डिजीज (हार्ट अटैक, कार्डिएक अरेस्ट, ब्रेन या पैरों में क्लॉटिंग या स्ट्रोक) का खतरा हो सकता है। इस तरह की मार्किंग 15 साल की उम्र से ऊपर के किसी भी शख्स की कराई जा सकती है। खर्च: एक मार्किंग की कीमत 20 हजार रुपये कार्डिएक अरेस्ट से बचाएगा ऑयल 2015 में कायमकुलम (केरल) के एक कॉर्डियॉलजिस्ट के. के. मैथ्यू ने एक रिसर्च में पाया कि तिल के तेल के इस्तेमाल से हार्ट अटैक का खतरा काफी हद तक कम हो जाता है। चूंकि हार्ट अटैक का सबसे बड़ा कारण हाई डेंसिटी लिपोप्रोटीन (HDL) कॉलेस्ट्रॉल में कमी है। फिलहाल मेडिकल साइंस में ऐसा कोई भी तरीका नहीं था जिसके जरिए इसे बढ़ाया जा सके। ऐसे में डॉ. मैथ्यू ने तकरीबन 11 साल तक कई पेशंट्स पर तिल के तेल के इस्तेमाल के बाद एचडीएल के लेवल को मॉनिटर किया। उन्होंने पाया कि तिल का तेल इस्तेमाल करने वाले पेशंट्स में एचडीएल की मात्रा दूसरी तरह के तेल इस्तेमाल करने वालों से बेहतर है। उनकी यह रिसर्च कार्डियॉलजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया में छपी है और इसे हार्ट डिजीज से निपटने के लिहाज से काफी कारगर बताया जा रहा है।
- कैंसर के इलाज के लिए की जाने वाली कई तरह की तकनीकें जैसे हॉर्मोन थेरपी, सर्जरी और रेडियोथेरपी को आजमाया जाता है। इस साल इम्यूनोथेरपी (mmunotherapy) नाम के एक नए तरीके ने दस्तक दी है। इसमें कई तरह की एंटिबॉडीज के जरिए शरीर के इम्यून सिस्टम को तगड़ा बनाया जाता है जिससे वह कैंसर से लड़ सके। फिलहाल स्किन, लंग्स, किडनी और ब्रेस्ट कैंसर के लिए यह थेरपी उपलब्ध है और जल्द ही बाकी तरह के कैंसर के लिए भी उपलब्ध होगी। खर्च: इसका एक इंजेक्शन 3 लाख रुपये का आता है और हर 3 हफ्ते में एक इंजेक्शन की जरूरत होती है। - कैंसर के इलाज में इम्यूनोथेरपी का जो नया तरीका आजमाया गया है, उसमें डेंड्राइटिक सेल वैक्सीन के जरिये भी इलाज किया जाता है। यह काफी कारगर साबित हो रहा है। दिल्ली, मुंबई और लखनऊ में यह उपलब्ध है। खर्च: एक सेशन के 90 से 95 हजार रुपये - कैंसर सेल्स के खात्मे के लिए रेडियोएक्टिव आइसोटोप्स के जरिए रेडियोथेरपी के नए तरीके इजाद हुए हैं। इनमें से एक है इंटेंसिटी मॉड्युलेटेड रेडिएशन थेरपी (Intensity-modulated radiation therapy) जिसमें कैंसर पर तीखे रेडिशन से प्रहार किया जाता है। इसी तरह से Selective Internal Radiation Therapy (SIRT) में लिवर कैंसर या ट्यूमर को रेडिएशन के जरिए खत्म किया जाता है। खर्च: 1-2 लाख रुपये तकरीबन - अब ब्लड टेस्ट के जरिए भी जाना जा सकता है कि किसी को कैंसर है या नहीं। अब तक इसके लिए टेस्ट की लंबी प्रक्रिया थी। ऐसा सर्कुलेटिंग ट्यूमर डीएनए के जरिए जाना जाता है। वैज्ञानिकों ने पता किया है कि जब ट्यूमर सेल्स मरती हैं तो अपने पीछे अपने डीएनए का कुछ हिस्सा ब्लड में छोड़ जाती हैं। इन्हें सेल फ्री सर्कुलेटिंग ट्यूमर डीएनए कहा जाता है। इन्हें खून में पकड़ कर कैंसर का पता लगाया जा सकता है। खर्च: जल्द ही टेस्ट देश में शुरू होने को है। फिलहाल इसे अमेरिका भेज कर करवाया जाता है और खर्च लाखों में आता है। - टेस्ट के तौर पर Tumor Educated Platelets (TEP) की भी देश में एंट्री हो गई है। इसमें प्लेटलेट्स के जरिए जाना जाता है कि कैंसर सेल्स शरीर में बढ़ रही हैं या नहीं। खर्च: फिलहाल अमेरिका सैंपल भेज कर टेस्ट करवाया जा रहा है। जल्द ही देश में भी टेस्ट शुरू हो जाएंगे और खर्च लाखों में है।
डायबीटीज को दें मात - एक रिसर्च से पता चला कि जितने लोगों को दुनिया भर में डायबीटीज है, उतने ही लोग प्री-डायबीटीज कंडिशन से पीड़ित हैं। ये वे लोग हैं जिनके परिवार में डायबीटीज की हिस्ट्री है। इनके टेस्ट करने पर पता चला कि खाली पेट टेस्ट में शुगर लेवल ज्यादा और भरे पेट शुगर लेवल नॉर्मल या कम आया है। इन्हें फौरन हिदायत दी गई कि लाइफस्टाइल बदलें वरना मरीजों में इनकी गिनती होने लगेगी। पाया गया कि ऐसे लोगों ने 10 फीसदी वजन घटाकर या लाइफस्टाइल में बदलाव करके शुगर लेवल को नॉर्मल बना लिया। - संवेदनशील इंसुलिन पेन या पैच इस साल अपने साकार रूप में आने लगे। अब ऐसे इंसुलिन पेन आ रहे हैं जिनकी सुई आंखों से देखी भी नहीं जा सकती है। इस साल ऐसे इंसुलिन पैच भी लैब में टेस्टिंग की अगली स्टेज में पहुंच गए हैं जिन्हें स्टिकर की तरह चिपका कर बिना दर्द के इंसुलिन की रेग्युलर डोज ली जा सकती है। - कंटिन्यू ग्लूकोज मॉनिटरिंग (CGM) नाम की डिवाइस से हर 3 दिन या 14 दिनों में आसानी से शुगर लेवल नापा जा सकता है। इसमें एक पैच को शरीर से स्टिकर की तरह चिपका दिया जाता है और लैब में मशीन पर इसे टेस्ट करके शुगर लेवल बताया जा सकता है। कीमत: 1500-2000 रुपये - बिना फास्टिंग के भी शुगर टेस्ट करना आसान हो गया है। एचबीएवनसी (HbA1c) नाम के टेस्ट में एक बूंद खून से ही ब्लड शुगर को नापा जा सकता है। खर्च: 200 से 250 रुपये
डिसेबिलिटी का होगा खात्मा - हाई क्वॉलिटी के 3डी मोशन एनालाइजर के जरिए शरीर में किसी भी कमी को पकड़ा जा सकता है। अब तक यह काम डॉक्टर आंखों से करते थे। इसमें रीढ़ की हड्डी का टेढ़ापन, हाथ-पैरों के मोशन को सटीक तरीके से नापा जा सकता है। इस तरह की डिवाइसेज बड़े हॉस्पिटलों में मौजूद हैं और अगले साल एम्स में भी आ जाएंगी। खर्च: एक बार टेस्ट की कीमत तकरीबन 15 हजार रुपये - रॉबोटिक्स और पार्शियल बॉडी कंट्रोल (शरीर के खास हिस्से को सपोर्ट करके ट्रेडमिल पर) ट्रेनिंग की तकनीकें सामने आई हैं। इसके जरिए फिजियोथेरपी के प्रोसेस में काफी मदद मिलती है और सीरियस कंडिशन के मरीजों में भी तेजी से सुधार आता है। खर्च: सरकारी अस्पतालों में मुफ्त होता है लेकिन प्राइवेट हॉस्पिटल पैकेज के हिसाब से चार्ज करते हैं जो कुछ हजार रुपये हो सकता है। - बच्चों में शरीर पर कंट्रोल खो देने वाली बीमारी 'मस्क्युलर डिस्ट्रॉफी' का इलाज भी स्टेम सेल ट्रांसप्लांट के जरिए करने में सुधार आया है और हालात पहले के मुकाबले सुधरे हैं। इलाज दिल्ली, मुंबई और लखनऊ जैसे शहरों में उपलब्ध है। कीमत: 1 से डेढ़ लाख रुपये
स्पाइनल कॉर्ड इंजरी में बड़ी राहत स्पाइनल कॉर्ड की किसी भी तरह की चोट में रिकवरी बहुत धीमी और कभी तो न के बराबर होती थी लेकिन 2015 की नई खोज ने काफी कुछ बदल दिया है। - पिछले 6 महीने में नए तरीके के तहत अब स्पाइनल कॉर्ड में एक खास तरह के स्टेम सेल (न्यूरल प्री-कर्सर स्टेम सेल) को सीधे ट्रांस्पलांट किया जाता है। इससे तकरीबन सभी मरीजों में रिकवरी काफी तेज हुई है। यह सर्जरी दिल्ली, मुंबई और लखनऊ जैसे शहरों में मुमकिन है।
इनफर्टिलिटी की समस्या का निदान - साल 2015 में एक खास तरीके 'स्क्रैपिंग ऑफ इंडोमिट्रियम' की खोज से परेशानी कम हुई है। यूटरस को स्क्रैप (आसान शब्दों में खरोंच) कर उसे इंप्लांट के लिए सही तरीके से तैयार करते हैं। इस प्रॉसेस में प्रेग्नेंसी कंसीव होने की संभावना काफी बढ़ जाती है और एंब्रियो का डिवेलपमेंट भी बेहतर ढंग से हो पाता है। अब तक क्लीनिक में जांच के बाद एंब्रियो को ट्रांसप्लांट कराने की कोशिश होती है और इस प्रॉसेस में कई बार यूटरस की बेहतर स्थिति न होने के कारण इंप्लांटेशन में दिक्कत आती थी। नई तकनीक से काफी हद तक समस्या का निदान हुआ है। यह सुविधा देश के तकरीबन हर आईवीएफ क्लिनिक पर उपलब्ध है। खर्च: 50 हजार रुपये (आईवीएफ: 1.5 लाख+50 हजार, कुल खर्च: 2 लाख रुपये)
फेफड़ों की समस्या - कई नए तरह के स्पेसर बाजार में आ गए हैं, जिनके जरिए दवा इनहेल करना काफी आसान हो जाता है। इन्हें इनहेलर के आगे लगाया जाता है। बच्चों या बड़ी उम्र के लोगों को इससे काफी सुविधा होती है। कीमत: 200-250 रुपये - दुनिया भर के बड़े देशों में लंग्स ट्रांसप्लांट होते रहे हैं। इस साल देश में ट्रांसप्लांट पर काफी काम हुआ है। पीजीआई चंडीगढ़ काफी हद तक इसमें सफलता पा चुका है। अगले साल लंग्स ट्रासप्लांट की खबर आ सकती है। खर्च: काफी जटिल होने की वजह से खर्च कई लाख रुपये हो सकता है। - स्लीप स्टडी में नई मशीन आ गई है जो सटीक तरीके से बता सकती है कि खर्राटों की समस्या से जूझ रहे किसी इंसान के शरीर में ऑक्सीजन का लेवल क्या है और खतरे का लेवल क्या है। खर्च: सरकारी हॉस्पिटल में फ्री लेकिन प्राइवेट तरीके से कराने पर 10 हजार से 25 हजार रुपये तक का खर्च - स्लीप एप्निया (नींद न आने की बीमारी या ज्यादा खर्राटे लेने वाले) के पेशंट्स को इलाज के तौर पर बाईपैप नाम की मशीन लगाई जा सकती है। 2015 से यह देश भर में आसानी से मिलने लगी है। कीमत: 20 से 25 हजार रुपये - नई तरह की अलर्जी के लिए खास इम्यूनोथेरपी की शुरुआत हो गई है। ये थेरपी इंजेक्शन और टैब्लेट दोनों तरह से की जा सकती है। खर्च: 5-10 हजार रुपये - परंपरागत तरीके ब्रॉन्कोस्कोपी से अलग अडवांस ब्रॉन्कोस्कोपी (EBUS) के जरिए फेफड़ों का अल्ट्रासाउंड करना मुमकिन हो गया है और साथ ही टिश्यू कलेक्शन भी किया जा सकता है। खर्च: सरकारी हॉस्पिटल में फ्री, प्राइवेट में 10-20 हजार रुपये का खर्च
पाइपलाइन में: आने वाले सालों में इनका रहेगा इंतजार वैसे तो तकनीक इंसान के साथ कदमताल करती हुई चलती है लेकिन मेडिकल साइंस में छोटा-से-छोटा कदम बड़ी उड़ान का इशारा होता है। चंद तकनीकें जो आने वाले सालों में मुश्किलें आसान करेंगी:
नैनोबॉट की फौज आने वाले कुछ सालों में रोबॉट इतने छोटे हो जाएंगे कि उन्हें एक कैप्सूल के जरिए शरीर के भीतर भेजा सकेगा। इन छोटे रोबॉट्स को नैनोबॉट्स का नाम दिया गया है। इनके जरिए न सिर्फ ब्लड की बड़ी बीमारियों के बारे में पता लगाया जा सकेगा बल्कि शरीर में किसी खास जगह पर बिना आसपास नुकसान पहुंचाए दवा भी पहुंचाई जा सकेगी। इसकी शुरुआत के साथ हम इलाज के नए युग में प्रवेश कर जाएंगे। कब तक: अभी रिसर्च लेवल पर है और आने में तकरीबन 5 साल लगेंगे। डेंगू को चित करने की तैयारी हर साल कहर बरपाने वाले डेंगू से हमारे देश की तरह कई और देश भी परेशान हैं। डेंगू वैक्सीन के क्लिनिकल ट्रायल शुरू हो चुके हैं और एक बार इन्हें हरी झंडी मिलते ही डेंगू भी इतिहास का हिस्सा बन जाएगा। कब तक: इसके 2018 तक मार्केट में आने की संभावना है।
दिमाग से कंट्रोल होने वाले आर्टिफिशल अंग अब तक शरीर में अलग से लगाए गए प्रॉस्थेटिक अंग को चलाने के लिए पेशंट को कोई सपोर्ट नहीं मिलता लेकिन जल्द ही कंप्यूटर और मिकैनिकल इंजीनियरिंग के बेहतरीन कॉम्बिनेशन से ऐसे प्रॉस्थेटिक मिलने लगेंगे जो दिमाग के इशारे से चलेंगे। ये हूबहू असली अंगों की तरह काम करेंगे। कब तक: 2020 तक उपलब्ध होने की संभावना
वेयरेबल हेल्थ मॉनिटर घड़ी हो या स्मार्ट बैंड, जल्द ही इनके जरिए शरीर का पूरा हाल एक खास क्लाउड पर स्टोर होता रहेगा। इसे कंसल्टेंट लगातार मॉनिटर करते रहेंगे और किसी भी परेशानी में आपको सचेत कर देंगे। हमेशा मॉनिटरिंग किसी भी बड़े खतरे से पहले ही आगाह कर देगी। कब तक: वेयरेबल पर तेज रिसर्च के चलते 2018 तक ऐसे डिवाइस मार्केट में आ सकते हैं।
थ्रीडी बॉडी पार्ट प्रिंटर हर चीज की तरह थ्रीडी प्रिंटर्स के जरिए शरीर के हिस्सों जैसे कान, टिश्यू और स्किन जैसी चीजें लैब में बनाई जाने लगी हैं। ऐसे ही एक प्रिंटर से हाल में इंसानी खोपड़ी के ढांचे को हूबहू बनाया गया। असली चैलेंज इन्हें सटीक तरीके से शरीर में इंप्लांट करने का है। कुछ सालों में इसकी शुरूआत होगी। कब तक: 2020 तक उपलब्ध हो सकते हैं।
डॉ. पी. के. जुल्का कैंसर एक्सपर्ट, एम्स
डॉ. ए. के. झिंगन सीनियर डाइबटॉलजिस्ट, दिल्ली डाइबीटिक रिसर्च सेंटर
डॉ. विवेका कुमार कार्डियॉलजिस्ट, मैक्स हॉस्पिटल, साकेत
डॉ. संजय वाधवा प्रफेसर, डीपीएमआर, एम्स
डॉ. बी. एस राजपूत कंसल्टेंट ऑर्थोपेडिक एंड स्टेम सेल ट्रांसप्लांट सर्जन, मुंबई
डॉ. राजकुमार हेड, नैशनल सेंटर ऑफ रेस्पाइरेटरी अलर्जी, अस्थमा एंड इम्यूनॉलजी, नई दिल्ली
डॉ. अनूप गुप्ता आईवीएफ एक्सपर्ट
बीमारियों और इंसानों की लड़ाई हर साल कई नए मोर्चे खोलती है। जिस तेजी से बीमारियां अपना शिकंजा कसने की कोशिश करती हैं, उतनी ही तेजी से मेडिकल साइंस इनसे निपटने की कवायद तेज कर देता है। इस कवायद ने किन बड़ी बीमारियों में इलाज के नए साधन उपलब्ध कराए, एक्सपर्ट्स की मदद से बता रहे हैं अमित मिश्रा:
हार्ट केयर इस साल हिट इस साल दिल का ख्याल रखने वाली कई नई तकनीकें सामने आई हैं, जो मुश्किलें आसान करेंगी मिसाल के तौर पर - TAVI (ट्रांसकैथेटर एरोटिक वॉल्व इंप्लांट) नाम की खास तकनीक के जरिये हार्ट वॉल्व को ओपन हार्ट किए बिना ही रिपेयर किया जा सकता है। अब तक विदेशों में पॉपुलर इस तकनीक को भारत में मान्यता मिल गई है और यह दिल्ली और मुंबई के 8 हॉस्पिटलों में उपलब्ध है। खर्च: तकरीबन 15 लाख रुपये - इस साल आर्टिफिशल हार्ट की देश में एंट्री हो गई है। अब तक जहां हार्ट ट्रांसप्लांट के तौर पर किसी इंसान के हार्ट को दूसरे में ट्रांसप्लांट किया जाता था। अब पानी वाले टुल्लू की तरह का एक पंप हार्ट की जगह फिट किया जा सकता है। इस साल इसकी परमिशन अथॉरिटी ने दे दी है। फिलहाल इसे ट्रायल के तौर पर 3 लोगों में लगाया जा चुका है। इनमें से एक पेशंट की उम्र 70 साल है। आर्टिफिशल हार्ट की उम्र 15 साल होती है और इसे लगवाने का खर्च तकरीबन 60 लाख रुपये है। - दुनिया भर में खुद-ब-खुद घुल जाने वाले (अब्जॉर्बेबल हार्ट स्टेंट्स) स्टेंट्स काफी दिनों से पॉपुलर हैं लेकिन हमारे देश में इनकी राह इस साल आसान हुई है। अब मेटलिक स्टेंट्स की जगह भीतर ही घुल जाने वाले स्टेंट्स लगावाए जा सकते हैं। ये डेढ़ महीने में घुल जाते हैं। इन स्टेंट्स का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इनसे खून को पतला करने वाली दवाओं से मुक्ति मिल जाती है। स्टेंट्स घुल जाने के बाद इन दवाओं को खाना छोड़ा जा सकता है। फिलहाल ऐसे स्टेंट्स एक ही कंपनी Abbott बना रही है। कीमत: तकरीबन डेढ़ लाख रुपये - शरीर में पेसमेकर या आईसीडी जैसे इंप्लांट होने पर एमआरआई करना मुश्किल होता था। इस वजह से टेस्टिंग के लिए पेशंट को कई लंबी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता था। अब एमआरआई की एक ऐसी तकनीक आ गई है जो इन ऐसे पेशंट्स के टेस्ट आसानी से कर सकेगी। खर्च: 2 लाख रुपये - कोरोनरी सीटी एंजिओग्राफी (Coronary CT Angiography) के जरिए कम वक्त में ज्यादा सटीक तरीके से दिल का हाल जाना जा सकता है। इस तकनीक में कम वक्त में हार्ट की ज्यादा स्लाइड में तस्वीरें पाई जा सकती हैं। खर्च: 15 हजार रुपये प्रति टेस्ट - खास तरह के जिनेटिक मार्कर के जरिए पता लगाया जा सकता है कि किसे वैस्क्युलर डिजीज (हार्ट अटैक, कार्डिएक अरेस्ट, ब्रेन या पैरों में क्लॉटिंग या स्ट्रोक) का खतरा हो सकता है। इस तरह की मार्किंग 15 साल की उम्र से ऊपर के किसी भी शख्स की कराई जा सकती है। खर्च: एक मार्किंग की कीमत 20 हजार रुपये कार्डिएक अरेस्ट से बचाएगा ऑयल 2015 में कायमकुलम (केरल) के एक कॉर्डियॉलजिस्ट के. के. मैथ्यू ने एक रिसर्च में पाया कि तिल के तेल के इस्तेमाल से हार्ट अटैक का खतरा काफी हद तक कम हो जाता है। चूंकि हार्ट अटैक का सबसे बड़ा कारण हाई डेंसिटी लिपोप्रोटीन (HDL) कॉलेस्ट्रॉल में कमी है। फिलहाल मेडिकल साइंस में ऐसा कोई भी तरीका नहीं था जिसके जरिए इसे बढ़ाया जा सके। ऐसे में डॉ. मैथ्यू ने तकरीबन 11 साल तक कई पेशंट्स पर तिल के तेल के इस्तेमाल के बाद एचडीएल के लेवल को मॉनिटर किया। उन्होंने पाया कि तिल का तेल इस्तेमाल करने वाले पेशंट्स में एचडीएल की मात्रा दूसरी तरह के तेल इस्तेमाल करने वालों से बेहतर है। उनकी यह रिसर्च कार्डियॉलजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया में छपी है और इसे हार्ट डिजीज से निपटने के लिहाज से काफी कारगर बताया जा रहा है।
- कैंसर के इलाज के लिए की जाने वाली कई तरह की तकनीकें जैसे हॉर्मोन थेरपी, सर्जरी और रेडियोथेरपी को आजमाया जाता है। इस साल इम्यूनोथेरपी (mmunotherapy) नाम के एक नए तरीके ने दस्तक दी है। इसमें कई तरह की एंटिबॉडीज के जरिए शरीर के इम्यून सिस्टम को तगड़ा बनाया जाता है जिससे वह कैंसर से लड़ सके। फिलहाल स्किन, लंग्स, किडनी और ब्रेस्ट कैंसर के लिए यह थेरपी उपलब्ध है और जल्द ही बाकी तरह के कैंसर के लिए भी उपलब्ध होगी। खर्च: इसका एक इंजेक्शन 3 लाख रुपये का आता है और हर 3 हफ्ते में एक इंजेक्शन की जरूरत होती है। - कैंसर के इलाज में इम्यूनोथेरपी का जो नया तरीका आजमाया गया है, उसमें डेंड्राइटिक सेल वैक्सीन के जरिये भी इलाज किया जाता है। यह काफी कारगर साबित हो रहा है। दिल्ली, मुंबई और लखनऊ में यह उपलब्ध है। खर्च: एक सेशन के 90 से 95 हजार रुपये - कैंसर सेल्स के खात्मे के लिए रेडियोएक्टिव आइसोटोप्स के जरिए रेडियोथेरपी के नए तरीके इजाद हुए हैं। इनमें से एक है इंटेंसिटी मॉड्युलेटेड रेडिएशन थेरपी (Intensity-modulated radiation therapy) जिसमें कैंसर पर तीखे रेडिशन से प्रहार किया जाता है। इसी तरह से Selective Internal Radiation Therapy (SIRT) में लिवर कैंसर या ट्यूमर को रेडिएशन के जरिए खत्म किया जाता है। खर्च: 1-2 लाख रुपये तकरीबन - अब ब्लड टेस्ट के जरिए भी जाना जा सकता है कि किसी को कैंसर है या नहीं। अब तक इसके लिए टेस्ट की लंबी प्रक्रिया थी। ऐसा सर्कुलेटिंग ट्यूमर डीएनए के जरिए जाना जाता है। वैज्ञानिकों ने पता किया है कि जब ट्यूमर सेल्स मरती हैं तो अपने पीछे अपने डीएनए का कुछ हिस्सा ब्लड में छोड़ जाती हैं। इन्हें सेल फ्री सर्कुलेटिंग ट्यूमर डीएनए कहा जाता है। इन्हें खून में पकड़ कर कैंसर का पता लगाया जा सकता है। खर्च: जल्द ही टेस्ट देश में शुरू होने को है। फिलहाल इसे अमेरिका भेज कर करवाया जाता है और खर्च लाखों में आता है। - टेस्ट के तौर पर Tumor Educated Platelets (TEP) की भी देश में एंट्री हो गई है। इसमें प्लेटलेट्स के जरिए जाना जाता है कि कैंसर सेल्स शरीर में बढ़ रही हैं या नहीं। खर्च: फिलहाल अमेरिका सैंपल भेज कर टेस्ट करवाया जा रहा है। जल्द ही देश में भी टेस्ट शुरू हो जाएंगे और खर्च लाखों में है।
डायबीटीज को दें मात - एक रिसर्च से पता चला कि जितने लोगों को दुनिया भर में डायबीटीज है, उतने ही लोग प्री-डायबीटीज कंडिशन से पीड़ित हैं। ये वे लोग हैं जिनके परिवार में डायबीटीज की हिस्ट्री है। इनके टेस्ट करने पर पता चला कि खाली पेट टेस्ट में शुगर लेवल ज्यादा और भरे पेट शुगर लेवल नॉर्मल या कम आया है। इन्हें फौरन हिदायत दी गई कि लाइफस्टाइल बदलें वरना मरीजों में इनकी गिनती होने लगेगी। पाया गया कि ऐसे लोगों ने 10 फीसदी वजन घटाकर या लाइफस्टाइल में बदलाव करके शुगर लेवल को नॉर्मल बना लिया। - संवेदनशील इंसुलिन पेन या पैच इस साल अपने साकार रूप में आने लगे। अब ऐसे इंसुलिन पेन आ रहे हैं जिनकी सुई आंखों से देखी भी नहीं जा सकती है। इस साल ऐसे इंसुलिन पैच भी लैब में टेस्टिंग की अगली स्टेज में पहुंच गए हैं जिन्हें स्टिकर की तरह चिपका कर बिना दर्द के इंसुलिन की रेग्युलर डोज ली जा सकती है। - कंटिन्यू ग्लूकोज मॉनिटरिंग (CGM) नाम की डिवाइस से हर 3 दिन या 14 दिनों में आसानी से शुगर लेवल नापा जा सकता है। इसमें एक पैच को शरीर से स्टिकर की तरह चिपका दिया जाता है और लैब में मशीन पर इसे टेस्ट करके शुगर लेवल बताया जा सकता है। कीमत: 1500-2000 रुपये - बिना फास्टिंग के भी शुगर टेस्ट करना आसान हो गया है। एचबीएवनसी (HbA1c) नाम के टेस्ट में एक बूंद खून से ही ब्लड शुगर को नापा जा सकता है। खर्च: 200 से 250 रुपये
डिसेबिलिटी का होगा खात्मा - हाई क्वॉलिटी के 3डी मोशन एनालाइजर के जरिए शरीर में किसी भी कमी को पकड़ा जा सकता है। अब तक यह काम डॉक्टर आंखों से करते थे। इसमें रीढ़ की हड्डी का टेढ़ापन, हाथ-पैरों के मोशन को सटीक तरीके से नापा जा सकता है। इस तरह की डिवाइसेज बड़े हॉस्पिटलों में मौजूद हैं और अगले साल एम्स में भी आ जाएंगी। खर्च: एक बार टेस्ट की कीमत तकरीबन 15 हजार रुपये - रॉबोटिक्स और पार्शियल बॉडी कंट्रोल (शरीर के खास हिस्से को सपोर्ट करके ट्रेडमिल पर) ट्रेनिंग की तकनीकें सामने आई हैं। इसके जरिए फिजियोथेरपी के प्रोसेस में काफी मदद मिलती है और सीरियस कंडिशन के मरीजों में भी तेजी से सुधार आता है। खर्च: सरकारी अस्पतालों में मुफ्त होता है लेकिन प्राइवेट हॉस्पिटल पैकेज के हिसाब से चार्ज करते हैं जो कुछ हजार रुपये हो सकता है। - बच्चों में शरीर पर कंट्रोल खो देने वाली बीमारी 'मस्क्युलर डिस्ट्रॉफी' का इलाज भी स्टेम सेल ट्रांसप्लांट के जरिए करने में सुधार आया है और हालात पहले के मुकाबले सुधरे हैं। इलाज दिल्ली, मुंबई और लखनऊ जैसे शहरों में उपलब्ध है। कीमत: 1 से डेढ़ लाख रुपये
स्पाइनल कॉर्ड इंजरी में बड़ी राहत स्पाइनल कॉर्ड की किसी भी तरह की चोट में रिकवरी बहुत धीमी और कभी तो न के बराबर होती थी लेकिन 2015 की नई खोज ने काफी कुछ बदल दिया है। - पिछले 6 महीने में नए तरीके के तहत अब स्पाइनल कॉर्ड में एक खास तरह के स्टेम सेल (न्यूरल प्री-कर्सर स्टेम सेल) को सीधे ट्रांस्पलांट किया जाता है। इससे तकरीबन सभी मरीजों में रिकवरी काफी तेज हुई है। यह सर्जरी दिल्ली, मुंबई और लखनऊ जैसे शहरों में मुमकिन है।
इनफर्टिलिटी की समस्या का निदान - साल 2015 में एक खास तरीके 'स्क्रैपिंग ऑफ इंडोमिट्रियम' की खोज से परेशानी कम हुई है। यूटरस को स्क्रैप (आसान शब्दों में खरोंच) कर उसे इंप्लांट के लिए सही तरीके से तैयार करते हैं। इस प्रॉसेस में प्रेग्नेंसी कंसीव होने की संभावना काफी बढ़ जाती है और एंब्रियो का डिवेलपमेंट भी बेहतर ढंग से हो पाता है। अब तक क्लीनिक में जांच के बाद एंब्रियो को ट्रांसप्लांट कराने की कोशिश होती है और इस प्रॉसेस में कई बार यूटरस की बेहतर स्थिति न होने के कारण इंप्लांटेशन में दिक्कत आती थी। नई तकनीक से काफी हद तक समस्या का निदान हुआ है। यह सुविधा देश के तकरीबन हर आईवीएफ क्लिनिक पर उपलब्ध है। खर्च: 50 हजार रुपये (आईवीएफ: 1.5 लाख+50 हजार, कुल खर्च: 2 लाख रुपये)
फेफड़ों की समस्या - कई नए तरह के स्पेसर बाजार में आ गए हैं, जिनके जरिए दवा इनहेल करना काफी आसान हो जाता है। इन्हें इनहेलर के आगे लगाया जाता है। बच्चों या बड़ी उम्र के लोगों को इससे काफी सुविधा होती है। कीमत: 200-250 रुपये - दुनिया भर के बड़े देशों में लंग्स ट्रांसप्लांट होते रहे हैं। इस साल देश में ट्रांसप्लांट पर काफी काम हुआ है। पीजीआई चंडीगढ़ काफी हद तक इसमें सफलता पा चुका है। अगले साल लंग्स ट्रासप्लांट की खबर आ सकती है। खर्च: काफी जटिल होने की वजह से खर्च कई लाख रुपये हो सकता है। - स्लीप स्टडी में नई मशीन आ गई है जो सटीक तरीके से बता सकती है कि खर्राटों की समस्या से जूझ रहे किसी इंसान के शरीर में ऑक्सीजन का लेवल क्या है और खतरे का लेवल क्या है। खर्च: सरकारी हॉस्पिटल में फ्री लेकिन प्राइवेट तरीके से कराने पर 10 हजार से 25 हजार रुपये तक का खर्च - स्लीप एप्निया (नींद न आने की बीमारी या ज्यादा खर्राटे लेने वाले) के पेशंट्स को इलाज के तौर पर बाईपैप नाम की मशीन लगाई जा सकती है। 2015 से यह देश भर में आसानी से मिलने लगी है। कीमत: 20 से 25 हजार रुपये - नई तरह की अलर्जी के लिए खास इम्यूनोथेरपी की शुरुआत हो गई है। ये थेरपी इंजेक्शन और टैब्लेट दोनों तरह से की जा सकती है। खर्च: 5-10 हजार रुपये - परंपरागत तरीके ब्रॉन्कोस्कोपी से अलग अडवांस ब्रॉन्कोस्कोपी (EBUS) के जरिए फेफड़ों का अल्ट्रासाउंड करना मुमकिन हो गया है और साथ ही टिश्यू कलेक्शन भी किया जा सकता है। खर्च: सरकारी हॉस्पिटल में फ्री, प्राइवेट में 10-20 हजार रुपये का खर्च
पाइपलाइन में: आने वाले सालों में इनका रहेगा इंतजार वैसे तो तकनीक इंसान के साथ कदमताल करती हुई चलती है लेकिन मेडिकल साइंस में छोटा-से-छोटा कदम बड़ी उड़ान का इशारा होता है। चंद तकनीकें जो आने वाले सालों में मुश्किलें आसान करेंगी:
नैनोबॉट की फौज आने वाले कुछ सालों में रोबॉट इतने छोटे हो जाएंगे कि उन्हें एक कैप्सूल के जरिए शरीर के भीतर भेजा सकेगा। इन छोटे रोबॉट्स को नैनोबॉट्स का नाम दिया गया है। इनके जरिए न सिर्फ ब्लड की बड़ी बीमारियों के बारे में पता लगाया जा सकेगा बल्कि शरीर में किसी खास जगह पर बिना आसपास नुकसान पहुंचाए दवा भी पहुंचाई जा सकेगी। इसकी शुरुआत के साथ हम इलाज के नए युग में प्रवेश कर जाएंगे। कब तक: अभी रिसर्च लेवल पर है और आने में तकरीबन 5 साल लगेंगे। डेंगू को चित करने की तैयारी हर साल कहर बरपाने वाले डेंगू से हमारे देश की तरह कई और देश भी परेशान हैं। डेंगू वैक्सीन के क्लिनिकल ट्रायल शुरू हो चुके हैं और एक बार इन्हें हरी झंडी मिलते ही डेंगू भी इतिहास का हिस्सा बन जाएगा। कब तक: इसके 2018 तक मार्केट में आने की संभावना है।
दिमाग से कंट्रोल होने वाले आर्टिफिशल अंग अब तक शरीर में अलग से लगाए गए प्रॉस्थेटिक अंग को चलाने के लिए पेशंट को कोई सपोर्ट नहीं मिलता लेकिन जल्द ही कंप्यूटर और मिकैनिकल इंजीनियरिंग के बेहतरीन कॉम्बिनेशन से ऐसे प्रॉस्थेटिक मिलने लगेंगे जो दिमाग के इशारे से चलेंगे। ये हूबहू असली अंगों की तरह काम करेंगे। कब तक: 2020 तक उपलब्ध होने की संभावना
वेयरेबल हेल्थ मॉनिटर घड़ी हो या स्मार्ट बैंड, जल्द ही इनके जरिए शरीर का पूरा हाल एक खास क्लाउड पर स्टोर होता रहेगा। इसे कंसल्टेंट लगातार मॉनिटर करते रहेंगे और किसी भी परेशानी में आपको सचेत कर देंगे। हमेशा मॉनिटरिंग किसी भी बड़े खतरे से पहले ही आगाह कर देगी। कब तक: वेयरेबल पर तेज रिसर्च के चलते 2018 तक ऐसे डिवाइस मार्केट में आ सकते हैं।
थ्रीडी बॉडी पार्ट प्रिंटर हर चीज की तरह थ्रीडी प्रिंटर्स के जरिए शरीर के हिस्सों जैसे कान, टिश्यू और स्किन जैसी चीजें लैब में बनाई जाने लगी हैं। ऐसे ही एक प्रिंटर से हाल में इंसानी खोपड़ी के ढांचे को हूबहू बनाया गया। असली चैलेंज इन्हें सटीक तरीके से शरीर में इंप्लांट करने का है। कुछ सालों में इसकी शुरूआत होगी। कब तक: 2020 तक उपलब्ध हो सकते हैं।
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