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जो दिखता है, वो बिकता है

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एक्सर्ट्स पैनल पीयूष पांडे एड गुरू

विजय शेखर फाउंडर, पेटीएम

दिनेश अग्रवाल फाउंडर, सीईओ इंडिया मार्ट



आप कितने भी अच्छे बिजनेस मैन हों, आपकी सर्विसेज या प्रॉडक्ट्स सही कस्टमरों के पास तभी पहुंचेंगे जब उनका सही जगह प्रमोशन होगा। कम पैसों में कस्टमर के पास पहुंचने का सटीक ठिकाना है इंटरनेट। आज के जमाने में इंटरनेट पर मार्केटिंग ही सफल बिजनेस की कुंजी है। एक्सपर्ट्स की मदद से अमित मिश्रा बता रहे हैं इंटरनेट के जरिए बिजनेस को प्रमोट करने के तरीके:

रोहित दिल्ली में मेंस वेयर बनाने का काम करते थे। वह लोकल लेवल पर रिटेलर्स को माल सप्लाई किया करते थे। इंटरनेट पर मार्केटिंग के बारे में पता चलने पर उन्होंने वेबसाइट बनवाने के साथ ही सोशल मीडिया पर भी पेज बना कर भी प्रमोशन शुरू किया। कुछ ही दिनों में उनके ब्रैंड को लोग जानने-पहचानने लगे। अब वह बड़े रिटेल स्टोर्स में अपने ब्रैंड के कपड़ों के साथ मौजूद हैं और जल्दी ही अपनी नई प्रॉडक्ट रेंज लॉन्च करने का प्लान भी बना रहे हैं। इंटरनेट पर सबके लिए सबकुछ इंटरनेट पर प्रमोशन की सबसे खूबसूरत बात यह है कि इस पर लगभग सबकी पहुंच है। यहां पर जिस तरह कोई बड़ी कंपनी खुद को प्रमोट कर सकती है, ठीक उसी तरह से छोटी कंपनी भी लोगों तक पहुंच बना सकती है। अगर इसके लिए कुछ जरूरी है तो वो है मीडियम की ताकत की सही समझ और खुद को पेश करने का सही तरीका जानना। दरअसल यहां छोटी-छोटी बातें मायने रखती हैं। मिसाल के तौर पर अगर आपको अपनी सर्विस के बारे में बताना है तो अपने सोशल मीडिया पेज पर संतुष्ट कस्टमरों के अनुभव बांट सकते हैं। यह भले ही छोटी बात लगे, लेकिन इसका असर और इसकी विश्वसनीयता किसी महंगे विज्ञापन से कम नहीं है।

इंटरनेट पर रहें मौजूद अपनी कंपनी को प्रमोट करने के लिए जरूरी है कि इंटरनेट पर अपनी मौजूदगी जितनी जल्दी हो दर्ज कराएं। इसके लिए वेबसाइट बनवाएं जिसका खर्च तकरीबन 5000-10,000 रुपये आता है। इसकी पूरी जानकारी पिछले हफ्ते की जस्ट जिंदगी में पढ़ सकते हैं। वेबसाइट बनवाने के फायदे हैं: - जो आपकी सर्विस या प्रॉडक्ट्स को इंटरनेट पर ढूंढ रहे हैं वे आपको आसानी से खोज सकते हैं। - वेबसाइट में अपने बिजनेस के बारे में तफ्सील से बताएं उस पर अड्रेस और फोन नंबर भी दें। इससे कस्टमर का भरोसा बढ़ता है। - वेबसाइट पर जानकारी छोटी और सटीक रखते हुए सर्विस या प्रॉडक्ट के बारे में बता सकते हैं। - एक बात अच्छी तरह से समझ लें कि इंटरनेट पर सिर्फ वेबसाइट बनाने से ही काम नहीं होगा। हर वेबसाइट इंटनरेट के महासागर में एक बूंद जैसी है। इसे लोगों की नजरों में लाने के लिए कुछ और काम भी करने होंगे। - आपकी वेबसाइट और सर्विसेज को लोगों तक पहुंचाने में ऑनलाइन डायरेक्टरी काफी मददगार साबित हो सकती है।

ऑप्टिमाइज करें अपनी वेबसाइट - इंटरनेट पर कुछ भी ढूंढने के लिए लोग गूगल जैसे सर्च इंजन का इस्तेमाल करते हैं। सर्च इंजन वेबसाइट में डाली गई जानकारी के हिसाब से ही प्रॉडक्ट या सर्विस को खोजता है। इसके लिए जरूरी है कि आपकी वेबसाइट इस तरह से बनी हो कि सर्च इंजन में सर्च करने वालों को वह दिख जाए। यहां पर दो बातें होती हैं: - पहला यह कि कैसे वेबसाइट को ऐसा बनाएं कि वह सर्च की लिस्ट में आसानी से आ जाएं भले ही 20वें पेज पर। इसके लिए सर्च इंजन ऑप्टिमाइजेशन की सर्विस देने वाली कंपनियां मदद कर सकती हैं। वे पेज की हेडलाइनें और क्वॉलिटी को बेहतर तरीके से डिजाइन करके ऐसा करती हैं। - दूसरा यह है कि वेबसाइट सर्च के साथ ही ऊपर भी आए। इसके लिए जरूरी है कि वेबसाइट पर लिखा गया कंटेंट रोचक हो और पेशकश बेहतरीन। गूगल, बिंग और याहू जैसे सर्च इंजनों को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि वे लोगों के वेबसाइट पर रुकने, उसे पढ़ने और रिएक्ट करने के पैटर्न को अच्छी तरह से जान लेती हैं। इन सभी फैक्टर्स को जान कर ही सर्च इंजन पहले पेज पर और ऊपर की ओर किसी वेबसाइट को दिखाती है। बेशक इस मामले में आप सर्च इंजन ऑप्टिमाइजेशन की सर्विस देने वाली कंपनियों की मदद ले सकते हैं।

इंटरनेट डायरेक्टरी को समझें इंटरनेट बिजनेस डायरेक्टरी को हम उस टेलीफोन डायरेक्टरी की तरह समझ सकते हैं जिसमें किसी भी बिजनेस कॉन्टैक्ट को खोजा जा सकता है। इंटरनेट पर होने की वजह से इसकी यूटिलिटी और बढ़ जाती है। यहां पर हर बिजनेसमैन अपने बिजनेस को मुफ्त में रजिस्टर करा सकते हैं। क्या होगा फायदा: - इंटरनेट पर मौजूदगी मजबूत होगी - प्रॉडक्ट और सर्विसेज के अच्छे रिव्यू आपके कस्टमर की संख्या तेजी से बढ़ा सकते हैं। - इस पर मिले बुरे रिव्यू इस बात की जानकारी देने में काफी सहायक होते हैं कि आपको कहां सुधार की जरूरत है। कैसे करें रजिस्टर: - इंटरनेट डायरेक्टरी सर्विस की वेबसाइट पर जाकर लॉगइन पासवर्ड बनाएं। - मांगी गई पूरी जानकारी सही-सही भरें। जितनी ज्यादा जानकारी देंगे उतना ज्यादा फायदा होगा। - यह डायरेक्टरी अक्सर फ्री सर्विस के रूप में वेरिफिकेशन के लिए आपसे फोन नंबर और ईमेल मांगती हैं। अगर आपको डिटेल्ड सर्विसेज चाहिए जिसमें पूरा कैटलॉग और फोटो अपलोड करवानी है तो हर साल 5000 रुपये से 25 हजार रुपये तक की सर्विसेज भी ली जा सकती है। - एक बार डायरेक्टरी सर्विस में रजिस्टर हो जाने का फायदा दो तरह के बिजनेस मैन को मिलता है: 1. जो पहली बार बिजनेस की शुरुआत कर रहे हैं। उनके लिए यह सर्विस फ्री में विजिबिलिटी मिलने के लिहाज से काफी अच्छी होती है। इस तरह की ढेरों सर्विसेज पर एक साथ खुद को रजिस्टर करने से इंटरनेट पर सर्च पर काफी अच्छी मौजूदगी सुनिश्चित की जा सकती है। 2. जो पहले से बिजनेस में हैं और इस सर्विस को एक कस्टमर केयर की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं। कई लोग कस्टमर सर्विस लेने के बाद कॉन्टैक्ट खो जाने की वजह से दोबारा बिजनेसमैन के पास नहीं पहुंच पाते। ऐसे लोगों सर्च इंजन पर जाता है तब अगर आपका बिजनेस इंटरनेट डायरेक्टरी में मौजूद है तो इसे आराम से खोजा जा सकता है। इन बातों का रखें ध्यान - लिस्टिंग करते वक्त सर्विसेज की कैटगिरी सही भरें। इससे सर्च आसान हो जाता है। एक बार गलत कैटिगरी में लिस्टेड होने का मतलब है अपने कस्टमर से कोसों दूर हो जाना। - अगर कुछ समझ में न आए तो साइट पर दिए हेल्पलाइन नंबरों पर फोन करके पूछ लें। - सही फोन और मोबाइल नंबर डालें क्योंकि वेरिफिकेशन का फोन दिए हुए नंबरों पर ही आता है। - जो नंबर आप रजिस्टर करते वक्त देते हैं, वह सेल्स कॉल के लिए आगे प्रमोट किया जाता है। इसलिए नंबर सोच-समझ कर दें। ऐसा न हो कि जल्दबाजी में दिया पर्सनल नंबर दिन-रात के कॉल से मुश्किलें बढ़ा दे। - अपने बारे में सटीक लिखें। मिसाल के तौर अगर आपने सर्विसेज में सिर्फ सॉफ्टवेयर डिवेलपमेंट डाला और यह नहीं बताया कि किस तरह के सॉफ्टवेयर के लिए आप काम करते हैं तो आप सही कस्टमर तक नहीं पहुंच पाएंगे।

यहां करें रजिस्टर www.indiamart.com www.justdial.com www.yalwa.in www.startlocal.in www.indianyellowpages.com www.hotfrog.in www.infoline.in www.askme.com www.bizzduniya.com www.yellowpages.sulekha.com www.indiaontrade.com www.indiabusinessportal.com www.businesswithindia.in www.surfindia.com www.indiabizclub.com www.indiacatalog.com www.vanik.com www.thelinkindia.com www.yellowpages.webindia123.com www.goodlinksindia.in www.zoomyellowpages.com www.fayda.co.in www.mysheriff.co.in www.dir.samachar.com www.business-india.in

ईमेल को बनाएं हथियार ईमेल से अपने कस्टमर तक पहुंचना काफी सस्ता और सटीक तरीका है। ईमेल भेज कर अपने प्रॉडक्ट या सर्विसेज के बारे में बताया जा सकता है। इसके लिए ईमेलर सर्विसेज का सहारा लिया जा सकता है या अपने ऑफिस में ही किसी को यह काम सौंपा जा सकता है।

इन बातों का रखें ध्यान - ईमेल पर बिजनेस प्रमोशन से अक्सर ईमेल पाने वाले लोग परेशान हो जाते हैं। इससे बचने के लिए अच्छी तरह से कस्टमर रिसर्च करके ही मेल भेजें। गलत जगह मेल पहुंचने से फायदे से ज्यादा नुकसान पहुंच सकत है। अगर 50 लोगों ने भी आपकी मेल को स्पैम मार्क कर दिया तो मेल सर्विस उसे स्पैम करार देगी और जरूरतमंद कस्टमर को भी आपका ईमेल स्पैम फोल्डर में ही मिलेगा। इससे बचने के लिए अपने मेलर में अनसब्स्क्राइब का ऑप्शन जरूर दें। - ईमेल को कम शब्दों में और बेहतर लेआउट के साथ डिजाइन करें। मेल पढ़ने में जितना आसान और दिखने में जितना खूबसूरत होगा काम उतना ही आसान होगा। - ईमेल भेजने की टाइमिंग का भी ध्यान रखें। कोई भी सुबह-सुबह प्रमोशनल ईमेल नहीं देखना चाहेगा। बेहतर होगा लंच टाइम या शाम को भेजें। - ईमेल में कॉन्टैक्ट के लिए दिया गया मेल आईडी ऑफिशल वेब अड्रेस (name@yourcompany.com) होना चाहिए। जीमेल या किसी और मेल सर्विस के इस्तेमाल करने से विश्वसनीयता में कमी आती है। - ईमेल पर दिए गए हर कॉन्टैक्ट पर पूरी तरह से अलर्ट रहना चाहिए जिससे बिजनेस के किसी भी मौके को भुनाया जा सके।

कितने में मिलेगा कंपनी का ईमेल - जब भी कोई वेबसाइट बनवाता है तो उसमें वेब होस्टिंग के साथ ही ईमेल सर्विस भी मिलती है, लेकिन यह बहुत बेसिक किस्म की होती है और इसके फीचर्स भी काफी कम होते हैं। - जीमेल से लेकर माइक्रोसॉफ्ट तक ईमेल होस्ट करने की सुविधा उपलब्ध कराते हैं। इसमें बेहतरीन फीचर्स के साथ ही काफी स्टोरेज स्पेस रहता है। एक ईमेल आईडी के लिए 150 रुपये महीने से शुरू होकर बड़े बिजनेस प्लान के लिए हजारों रुपये महीने तक जाती है। - ऑन्ट्रप्रनर सलूशन उपलब्ध करने वाली कई कंपनियां वेबसाइट के हिसाब से कस्टमाइज्ड वेब होस्टिंग सर्विसेज भी उपलब्ध करवाती हैं। इनका सहारा भी लिया जा सकता है। हालांकि यह खर्चीला होता है। कितना खर्च होगा आउटसोर्स करने में: ईमेल करने का काम अगर किसी दूसरी कंपनी को देंगे तो इसका खर्च 2-5 पैसे प्रति ईमेल तक आता है। मेलर डिजाइन करवाने का खर्च क्वॉलिटी के हिसाब से हजारों में हो सकता है।

सोशल मीडिया का उठाएं फायदा बिजनेस को ज्यादा-से-ज्यादा कस्टमर तक पहुंचाने के लिए टूल के तौर पर सोशल मीडिया का नाम सबसे पहले आता है। हाल यह है कि अगर किसी कंपनी का ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम या लिंक्ड्इन पर प्रोफाइल नहीं होता तो उनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो जाते हैं। अच्छी बात यह है कि हर सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म का अलग-अलग तरीके से बिजनेस प्रमोशन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। बस जरूरत है इसे इसे अच्छी तरह समझ कर इस्तेमाल करने की। सोशल मीडिया पर बिजनेस को प्रमोट करने के लिए अब कई कंपनियां भी आ गई हैं। ये हर महीने के हिसाब से पैसे लेती हैं और बिजनेस को सभी सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म पर प्रमोट करती हैं। इनके रेट 5000 रुपये से 15 हजार रुपये महीने तक होते हैं। सोशल मीडिया को इन कामों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है: - ब्रैंड बिल्डिंग: बिजनेस की शुरुआत से ही सोशल मीडिया पर अगर कंपनी का नाम और छवि साफ-सुथरी और अच्छी है तो उसका फायदा बिजनेस प्रमोशन में ज्यादा मिलता है। - फीड बैक और रिव्यू प्लैटफ़ॉर्म के तौर पर: अपनी सर्विसेज या प्रॉडक्ट्स के बारे में सचाई का सामना करने के लिहाज से सोशल मीडिया काफी अच्छा प्लैटफॉर्म साबित होता है। - सर्वे प्लैटफॉर्म के तौर पर: अगर आपके सोशल मीडिया पेज पर भारी संख्या में ऑडिएंस है तो किसी भी बड़े बदलाव या नई शुरुआत के लिए कस्टमर्स के मूड को भांपा जा सकता है। - कस्टमर से डायरेक्ट कनेक्शन के लिए: सोशल मीडिया कस्टमर के हिसाब से समाधान देने का ऑप्शन देता है। यहां काफी पर्सनलाइज्ड सलूशन दिए जा सकते हैं, जिससे बेहतरीन कस्टमर कनेक्ट का मौका मिलता है।

फेसबुक: फेसबुक पर जाकर अपने बिजनेस का पेज बना कर उसे आसानी से प्रमोट किया जा सकता है। फेसबुक पर बिजनेस प्रमोशन के फ्री और पेड दोनों तरीके हैं: ‌फ्री - फ्री तरीके के तौर पर पर्सनल अकाउंट की तरह बिजनेस अकाउंट बनाया जा सकता है। इसमें बिजनेस प्रमोशन के तौर पर सामान्य जानकारी के साथ ही नए ऑफर्स क्रिएट किए जा सकते हैं। - फेसबुक पर अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में बिजनेस पेज को प्रमोट करके आगे प्रमोट करने के लिए कहा जा सकता है। पेड सर्विस - अपने फ्री अकाउंट को ही आप पेड अकाउंट में तब्दील कर सकते हैं। - इसके लिए फेसबुक बाकायदा टारगेटेड ऑडियंस के हिसाब से प्रमोशन टूल उपलब्ध कराती है। - इसमें फेसबुक अपने पर्सनल अनालिसिस के जरिए उन लोगों तक आपके पोस्ट और बिजनेस को लेकर जाती है, जिन्हें इसकी जरूरत हो सकती है। - इसके लिए फेसबुक लोगों तक पहुंच के हिसाब से चार्ज करता है। मिसाल के तौर पर अगर आपके बिजनेस मेसेज को 100 लोगों तक पहुंचाना है, तो 500 रुपये पड़ते हैं। जैसे-जैसे लोगों तक पहुंच बढ़ती जाएगी रेट भी बढ़ते जाते हैं। महंगे प्रमोशन का इस्तेमाल बिजनेस के बड़े होने पर ही कारगर रहता है।

ऐसे होगा फेसबुक पर बिजनेस हिट - दिन में 7 से ज्यादा प्रमोशनल पोस्ट न करें। इनमें 1 ही डायरेक्ट आपके बिजनेस के बारे में बात करती हुई पोस्ट हो, बाकी पोस्ट ब्रैंड के हिसाब से हल्की-फुल्की या ज्ञानवर्धक बना कर डालें, लेकिन इनमें अपने बिजनेस का जिक्र न करें। इससे लोग आपसे जुड़े रहेंगे। मसलन, अगर सिर्फ बिजनेस प्रमोट करते रहेंगे तो आप लोगों से लोग झल्ला कर पीछा छुड़ा लेंगे। - ऐसी पोस्ट करें जिससे लोग आपसे बात करें। मसलन आप लोगों से अगर फिटनेस से जुड़ी इंडस्ट्री का बिजनेस है तो अपने फेवरिट फिट सिलेब्रिटी के बारे में पूछ सकते हैं। इससे लोग पेज पर ज्यादा एंगेज होते हैं। - मजेदार फैक्ट्स को सवाल-जवाब की तरह पेश करें। अपने ब्रैंड के एक्सपीरियंस भी शेयर कर सकते हैं। - लोग आपके पेज को तभी लाइक करेंगे जब उन्हें इसका रोजमर्रा में कोई फायदा नजर आएगा। इसलिए कुछ भी पोस्ट करने से पहले सोचें कि इसका कस्टमर को क्या फायदा होगा? - अपने बिजनेस को आगे बढ़ाने के लिए बिजनेस लैंग्वेज का सही यूज करें। घिसे-पिटे टाइप के बिजनेस मेसेज लोगों को बहुत बोर करते हैं।

ट्विटर: सीमित शब्दों (140 शब्द) में लिखने की पाबंदी ही इस प्लैटफॉर्म की खासियत है और यही इसकी सीमा भी है। यहां पर बिजनेस को अपने ऑडियंस के हिसाब से काफी सटीक तरीके से प्रमोट किया जा सकता है। इसकी भी फ्री और पेड दोनों ही तरह की सर्विस उपलब्ध हैं। फ्री - फ्री सर्विस के तौर पर ट्विटर पर लॉगइन करने पर तकरीबन सभी सर्विसेज मिलने लगती हैं। मिसाल के तौर पर सर्वे क्रिएट करना, इनसाइट देख पाना आदि। - आमतौर पर इस तरह आप ट्वीट के जरिए उन लोगों तक ही पहुंच सकते हैं जो आपको फॉलो कर रहे हैं। इसलिए शुरुआत में फॉलोअर बढ़ाने पर फोकस करना पड़ेगा। पेड - अगर आप अपने ट्वीट्स को उन लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं जो आपको फॉलो नहीं कर रहे हैं तो पेड सर्विस के लिए रजिस्टर करना होगा। इसका ऑप्शन भी अकाउंट बनाने के साथ ही मिल जाता है। अपने फ्री अकाउंट को भी पेड अकाउंट में तब्दील कर सकते हैं। - इसमें आपकी कंपनी का ट्वीट जरूरतमंद कस्टमर के पेज पर Sponsored ट्वीट की तरह नजर आएगा। - ट्विटर पर पेड सर्विस लेने पर ज्यादा इनसाइट देखने को मिलते हैं मिसाल के तौर पर हर हफ्ते के हिसाब से पता चलता रहता है कि आपके ट्वीट पर कितने क्लिक हुए और कितने लोगों तक आपकी पहुंच हुई। - ट्विटर बिजनेस और बजट के हिसाब से कस्टमाइज्ड सलूशन देता है। खर्च 150 रुपये रोज से 1000 रुपये रोज तक हो सकता है। ऐसे बनेगा बिजनेस ट्विटर फ्रेंडली - अपने ट्विटर हैंडल का नाम आसान और टाइप करने में सहूलियत भरा रखें। हो सके तो अंडर स्कोर या अलग-अलग तरह के सिंबल डालने से बचें। - ट्वीट चाहें जिस भाषा में करें, लेकिन उसे आसान और सटीक रखें। - अगर लोकल लैंग्वेज में ट्वीट करें तो यह भी बेहतर होगा कि उसे अंग्रेजी में भी ट्वीट करें। इससे ज्यादा ऑडियंस तक पहुंचा जा सकता है। - अपने बिजनेस से जुड़े बड़े लोगों को फॉलो करें और हो सके तो उन्हें रीट्वीट भी करें। इससे आपके खुलेपन का अहसास होता है। - लोग ट्विटर हैंडल का इस्तेमाल शिकायत करने के लिए खूब करते हैं। ऐसे में अगर आप शिकायतें नहीं संभाल सकते तो बेहतर होगा कि ट्विटर पर न जाएं। जैसे ही कोई शिकायत आए फौरन रिएक्शन दें। इससे आपकी छवि एक जिम्मेदार कंपनी की बनती है।

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बिजनेस शुरू करने से पहले जानें कानून का फंडा

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स्टार्टअप शुरू करने के बाद सबसे बड़ी चुनौती उससे जुड़ी औपचारिकताओं को पूरा करने की है। रजिस्ट्रेशन की रस्सी जकड़ने लगती है तो परमिशन का पंगा निपटाने में पसीने छूट जाते हैं। एक्सपर्ट्स की मदद से अमित मिश्रा बता रहे हैं कैसे निपटें स्टार्टअप के आड़े आने वाली लीगल अड़चनों से: बूझें स्टार्टअप की लीगल पहेली अक्सर देखने में आता है जब कोई स्टार्टअप बड़ा होने लगता है तो रजिस्ट्रेशन और परमिशन के भंवर में फंस कर रह जाता है। इससे बचने का सही तरीका यह है कि शुरुआत से ही कुछ वक्त और पैसा अपनी कंपनी के हिसाब से इनवेस्ट करें। स्टार्टअप की शुरुआत में दो तरह की कानूनी अड़चनें आती हैं: - रजिस्ट्रेशन: यह मुख्यरूप से वह कानूनी दस्तावेज होता है जो कंपनी की वैधता, उसके अधिकार और कार्यक्षेत्र के बारे में बताता है। इन रजिस्ट्रेशन के जरिए सरकार भी सुनिश्चित करती है कि बनाई जा रही कंपनी सभी तरह के जरूरी टैक्स भरे और मानकों पर खरी उतरे। - परमिशन : कई ऐसे स्टार्टअप होते हैं जिनसे आम लोगों पर सीधा असर पड़ता है, मिसाल के तौर पर खाने का सामान बनाने वाली कंपनी को फूड सेफ्टी की परमिशन की जरूरत होती है। ठीक इसी तरह लेदर के सामान बनाने वाली कंपनी को इन्वॉयरनमेंट सर्टिफिकेट की जरूरत होती है।

रजिस्ट्रेशन की न लें टेंशन किसी भी कंपनी को तीन स्वरूपों में चलाया जा सकता है: 1. फर्म यह दो तरह की होती हैं: सोल प्रोप्राइटरशिप फर्म और पार्टनरशिप फर्म सोल प्रोपराइटरशिप फर्म कंपनी खोलने का यह सबसे आसान तरीका है। अगर आप अकेले कंपनी के ओनर हैं तो किसी भी बैंक में कंपनी का करंट अकाउंट खोल सकते हैं। चूंकि इस खाते को चलाने वाले के सिग्नेचर के साथ खोला जाता है इसलिए वही उसे ऑपरेट करता है। मूल रूप से यह खाता होता तो कंपनी के नाम का है लेकिन इसे ऑपरेट कंपनी का ओनर करता है। आरबीआई की गाइडलाइंस के हिसाब से इस तरह का अकाउंट खोलने के लिए इन चीजों की जरूरत होती है। वैट रजिस्ट्रेशन अगर कोई प्रॉडक्ट ऑनलाइन या दुकान में बेचना चाहते हैं तो वैट रजिस्ट्रेशन कराएं। यह राज्य सरकार का टैक्स वसूलने का प्रोसेस है जिसके जरिए तय टैक्स सामान बेचने वाला कस्टमर से लेता है और उसे सरकार को दे देता है। वक्त लगता है: 1 हफ्ता खर्च: 5-10 हजार रुपये सर्विस टैक्स रजिस्ट्रेशन वो फर्म या कंपनी जिसका सालाना टर्नओवर 9 लाख रुपये से ज्यादा हो तो उसे सर्विस टैक्स का रजिस्ट्रेशन करवाना जरूरी हो जाता है। बेहतर होगा कंपनी की शुरुआत में ही इसे करा लें। कई बार क्लाइंट बढ़ते ही लिमिट के दायरे से बाहर हो जाने पर नोटिस आने का खतरा बना रहता है। वक्त लगता है: 1 हफ्ता खर्च: 2-4 हजार रुपये सीए सर्टिफिकेट कई बैंक सर्टिफाइड सीए के द्वारा लिखे गए लेटर पर भी करंट अकाउंट खोल देते हैं। इस लेटर में सीए बिजनेस के नेचर के बारे में लिख कर देता है। यह करंट अकाउंट खुलवाने का सबसे आसान तरीका है लेकिन बैंक की इच्छा पर निर्भर करता है। ऊपर दी गई तीन चीजों में से कोई दो अकाउंट खुलवाने के लिए काफी हैं। अकाउंट खुलवाने से पहले बैंक से डॉक्युमेंट की सही जानकारी ले लें। अक्सर बैंकें अपनी सहूलियत के हिसाब से नियम कायदे बनाती हैं।

2. पार्टनरशिप फर्म इसके लिए दो तरीकों को आजमाया जा सकता है। 1. पार्टनर तय होने के बाद 500 रुपये के स्टांप पेपर पर तय फॉर्मेट में पार्टनरशिप डीड बनवाई जा सकती है। 2. इसके अलावा नजदीकी रजिस्ट्रार ऑफ फर्म्स के ऑफिस जाकर भी डीड को रजिस्टर कराया जा सकता है। वक्त लगता है: 5-7 दिन खर्च: वैसे तो सरकारी तौर पर इसमें कोई खर्च नहीं होता लेकिन अगर सुविधा के जरिए करवाएंगे तो 3-4 हजार रुपये का खर्च आ जाता है।

2. LLP या लिमिटेड लाइबल पार्टनरशिप देश में इस नए कॉन्सेप्ट की शुरुआत 2009 में उन कंपनियों को ध्यान में रख कर हुई जो पार्टनरशिप और कंपनी दोनों के स्वरूप की कंपनियों को ध्यान में रख कर किया गया। यह स्टार्टअप के लिए काफी अच्छा कॉन्सेप्ट है। इस रजिस्ट्रेशन के जरिए प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के मुकाबले ज्यादा फायदे मिलते हैं। स्टार्टअप के हिसाब से इस तरह की कंपनी को लोन या सरकारी योजनाओं में फायदा मिलने के साथ ही साल के अंत में कम कागजी कार्यवाही करनी होती है। कंपनी की तरह रजिस्टर स्टार्टअप को जहां मिनिस्ट्री ऑफ कंपनी अफेयर्स को हर चीज के बारे में सूचित करना पड़ता है वहीं LLP की तरह रजिस्टर कंपनी को साल में सिर्फ 2 स्टेटमेंट रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी को भेजने होते हैं। वक्त लगता है: तकरीबन 15 दिन खर्च: 9-10 हजार

3. कंपनी किसी भी स्टार्टअप को कंपनी की तरह रजिस्टर करवाने के दो तरीके होते हैं। वन पर्सन कंपनी जैसा कि इसके नाम से पता चल रहा है कोई एक डायरेक्टर के तौर पर इस तरह से रजिस्ट्रेशन करवा सकता है। इसमें कम से कम 1 डायरेक्टर या ज्यादा 15 डायरेक्टर हो सकते हैं। यह सोल प्रोप्राइटर शिप और कंपनी का मिलजुला रूप है। कितना वक्त लगता है: प्राइवेट लिमिटेड कंपनी यह कंपनी रजिस्ट्रेशन का पारंपरिक तरीका है। इसमें कम से कम 2 डायरेक्टरों की जरूरत होती है। कितना वक्त लगता है: 20 दिन से 1 महीना खर्च: 12 हजार रुपये तकरीबन कंपनी रजिस्ट्रेशन फायदे: - तेजी से बढ़ते स्टार्टअप को प्राइवेट फंडिंग में आसानी - बाकी तरह के रजिस्ट्रेशन से प्राइवेट लिमिटेड की तरह कंपनी रजिस्ट्रेशन करवाने से लोगों में ज्यादा भरोसा कायम होता है। - कंपनी में इक्विटी बेचना आसान रहता है। - फैसले लेना काफी आसान हो जाता है। दिक्कतें: - काफी कागजी काम बढ़ जाता है। - रजिस्ट्रेशन में बाकी तरह के रजिस्ट्रेशन से ज्यादा खर्च होता है। - ज्यादा डायरेक्टर होने से फैसले लेने में देरी होती है। - पब्लिक से इन्वेस्टमेंट नही ले सकते। इनका रखें ख्याल - अगर बजट कम है तो सोल प्रोप्राइटरशिप या पार्टनरशिप की तरह फर्म रजिस्टर कराएं और बिजनेस बढ़ने के बाद इसे LLP या कंपनी में कनवर्ट करवा लें। यह काम 5 हजार रुपये के भीतर ही हो जाएगा। - अगर बजट 10 हजार रुपये तक है तो LLP में रजिस्ट्रेशन करवा कर बढ़ने पर प्राइवेट लिमिटेड में कनवर्ट करवा लें। - अगर कंपनी बड़ी है और बजट 20 हजार तक है तो किसी अच्छे सीए को हायर करें जो कंपनी का कागजी काम अच्छी तरह से कर सकें।

ये क्लियर तो सब क्लियर अपनी कंपनी शुरू करने से पहले कई बार खास मिनिस्ट्री या डिपार्टमेंट से क्लियरेंस लेना होता है। इनमें मुख्य हैं: इन्वॉयरनमेंट क्लियरेंस और फूड सेफ्टी क्लियरेंस इन्वॉयरनमेंट क्लियरेंस - किसी भी इंडस्ट्रियल सेटअप को लगाने से पहले इस तरह का क्लियरेंस लेना पड़ता है। इन इलाकों में इंडस्ट्री लगाने के लिए परमिशन लेने होता है: .धार्मिक या एतिहासिक जगह . पुरातत्व साइट . पहाड़ी जगह . बीच रेसॉर्ट . समुद्र तट का ऐसा एरिया जहां पर सामुद्रिक पेड़-पौधे और जनजीवन पनप रहा है . वह जगह जहां पर नदियां समंदर से मिलती हैं . बायोस्फियर रिजर्व . नैशनल पार्क और सेंचुरी . राष्ट्रीय झील या बाढ़ एरिया . भूकंप प्रभावित क्षेत्र . ऐसा एरिया जिसमें साइंटिफिक और जियॉलजी रिसर्च का काम चल रहा हो . डिफेंस या सिक्युरिटी के लिहाज से सेंसटिव एरिया . अंतर्राष्ट्रीय बॉर्डर . एयरपोर्ट

क्या है प्रोसेस इन्वॉयरनमेंट क्लियरेंस का काम कई स्टेज पर होता है। - स्क्रीनिंग: किसी भी साइट पर कुछ बनाने से पहले उसे स्क्रीनिंग के लिए डिपार्टमेंट के पास अर्जी देनी होती है। इसमें डिपार्टमेंट यह देखता है कि कहीं इंडस्ट्री के बनने से इलाके के पर्यावरण को नुकसान तो नहीं पहुंच रहा। अगर इस स्टेज पर डिपार्टमेंट कोई आपत्ति करता है तो दूसरी साइट चुननी होती है। - स्कोपिंग: इस स्टेज में इन्वॉयरनमेंट इंपैक्ट असेसमेंट रिपोर्ट दी जाती है। यह काम सेंट्रल गवर्मेंट करती है। इस रिपोर्ट में पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव के हिसाब से इंडस्ट्रीज को B1 और B2 कैटिगरी में बांटा जाता है। B2 कैटिगरी वाली कंपनियों के असेसमेंट की आगे जरूरत नहीं रहती। B1 कैटिगरी वाली कंपनियों को स्टेट पल्यूशन कंट्रोल बोर्ड (SPCB) के पास भेज दिया जाता है। इसके बाद डिटेल्स की पड़ताल फॉरेस्ट विभाग भी करता है। इनसे एनओसी मिलने के बाद रिक्वेस्ट अगले स्टेज में जाती है। - पब्लिक हियरिंग: इसके बाद जिस इलाके में इंडस्ट्री लगनी है वहां के चुनिंदा रहने वालों के सामने केस को ले जाया जाता है। इसके लिए एक मीटिंग बुलाई जाती है। अगर कोई ऑब्जेक्शन हो तो उन्हें सुन कर फाइनल क्लियरेंस दिया जाता है। कितना वक्त लगता है: इस पूरे प्रॉसेस में 4-5 महीने लगते हैं। कितने दिनों तक वैलिड: यह क्लियरेंस 5 साल के लिए होता है। इसके बाद इसे रिन्यू कराना पड़ता है।

फूड सेफ्टी क्लियरेंस अगर किसी भी तरह के खाने के सामान से जुड़ा स्टार्टअप शुरू कर रहे हैं मिसाल के तौर चिप्स या वेफर्स, तो इसके लिए सरकार के फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड ऑफ इंडिया में रजिस्ट्रेशन की जरूरत होती है। इसके लिए foodlicensing.fssai.gov.in पर पूरी जानकारी मिल सकती है साथ ही रजिस्ट्रेशन का प्रोसेस भी शुरू किया जा सकता है। - यह रजिस्ट्रेशन सेंट्रल और स्टेट में अलग-अलग कराना होता है। - जितनी स्टेट में बिजनेस है उतने स्टेट में रजिस्ट्रेशन करवाना होता है। कितना वक्त लगता है: तकरीबन 1 महीना खर्च: 8 हजार से 10 हजार रुपये तक - रजिस्ट्रेशन या क्लियरेंस 1 साल तक वैध रहता है।

पेटेंट का फंडा पेटेंट किसी इनवेंटर यानी आविष्कारक को ये अधिकार देता है कि कोई भी दूसरा इंसान उसकी सहमति के बिना उस आविष्कार को अगले 20 वर्षों तक न बना सकता है, न इस्तेमाल कर सकता है और न ही बेच सकता है। पेटेंट, इनवेंटर को ये अधिकार देता है कि वो अपने आइडिया के आधार पर प्रॉडक्ट को बाजार में ला सके या किसी दूसरे को ऐसा करने का लाइसेंस देकर पैसे कमा सके। पेटेंट 3 तरह के होते हैं :

यूटिलिटी पेटेंट: ये यूजफुल प्रॉसेस, मशीन, प्रॉडक्ट का कच्चा माल, किसी चीज का कंपोजिशन या इनमें से किसी में भी सुधार को सुरक्षित करता है। मिसाल के तौर पर : फाइबर ऑप्टिक्स, कंप्यूटर हार्डवेयर, दवाइयां आदि।

डिजाइन पेटेंट : ये प्रॉडक्ट के नए, ओरिजिनल और डिजाइन के गैर कानूनी इस्तेमाल को रोकता है। जैसे कि किसी एथलेटिक शूज का डिजाइन, बाइक का हेलमेट या कोई कार्टून कैरेक्टर, सभी डिजाइन पेटेंट से प्रोटेक्ट किए जाते हैं।

प्लांट पेटेंट : इसके जरिए नए तरीकों से तैयार की गई पेड़-पौधों की वैराइटी को प्रोटेक्ट किया जाता है। हाइब्रिड गुलाब, सिल्वर क्वीन भुट्टा और बेटर बॉय टमाटर आदि प्लांट पेटेंट के उदाहरण हैं। यहां गौर करने वाली बात ये है कि आप किसी आविष्कार के अलग-अलग पहलुओं के लिए यूटिलिटी और डिजाइन दोनों तरह के पेटेंट फाइल कर सकते हैं।

इनका नहीं होता पेटेंट - प्रकृति के नियम (हवा और गुरुत्वाकर्षण) नेचरल चीजें (मिट्टी, पानी) भाववाचक (एब्स्ट्रैक्ट) आइडिया (मैथमेटिक्स, कोई फिलॉसफी ) लिट्रेचर, नाटक, म्यूजिक जैसे क्रिएटिव काम को कॉपीराइट के जरिए प्रोटेक्ट किया जाता है।

इनका हो सकता है पेटेंट - ऐसे आविष्कार जोः 1.अनोखा या नया हो 2. सबसे अलग : इसका मतलब है कि आविष्कार पूरी तरह से अलग होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर, किसी दवा के किसी तत्व या आकार में बदलाव करके पेटेंट नहीं कराया जा सकता। पेटेंट हासिल करने के लिए आपका आष्किार पूरी तरह से नया होना चाहिए, जो पहले कभी नहीं बना। 3. ऐसे आविष्कार, जो यूजफुल हों। आपका गैजट काम का होना चाहिए और कोई उपयोगी उद्देश्य पूरा करता हो और जो दावे किए गए हों उन पर यह प्रैक्टिकली खरा उतरता हो।

ऐसे फाइल करें पेटेंट ऐप्लिकेशन : पेटेंट ऐप्लिकेशन में शामिल होते हैं : - एक लिखित डॉक्युमेंट, जिसमें आपके इनवेंशन की खासियतें लिखी होती हैं और घोषणापत्र होता है। अगर जरूरी हो तो ड्रॉइंग भी देना होता है। -10 क्लेम और 30 पेजों में अगर कोई शख्स पेटेंट फाइल करता है तो 1000 रुपये लगते हैं लेकिन अगर ऑर्गनाइजेशन फाइल करता है तो 4000 रुपये लगते हैं। अगर क्लेम 10 से ज्यादा हैं तो किसी शख्स को हर एक्स्ट्रा क्लेम पर 200 रुपये और ऑर्गनाइजेशन को 800 रुपये भरने होंगे। इसी तरह पेजों की संख्या बढ़ने पर हर शख्स से 100 रुपये प्रति एक्स्ट्रा पेज और ऑर्गनाइजेशन को 400 रुपये प्रति एक्सट्रा पेज देने होंगे। - ऐप्लीकेशन फाइल करने से पहले आविष्कार को लेकर पूरी तरह से निश्चिंत हो लें। हर डॉक्युमेंट को तैयार रखें, जरा-सी चूक आपके इंतजार को और बढ़ा सकती है। - पेटेंट जारी होने में 3 साल तक का वक्त लग सकता है। अगर आप पेटेंट एक्सपर्ट नहीं हैं तो पहली बार में पेटेंट ऐप्लिकेशन रिजेक्ट होने की आशंका ज्यादा रहती है, हालांकि इसमें जरूरी सुधार करके आप दोबारा कोशिश कर सकते हैं।

ऐसे मिलता है पेटेंट - आविष्कार करने वाला या उसकी तरफ से नियुक्त कोई भी पेटेंट के लिए ऐप्लिकेशन दे सकता है। अपने ऐप्लीकेशन में अपने इनवेंशन के बारे में पूरी और स्पष्ट जानकारी दें। यह बताएं कि यह किस प्रकार से नया, अनोखा और यूजफुल है। - अगर दो या इससे अधिक लोगों ने मिलकर कोई आविष्कार किया है तो पेटेंट ऐप्लिकेशन पर सभी इनवेंटर्स का नाम लिखा होना चाहिए। - पेटेंट के लिए फाइल किए गए इनवेंटर के ऐप्लिकेशन की पूरी जांच की जाती है। पेटेंट एग्जामिनर यह सुनिश्चित करता है कि ऐप्लिकेशन सभी योग्यताएं पूरी करता हो। - जांच के 18 महीने के भीतर इसे पेटेंट अथॉरिटी अपने वीकली जर्नल और वेबसाइट पर आम लोगों के लिए पब्लिश करके ऑब्जेक्शन का इंतजार करती है। - जिसने पेटेंट का ऐप्लीकेशन दिया है, उसे ऐप्लीकेशन के 48 महीने के भीतर पेटेंट एग्जामिनेशन के लिए रिक्वेस्ट करनी होती है। - संबंधित अधिकारी सभी ऑब्जेक्शन और सवालों को फिर एप्लिकेंट के पास भेज कर जवाब मांगता है। - इसके लिए डॉक्यूमेंट दाखिल करने के लिए 12 महीने का वक्त मिलता है। अगर आप अथॉरिटी को संतुष्ट नहीं कर सके तो ऐप्लीकेशन रिजेक्ट कर दी जाएगी। - यह बात भी याद रखें कि एग्जामिनर द्वारा कोई पहलू छूट जाने की हालत में बाद में भी आपका ऐप्लिकेशन वापस हो सकता है। - खास बात यह है कि पेटेंट रजिस्ट्रेशन के लिए आप एजेंट की मदद भी ले सकते हैं। ध्यान रहे कि ऐसे पेटेंट एजेंट को ही चुनें, जो कंट्रोलर जनरल ऑफ पेटेंट्स डिजाइन और ट्रेडमार्क से सर्टिफाइड हो। - आप ऑनलाइन ऐप्लीकेशन भी फाइल कर सकते हैं। इसके लिए www.ipindia.nic.in पर जाकर Patent सेक्शन में जाकर Comprehensive eFiling Services for Patents पर जाएं। - गौरतलब है कि भारत में कराया हुआ पेटेंट दुनिया भर में मान्य नहीं होता। दुनिया के दूसरे देशों में आपको अलग से पेटेंट फाइल करना पड़ेगा। - कुछ देशों के साथ भारत की पेटेंट ट्रीटी है। जिसके तहत आप यहां दी गई पेटेंट ऐप्लीकेशन के साथ ही कोलकाता, चेन्नै, मुंबई और दिल्ली के पेटेंट ऑफिसों में दे सकते हैं। इनकी डिटेल जानकारी www.ipindia.nic.in पर मिल सकती है। - अक्सर देखने को मिलता है कि पेटेंट मिलने की प्रक्रिया के दौरान लोग 'Patent Pending' या 'Patent Applied For' लिख कर काम करते रहते हैं। लेकिन इसकी कोई कानूनी वैधता नहीं होती है। इस पीरियड के दौरान पेटेंट वॉयलेशन को लेकर कोई कानूनी कदम नहीं उठाया जा सकता।

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टीबी से कैसे करें बचाव, क्या हैं लक्षण, जानें सब...

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सुपरस्टार अमिताभ बच्चन ने हाल में खुलासा किया कि एक वक्त वह टीबी से पीड़ित थे और इलाज से पूरी तरह ठीक हो गए। बेशक टीबी किसी को भी हो सकती है लेकिन सही इलाज से यह पूरी तरह ठीक हो जाती है। 24 मार्च यानी गुरुवार को वर्ल्ड टीबी डे है। इस मौके पर टीबी से बचाव और इलाज पर एक्सपर्ट्स से बात करके पूरी जानकारी दे रही हैं प्रियंका सिंह:

एक्सपर्ट्स पैनल-

डॉ. के. के. अग्रवाल, सेक्रेटरी जनरल, इंडियन मेडिकल असोसिएशन डॉ. राजकुमार, हेड, एलर्जी एंड इम्युनोलॉजी डिपार्टमेंट, पटेल चेस्ट इंस्टिट्यूट डॉ. संदीप नायर, एचओडी, रेस्पिरेटरी मेडिसिन, बी. एल. कपूर हॉस्पिटल डॉ. अतुल मिश्रा, अडिशनल डायरेक्टर, ऑर्थोपीडिक, फोर्टिस

टीबी बैक्टीरिया से होनेवाली बीमारी है, जो हवा के जरिए एक इंसान से दूसरे में फैलती है। यह आमतौर पर फेफड़ों से शुरू होती है। सबसे कॉमन फेफड़ों की टीबी ही है लेकिन यह ब्रेन, यूटरस, मुंह, लिवर, किडनी, गला, हड्डी आदि शरीर के किसी भी हिस्से में हो सकती है। टीबी का बैक्टीरिया हवा के जरिए फैलता है। खांसने और छींकने के दौरान मुंह-नाक से निकलने वालीं बारीक बूंदों से यह इन्फेक्शन फैलता है। अगर टीबी मरीज के बहुत पास बैठकर बात की जाए और वह खांस नहीं रहा हो तब भी इसके इन्फेक्शन का खतरा हो सकता है। हालांकि फेफड़ों के अलावा बाकी टीबी एक से दूसरे में फैलनेवाली नहीं होती और आम विश्वास के उलट यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली बीमारी भी नहीं है।

नुकसान

टीबी का बैक्टीरिया शरीर के जिस भी हिस्से में होता है, उसके टिश्यू को पूरी तरह नष्ट कर देता है और इससे उस अंग का काम प्रभावित होता है। मसलन फेफड़ों में टीबी है तो फेफड़ों को धीरे-धीरे बेकार कर देती है, यूटरस में है तो इनफर्टिलिटी (बांझपन) की वजह बनती है, हड्डी में है तो हड्डी को गला देती है, ब्रेन में है तो मरीज को दौरे पड़ सकते हैं, लिवर में है तो पेट में पानी भर सकता है आदि।

लक्षण

2 हफ्ते से ज्यादा लगातार खांसी, खांसी के साथ बलगम आ रहा हो, कभी-कभार खून भी, भूख कम लगना, लगातार वजन कम होना, शाम या रात के वक्त बुखार आना, सर्दी में भी पसीना आना, सांस उखड़ना या सांस लेते हुए सीने में दर्द होना, इनमें से कोई भी लक्षण हो सकता है और कई बार कोई लक्षण नहीं भी होता

कैंसर या ब्रॉन्काइटिस से अलग कैसे टीबी के कई लक्षण कैंसर और ब्रॉन्काइटिस के लक्षणों से भी मेल खाते हैं। ऐसे में यह तय करना डॉक्टर के लिए जरूरी होता है कि इन लक्षणों की असल वजह क्या है। वैसे, तीनों बीमारियों में फर्क बतानेवाले प्रमुख लक्षण हैं:

- ब्रॉन्काइटिस में सांस लेने में दिक्कत होती है और सांस लेते हुए सीटी जैसी आवाज आती है।

- कैंसर में मुंह से खून आना,

- वजन कम होना जैसी दिक्कतें हो सकती है लेकिन आमतौर पर बुखार नहीं आता।

- टीबी में सांस की दिक्कत नहीं होती और बुखार आता है।

किसको खतरा ज्यादा

अच्छा खान-पान न करने वालों को टीबी ज्यादा होती है क्योंकि कमजोर इम्यूनिटी से उनका शरीर बैक्टीरिया का वार नहीं झेल पाता। जब कम जगह में ज्यादा लोग रहते हैं तब इन्फेक्शन तेजी से फैलता है। अंधेरी और सीलन भरी जगहों पर भी टीबी ज्यादा होती है क्योंकि टीबी का बैक्टीरिया अंधेरे में पनपता है। यह किसी को भी हो सकता है क्योंकि यह एक से दूसरे में संक्रमण से फैलता है। स्मोकिंग करने वाले को टीबी का खतरा ज्यादा होता है। डायबीटीज के मरीजों, स्टेरॉयड लेने वालों और एचआईवी मरीजों को भी खतरा ज्यादा। कुल मिला कर उन लोगों को खतरा सबसे ज्यादा होता है जिनकी इम्यूनिटी (रोग प्रतिरोधक क्षमता ) कम होती है।

डायग्नोसिस कैसे

शरीर के जिस हिस्से की टीबी है, उसके मुताबिक टेस्ट होता है। - फेफड़ों की टीबी के लिए बलगम जांच होती है, जोकि 100-200 रुपये तक में हो जाती है। सरकारी अस्पतालों और डॉट्स सेंटर पर यह फ्री की जाती है। - बलगम की जांच 2 दिन लगातार की जाती है। ध्यान रखें कि थूक नहीं, बलगम की जांच की जाती है। अच्छी तरह खांस कर ही बलगम जांच को दें। थूक की जांच होगी तो टीबी पकड़ में नहीं आएगी। - अगर बलगम में टीबी पकड़ नहीं आती तो AFB कल्चर कराना होता है। यह 2000 रुपये तक में हो जाती है। लेकिन इनकी रिपोर्ट 6 हफ्ते में आती है। ऐसे में अब जीन एक्सपर्ट जांच की जाती है, जिसकी रिपोर्ट 4 घंटे में आ जाती है। इस जांच में यह भी पता चल जाता है कि किस लेवल की टीबी है और दवा असर करेगी या नहीं। सरकार ने इस टेस्ट के लिए 2000 रुपये की लिमिट तय की हुई है। कई बार छाती का एक्स-रे भी किया जाता है, जो 200-500 रुपये तक में हो जाता है। किडनी की टीबी के लिए यूरीन कल्चर टेस्ट होता है। यह भी 1500 रुपये तक में हो जाता है। यूटरस की टीबी के लिए सर्वाइकल स्वैब लेकर जांच करते हैं। अगर गांठ आदि है तो वहां से फ्लूइड लेकर टेस्ट किया जाता है। कई बार सीटी स्कैन कराया जाता है, जिस पर 4000 रुपये तक खर्च आता है। - कमर में लगातार दर्द है और दवा लेने के बाद भी फायदा नहीं हो रहा तो एक्सरे-एमआरआई आदि की सलाह दी जाती है। एक्सरे 300-400 रुपये में और एमआरआई 3500 रुपये तक में हो जाती है।

इलाज

टीबी का इलाज पूरी तरह मुमकिन है। सरकारी अस्पतालों और डॉट्स सेंटरों में इसका फ्री इलाज होता है। - सबसे जरूरी है कि इलाज पूरी तरह टीबी ठीक हो जाने तक चले। बीच में छोड़ देने से बैक्टीरिया में दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है और इलाज काफी मुश्किल हो जाता है क्योंकि आम दवाएं असर नहीं करतीं। - इस स्थिति को MDR/XDR यानी मल्टी ड्रग्स रेजिस्टेंट/एक्सटेंसिवली ड्रग्स रेजिस्टेंट कहते हैं। आमतौर पर हर 100 में 2 मामले MDR के होते हैं। MDR के मामलों में से 7 फीसदी XDR के होते हैं, जोकि और भी नुकसानदे है। - प्राइवेट अस्पतालों में भी इसका इलाज ज्यादा महंगा नहीं है। आमतौर पर दवाओं पर महीने में 300-400 रुपये खर्च होते हैं। लेकिन अगर XDR/MDR वाली स्थिति हो तो इलाज महंगा हो जाता है। - टीबी का इलाज लंबा चलता है। 6 महीने से लेकर 2 साल तक का समय इसे ठीक होने में लग सकता है। जनरल और यूटरस की टीबी का इलाज 6 महीने, हड्डी या किडनी की टीबी का 9 महीने और MDR/XDR का 2 साल इलाज चलता है। - इलाज शुरू करने के शुरुआती 2 हफ्ते से लेकर 2 महीने तक भी इन्फेक्शन फैल सकता है क्योंकि उस वक्त तक बैक्टीरिया एक्टिव रह सकता है। ऐसे में इलाज के शुरुआती दौर में भी जरूरी एहतियात बरतना चाहिए। - मरीज इलाज के दौरान खूब पौष्टिक खाना खाए, एक्सरसाइज करे, योग करे और सामान्य जिंदगी जिए।

बचाव कैसे करें?

अपनी इम्युनिटी को बढ़िया रखें। न्यूट्रिशन से भरपूर खासकर प्रोटीन डाइट (सोयाबीन, दालें, मछली, अंडा, पनीर आदि) लेनी चाहिए। कमजोर इम्युनिटी से टीबी के बैक्टीरिया के एक्टिव होने के चांस होते हैं। दरअसल, टीबी का बैक्टीरिया कई बार शरीर में होता है लेकिन अच्छी इम्युनिटी से यह एक्टिव नहीं हो पाता और टीबी नहीं होती। - ज्यादा भीड़-भाड़ वाली जगहों पर जाने से बचें। कम रोशनी वाली और गंदी जगहों पर न रहें और वहां जाने से परहेज करें। - टीबी के मरीज से थोड़ा दूर रहें। कम-से-कम एक मीटर की दूरी बनाकर रखें। - मरीज को हवादार और अच्छी रोशनी वाले कमरे में रहना चाहिए। कमरे में हवा आने दें। पंखा चलाकर खिड़कियां खोल दें ताकि बैक्टीरिया बाहर निकल सके। - मरीज स्प्लिट एसी से परहेज करे क्योंकि तब बैक्टीरिया अंदर ही घूमता रहेगा और दूसरों को बीमार करेगा। - मरीज को मास्क पहनकर रखना चाहिए। मास्क नहीं है तो हर बार खांसने या छींकने से पहले मुंह को नैपकिन से कवर कर लेना चाहिए। इस नैपकिन को कवरवाले डस्टबिन में डालें। - ध्यान रखना चाहिए कि मरीज यहां-वहां थूके नहीं। मरीज किसी एक प्लास्टिक बैग में थूके और उसमें फिनाइल डालकर अच्छी तरह बंद कर डस्टबिन में डाल दें। - मरीज ऑफिस, स्कूल, मॉल जैसी भीड़ भरी जगहों पर जाने से परहेज करे। साथ ही पब्लिक ट्रांसपोर्ट भी यूज करने से बचे।

बच्चों में टीबी

अगर बच्चों को टीबी हो जाए तो काफी घातक होती है। - इसलिए पैदा होते ही बच्चे को BCG का टीका लगाया जाता है। - बच्चे को टीबी हो जाए तो उसके पूरे शरीर में टीबी फैल सकती है। इसे मिलिएरी (miliary) टीबी कहा जाता है। - बच्चे के दिमाग तक इसका असर हो जाए तो उस स्थिति को मैनेंजाइटिस (manengitis) कहा जाता है। यह स्थित घातक हो सकती है।

महिलाओं में टीबी

अगर किसी महिला को यूटरस की टीबी हो जाए तो उसके मां बनने में दिक्कत आती है। हालांकि सही इलाज होने के बाद वह मां बन सकती है। - प्रेग्नेंट महिला को अगर टीबी है तो आमतौर पर यह बीमारी मां से बच्चे को नहीं लगती। - बच्चे को जन्म के फौरन बाद टीबी से बचाव की दवा भी दी जाती है। - दूध पिलाने वाली मां को भी दवा जारी रखनी होती है। बच्चे को दूध आदि पिलाने के दौरान मां को मुंह ढककर रखना चाहिए ताकि बच्चे को इन्फेक्शन न हो।

मरीज क्या करें?

अगर 3 हफ्ते से ज्यादा खांसी है तो डॉक्टर को दिखाएं। - दवा का पूरा कोर्स करें, वह भी नियमित तौर पर। - खांसते हुए मुंह और नाक पर नैपकिन रखें। - न्यूट्रिशन से भरपूर खाना खाएं। - बीड़ी सिगरेट, हुक्का, तंबाकू, शराब आदि से परहेज करें।

क्या न करें?

-खुले में न थूकें।

- सिर्फ एक्सरे पर भरोसा न करें।

-कल्चर टेस्ट कराएं।

- डॉक्टर से पूछे बिना दवा बंद न करें।


क्या है DOTS -

डॉट्स (DOTS) यानी 'डायरेक्टली ऑब्जर्व्ड ट्रीटमेंट शॉर्ट कोर्स' टीबी के इलाज का अभियान है। - इसमें टीबी की मुफ्त जांच से लेकर मुफ्त इलाज तक शामिल है। - इस अभियान में हेल्थ वर्कर मरीज को अपने सामने दवा देते हैं ताकि मरीज दवा लेना न भूले। - हेल्थ वर्कर मरीज और उसके परिवार की काउंसलिंग भी करते हैं। साथ ही, इलाज के बाद भी मरीज पर निगाह रखते हैं। - इसमें 95 फीसदी तक कामयाब इलाज होता है। - दिल्ली एनसीआर में 7 डॉट्स सेंटर और 18 डॉट्स कम माइक्रोस्कोपिक सेंटर हैं।

लापरवाही पर सजा टीबी फैलाने पर सजा का भी प्रावधान है। आईपीसी की धारा 269 और 270 के मुताबिक टीबी का सही से इलाज न कराने और इसे दूसरों तक फैलाने के लिए 6 महीने तक की सजा हो सकती है। XDR टीबी फैलाने पर 1 साल तक की सजा हो सकती है।

मिथ

1. टीबी ठीक नहीं होती या लौट आती है टीबी का इलाज पूरी तरह मुमकिन है। जो लोग ठीक नहीं होते, उसकी वजह बीच में इलाज छोड़ना होता है। ऐसे ही लोगों में यह बीमारी लौटकर आती है। लोग यह भी मानते हैं कि अगर घुटने की टीबी है तो घुटना बदलने पर भी दोबारा टीबी हो जाती है। यह भी गलत है। घुटना बदलने पर घुटने में दोबारा टीबी के चांस ज्यादातर नहीं होते।

2. गरीबों में ही होती है यह बीमारी अमिताभ बच्चन जैसे सुपरस्टार को टीबी होना यह साबित करता है कि यह बीमारी किसी को भी हो सकती है। यह एक से दूसरे को लगती है, इसलिए किसी को और कभी भी हो सकती है। गरीबों में होने की वजह है कि उनकी इम्युनिटी कमजोर होती है। ऐसे में वे जल्दी बैक्टीरिया की चपेट में आ जाते हैं।

3. प्रेग्नेंट महिलाओं को दवा नहीं खानी चाहिए टीबी के इलाज का पूरा कोर्स जरूरी है। प्रेग्नेंसी के दौरान भी मां की दवा जारी रखी जाती है। इन दवाओं का बच्चे पर कोई बुरा असर नहीं होता।

4. सरकारी दवाएं ज्यादा असरदार नहीं सरकारी दवाएं और डॉट्स प्रोग्राम भी प्राइवेट अस्पतालों के इलाज की तरह ही असरदार हैं। दवाओं में कोई फर्क नहीं है। उलटे फायदा यह है कि सरकारी अस्पतालों में ये फ्री मिलती हैं। हां, दवाएं पूरी खानी चाहिए। फर्स्ट लेवल की टीबी के ठीक होने के 95 फीसदी तक चांस होते हैं। लेकिन अगर दवा पूरी न खाएं और टीबी सेकंड लेवल पर चली जाए तो ठीक होने के चांस कम होकर 60 फीसदी ही रह जाते हैं।

5. टीबी सिर्फ फेफड़ों की होती है टीबी शरीर के किसी भी हिस्से में हो सकती है। हालांकि ज्यादा मामले लंग्स की टीबी के होते हैं।



केबीसी के वक्त मुझे थी टीबी कुछ साल पहले मैं टीबी पेशंट था। इस बारे में मैंने कभी खुलकर लोगों के सामने कुछ नहीं कहा लेकिन अब वक्त आ गया है कि मैं सबको इसके बारे में बताऊं। मैं कमजोर महसूस कर रहा था। ब्लड टेस्ट से पता लगा कि मुझे टीबी है। यह 2003 की बात है, जब मैं केबीसी के जरिए अपनी दूसरी पारी शुरू कर रहा था। शूटिंग के पहले दिन पता चला कि मुझे रीढ़ की टीबी है। वह बहुत ही दर्दनाक था। बैठना और लेटना, दोनों ही मुश्किल था। मैं दिन में 8-10 पेनकिलर तक लेता था ताकि शूटिंग पूरी कर सकूं। एक साल के इलाज के बाद मैं पूरी तरह ठीक हो गया। टीबी पूरी तरह ठीक हो सकती है, बशर्ते पूरा इलाज कराएं। मैं खुशनसीब था कि मुझे अच्छा माहौल और बढ़िया खाना मिल सका। - अमिताभ बच्चन, ऐक्टर और 'टीबी फ्री इंडिया' कैंपेन के ब्रैंड ऐंबैसडर

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भारत माता की जय Vs जय हिंद

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क्या भारत माता की जय बोलना देशभक्ति का असली पैमाना है? अगर कोई भारत माता की जय न बोले और जय हिंद या हिंदुस्तान जिंदाबाद कहे तो क्या यह गलत है? इसी मुद्दे पर सोश्ल मीडिया में काफी कुछ लिखा गया है। पेश हैं कुछ विचार:

कहां से आई भारत माता
कहा जाता है कि भारत देश का नाम भारत नामक जैन मुनि के नाम के नाम पर पड़ा। यह भी मान्यता है कि शकुन्तला के बेटे भरत जो बचपन में शेरो के संग खेलकर बड़े हुए, उनके नाम पर देश का नाम भारत पड़ा। यह भी हो सकता है कि राम के भाई भरत के नाम पर भारत नाम पड़ा हो या कृष्ण से 500 साल पहले नाट्यशास्त्र के मशहूर योगी भरत के नाम पर पड़ा हो। जब ये सारे नाम पुल्लिंग हैं तो ये बीच में भारत माता कहां से आ गई?

एक थे अजीमुल्ला खां जिन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती के साथ मिलकर देश के लिए काम किया। आगे चलकर इन्हीं अजीमुल्ला खां ने मादरे वतन भारत की जय का नारा दिया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी मादरे वतन भारत की जय के नारे को मान लिया। बाद में स्वामी दयानन्द ने उन पांच व्यक्तियों को आपसी विमर्श कर संगठित किया, जो आगे चलकर 1857 की क्रान्ति के कर्णधार बने। ये थे: नाना साहेब, अजीमुल्ला खां, बाला साहब, तात्या टोपे, बाबू कुंवर सिंह।

तय किया गया कि फिरंगी सरकार के खिलाफ पूरे भारत देश में सशस्त्र क्रान्ति के लिए आधारभूमि तैयार की जाए। जनसाधारण और आर्यावर्तीय (भारतीय) सैनिकों में इस क्रान्ति की आवाज को पहुंचाने के लिए 'रोटी तथा कमल' की योजना यहीं तैयार की गई। मादरे वतन भारत का नारा भी इस योजना में शामिल किया गया। इस विमर्श में प्रमुख भूमिका स्वामी दयानन्द सरस्वती और अजीमुल्ला खां की ही थी। बाद में यह नारा बंट गया। कांग्रेस में भारत माता की जय, मुस्लिम लीग की सभाओं में मादरे वतन की जय या जय हिन्द। हिन्दू महासभा ने जय हिन्द का नारा पसंद किया जबकि मुस्लिम लीग में मादरे वतन की जय का नारा ही रह गया। इस तरह देखें तो मादरे वतन भारत की जय (भारत माता की जय) नारा हिन्दुओं ने नहीं, मुस्लिमों ने दिया जिसे स्वतंत्रता संघर्ष के समय बिना भेदभाव के हर किसी ने बोला। अब आकर इस नारे को भी विवादित बना दिया गया है।

-आलोक सिन्हा की फेसबुक वॉल से

भारत माता की जय ही क्यों? '
भारत माता की जय' कहने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन यह नारा एक ख़ास विचारधारा के साथ जुड़कर आज अपनी मासूमियत खो चुका है। ऐसा दूसरे नारों के साथ भी हुआ है। जैसे 'जय श्रीराम' भारत में अभिवादन का एक प्रचलित तरीक़ा है वैसा ही जैसा 'सलामु-अलैकुम' है। मगर राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान इसका जैसा इस्तेमाल हुआ और फिर उसका प्रचार हुआ, उससे 'जय श्रीराम' एक युद्धोन्मादी और सांप्रदायिक नारा बन गया।

बाबरी मस्जिद ढहने के बाद कई हिंदुत्ववादी कहते थे, 'जय श्रीराम, हो गया काम'। इसीलिए आज कोई 'जय श्रीराम' कहता है, तो वह एक हिंसक और नफ़रतभरी विचारधारा के समर्थन में दिया गया सल्यूट लगता है जबकि कृष्ण से जुड़े अभिवादन 'जय श्री कृष्ण' या 'राधे-राधे' अभी भी अपना निष्कलंक चरित्र बनाए हुए हैं। इसी तरह 'अल्लाहो अकबर' का नारा ग़ैर-मुस्लिमों में भय का संचार करता है क्योंकि यह भी दंगों के दौरान युद्धोन्मादी नारे के तौर पर इस्तेमाल होता है।

'भारत माता की जय' के साथ भी वैसा ही कुछ है। जन्मभूमि को मातृभूमि या पितृभूमि कहनेवाले कई देश हैं। लेकिन भारत के मामले में अंतर यह है कि हमने यहां उसे एक स्त्री का मूर्त रूप दे दिया है। यहां तक होता तो भी चलता, मगर गड़बड़ी यह हुई कि हमने तो उसे देवी बना दिया है जो कि हिंदू धर्म में आम बात है। भारत को भी एक देवी का रूप दे दिया जिसके हाथ में तिरंगा झंडा है।

यही नहीं, कई जगहों पर तो इस भारत माता के हाथ में केसरिया झंडा है। यही मुसलमानों को खलता है क्योंकि वे अल्लाह के अलावा किसी देवी-देवता की इबादत नहीं कर सकते। कोई इस बात पर अड़ जाए कि 'जय हिंद' के नारे मेरी देशभक्ति साबित करने के लिए काफ़ी नहीं हैं और 'भारत माता की जय' कहने पर ही मुझे मेरी देशभक्ति का सर्टिफ़िकेट मिलेगा तो मैं ढीठ होकर कहना चाहूंगा, मुझे देशभक्ति का ऐसा सर्टिफ़िकेट नहीं चाहिए। कोई सुप्रीम कोर्ट चला जाए तो वहां भी यही निर्णय आएगा कि देशभक्तों की लिस्ट में अपना नाम लिखाने के लिए 'भारत माता की जय' कहना अनिवार्य नहीं है।

-नीरेंद्र नागर की फेसबुक वॉल से

भारत और भारत माता का फर्क
भारत और भारत माता में क्या अंतर है? देश को लेकर थोपी हुई एक अवधारणा दरअसल हमें कुछ और बना रही है। हम अपने भारत को ठोस ढंग से समझने की जगह, उसकी समस्याओं और उसके संकटों से जूझने की जगह, भारत माता की एक काल्पनिक मूर्ति बनाकर अपनी विफलताएं छिपाने का काम कर रहे हैं।

भारत की हमारी कल्पना में एक भारत माता भी होनी चाहिए। देश कागज़ का नक्शा नहीं होता। उसके साथ हमारा एक भावुक रिश्ता होता है। पर यह समझना ज़रूरी है कि भारत माता का बार-बार नाम लेकर हम न भारत माता का सम्मान बढ़ाते हैं न भारत की शक्ति। यह ठीक वैसा ही है, जैसे हम वक़्त की पाबंदी या सच्चाई या अहिंसा को लेकर रोज़ महात्मा गांधी के सुझाए रास्ते की अनदेखी करते हैं, और रोज़ उन्हें बापू बताते हैं। इससे महात्मा गांधी की इज्जत बढ़ती नहीं, कुछ कम ही होती है।

भारत या भारत माता की इज्जत का मामला भी यही है। जब हम एक सहिष्णु लोकतंत्र होते हैं, तो देश बड़ा लगता है। जब हम एक कट्टर समाज दिखते हैं, तो देश छोटा हो जाता है। जब हम दंगों में ख़ून बहाते हैं, तो भारत माता शर्मिंदा होती है, जब हम बाढ़ और सुनामी में लोगों की जान बचाते हैं, तो भारत माता की इज़्ज़त बढ़ती है।

यह भारत यथार्थ है - भारत माता कल्पना है। यह एक आदर्श भारत की कल्पना है - वैसे देश की, जिसमें कोई रोग-शोक, दुख-मातम, झगड़े-विवाद न हों। ऐसी भारत माता के लिए हर किसी के मुंह से जय निकलेगी लेकिन यह ज़रूरी है कि इस भारत को हम भारत मां के आदर्शों के अनुरूप ढालें। भारत माता का नाम लेने वाला बड़ा तबका जैसे हर किसी की परीक्षा लेने पर तुला है। वह भारत माता को एक ऐसे नारे, एक ऐसी छड़ी में बदलता है, जिससे उन लोगों की पिटाई हो सके, जो भारतीय राष्ट्र राज्य के अलग-अलग तत्वों के ख़िलाफ़ असंतोष जताते हैं।

-प्रियदर्शन की फेसबुक वॉल से

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अब घर पर ही पाएं सेहत से जुड़ी सारी शंकाओं का समाधान

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सेहत का कोई भरोसा नहीं। कभी हाई बीपी दबे पांव आकर हमला करता है तो कभी शुगर लेवल परेशान करने लगता है। बेशक इन पर नजर रखने की जरूरत होती है और इसके लिए टेस्ट जरूरी है लेकिन हर वक्त डायग्नॉस्टिक सेंटर जाना मुमकिन नही। ऐसे में आप में ही कुछ गैजट्स की मदद से जान सकते हैं आनी सेहत का हाल। हेल्थ के साथी कुछ ऐसे ही गैजट्स के बारे में एक्सपर्ट्स की मदद से बता रहे हैं अमित मिश्रा-

BP monitor से बीपी पर रखें नजर-

इस वक्त मार्केट में कई कंपनियों की बीपी मॉनिटरिंग डिवाइसेज उपलब्ध हैं। इनके जरिए बीपी को आसानी से नापा जा सकता है। यह डिवाइस उनके लिए काफी कारगर है जिनके बीपी लेवल में तेजी से बदलाव आता रहता है।

ऐसे चुनें- मार्केट में कई तरह के डिजिटल बीपी मॉनिटर आ रहे हैं जो इस्तेमाल में काफी आसान हैं। फिर पुरानी तकनीक पर चलने वाले मरकरी बीपी मॉनिटर आगे जाकर बंद होने वाले हैं इसलिए बेहतर है कि अच्छी क्वॉलिटी का डिजिटल मॉनिटर लें। मार्केट में कलाई पर बांध कर बीपी नापने के मॉनिटर भी उपलब्ध हैं, लेकिन आप वही बीपी मॉनिटर खरीदें जिनमें बांह में लगा कर मॉनिटर करने का ऑप्शन दिया गया हो। इससे सटीक रीडिंग मिलती है।

ध्यान रहे कि बीपी मॉनिटर वही खरीदें जिन्हें क्लिनिकली वैलिडेट किया गया हो। फिलहाल हमारे देश में डिवाइसेज वैलिडेट करने की कोई व्यवस्था नहीं है इसलिए ब्रिटिश या कनेडियन हाइपरटेंशन सोसायटी की वैलिडेट की हुई डिवाइस खरीदें। वैलिडेट करने वाली कंपनी का नाम मॉनिटर पर नीचे की तरफ लगे स्टिकर पर दिया होता है। जब भी मॉनिटर खरीदें अपने हिसाब से सही कफ साइज लें। कफ साइज सही न होने से यह बांह पर सही तरीके से फिट नहीं होगा और सटीक बीपी नहीं नापा जा सकेगा। अमूमन 22-32 सेमी या 8.8-12.8 इंच कफ साइज के मॉनिटर आते हैं जो कि मीडियम साइज है। स्मॉल (18-22 सेमी या 7.1-8.7 इंच) या लार्ज (32-45 सेमी 12.8-18 इंच) वाले साइज मार्केट में कम मिलते हैं लेकिन स्पेशल ऑर्डर पर मंगाए जा सकते हैं।

अपने मॉनिटर को भी डॉक्टर के पास ले जायें और इसके रिजल्ट को डॉक्टर के मानिटर के रिजल्ट से मिलाएं। अगर आपको लगता है कि रिजल्ट आस-पास है तब ठीक अगर ऐसा नहीं है तो अपने मानिटर को बदलें। अच्छी क्वॉलिटी का मॉनिटर ही लें। सस्ते मॉनिटर सही रीडिंग नहीं देते और भ्रम पैदा कर सकते हैं।

ऐसे रहेगी रीडिंग फिट- एक बात याद रखें कि मॉनीटर के अच्छे होने से जरूरी है बीपी नापने के सही तरीके को जानना। मशीन के इस्तेमाल से पहले जांच लें कि सेल सही हैं या नहीं। सेल कमजोर होने पर रीडिंग गलत आ सकती है। मशीन को वक्त-वक्त पर इस्तेमाल करते रहें। अगर इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं तो सेल निकाल कर बाहर रख दें। वरना सेल लीक होकर मशीन को खराब कर सकते हैं। कफ को सही जगह पर रखें। बांह की शुरुआत में जहां पर कोहनी की आर्टरी होती है पर हाथ रखने पर नब्ज महसूस हो। वहां पर कफ का निचला हिस्सा रखें। कफ को न ज्यादा टाइट करें और न ज्यादा ढीला रखें। हर बार ली गई रीडिंग को बिना झिझक के एक डायरी में दर्ज करें। अक्सर लोग घर वालों या डॉक्टर के सख्त उपायों से बचने के लिए अपनी बुरी रीडिंग्स नोट नहीं करते। ऐसा न करें। आपकी ईमानदार मॉनिटरिंग ही आपको फिट रखेगी।

नॉर्मल बीपी- नॉर्मल ब्लड प्रेशर 120/80 (सिस्टोलिक में 120 से कम और डायस्टोलिक में 80 से कम) होता है। ज़्यादातर लोग जिन्हें हाई ब्लड प्रेशर है, उनका ब्लड प्रेशर 130/80 या उससे कम होना चाहिए। अब जाएं डॉक्टर के पास अगर मॉनिटर सबकुछ ठीक बता रहा है लेकिन फिर भी ये परेशानियां हैं तो डॉक्टर के पास जाएं, जैसे- सिरदर्द होना, वॉमिटिंग, चक्कर आना, घबराहट महसूस होना।

ऐसा न करें- किसी भी तरह के घरेलू टोटके ट्राई न करें। खुद कोई ट्रीटमेंट न करें। डॉक्टर की सलाह पर ही डोज घटाएं-बढ़ाएं न कि मॉनिटर की रीडिंग के हिसाब से।

कौन-सा खरीदें- ये तीन बेहतर ऑप्शन हो सकते हैं: Omron HEM 7201 BP Monitor - 2900 रुपये तकरीबन
Equinox EQ-BP 54 - 2000 रुपये तकरीबन
Dr Morepen BP One BP09 - 2500 रुपये तकरीबन

Heart Rate monitor: हार्ट रेट नापने के लिए अलग डिवाइस लेने की जरूरत नहीं होती क्योंकि अब बीपी मॉनिटर में ही हार्ट रेट नापने का ऑप्शन होता है। इसके अलावा, आजकल स्मार्टवॉच और फिटनेस बैंड भी हार्टरेट मॉनिटर से लैस होने लगे हैं। इनके जरिए हेल्दी लोगों के साथ-साथ बीपी के पेशंट्स भी हार्ट रेट पर रेग्युलर नजर रख सकते हैं। हो जाएं अलर्ट - हेल्दी इंसान में किसी भी तरह की फिजिकल ऐक्टिविटी करते ही हार्ट रेट बढ़ जाता है और अपने आप नीचे आ जाता है लेकिन बीपी या हार्ट पेशंट्स के साथ ऐसा नहीं होता और परेशानी ज्यादा बढ़ सकती है।

अमूमन 70-90 का हार्ट रेट नॉर्मल होता है, लेकिन अगर हार्ट की परेशानी वाले किसी इंसान को कभी भी रीडिंग 100 के आसपास पहुंचती नजर आए तो उसे सतर्क हो जाना चाहिए। ऐसे में रेस्ट लेकर डॉक्टर के पास जाना चाहिए।

ये हो सकते हैं ऑप्शन- वैसे तो हर बीपी मॉनिटर में हार्ट रेट मॉनिटर होता है लेकिन अब स्मार्टबैंड में काफी अच्छी क्वॉलिटी के हार्ट रेट मॉनिटर मौजूद होते हैं।
Apple watch - 30 हजार रुपये
Fitbit surge - 19,990 रुपये
TomTom Spark - 20 हजार तकरीबन

Glucometer: डायबीटीज के पेशंट्स अगर शुगर पर पैनी नजर बनाए रखें तो खतरे को काफी हद तक टाल सकते हैं। घर पर ही शुगर लेवल नापने के लिए मार्केट में कई अच्छे ग्लूकोमीटर मौजूद हैं।

ऐसे चुनें- ग्लूकोमीटर ऐसा लें जिसे इस्तेमाल करने का तरीका आसान और सुविधा जनक हो। ग्लूकोमीटर में एक खास तरह की स्ट्रिप पर खून की बूंद गिरा कर ब्लड शुगर को नापा जाता है। बाजार में दो तरह के ग्लूकोमीटर आते हैं। एक में स्ट्रिप ग्लूकोमीटर के भीतर ही होती है जिसे खत्म हो जाने पर बदलना पड़ता है। दूसरे तरह के ग्लूकोमीटर में टेस्ट स्ट्रिप अलग से होती है जिस पर ब्लड की बूंद गिराने के बाद स्ट्रिप को ग्लूकोमीटर के भीतर डाला जाता है। ग्लूकोमीटर लेने से पहले इसमें डेटा स्टोरेज का भी पता करें। जितनी ज्यादा स्टोरेज होगी उतना ज्यादा डाटा सेव रखने की सुविधा और उतनी ही सहूलियत भी होगी।

ऐसा ग्लूकोमीटर लें जिसे कंप्यूटर से कनेक्ट करने का फीचर भी हो। इससे अपने रेकॉर्ड कंप्यूटर में आसानी से ट्रांसफर कर सकते हैं। ऐसा ग्लूकोमीटर खरीदें जो काफी छोटे ब्लड सैंपल से भी टेस्ट ले सकें। जितना कम ब्लड निकालना होगा उतना ही दर्दरहित टेस्ट होगा।

ग्लूकोमीटर छोटे साइज का लें। जितना कॉम्पैक्ट इसका साइज होगा उतना इसे पॉकेट या पर्स में रखना उतना ही आसान होगा। कई ऐसे ग्लूकोमीटर भी आते हैं जिसमें रीडिंग को सुना भी जा सकता है। बढ़ती उम्र के लोगों के लिए यह काफी सहूलियत भरा रहता है।

ऐसे रहेगी रीडिंग फिट- सेल वक्त-वक्त पर बदलें। इस्तेमाल न होने पर सेल निकाल दें। टेस्टिंग स्ट्रिप को किसी एयर टाइट बॉटल में रखें। मॉइश्चर की वजह से रिजल्ट गलत आ सकते हैं। इस्तेमाल से पहले अपने डॉक्टर से मिल कर अपने शुगर लेवल की बेसलाइन सेट कर लें। इसके बाद ही शुगर चेक करें और रीडिंग के हिसाब से ऐक्शन लें। मशीन का मेंटनेंस सही रखें। अगर कोई परेशानी हो रही है तो इसे सर्विस सेंटर से दिखा कर ठीक करवाने के बाद ही इस्तेमाल करें। नॉर्मल रीडिंग फास्टिंग में 70-110 और खाने के बाद 100-140 खतरे की घंटी, ग्लूकोमीटर की रीडिंग अगर 70 से कम या 300 से ऊपर दिख रही है तो फौरन डॉक्टर के पास ले जाएं। शुगर लेवल अगर 45-50 के नीचे और 40-500 तक ऊपर निकले तो स्थिति काफी गंभीर होती है। पेशंट कोमा में जा सकता है। तुरंत डॉक्टर के पास ले जाएं। शुगर लेवल काफी नीचे जाने पर सबसे पहले कुछ खिलाएं। हो सके तो मीठा और खिलाएं फिर डॉक्टर के पास ले जाएं।

अब जाएं डॉक्टर के पास- ग्लूकोमीटर भले ही रीडिंग नॉर्मल दे रहा हो लेकिन इन लक्षणों के दिखने पर फौरन डॉक्टर के पास ले जाएं, जैसे- बार-बार और ज्यादा पेशाब होना, ज्यादा भूख लगना, शरीर में दर्द होना।

ऐसा न करें- खुद कोई दवा न लें डॉक्टर से सलाह पर ही एक्शन लें। भले ही शुगर घर पर नापने में सही लेवल पर दिखाए, लेकिन डॉक्टर के पास रेग्युलर विजिट जारी रखें।

कौन सा खरीदें-
Accu-Chek Active Glucose Monito-
1900 रुपये तकरीबन
Omron HGM-112 Glucometer- 1000 रुपये तकरीबन
One Touch Select Simple Blood Glucose monitoring System- 1200 रुपये तकरीबन

Thermometer: ये शायद सबसे कॉमन डायग्नॉस्टिक डिवाइस है जो घरों में पाई जाती है। हमेशा अच्छी कंपनी का मजबूत डिजिटल थरमॉमिटर चुनें। अगर हाथ में लेते ही प्लास्टिक की क्वॉलिटी हल्की और रफ लगे तो उसे न लें। ऐसा थरमॉमिटर चुनें जो मुंह, आर्मपिट या फोरहेड से टेंपरेचर जांच सके। अच्छी बैटरी लाइफ वाला थरमॉमिटर खरीदें। डिस्प्ले ज्यादा चमकदार या बैकलाइट के साथ न लें वरना बैटरी बहुत जल्दी खर्च हो जाएगी। मार्केट में कई तरह के डिजिटल थरमॉमिटर मिलते हैं।

बाजार में मिलते हैं ये थरमॉमिटर- माउथ थरमॉमिटर (मुंह में लगा कर इस्तेमाल करने वाले), पेसिफायर थरमॉमिटर (बच्चों के मुंह में चूसने के लिए डाले जा सकने वाले), ईयर थरमॉमिटर (बच्चों के कान में लगा कर टेंप्रेचर जांचने वाले), इंफ्रारेड थरमॉमिटर (दूर से टेंप्रेचर नापने वाले) बच्चों के लिए आने वाले थरमॉमिटर अमूमन 3 महीने से 3 साल तक के बच्चों पर ही कारगर होते हैं। इससे बड़े बच्चों के लिए साधारण तौर पर इस्तेमाल होने वाले थरमॉमिटर इस्तेमाल किए जा सकते हैं।

ऐसे रहेगी रीडिंग सही- टेंपरेचर लेने से पहले डिस्प्ले पर बैटरी की पोजिशन देखें। अगर लो बैटरी का सिग्नल आ रहा है तो ट्रेंपरेचर के गलत होने की संभावना रहती है। आर्मपिट के मुकाबले मुंह में रख कर टेंपरेचर नापना ज्यादा सटीक होता है। अगर आर्मपिट से टेंपरेचर नापते हैं तो नापे गए टेंप्रेचर में 1 डिग्री और जोड़ लें। मुंह या आर्मपिट में थरमॉमिटर रख कर 1-2 मिनट तक बिना हिलाए रखें। उसके बाद ही हटाएं। कुछ भी खाने के तकरीबन आधा घंटा बाद ही थरमॉमिटर मुंह में लगाएं वरना टेंपरेचर सही नहीं आएगा।कान में लगा कर और दूर से टेंप्रेचर लेने वाले इंफ्रारेड थरमॉमिटर साधारण डिजिटल थरमॉमिटर से ज्यादा एक्युरेट नहीं होते। कब नॉर्मल वैसे तो नॉर्मल टेंपरेचर 98.6 फॉरेनहाइट होता है लेकिन अगर 100 तक रीडिंग आ रही है तो घबराने की जरूरत नहीं है। घर में मौजूद आम दवाओं से ही इसे कंट्रोल किया जा सकता है। अब जाएं डॉक्टर के पास - अगर थरमॉमिटर नॉर्मल बता रहा है लेकिन शरीर फिर भी तेज गरम है तो डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए।

ठंड के मौसम में गरम कपड़े पहनने के बाद भी ठंड न जाए और गरमी के मौसम में पंखा-एसी न चलने पर भी पसीना न आए तो डॉक्टर के पास जाएं। अगर टेंपरेचर 103 या 104 आ रहा है तो मामला गंभीर है और आम दवाओं से काबू में लाने की कोशिशें छोड़ कर डॉक्टर के पास ले जाएं। एहतियात के तौर पर टेंपरेचर कम करने के लिए ठंडी पट्टियां रखी जा सकती हैं। इससे टेंपरेचर तेजी से नीचे आ जाता है। सब नॉर्मल हो और पल्स फिर भी काफी तेज हो तो इसे डॉक्टर के पास जाने की निशानी समझें।

ऐसा न करें- बच्चों को तेज बुखार होने पर नॉर्मल होने का इंतजार न करें, फौरन डॉक्टर के पास ले जाएं।

कौन-सा खरीदें-
Omron Digital Thermometer Pencil (MC-246)- 199 रुपये तकरीबन
Dr Morepen Digital Thermometer (MT-101)- 190 रुपये तकरीबन
Braun Digital Thermometer IRT 3020- 4 हजार तकरीबन

Pregnancy Test Kit- अच्छे ब्रैंड की प्रेग्नेंसी टेस्ट किट खरीदें। हो सके तो किसी गाइनी डॉक्टर से इसके लिए राय ले सकते हैं। खरीदने से पहले ताकीद कर लें कि जो किट आपको दी गई हो उसे ठंडी जगह पर रखा गया हो और एक्सपाइरी डेट से पहले की हो। देख लें कि बॉक्स की सील कहीं से टूटी न हो। इस्तेमाल करने से पहले बॉक्स पर इस्तेमाल के लिए दिए गए इंस्ट्रक्शन को ध्यान से पढ़ें। अगर कुछ समझ में न आए तो बॉक्स पर दिए गए नंबर या वेबसाइट पर जाकर पता करें।

ऐसे मिलेगी सही रीडिंग- प्रेग्नेंसी को महिलाओं के शरीर में प्रेग्नेंसी के दौरान एक खास हॉर्मोन hCG के बढ़े लेवल से पता किया जाता है। इसका लेवल सुबह के वक्त यूरिन में सबसे ज्यादा होता है इसलिए टेस्ट स्ट्रिप के जरिए जांच करने का यह सबसे अच्छा वक्त होता है। यूरिन को बताई गई सही जगह पर ही डालें। मेंसेस के मिस होते ही जितनी जल्दी टेस्ट किया जाए उतने सटीक रिजल्ट आने के चांस रहते हैं। किट को मॉइश्चर से बचा कर रखें। किसी एयरटाइट डिब्बे में रखना बेहतर ऑप्शन हो सकता है।

अब जाएं डॉक्टर के पास- कन्फर्म होने के लिए दोबारा टेस्ट कर सकते हैं। मेंसेस रुकने के बाद भी अगर प्रेग्नेंसी टेस्ट नेगेटिव आता है तो डॉक्टर के पास जाएं। इसकी कोई और वजह भी हो सकती है। लंबे मेडिकेशन, काफी कम वजन, हॉर्मोनल चेंजेज के वक्त भी सिर्फ प्रेग्नेंसी टेस्ट पर भरोसा न करें, डॉक्टर से सलाह लें। 20-40 की उम्र में किए गए टेस्ट सटीक होते हैं। इससे ज्यादा या कम उम्र में किट की मदद से टेस्ट गलत होने के चांस रहते हैं।

ऐसा न करें- प्रेग्नेंसी का टेस्ट पॉजिटिव आने पर परेशान न हों और गाइनी डॉक्टर के पास आगे की सलाह के लिए जाएं। अबॉर्शन के लिए खुद कोई दवा न लें। अबॉर्शन के लिए डॉक्टर के पास जाएं। घरेलू टोटकों से बचें।

कौन सी खरीदें-
Prega News Pregnancy Kit-
150 रुपये तकरीबन
I-Can Pregnancy Test Kit- 80 रुपये तकरीबन
velocit pregnancy kit- 98 रुपये तकरीबन

Weighing Scale: हेल्दी लाइफ स्टाइल के लिए वजन कंट्रोल में रखना बहुत जरूरी है। हमेशा वजन पर नजर रखने के लिए घर पर वजन नापने की मशीन रखना एक बेहतर ऑप्शन हो सकता है।

ऐसे चुनें- अपनी सहूलियत के मुताबिक मैन्युअल या डिजिटल मशीन खरीदने का ऑप्शन चुन सकते हैं। मैन्युअल मशीन काफी टफ होती है, लेकिन उसमें वजन आधा एक किलो ऊपर नीचे जा सकता है। हालांकि डिजिटल मशीनों में ऐसी दिक्कत नहीं होती, लेकिन वे कुछ नाजुक होती हैं और रफ हैंडलिंग सह नहीं पातीं। ज्यादा चमक-दमक से बेहतर है मशीन के ऑप्शन पर ध्यान दें। अगर पिछले वजन के मुकाबले वजन का अंतर बताने वाली मशीन उपलब्ध है तो वह लें। अब ऐसी मशीन भी आने लगी है जो आपके वजन को एक ऐप के जरिए मोबाइल में अनैलिसिस के लिए भेजी जा सकती है। यह काफी अच्छा ऑप्शन है।

ऐसे मिलेगी सही रीडिंग- मशीन को एक ही जगह पर रखें। इससे कैलिबरेशन बरकरार रहेगा और मशीन गलत रीडिंग नहीं देगी। मशीन को साफ सुथरा रखें और नमी से बचाएं। अगर यूज में न आ रही हो तो सेल निकाल दें। एक ही वक्त में एक जैसे पहनावे के साथ ही वजन करें। बेहतर होगा इसे इस्तेमाल के बाद डिब्बे में स्विच ऑफ करके पैक कर दें। इससे मशीन की हालत सही रहेगी और यह लंबे वक्त तक काम देगी।

अब जाएं डॉक्टर के पास- अगर वजन तेजी से गिरे (हफ्ते में 1-2 किलो) या बढ़े (हफ्ते में 2-3 किलो) तो डॉक्टर से कंसल्ट करें। कब और कितना वजन मेंटेन करना है, क्या खाना है क्या नहीं, इसके बारे में डॉक्टर या डायटिशन से मिल कर ही कोई फैसला करें। खुद फैसले लेना सेहत पर भारी पड़ सकता है।

ऐसा न करें- मशीन को झटके से इधर-उधर न सरकाएं और न ही इसे झटके से रखें। बच्चों की पहुंच से दूर रखें वरना जल्दी टूटने का चांस रहता है।

कौन सी खरीदें-

HealthSense PS 126 Ultra-Lite Personal Scale-
2000 रुपये तकरीबन
Omron HN-286 Digital Weight Scale- 2000 रुपये तकरीबन
Equinox BR-9201 Analog Weighing Scale- 1000 रुपये तकरीबन

एक्सपर्ट पैनल- डॉ. केके अग्रवाल, डॉ. अनिल बंसल, डॉ. विवेका कुमार

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जिंदगी को लगाएं गले, दूर भगाएं डिप्रेशन

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जिंदगी बहुत खूबसूरत है, लेकिन यह भी सच है कि इसमें लगातार उतार-चढ़ाव लगे रहते हैं। कई मौकों पर हम खुद को बेबस पाते हैं। ऐसे ही एक कमजोर पल में कई दफा लोग जिंदगी से मुंह मोड़ने जैसा फैसला कर बैठते हैं।

टीवी की मशहूर ऐक्ट्रेस प्रत्यूषा बनर्जी ने भी ऐसे ही किसी पल में जान देने का फैसला किया होगा। जिंदगी के कमजोर लम्हों को कैसे झेलें, इस बारे में पेश हैं तमाम टिप्स:
दुनिया भर में सूइसाइड के मामले बढ़ रहे हैं और इस मामले में हिंदुस्तान की तस्वीर भी बहुत अच्छी नहीं है। तमाम वजहों से अपने यहां आत्महत्या के मामले बढ़े हैं लेकिन इसे रोकने की जरूरत है।

क्या हैं सूइसाइड की वजहें -
सूइसाइड प्रिवेंशन के लिए काम कर रही संस्थाओं के मुताबिक, सूइसाइड की तमाम वजहें होती हैं। मोटे तौर पर इन्हें 3 तरीके से देखा जा सकता है। सामाजिक, आर्थिक व मेडिकल। - सामाजिक कारणों में सबसे अहम चीज है रिलेशनशिप जिसमें अफेयर, एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर व शादीशुदा जिंदगी से संबंधित वजहें होती हैं। इसके अलावा, परिवार, मित्रों और जान पहचान वालों के साथ आने वाली दिक्कतों के चलते भी लोग यह कदम उठाते हैं। - आर्थिक कारणों में बिजनेस का डूबना, नौकरी छूटना, आय का साधन न होना, कर्जे जैसी चीजें आती हैं। - मेडिकल कारणों में लाइलाज शारीरिक व मानसिक बीमारी, गहरा डिप्रेशन व बुढ़ापा जैसी तमाम वजहें होती हैं।

सिग्नल पहचानने की जरूरत -
सूइसाइड करने वाला हर व्यक्ति ऐसा कदम उठाने से पहले अपने आपपास के लोगों को कई तरह के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सिग्नल या संकेत देता है। थोड़ा सचेत और संवेदनशील रहकर इन संकेतों को पकड़ा जा सकता है और उसकी मनोस्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस क्षेत्र में काम कर रही एक वॉलंटियर वर्षा का कहना है कि कोई भी इंसान मरना नहीं चाहता। इंसान बेहद मजबूरी में अपने जीवन को खत्म करने का फैसला लेता है। हर आत्महत्या करने वाला 'क्राइ फॉर लास्ट हेल्प' की तलाश में रहता है। वह चाहता है कि कोई उसकी आखिरी पुकार को सुने। अगर वक्त रहते किसी ने उसकी पुकार को सुनकर समझ लिया और मदद कर दी तो जिंदगी बचाई जा सकती है। हालांकि इन संकेतों को पकड़ने के साथ-साथ आपको उस व्यक्ति की मनोस्थिति और गतिविधियों पर भी गौर करना होगा।

ये हो सकते हैं सिग्नल -
जिंदगी के प्रति अनिच्छा जताना, मरने की बात करना, अचानक बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के अपनी जिंदगी के महत्वपूर्ण कामों को निपटाने लगना। लोगों के बीच अचानक गुडबाय या अलविदा जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना या इसके मेसेज भेजना, इन्हें अपना स्टेटस बनाना वगैरह। इसी के साथ ही अपनी चीजों के प्रति विरक्ति का भाव दिखाना। अचानक कोई व्यक्ति बिना वजह अपने सबसे प्यारी चीज किसी को भी यूं ही दे दे। मनपसंद कामों, रुचियों और पसंदीदा चीजों के प्रति भी अनिच्छा का भाव दिखाना, उनकी अनदेखी करना या उनसे लगाव कम होना।

अपनों का साथ अगर उस व्यक्ति के आसपास रह रहे लोग, मित्र, परिचित व रिश्तेदार इन संकेतों को समझ लेते हैं तो अनहोनी को टाला जा सकता है। एक्सपर्ट्स का मानना है कि संवेदनशील बनकर, परेशान व्यक्ति की पूरी बात सुनकर, खुद को उसकी जगह रखकर देखने से आप उसकी बात समझ सकते हैं। अगर आपको किसी व्यक्ति में ऐसे लक्षण दिखें तो उसे सलाह देने से या सूइसाइड का ख्याल अपने दिल से निकालने के लिए डांटने या किसी और तरीके से यह बात समझाने की कोशिश कभी न करें।

कई बार लोग परिवार या बच्चों का वास्ता देकर ऐसा करने से रोकने की कोशिश करते हैं, लेकिन सूइसाइड पर आमादा व्यक्ति ऐसी किसी भी चीज को सुनने के मूड में नहीं होता। कई बार वह ऐसे हालातों में और अपने भीतर सिमटने लगता है और भीतर ही भीतर उसके मन में सूइसाइड का खयाल और गहराने लगता है। ऐसे में महत्वपूर्ण है कि बिना जजमेंटल हुए पीड़ित व्यक्ति की बात सुनी जाए। अकसर कोई भी व्यक्ति मुसीबत में अपने लोगों या अपने आसपास के लोगों से कम्युनिकेट करता है या करने की कोशिश करता है, लेकिन जब उसे वहां से कोई रिस्पॉन्स नहीं मिलता तो वह अपने में सिमटने लगता है। तब वह सूइसाइड जैसे विकल्प की ओर कदम बढ़ता है। अपनों के लिए वक्त निकालिए। खासकर अगर आपके पास कोई परेशान व्यक्ति या द्वंद्व से गुजरता व्यक्ति हो तो उससे बात कीजिए। बात करते समय ध्यान रखें कि उससे ऐसी कोई बात या सवाल न करें, जिससे वह उत्तेजित हो या बातचीत से पीछे हटे। उसका भरोसा जीतने की कोशिश कीजिए तो उसकी सच्ची मदद होगी।

मदद के हाथ -
सूइसाइड रोकने की दिशा में तमाम संस्थाएं काम कर रही हैं। 'बीफ्रेंडर्स इंडिया', मेंटल हेल्थ की दिशा में काम कर रही 'संजीवनी' जैसी तमाम संस्थाएं भी सूइसाइड से जुड़ी समस्याओं पर काम कर रही हैं। दिल्ली में 'सुमैत्री' नाम से चल रही संस्था के लोग फोन, ईमेल व पर्सनल विजिट के जरिए लोगों से मिलकर उनका दर्द सुनते हैं और उन्हें मौत की तरफ से जिंदगी की तरफ लौटने के लिए प्रेरित करते हैं। 'सुमैत्री' की प्रेजिडेंट अपर्णा बताती हैं कि यह काम काफी संवेदनशील, जिम्मेदारी भरा और विश्वास से जुड़ा है। इसमें मदद मांगने वाले को कॉलर या विजिटर्स कहा जाता है। अपर्णा का कहना था कि हम संपर्क करने वाले को न तो पेशंट मानते हैं, न कस्टमर, न क्लाइंट और न ही केस। हमारे लिए वह सिर्फ कॉलर या विजिटर्स होते हैं।

कॉलर्स हेल्पलाइन नंबर पर फोन करके, ईमेल के जरिए या इनके ऑफिस में आकर मदद मांगते हैं। सुमैत्री के लिए काम करने वली मृदुला कहना था कि हमारा असली काम परेशान व्यक्ति को ध्यान से सुनना है। उनका दुख और तकलीफें साझा करना है, जिससे उनके मन का गुबार निकल जाए और वह अपने भीतर हल्कापन महसूस कर सकें। इसी बातचीत में उन्हें अपनी समस्या के हल खुद सूझने लगते हैं। इस दौरान न हम उनसे ज्यादा सवाल पूछते हैं और न ही कोई सलाह देते हैं। किसी को सलाह देने का मतलब है कि हम उसकी बुद्धिमत्ता को कम करके आंक रहे हैं। अपर्णा के मुताबिक कोई भी कॉलर जब हमसे संपर्क करता है तो उसकी हालत हमारे लिए धुंध से भरे चौराहे जैसी होती है, जिसे यह पता तो होता है कि यहां से कई रास्ते निकलते हैं, लेकिन वह इन रास्तों को देख नहीं पाता।

इन संस्थाओं के एक्सपर्ट का काम उसे रास्ता बताना नहीं, बल्कि धुंध छंटने होने तक उसका हाथ थामना है। उधर संजीवनी में सूइसाइड मामलों में रोकथाम संबंधी काउंसिलिंग से जुड़ी रंजीत बासु बताती हैं कि उनके पास सूइसाइड से जुड़े मामलों में मदद मांगने वाले लोगों में सूइसाइड करने के इच्छुक लोगों के अलावा कई बार परिवारवाले और मित्र भी होते हैं। सुसाइड की ओर बढ़ रहा व्यक्ति अगर संपर्क करता है, हमें कॉल करता है तो इसका मतलब है कि वह जीना चाहता है। आत्महत्या करने वाला व्यक्ति एक अजनबी से अपने दिल की बात इसलिए खुलकर कर लेता है, क्योंकि उसे न तो सामने वाले के जजमेंटल होने का, न सिर्फ बेमतलब की सलाह या ज्ञान देने का और न ही सुसाइड जैसे विचारों के बारे में बताने या बात करने को लेकर किसी तरह की शर्मिंदगी का अहसास होता है। साथ ही उसे अपनी निजी बातों या विचारों के सार्वजनिक होने का खतरा भी नहीं होता। कॉलर्स को लगता है कि सुनने वाला चीजों को किसी पूर्वाग्रह से न देखकर कॉलर्स के नजरिए से देख और समझ रहा है।



डिप्रेशन को रखें दूर -
देखा गया है कि आत्महत्या की एक बड़ी वजह डिप्रेशन ही है। जिंदगी से निराश व्यक्ति जब खुद को असहाय पाने लगता है तो डिप्रेशन के दलदल में फंस जाता है। उलझे सवाल, निराश करने वाले जवाब और अनिश्चितता किसी इंसान को उस मोड़ पर ले जाती है, जहां उम्मीदें काफी बेहद कम नजर आती हैं। जब स्थिति नाजुक मोड़ पर पहुंच जाती है तो नतीजे खतरनाक हो जाते हैं। जरूरत है तो इस पर वक्त रहते ध्यान देने और सही इलाज की।

बढ़ रहे हैं मामले -
बदलते लाइफस्टाइल में डिप्रेशन की बीमारी आम हो रही है। महानगर से निकलकर यह छोटे शहरों और कस्बों तक पहुंच रही है। इसके शिकार न सिर्फ युवा और बुजुर्ग, बल्कि स्कूल जाने वाले स्टूडेंट भी हैं। डॉक्टरों के अनुसार, इसका इलाज सिर्फ दवाओं से नहीं हो सकता। इससे उबरने के लिए परिवार, दोस्त और अपनों के साथ की भी दरकार होती है। लंबे वक्त में लाइफस्टाइल, रिश्ते, इमोशंस के साथ बुने गए ताने-बाने में जब सुराख होता है तो उम्मीदें धरी रह जाती हैं। सपने गायब हो जाते हैं। ऐसे में मानसिक तौर पर टूटना लाजमी है।

कैसे पहचानें -
आपका कोई दोस्त, परिजन या जाननेवाला अगर... अक्सर उदास या परेशान रहता हो बातों-बातों में खुद को अक्सर कोसता हो खुद को बेबस महसूस करता हो खूब सोता हो या बिल्कुल नींद न आती हो बिल्कुल कम खाता हो या बहुत ज्यादा खाता हो उसका वजन अचानक बढ़ रहा हो या तेजी से कम हो रहा हो खुशी के मौकों को इग्नोर करता हो सिरदर्द और बदन दर्द की शिकायत लगातार करता हो चिढ़कर या झल्लाकर जवाब देता हो तो आप समझें कि उसे आपके साथ और डॉक्टर के इलाज की जरूरत है। ऐसे समय में उससे चिढ़े नहीं, बीमार समझकर उसका साथ दें। उससे जी भरकर बात करें। उसकी हरकतों पर नजर जरूर रखें।

उदास हो मन तो... -
रोजाना वर्कआउट करें, योग और ध्यान करें - शराब और सिगरेट से दूर रहें - अगर कैंडीज या टॉफी पसंद हो तो उसका स्वाद लें - अपनी हॉबीज को पूरा करने की कोशिश करें - लोगों से मिलें-जुलें। मुमकिन हो तो किसी से अपनी दिक्कत शेयर करें - सायकायट्रिक की राय लें। - दर्द होने पर पेनकिलर से बचें, डॉक्टर की सलाह लें - जॉगिंग करें या आउटडोर गेम्स में हिस्सा लें - अपनी पसंद के गीत सुनें। याद रखें, ये उदासी भरे न हों - एफएम रेडियो सुनें

डाइट पर दें ध्यान -
डिप्रेशन से निपटने में अच्छी डाइट भी काफी मददगार है : - पोषण से भरपूर खाना खाएं, जिसमें कार्बोहाइड्रेट के साथ-साथ प्रोटीन और मिनरल भी भरपूर हों, जैसे कि ओट्स, गेहूं आदि अनाज, अंडे, दूध-दही, पनीर, हरी सब्जियां (बीन्स, पालक, मटर, मेथी आदि) और मौसमी फल। - एंटी-ऑक्सिडेंट और विटामिन-सी वाली चीजें खाएं, जैसे कि ब्रोकली, सीताफल, पालक, अखरोट, किशमिश, शकरकंद, जामुन, ब्लूबेरी, कीवी, संतरा आदि। - ओमेगा-थ्री को खाने में शामिल करें। इसके लिए फ्लैक्ससीड्स (अलसी के बीज), नट्स, कनोला, सोयाबीन आदि खाएं। - देखने में बदरंग खाने के बजाय रंगीन खाने पर फोकस करें जैसे कि गाजर, टमाटर, ब्लूबेरी, ऑरेंज आदि। - पानी खूब पिएं। नारियल पानी, छाछ आदि भी खूब पिएं।

योग भगाएगा टेंशन - जॉगिंग, स्विमिंग और आउटडोर गेम्स के जरिए तनाव को दूर किया जा सकता है। योग गुरु सुरक्षित गोस्वामी के अनुसार योग के जरिए भी काफी हद इस हालत से निपटा जा सकता है। इसे करने से पहले किसी योग एक्सपर्ट की सलाह लें। सूर्य प्राणायाम और कपालभाति आप कर सकते हैं। मगर ताड़ासन, कटिचक्रासन, उत्तानपादासन, भरकटासन, भुजंगासन, धनुआसन, मंडूकासन जैसे योग किसी योग्य एक्सपर्ट की देखरेख में करें। सूर्य नमस्कार भी डिप्रेशन से निपटने में काफी मददगार है। यह एक संपूर्ण एक्सरसाइज है। इसे करने से शरीर के सभी हिस्सों की एक्सरसाइज हो जाती है। सूर्य नमस्कार सुबह के समय खुले में उगते सूरज की ओर मुंह करके करना चाहिए। इससे शरीर को ऊर्जा और विटामिन डी मिलता है। मानसिक तनाव से भी मुक्ति मिलती है। इसमें कुल 12 स्टेप होते हैं, जिनका शरीर पर अलग-अलग तरह से प्रभाव पड़ता है। सूर्य नमस्कार करने का तरीका जानने के लिए देखें : nbt.in/suryanam

मैं हूं ना... उदास शख्स की सबसे बड़ी जरूरत है किसी का साथ मिलना, जो उसकी भावनाओं को समझे। इससे बड़ी जरूरत है बीमार को दोबारा जीने की इच्छाशक्ति देने की। ऐसी हालत में आप अपने अजीज के साथ रहें। उसकी बातें सुनें, पर जजमेंटल न बनें। ध्यान रहे, अक्सर अकेले रहने के दौरान बीमार को नेगेटिव ख्याल आते हैं, इसलिए दोस्त और परिवार के बीच में रहना तनाव कम कर सकता है। दवा और काउंसलिंग से बड़ा इलाज परिवार और दोस्त हैं। - कभी उसे या उसकी /उसके एक्स को बुरा-भला न कहें। ब्रेकअप के बाद भी एक्स की बुराई अच्छी नहीं लगती। आपकी बातों पर वह भरोसा नहीं करेगा।

डिप्रेशन के दौरान एक सवाल कॉमन है - मेरे साथ ही इतना बुरा क्यों? ऐसे में जब-जब दोस्त ज्यादा उदास हो तो उसका हाथ थाम लें या कंधे पर हाथ रखें ताकि उसे भरोसा हो कि वह अकेला नहीं है। - ब्रेकअप के बाद कपल के पास एक-दूसरे के लिए सैकड़ों सवाल होते हैं। वह बार-बार जवाब के लिए फोन, चैट या मेसेज से एक्स पार्टनर को परेशान कर सकता है। बतौर दोस्त, उसे रोकें क्योंकि साथ छोड़ने वाला कभी सही जवाब नहीं देगा।

बातों-बातों में उसे बताएं कि वह दुनिया का पहला शख्स नहीं है, जिसे कोई छोड़कर गया है। ऐसे ब्रेकअप के किस्सों से दुनिया भरी पड़ी हैं। अगर कोई उदाहरण आसपास मौजूद हो और वह सामान्य जिंदगी जी रहा हो तो उससे मिलवा भी दें। - परेशानी में कई बार लोग नशे का सहारा ढूंढते हैं। शराब पीने और स्मोकिंग से रोकें। साथ तो बिल्कुल न दें। कई नामी हस्तियों की अधूरी प्रेम कहानी शराब के गिलास में खत्म हो गई। - अक्सर डिप्रेशन में बदला लेने का ख्याल आता है इसलिए पीड़ित को अग्रेसिव न होने दें। उसे बताएं कि बदला किसी बात का हल नहीं है।

कब जाएं डॉक्टर के पास पहले-पहल मन न लगना, उदास रहना जैसे लक्षण देरी करने पर डिप्रेशन का रूप ले लेते हैं। अगर हफ्ते-10 दिन तक उदासी बनी रहे तो डॉक्टर से मिल लें। फिर उसकी सलाह पर साइकॉलजिस्ट या सायकायट्रिस्ट से मिलें। समस्या के शुरू में साइकॉलजिस्ट से मिलने की सलाह दी जाती है और काउंसलिंग काफी होती है। साइकॉलजिस्ट मरीज को दवा नहीं दे सकते। उनके पास मेडिकल की डिग्री नहीं होती और आमतौर पर उनका काम मरीज की काउंसलिंग का होता है। डिप्रेशन के शुरुआत में अक्सर साइकॉलजिस्ट से मिलने पर समस्या दूर हो जाती है लेकिन बीमारी बढ़ने पर सायकायट्रिस्ट की मदद लेनी पड़ती है। सायकायट्रिस्ट मरीज को जरूरत पड़ने पर दवाएं भी देता है। इनके पास एमबीबीएस डिग्री के अलावा सायकायट्री में स्पेशलाइजेशन भी होता है।

आयुर्वेद में इलाज -
आयुर्वेदाचार्य आर. पी. पाराशर के अनुसार आयुर्वेद में डिप्रेशन के इलाज के लिए रसायन औषधि खाने की सलाह दी जाती है। अक्सर ये रसायन आंवला, ब्राह्मीi घृत, शंखपुष्पी, बृहती, कंठकारी, हरड़, सोनाक, कंभारी, पृषपर्णी, बला सालपर्णी, जीवंती, मूदपड़नी, शतावरी, मेधा, महामेधा, मुक्ता, पिपली से बनाए जाते हैं। यह कई चीजों का मिक्सचर है, इसलिए इसे वैद्य की सलाह से ही खाएं। टच और साउंड थेरपी से भी इसका इलाज किया जाता है। कई बार दवा के साथ प्रार्थना, ध्यान, मंत्रों के उच्चारण से ध्वनि तरंग से नेगेटिव हॉर्मोंन्स को खत्म करने की कोशिश की जाती है।

महज एक कॉल की दूरी पर है -

फ्री हेल्प संजीवनी ए-6, सत्संग विहार, कुतुब इंस्टिट‌्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110067 काउंसलिंग टाइम: सुबह 10 बजे से शाम 7:30 बजे तक (सोमवार से शनिवार तक) 011-24318883, 011-26864488

स्नेही बी-347, वसंत कुंज एन्क्लेव, नई दिल्ली-110070 फोन नंबर: 011- 65978181 काउंसलिंग टाइम : दोपहर बाद 2 बजे से शाम 6 बजे तक (सातों दिन)

सुमैत्री पता: 1, भगवानदास लेन, आराधना हॉस्टल कॉप्लेक्स बेसमेंट, नई दिल्ली-110001 फोन नंबर: 011-23389090 काउंसलिंग टाइम: दोपहर 2 बजे से रात 10 बजे तक (सोमवार से शुक्रवार तक), सुबह 10 बजे से रात 10 बजे तक (शनिवार से रविवार तक)

आसरा पता: 104, सनराइज आर्केड, प्लॉट 100, सेक्टर 16, कोपरखैराने, लाल बाग पुलिस चौकी के बगल में, डॉ. बी. आर. अाम्बेडकर रोड, परेल, नवी मुंबई-400701 फोन नंबर: 022-27546669, 27546667 काउंसलिंग टाइम : चौबीसों घंटे, सातों दिन

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पढ़ाई के लिए अमेरिका जाने का सपना बहुत-से स्टूडेंट देखते हैं। कइयों का सपना परवान चढ़ जाता है और कइयों का अधूरा रह जाता है। सपना अधूरा रहने के पीछे सही जानकारी न होना, गलत कॉलेज चुनना या फिर पैसे की कमी जैसे कोई भी वजह हो सकती है। पढ़ाई के लिए अमेरिका जाने की चाहत रखनेवाले स्टूडेंट्स को किन बातों का खास ख्याल रखना चाहिए, अपने अनुभव और एक्सपर्ट्स की मदद से बता रहे हैं मधुरेन्द्र सिन्हा:

इस साल की शुरुआत में कई अजीब घटनाएं देखने में आईं। हैदराबाद से अमेरिका जा रहे प्लेन में कई स्टूडेंट्स को चढ़ने नहीं दिया गया, जबकि उनके पास वैलिड वीजा था और वहां के कॉलेज के एडमिशन लेटर भी। फिर एक खबर आई कि न्यू यॉर्क, लॉस ऐंजलिस, सिएटल और सैन फ्रैंसिस्को एयरपोर्ट पर दर्जनों इंडियन स्टूडेंट्स को रोक लिया गया। सभी को वापस भी भेज दिया गया। कुछ को तो हथकड़ी भी लगा दी गई और अमेरिका में उनकी एंट्री पर 5 साल की पाबंदी लगा दी गई। ये स्टूडेंट्स सिलिकॉन वैली यूनिवर्सिटी और नॉर्थवेस्टर्न पॉलिटेक्निक यूनिवर्सिटी में एडमिशन लेने जा रहे थे। उनके पास न केवल एडमिशन लेटर था, बल्कि एजुकेशन वीजा भी था। दरअसल, ये स्टूडेंट्स जहां एडमिशन लेने जा रहे थे, वे वहां की गुमनाम यूनिवर्सिटीज में हैं। इनके बारे में राय बहुत अच्छी नहीं है। एक साथ इतने सारे स्टूडेंट्स के वहां दाखिला लेने से इमिग्रेशन अथॉरिटीज को लगा कि इसके पीछे कोई घोटाला है। वे असल में अमेरिका जाकर बसना चाहते थे। इस तरह की घटनाओं से हर किसी के मन में सवाल उठता है कि विदेश खासकर अमेरिका पढ़ने जाने वाले स्टूडेंट्स को किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? कैसे पहचानें कि कौन-सी यूनिवर्सिटी और कॉलेज फर्जी है और कौन सही? एडमिशन के लिए किन बातों का खास ध्यान रखें, तैयारी कैसे और कब करें? लैंग्वेज टेस्ट आदि की तैयारियों भी अहम होती हैं, उनके बारे में भी आपको पता होना चाहिए।

कब शुरू करें तैयारी अमेरिका में ज्यादातर यूनिवर्सिटी 2 सेमिस्टर में एडमिशन देती हैं: 1. स्प्रिंग (जनवरी) और फॉल (अगस्त) सीजन में। ज्यादा एडमिशन अगस्त में होते हैं। अगस्त में एडमिशन कराना ज्यादा अच्छा रहता है क्योंकि इस समय यूनिवर्सिटीज़ में ज्यादा सीटें उपलब्ध होती हैं जबकि जनवरी तक सीटें भर जाती हैं। जनवरी में सीटें कम रह जाने के कारण सिलेक्शन क्राइटिरिया भी ज्यादा मुश्किल हो जाता है। इससे एडमिशन मिलने में मुश्किल होती है। अगर आप अगस्त 2017 में एडमिशन चाहते हैं तो इसके लिए साल भर पहले यानी इसी साल अगस्त-सितंबर से तैयारी शुरू कर दें। सबसे पहले SAT या GMAT/GRE और TOEFL/IELTS दें। ये टेस्ट क्लियर करने के बाद ऐप्लिकेशन (SOP, Cover Letter, LOR समेत) भेजने का काम नवंबर तक पूरा हो जाना चाहिए। आमतौर पर दिसंबर तक यूनिवर्सिटी से ऑफर लेटर आ जाता है। ऑफर स्वीकार करने के लिए 3-4 हफ्ते का टाइम दिया जाता है।

कैसे करें तैयारी - अगर 12वीं के बाद पढ़ने के लिए विदेश जाना चाहते हैं तो बेहतर है कि 11वीं क्लास से ही तैयारी करें। जिस सब्जेक्ट में आगे बढ़ना चाहते हैं, उस पर खास फोकस करें। अपना रिजल्ट बेहतर करें। जितने अच्छे नंबर, उतने अच्छे कॉलेज में एडमिशन का मौका होगा। साथ ही, इंग्लिश भी सुधारें। फॉरेन एजुकेशन के लिए सबसे जरूरी है कि आपको इंग्लिश का अच्छा ज्ञान होना चाहिए। - तैयारी के लिए बडी सिस्टम काफी अच्छा होता है यानी जो आप अपने किसी ऐसे दोस्त के साथ मिलकर तैयारी करें, जो खुद भी फॉरन यूनिवर्सिटी में जाना चाहता हो। आप एक-दूसरे का सपोर्ट बनें तो साथ ही एक-दूसरे को चैलेंज भी करें। इससे तैयारी बेहतर होती है। साथी न मिले तो अकेले ही चलें। - इंग्लिश की तैयारी के लिए ग्रामर और वोकैबलरी पर खासतौर पर फोकस करे। इसके लिए इंग्लिश मूवीज़, इंटरनैशनल इंग्लिश न्यूज चैनल, नैशनल जियोग्रफिक चैनल आदि देखें। इंग्लिश न्यूजपेपर और मैगजीन पढ़ें। अच्छी वेबसाइट्स पर जाकर पढ़ें।

ये टेस्ट देने जरूरी
- अब आप सब्जेक्ट और कोर्स के हिसाब से दूसरे टेस्ट देने को तैयार हो जाएं। 12वीं के बाद कॉलेज में एडमिशन के लिए अप्लाई करना चाहते हैं तो आपको सैट (SAT यानी स्कॉलेस्टिक एप्टिट्यूड टेस्ट) देना होगा, जबकि पोस्ट ग्रैजुएशन के लिए जीमैट (GMAT यानी ग्रैजुएट मैनेजमेंट टेस्ट) या जीआरई (GRE यानी ग्रैजुएट रेकॉर्ड एग्जामिनेशन) देना होगा। मैनेजमेंट में एडमिशन के लिए GMAT और इंजीनियरिंग, मेडिकल, रिसर्च आदि के लिए GRE देना होता है। कुछ खास यूनिवर्सिटी सब्जेक्ट स्पेसिफिक GRE भी लेती हैं। इन एग्जाम्स के नंबर के आधार पर ही आपको एडमिशन मिलेगा। कुछ कॉलेज इनके बिना भी एडमिशन देते हैं लेकिन उनकी तादाद कम है। - आप विदेश में पढ़ाई के लिए तभी जा सकेंगे, जब आप इंग्लिश के इलिजिबिटी टेस्ट टॉफल (TOEFL) या आइलिट्स (IELTS) में अच्छे मार्क्स लाएंगे। इन एग्जाम्स के दौरान आपकी इंग्लिश रीडिंग, राइटिंग, स्पीकिंग और सुनने की क्षमता की जांच होती है। इसके ही आधार पर आपको पॉइंट्स मिलते हैं। खास बात यह है कि एक बार अच्छे मार्क्स नहीं आने पर आप फिर टेस्ट दे सकते हैं और जिस टेस्ट का स्कोर बेहतर हो, उसे ही रेकॉर्ड में दे सकते हैं। इंग्लिश के लिए IELTS टेस्ट ज्यादातर देशों में मान्य है और इसका एग्जाम देश भर में 42 सेंटर्स पर होता है। ज्यादा जानकारी के लिए देखें: ielts.org - अमेरिका में एडमिशन के लिए TOEFL देना होता है। इंग्लैंड, न्यूजीलैंड आदि देशों के लिए IELTS दिया जाता है। हालांकि ज्यादातर देश अब TOEFL को मानने लगे हैं। ज्यादा जानकारी के लिए देखें: ets.org/toefl

ऐसे चुनें कॉलेज - आपने जो कॉलेज या इंस्टिट्यूट चुना है, वह फर्जी तो नहीं, यह चेक करने के लिए whed.net/home.php पर जाएं। यह वर्ल्ड हायर एजुकेशन डेटाबेस है। यहां दुनिया भर के तमाम प्रामाणिक कॉलेजों की लिस्ट है। - अमेरिकी सरकार की वेबसाइट usa.gov/study-in-us पर जाएं। वहां से अमेरिका जाकर पढ़ाई करने के बारे में बेसिक और प्रामाणिक जानकारी मिल जाएगी। - फिर आप जिस सब्जेक्ट की पढ़ाई करना चाहते हैं, वह कौन-कौन से कॉलेज और यूनिवर्सिटी में है, यह पता लगाएं। वह कॉलेज कैसा है, यह जानने की कोशिश करें। कॉलेज की वेबसाइट के अलावा उससे जुड़ी तमाम वेबसाइट्स पर जाएं। वहां के स्टूडेंट्स कहां-कहां काम कर रहे हैं, यह जानकारी हासिल करें। सभी कॉलेजों की एल्मनै (एल्युमिनाइज) असोसिएशन भी हैं, जो सोशल मीडिया (फेसबुक आदि) पर एक्टिव होती हैं। कॉलेज के बारे में उनके रिव्यू पढ़ें। कुछ निगेटिव कमेंट्स हैं तो उन पर खास ध्यान दें। - अमेरिका में हर कॉलेज की रैंकिंग होती है और वह ऑनलाइन उपलब्ध है। इसके लिए कई वेबसाइट्स आपकी मदद कर सकती हैं जैसे: usnews.com/best-colleges पर जाकर बेस्ट कॉलेज या यूनिवर्सिटी की रैंकिंग देख सकते हैं। इसके अलावा forbes.com पर जाकर Lists पर क्लिक करके Education में टॉप कॉलेज या इंस्टिट्यूट देख सकते हैं।

अप्लाई करने का तरीका
- आपने जो कॉलेज शॉर्टलिस्ट किए हैं, उनकी साइट पर जाकर Department of General Queries वाले ऑप्शन में जाएं। वहां दिए हुए ईमेल आईडी पर अपनी क्वैरीज को मेल कर दें। रिक्वेस्ट लेटर के साथ अपना एक शॉर्ट बॉयोडाटा भी भेजें। रिक्वेस्ट लेटर भेजने के बाद ज्यादातर यूनिवर्सिटीज आपको ऑनलाइन ऐप्लिकेशन फॉर्म भेजती हैं। अगर यूनिवर्सिटी की तरफ से कोई जवाब नहीं आता है तो कुछ समय बाद दोबारा रिक्वेस्ट भेजें। - विदेशी कॉलेजों में काउंसलर या रिप्रेजेंटेटिव होते हैं जो आपके संपर्क में रहेंगे। जब आप कॉलेज के लिए अप्लाई करेंगे तो मेल उन तक पहुंचेगी और वे आपसे कॉन्टैक्ट करेंगे। वे आपकी ऐप्लिकेशन में जो कमियां होंगी, उन्हें आपसे बातें करके पूरी करने की कोशिश करेंगे। वे ईमेल के जरिए आपसे जुड़े रहेंगे। आपको खुद भी सतर्क रहना होगा और अपने ऐप्लिकेशन को ट्रैक करते रहना होगा ताकि डेडलाइन न निकल जाए। - यूनिवर्सिटी को सभी जरूरी डॉक्युमेंट्स मिलते ही स्टूडेंट्स ऐप्लिकेशन फॉर्म को एडमिशन कमिटी के पास भेज दिया जाता है। ऐप्लिकेशन प्रोसेस पूरा होने के बाद जबाव आने में 1-2 महीने का समय लग जाता है। वे चाहें तो आपका इंटरव्यू भी ले सकते हैं। इसके लिए वे आपको कॉल करते हैं। अगर आपकी ऐप्लिकेशन स्वीकार कर ली जाती है तो उसके बाद वीजा के लिए अपने डॉक्युमेंट्स तैयार करने शुरू कर दें। - आपको इस दौरान स्कॉलरशिप का भी ध्यान रखना होगा और उसके लिए भी पता लगाते रहना होगा। इन स्कॉलरशिप की जानकारी वे कॉलेज ही देते हैं जहां आप अप्लाई करेंगे। आप ईमेल से मंगा सकते हैं। नेट से इस तरह के स्कॉलरशिप की जानकारी मिल सकती है। - अमेरिका में एडमिशन के लिए आपको यह बताना होगा कि आप वहां क्यों पढ़ना चाहते हैं। इसे एसओपी यानी स्टेटमेंट ऑफ परपस कहते हैं। बेहतर होगा कि इसके लिए किसी एक्सपर्ट की मदद लें। एसओपी के अलावा एलओआर यानी लेटर ऑफ रिकमेंडेशन भी बहुत अहम है। कई यूनिवर्सिटी इसे कागज पर मांगती हैं जबकि कुछ ईमेल पर। इसके जरिए वे स्टूडेंट के बारे में सारी जानकारी जुटा लेती हैं।

SOP ऐसे लिखें
- विदेशी कॉलेजों खासकर अमेरिका में पढ़ने के लिए सबसे जरूरी है, एसओपी यानी स्टेटमेंट ऑफ परपस। इसका मतलब यह हुआ कि आप यह बताएं कि आखिर आप वहां क्यों पढ़ने जाना चाहते हैं? एसओपी को ऐप्लिकेशन फॉर्म के साथ जमा करना होता है। इसके जरिए संस्थान यह फैसला करते हैं कि फलां स्टूडेंट को अपने यहां दाखिला दें या नहीं। - इसे काफी संभलकर लिखना होगा। लच्छेदार इंग्लिश के बजाय सिंपल इंग्लिश लिखें। वहां के लोग सिंपल इंग्लिश ज्यादा पसंद करते हैं। इसमें गलतियां नहीं होनी चाहिए। कम शब्दों में अपनी बात लिखें। आमतौर पर एक A-4 पेज लिखना काफी होता है। - सच लिखें और इमोशनल बनने से बचें। इसमें आप अपने बचपन के बारे में भी लिख सकते हैं, लेकिन अगर उसमें कुछ खास बात हो तो। अपने स्कूल और कॉलेज में अपनी परफॉर्मेंस के बारे में लिखिए। - आप यह जरूर लिखें कि आपमें अपने काम को लेकर कितनी लगन है? आप स्पेशलाइजेशन और एचीवमेंट के बारे में भी जिक्र करें। यहां बताएं कि आप अमेरिका में ही क्यों पढ़ना चाहते हैं, आपने यही यूनिवर्सिटी क्यों चुनी, आपने यही कोर्स क्यों चुना और इनका आपके करियर गोल से क्या ताल्लुक है? - अमेरिका रिसर्च का मक्का है। वहां हर तरह की रिसर्च होती रहती हैं। अगर आपने भी कोई रिसर्च की हो तो जरूर लिखें। इससे आपकी दावेदारी मजबूत होती है। अगर आप यह इच्छा जाहिर करें कि अमेरिका में पढ़ाई के बाद आप वहां रिसर्च करना चाहते हैं तो यह और भी बेहतर होगा।

Cover Letter यह भी ऐप्लिकेशन का बड़ा हिस्सा है। इसमें आप सीधे सब्जेक्ट पर आ जाएं और लिखें कि हमें आपके इंस्टिट्यूट या कॉलेज में एडमिशन चाहिए और इसके लिए आप जरूरी डॉक्युमेंट भेज रहे हैं। इनमें सभी कुछ होना चाहिए, मसलन अपने बायोडाटा से लेकर फीस तक की डिटेल्स। इसके साथ ही आपको टॉफल और जीआरई या जीमैट के स्कोर की फोटोकॉपी देनी होगी। सभी तरह के ऐकडेमिक रेकॉर्ड और ऐफिडेविट का भी इसमें जिक्र होना चाहिए। एलओआर यानी लेटर ऑफ रिकॉमेंडेशन का भी जिक्र होना चाहिए। इसमें आप फाइनैंशल मदद की भी बात संक्षेप में लिख सकते हैं।

LOR
लेटर ऑफ रेफ्रेंस एक जरूरी दस्तावेज है जिसके बिना आप एडमिशन की बात सपने में भी नहीं सोच सकते। यह अमूमन आपके प्रोफेसर या टीचर की ओर से लिखा जाता है। बेहतर होगा अपने स्कूल-कॉलेज के टीचर से ही इसे लिखवाएं। इसके लिए एक परफॉर्मा आता है जो हर कॉलेज खुद भेजता है। कई कॉलेज आपसे टीचर का नाम और उनका ईमेल मांगकर उन्हें सीधे मेल करेंगे ताकि टीचर सही फीडबैक दे सकें। एलओआर आमतौर पर 3 टीचर से लिखवाना होता है। यह सुनिश्चित कर लें कि टीचर आपके बारे में अच्छा लिखें। आप इन टीचर्स के नाम अमेरिकी कॉलेज या यूनिवर्सिटी को भेज सकते हैं। अगर आपने कहीं जॉब किया है तो वहां से भी एलओआर ले सकते हैं। यह बेहतर माना जाता है। अमेरिका में मैनेजमेंट वगैरह की पढ़ाई में ज्यादातर वहीं कैंडिडेट होते हैं जिन्होंने वहां किसी किस्म की नौकरी की है। उन्हें प्रिफरेंस मिलता है इसलिए अपने बॉस से एलओआर लेना कहीं बेहतर होगा।

वीजा की तैयारी
अगर आपको पसंदीदा कॉलेज मिल जाता है तो वीजा की तैयारी करनी होगी। स्टूडेंट्स के लिए I -20 वीजा की जरूरत होती है। इसके लिए आपके पास यूनिवर्सिटी से मिला F-1 फॉर्म जरूर होना चाहिए। वीजा के फॉर्म को ध्यान से भरना चाहिए और उसमें गलतियां नहीं होनी चाहिए। कोई भी सूचना छुपानी नहीं चाहिए। हर बात साफ-साफ बतानी चाहिए। पूरे विश्वास के साथ बताएं कि आप पढ़ाई करने जा रहे हैं, न कि उनके देश पर बोझ बनने। ध्यान रहे कि कॉलेज में एडमिशन हो जाने भर से आपको वीजा मिल ही जाएगा, यह जरूरी नहीं। वीजा वहां के इमिग्रेशन डिपार्टमेंट के नियमों के मुताबिक मिलता है। जरा-सी गलती पर यह रिजेक्ट हो सकता है। फिलहाल F-1 वीजा की ऐप्लिकेशन फीस 160 डॉलर यानी 10880 रुपये है, जोकि वापस नहीं होती। जीआरई, जीमैट और टॉफेल आदि टेस्ट की ऑरिजनल रिपोर्ट शीट के अलावा वीजा ऑफिसर आमतौर पर बैंक अकाउंट की डिटेल्स भी चेक करते हैं कि दूसरे देश जाकर पढ़ाई करने के लिए आपके पास पैसा है या नहीं?

रहने का इंतजाम
वीजा मिल जाने के बाद आपको दूसरी तैयारियां भी करनी होंगी जैसे वहां रहने का इंतजाम, मेडिकल इंश्योरेंस आदि। आमतौर पर वैसे वीजा ऐप्लिकेशन में आपसे यह पूछा जाएगा कि आप कहां रहेंगे? इसमें आमतौर पर स्टूडेंट्स जिस कॉलेज में एडमिशन लेने जा रहे हैं, वहां के इंटरनैशनल ऑफिस का एड्रेस या किसी फ्रेंड का एड्रेस दे सकते हैं। बाद में आप अपने रहने की जगह बदल भी सकते हैं। रहने की जगह तलाशने से पहले इंटरनेट पर ब्लैक लिस्टेड एरिया सर्च कर लें। यहां घर न लें। जहां तक खर्चे की बात है तो इलाके और कॉलेज की रैंकिग के हिसाब से फीस और रहने के खर्चे में काफी फर्क होता है। मसलन अगर आप न्यू यॉर्क जैसे शहर में रहते हैं तो आपको सिंगल बेडरूम के लिए 1000 डॉलर (करीब 66 हजार रु.) हर महीने तक चुकाने पड़ सकते हैं, जबकि अलबामा, जॉर्जिया राज्यों के गैर शहरी क्षेत्रों में चार कमरों के घर भी किराये पर 700 डॉलर महीना तक में मिल जाएगा। इसी तरह, रहन-सहन पर कम-से-कम 500-600 (करीब 35-40 हजार रु.) डॉलर महीना खर्च करने ही होंगे। हालांकि बड़े शहरों में 1300-1400 डॉलर (करीब 85-95 हजार रु.) महीना तक आसानी से खर्च हो सकते हैं। अमेरिका में विदेशी स्टूडेंट्स को हर महीने 20 घंटे काम करने की छूट है, लेकिन सिर्फ कैंपस में। कैंपस के बाहर काम गैर-कानूनी होगा। कैंपस के अंदर रेस्तरां में कुकिंग, क्लीनिंग, यूनिवर्सिटी पुलिस या लाइब्रेरी हेल्पर जैसे काम कर सकते हैं। इनसे मिलनेवाली रकम से खर्चा चलाने में मदद मिलती है।



क्या है आईवी लीग
अमेरिका में पढ़ाई की बात आती है तो आईवी लीग (Ivy League) का जिक्र जरूर आता है। इस लीग के तहत आनेवाले संस्थान पढ़ाई में भी अव्वल हैं और बहुत सारे स्टूडेंट्स की चाहत इनमें एडमिशन की होती है। वहां के 8 बड़े एजुकेशनल इंस्टिट्यूट्स ने अपनी एथलेटिक लीग बनाई, जिसे आईवी लीग कहते हैं। इसमें नॉर्थ-ईस्टर्न अमेरिका की 8 यूनिवर्सिटी हैं: 1. ब्राउन (Brown) यूनिवर्सिटी 2. कोलंबिया (Columbia) यूनिवर्सिटी 3. कॉर्नेल (Cornell) यूनिवर्सिटी 4. हार्वर्ड (Harvard) यूनिवर्सिटी 5. प्रिंसटन (Princeton) यूनिवर्सिटी 6. येल (Yale) यूनिवर्सिटी 7. यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिल्वेनिया (Pennsylvania) 8. डार्टमाउथ (Dartmouth) कॉलेज हैं। अगर बजट कम है तो आईवी लीग से दूर उन कॉलेजों में एडमिशन की कोशिश करनी चाहिए जो वहां नैशनल रैंकिंग में 30-35 नंबर तक हों। इनमें कई बेहद अच्छे कॉलेज हैं जिनमें पढ़ाई का स्टैंडर्ड बहुत ऊंचा है और फीस भी जायज है। हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने भी अपनी बेटी को सलाह दी थी कि वे आईवी लीग से दूर रहकर दूसरे कॉलेजों में एडमिशन की कोशिश करें।

ये बातें भी जरूरी
- अमेरिका या किसी भी दूसरे देश में पढा़ई करने जाने से पहले मेंटली तैयार होना जरूरी है। हमारे और उनके कल्चर में काफी फर्क है। आप जहां पढ़ना चाहते हैं, उसके आसपास किसी जानकार को होना चाहिए जिसे आप लोकल गार्जियन बना सकते हैं। आगे जाकर किसी तरह की परेशानी होने पर वह आपका सपोर्ट सिस्टम साबित होगा। पढ़ाई के लिए वहां जाने के बाद याद रखें कि आप वहां क्यों आए हैं? इससे आपको अपना मकसद याद रहेगा और आप उसी पर फोकस करेंगे। वहां की चकाचौंध या खुलेपन में भटकेंगे नहीं। वहां जाकर दोस्त जरूर बनाएं ताकि आपको अकेलापन न लगे। हां, दोस्तों के बीच पढ़ाई को न भूलें। - वहां जाने पर अगर आपको लगे कि आप कोई डॉक्युमेंट भूल गए हैं या कोई डॉक्युमेंट खो गया है तो परेशान न हों। सबसे पहले अपनी यूनिवर्सिटी को कॉन्टैक्ट करें। वहां से जरूर हेल्प मिलेगी। इसके बाद पुलिस के पास जाएं। डरें नहीं। वहां के पुलिसवाले आमतौर पर हेल्पफुल होते हैं। किसी इमरजेंसी के लिए 911 पर कॉल करें। - देश में कई एजुकेशनल कंस्लटंट हैं, जो फीस लेकर आपको काफी जानकारी मुहैया करा सकते हैं। लेकिन इन पर पूरी तरह निर्भर रहना सही नहीं होगा क्योंकि ये भी कई बार बिचौलिये की तरह काम करते हैं और कॉलेजों से मिलनेवाले कमिशन के लालच में आपको सेकंड-ग्रेड कॉलेज में भेज सकते हैं।

2016 की दुनिया की टॉप 10 यूनिवर्सिटी

1. कैलिफॉर्निया इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी (अमेरिका) 2. यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफर्ड (ब्रिटेन) 3. स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी (अमेरिका) 4. यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज (ब्रिटेन) 5. मैसाच्युसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी (अमेरिका) 6. हार्वर्ड यूनिवर्सिटी (अमेरिका) 7. प्रिंसटन यूनिवर्सिटी (अमेरिका) 8. इंपीरियल कॉलेज लंदन (ब्रिटेन) 9 स्विस फेडरल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी (स्विटजरलैंड) 10. यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो

सोर्स: timeshighereducation.com

एक्सपर्ट्स पैनल

- प्रमोद जोशी, करियर काउंसलर - निहार रंजन, रिसर्चर और स्कॉलर

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ऑड का ईवन फॉर्म्युला

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दिल्ली में एक बार फिर से ऑड-ईवन स्कीम चल रही है। चांस यह भी है कि हर महीने 15 दिन यह स्कीम चलाई जाए। बेशक इस स्कीम से सड़कों पर वीइकल कम होने के साथ ही पल्यूशन और जाम कम हो रहा है, लेकिन लोगों को दिक्कतें भी हो रही हैं। ये दिक्कतें दूर हो सकती हैं, अगर हम अपनी कार में सीएनजी किट फिट करा लें या फिर ऑल्टरनेट वीइकल यूज करें। ऑड-ईवन के दिनों में कौन-से वीइकल किस तरह आपको राहत दिला सकते हैं, बता रहे हैं खालिद अमीन और दिग्विजय सिंह:

CNG की ABC
ऑड-इवन के शुरू होते ही एक बार फिर सीएनजी (कम्प्रेस्ड नेचरल गैस) की वैल्यू लोगों के बीच बढ़ गई है। सीएनजी किट को लेकर तमाम तरीके के सवाल भी होते हैं, जिनके जवाब पाने के लिए लोगों को इधर-उधर भटकना पड़ता है। मलसन कौन-सी किट लगवानी है, किन-किन कागजात की जरूरत पड़ती है। परेशान होने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। किट लगवाने से पहले एक बार इन बातों पर जरूर गौर फरमाएं:

मार्केट में 2 तरह की सीएनजी किट मौजूद है:
सिक्वेंशल और कन्वेंशनल
सिक्वेंशल किट : यह लेटेस्ट कंप्यूटराइज्ड किट है, जो यूरो 3 या उससे ऊपर की सभी पेट्रोल कारों के लिए बढ़िया है। ओरिजनल सिक्वेंशल किट अलग-अलग ब्रैंड्स की आ रही हैं। इसमें कुछ इम्पोर्टेड किट भी मौजूद हैं जो इटली, अर्जेंटिना जैसे कई देशों से इंपोर्ट की जाती हैं। ओरिजनल सिक्वेंशल किट से बढ़िया माइलेज और अच्छा पिकअप मिलता है। साथ ही, यह गाड़ी के इंजन को भी नुकसान नहीं पहुंचाती। कन्वेंशनल किट: यह किट साल 2010 से पहले की गाड़ियों में फिट की जाती है। इसका साइज बड़ा होता है और यह सिक्वेंशल के मुकाबले सस्ती होती है। इसका माइलेज और परफॉर्मेंस कम होती है।

कौन-कौन से पेपर
- जब आप सीएनजी किट लगवाने जाएं तो आपके पास ओरिजिनल रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट (आरसी), इश्योरेंस की कॉपी, सीएनजी लगने से पहले का पल्यूशन सर्टिफिकेट, एड्रेस प्रूफ जैसे कागजात होने चाहिए।
- सीएनजी लगने के बाद मिली स्लिप की ऑरिजनल कॉपी, सर्टिफिकेट और सिलिंडर सर्टिफिकेट की कॉपी को लेकर अपने एरिया के ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट में जाना होगा, जहां आपके कार में लगी सीएनजी की जांच होगी और आपको सीएनजी स्टिकर दिया जाएगा।
- सीएनजी किट हमेशा गवर्नमेंट से अप्रूव्ड सेंटरों से ही लगवाएं। अप्रूव्ड सेंटरों की जानकारी ट्रांसपोर्ट विभाग की वेबसाइट transport.delhi.gov.in पर उपलब्ध है।
- सीएनजी सेंटर से आपको फॉर्म-20 मिलेगा, जिसे भरकर जमा करना होगा। इस फॉर्म में आपको गाड़ी से जुड़ी तमाम डिटेल्स भरनी होंगी।

CNG के फायदे
- पेट्रोल और डीजल से कहीं ज्यादा सस्ती। सीएनजी से चलने वाली कारें इंजन कपैसिटी और किट की क्वॉलिटी के हिसाब से 1.1 से 1.5 रुपये/किमी की रनिंग कॉस्ट देती हैं।
- पेट्रोल और डीजल की तुलना में सीएनजी में आग लगने का खतरा कम होता है।
- जो लोग शहर के अंदर ही ज्यादा कम्यूट करते हैं और फ्यूल पर पैसे नहीं खर्च करना चाहते या फिर पर्यावरण को हो रहे नुकसान को लेकर सचेत रहते हैं उनके लिए सीएनजी बेहतर ऑप्शन है। सीएनजी कार की 1-1.5 रुपये/किमी की रनिंग कॉस्ट एक बाइक या स्कूटर की रनिंग कॉस्ट के बराबर ही पड़ती है।

CNG के नुकसान
-सीएनजी की गाड़ी परफॉर्मेंस के मामले में पिछड़ जाती है।
-कार की मेंटेनेंस कॉस्ट काफी बढ़ जाती है। कई बार लोग सस्ती सीएनजी किट लगवा लेते हैं जिससे इंजन को नुकसान होता है।

दिल्ली में नया नियम
सीएनजी किट को लेकर दिल्ली में नया नियम लागू हो गया है। अब दिल्ली में बीएस-1 और बीएस-2 एमिशन स्टैंडर्ड वाली गाड़ियों में सीएनजी किट नहीं लग सकेगी। इस पर दिल्ली सरकार ने रोक लगा दी है। इससे पहले किसी भी गाड़ी में सीएनजी किट लगवा सकते थे। अब सिर्फ बीएस-3 और बीएस-4 एमिशन स्टैंडर्ड वाली गाड़ियों में ही सीएनजी किट लग सकेगी। यानी 2005 से पहले की गाड़ियों में सीएनजी किट नहीं लग सकेगी।



इलेक्ट्रिक वीइकल
इलेक्ट्रिक टू-वीलर्स को ई-बाइक्स के नाम से भी जाना जाता है। इंडिया में अभी ये बहुत कामयाब नहीं हो पाई हैं, लेकिन अगर थोड़ा समझदारी से इनका इस्तेमाल किया जाए तो ये काफी काम की हो सकती हैं।

क्या है खूबियां
- सबसे बड़ी खासियत तो यही है कि ये बिना पेट्रोल के चलती हैं। रनिंग कॉस्ट पेट्रोल या डीजल पर चलने वाले टू-वीलर के मुकाबले काफी कम होती है।
- कीमत भी पेट्रोल टू-वीलर से करीब 60-65 पर्सेंट तक कम होती है। मसलन, एक ऑटोमैटिक स्कूटर करीब 65 से 75 हजार रुपये में आता है, जबकि इलेक्ट्रिक स्कूटर की कीमत करीब 25 से 35 हजार रुपये होती है।
- इनमें इंजन की जगह इलेक्ट्रिक मोटर लगी होती है, जिसकी मेंटनेंस कम होती है। इंजन की तरह खराब होने वाले पार्ट्स इनमें नहीं होते। कुल मेंटनेंस (सर्विस आदि) का खर्च बेहद कम है।
-25 किमी प्रति घंटा की रफ्तार से कम स्पीड वाली ई-बाइक्स (लो स्पीड बाइक्स) को चलाने के लिए लाइसेंस की जरूरत नहीं होती। रजिस्ट्रेशन और हेलमेट भी जरूरी नहीं है, क्योंकि इनकी रफ्तार काफी कम होती है। हालांकि खुद की सेफ्टी के लिए हेलमेट जरूर लगाना चाहिए।
-इनका डिजाइन काफी स्टाइलिश होता है और देखने में ये ट्रडिशनल ऑटोमेटिक स्कूटरों की तरह ही दिखती हैं। ऐसा नहीं लगता कि आप कोई अलग तरह का स्कूटर चला रहे हैं।


क्या है कमियां
- इनकी बैटरी पर अभी काफी काम हो रहा है। अभी इनमें जो तकनीक मौजूद है, उससे बैटरियों को चार्ज होने में काफी वक्त लगता है और वे ज्यादा दूर तक भी नहीं चल पातीं।
- लंबी दूरी की राइड के लिए इनका इस्तेमाल करना मुमकिन नहीं, क्योंकि एक बार फुल चार्ज करने पर आमतौर पर ये 50 से 60 किमी तक ही चल पाती हैं।
- लो स्पीड बाइक तो काफी स्लो हैं ही, हाई स्पीड बाइक भी करीब 50 किमी प्रति घंटा की अधिकतम रफ्तार ही पकड़ सकती है। ऐसे में ये बैटरी भी ज्यादा इस्तेमाल करती हैं।
-इन्हें अब भी मेनस्ट्रीम का टू-वीलर नहीं माना जा रहा। यह एक ऐसा माइंड ब्लॉक है जिसे दूर करना जरूरी है तभी ये आम लोगों में पॉपुलर हो पाएंगी।

इलेक्ट्रिक टू-वीलर्स में ऑप्शन
ई-बाइक: भले ही सभी तरह के इलेक्ट्रिक टू-वीलर्स को लोग ई-बाइक के नाम से बुलाते हों, लेकिन ई-बाइक वे बाइक्स हैं, जो देखने में साइकल या मोपेड की तरह दिखती हैं और इनमें इलेक्ट्रिक मोटर लगी होती है। उसके अलावा, इलेक्ट्रिक स्कूटर भी होते हैं जो मोटे तौर पर स्कूटर जैसे ही दिखते हैं। इंडिया में ई-स्कूटर ज्यादा बिकते हैं।
किनके लिए बेस्ट: ये बाइक और स्कूटर उनके लिए अच्छे हैं, जो घर के आसपास मार्केट वगैरह जाने के लिए एक हल्का वीइकल चाहते हैं।

लो-स्पीड: जिन इलेक्ट्रिक बाइक/स्कूटरों की स्पीड 25 किमी प्रति घंटा से कम होती है, उन्हें लो-स्पीड स्कूटर कहते हैं। इनके लिए हेलमेट, रजिस्ट्रेशन और लाइसेंस जरूरी नहीं है।
किनके लिए बेस्ट: अगर घर में कम उम्र के बच्चे हैं (14-15 साल ) और वे भी स्कूटर चलाना चाहते हैं तो उनके लिए ये अच्छा ऑप्शन हैं। कम स्पीड की वजह से ये बच्चों के लिए सेफ भी हैं।

हाई-स्पीड: इंडिया में जो इलेक्ट्रिक बाइक/स्कूटर 50-55 किमी प्रति घंटा तक की स्पीड पकड़ सकते हैं, उन्हें हाई-स्पीड स्कूटर कहा जाता है।
किनके लिए बेस्ट: अगर परफॉर्मेंस चाहिए तो हाई स्पीड बाइक चुनें। ये स्कूटर पेट्रोल से चलने वाले स्कूटरों को परफॉरमेंस में टक्कर दे सकते हैं। स्टाइल भी इनका बेहतर होता है।

ई-बाइक्स: आपकी जेब के लिए भी फायदेमंद
इलेक्ट्रिक वीकल्स का इस्तेमाल करके आप पर्यावरण को काफी फायदा पहुंचा सकते हैं। साथ ही, अपने पेट्रोल बिल में भी काफी कटौती कर सकते हैं। सोसायटी ऑफ मैन्युफैक्चरर्स ऑफ इलेक्ट्रिक वीकल्स (SMEV) के डायरेक्टर सोहिंदर गिल बताते हैं कि अगर एक लाख पेट्रोल टू-वीलर्स को एक लाख इलेक्ट्रिक टू-वीलर्स से रिप्लेस कर दिया जाए तो 3 साल में 1.5 लाख टन कार्बन एमिशन को रोका जा सकता है। लेकिन ग्रीन वीइकल्स को बढ़ावा देने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर पॉलिसी तक में बड़े बदलाव करने होंगे। SMEV ने इसे लेकर एक स्टडी भी की है, जिसे देखकर आप इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि आपका इलेक्ट्रिक स्कूटर कितना किफायती और कितना ग्रीन है। मिसाल के तौर पर अगर आप पेट्रोल के टू-वीलर की जगह इलेक्ट्रिक टू-वीलर इस्तेमाल करते हैं तो 2 साल में करीब 40 हजार रुपये की बचत कर सकते हैं। समझते हैं, इस गणित को:

पेट्रोल की कीमत: 60 रुपये प्रति लीटर (लगभग)
माइलेज: 45 किमी प्रति लीटर
बिजली की कीमत: 8 रुपये प्रति यूनिट
इलेक्ट्रिक वीइकल को फुल चार्ज करने की लागत: 10 रुपये
फुल चार्ज करने पर चलती है: 60 किमी
अगर आपकी डेली एवरेज राइड 40 किमी है तो ऊपर दिए आंकड़ों के आधार पर 2 साल में 28800 किलोमीटर चलेंगे।

इसी के आधार पर इलेक्ट्रिक और पेट्रोल स्कूटर की तुलना करते हैं तो:
2 साल में इलेक्ट्रिक स्कूटर की ओनरशिप
कीमत: 35,000 रुपये
मेंटनेंस कॉस्ट: 8000 रुपये
बैटरी रिप्लेसमेंट कॉस्ट: 16,000 रुपये
2 साल में चार्जिंग की कॉस्ट: 4608 रुपये
रीसेल वैल्यू: 5000 रुपये
टोटल ओनरशिप कॉस्ट: 58,608 रुपये

2 साल में पेट्रोल स्कूटर की ओनरशिप
कीमत: 55,000 रुपये
मेंटनेंस कॉस्ट: 16,000 रुपये
बैटरी रिप्लेसमेंट कॉस्ट: 0 रुपये
2 साल में फ्यूल की कॉस्ट: 38,304 रुपये
रीसेल वैल्यू: 10,000 रुपये
टोटल ओनरशिप कॉस्ट : 99,304 रुपये
इलेक्ट्रिक टू-वीलर चलाने वाले की 2 साल में बचत: 40696 रुपये


इलेक्ट्रिक फोर-वीलर में पीछे हैं हम (बॉक्स के लिए)
इंडिया में इलेक्ट्रिक टू-वीलर्स तो फिर भी सड़कों पर दिख जाते हैं, लेकिन इलेक्ट्रिक फोर वीलर को यहां रोड पर आपने शायद ही देखा होगा। इसकी वजह यह है कि इंडिया में अभी इसका मार्केट बिल्कुल भी नहीं है। महिंद्रा एंड महिंद्रा की एकमात्र इलेक्ट्रिक कार रेवा ही मौजूद है। वैसे तो यह पूरी तरह से बैटरी से चलने वाली कार है, लेकिन जिस तरह की एडवांस इलेक्ट्रिक गाड़ियां अमेरिका, यूरोप और जापान में मौजूद हैं, उनसे यह तकनीकी रूप से काफी पीछे है। एक्सपर्ट्स का मानना है कि इंडिया में इलेक्ट्रिक कारों को पॉपुलर करने के लिए ऑटोमोबाइल कंपनियों और सरकार को काफी मेहनत करनी होगी। इस बीच अच्छी खबर यह है कि दुनिया की सबसे पॉपुलर इलेक्ट्रिक कार कंपनी टेस्ला ने अपनी नई कार टेस्ला मॉडल-3 को इंडिया में लाने का ऐलान कर दिया है। यह बेहद एडवांस्ड कार है। अगर इस पर सारे टैक्स हटा लिए जाएं तो भी इसकी कीमत इंडिया में करीब 25 लाख रुपये पड़ेगी। ऐसे में अगर मास सेगमेंट की बात करें तो करीब 6 लाख रुपये कीमत वाली महिंद्रा रेवा इंडियन मार्केट के लिए फिलहाल अच्छा ऑप्शन है। ..........................................

सब पर भारी, साइकल हमारी
ट्रांसपोर्ट के लिए एक बढ़िया जरिया है साइकल। ऑफिस हो या कॉलेज या फिर थोड़ी दूर से सामान लेकर आना हो, साइकल से बेहतर और कुछ नहीं। एक्सरसाइज के साथ-साथ आप अपनी दूरी आराम से तय कर सकते हैं। मार्केट में आपको 2000 रुपये से लेकर 1.5 लाख रुपये तक की रेंज में साइकल मिल जाएंगी। इनमें स्पोर्ट्स, हाइब्रिड, माउंटेन, रोड, फोल्डिंग जैसे कई ऑप्शन हैं। साइकल की रेंज के अलावा इसे यूज करने के हिसाब से भी 3 कैटिगरी में बांटा गया है: बेसिक, मॉडरेट और प्रफेशनल्स। अगर आप शौकिया तौर पर साइकल लेना चाहते हैं 3000 से 4500 रुपये तक में काफी अच्छे ऑप्शंस मिल जाएंगे। इसके अलावा और भी बेहतर रेंज में साइकल बाजार में उपलब्ध हैं।
स्कूल-कॉलेज के लिए
मार्केट में सिंगल स्पीड की अच्छी साइकलें 3 से 5 हजार रुपये की रेंज में मौजूद हैं, जो आपकी राइड का मजा बढ़ा सकती हैं। इन तरह की साइकिलों में आपको पावरफुल ब्रेक के साथ स्टील मेटल की बॉडी मिलती है, जिसकी वजह से इसका वजन अपेक्षाकृत कम ही होता है। इनकी मेटिनेंस कॉस्ट भी काफी कम होती है और ये पूरी तरह से पैसा वसूल साबित होती हैं।
​​ऑफिस के लिए
ऑफिस अगर पास है तो हफ्ते में एक-दो बार तो साइकल से जा ही सकते हैं। वैसे भी मार्केट में ऑप्शंस की भरमार है। आपको 8 से 15 हजार रुपये की रेंज में शानदार साइकल मिल सकती है। दिल्ली से सटे इंदिरापरम में स्पोर्ट्स सेंटर डिकैथलॉन के स्पोर्ट्स एडवाइजर मोहित शर्मा का कहना है कि उनके यहां 3 हजार से लेकर 37000 रुपये तक की साइकल उपलब्ध हैं। साइकल को लेकर अब एक नया क्रेज देखने को मिल रहा है। दिल्ली-एनसीआर के लोगों का रुझान साइकल की ओर बढ़ा है। ऐसे लोगों की तादाद लगातार बढ़ रही है, जो साइकल से चलने में खुद को ज्यादा फ्रेश और फिट महसूस करते हैं।
प्रफेशनल्स के लिए खास
अगर आप प्रफेशनल लेवल पर साइक्लिंग का शौक रखते हैं तो 24 गियर वाली एल्युमीनियम फ्रेम की साइकल आपके लिए बेहतर है। लगभग 10 किलो की ट्राईबैन 300 आपको 8 अलग-अलग साइज में मिल सकेगी। एलॉय वील्स (हल्के और मजबूत) के साथ इसे लंबी राइड के लिए खास तौर से डिजाइन किया गया है। इसकी कीमत 37000 रुपये है।
ऑफ और ऑन रोड के लिए
30 हजार में आपको 27 गियर वाली मल्टिपर्पज साइकल मिल जाएगी, जिसे लेकर आप सिटी और पहाड़ों पर भी जा सकते हैं। इस तरह की साइकल में बाइक की तरह हाइड्रॉलिक सस्पेंशन और ब्रेक लगा होता है जो साइक्लिंग के दौरान आपकी काफी मदद करता है।
कमाल की फोल्डिंग साइकल
बाजार में ऐसी साइकिलें भी हैं, जिन्हें आप फोल्ड करके अपने साथ कहीं भी ले जा सकते हैं। लोग हॉलिडे पर इस तरह की साइकल ले जाना काफी पसंद करते हैं। ऐसी ही फोल्डिंग साइकिल बनाने वाली कंपनी फायरफॉक्स बाइक्स के सीईओ शिव इंदर सिंह का कहना है कि ऑड-ईवन का कॉन्सेप्ट काफी अच्छा है। इससे न सिर्फ पल्यूशन को कंट्रोल करने में मदद मिलेगी,बल्कि जाम से भी निजात मिलेगी। और जहां तक रही बात ऑफिस जाने की तो साइकल से बढ़िया ऑप्शन और कुछ भी नहीं। फोल्डिंग बाइक से आप आसानी से अच्छी-खासी दूरी कवर कर सकते हैं। विदेशों में तो शॉर्ट डिस्टेंस कवर करने के लिए साइकल सबसे ज्यादा यूज की जाती है। अच्छी बात है कि यह ट्रेंड अब हमारे यहां भी आ रहा है। लोगों को साइकल चाहिए, लेकिन इसे रखने की समस्या से उन्हें दो-चार होना पड़ता है। ऐसे में फोल्डिंग साइकल इसका सॉल्यूशन है। इसे ऑफिस, घर, जिम कहीं भी फोल्ड कर आसानी से रखा जा सकता है।

एक्सेसरीज भी हैं जरूरी
- हेलमेट जरूर पहनें। शहर में साइक्लिंग और पहाड़ों पर साइक्लिंग के लिए अलग-अलग तरह के हेलमेट मार्केट में मौजूद हैं।
- रिफ्लेक्टिव जैकेट्स रोशनी पड़ने पर चमकती हैं। ये एक्सिडेंट होने से आपको बचाएंगी। इसको पहनने से आप दूर से ही सड़क पर दिखाई दे जाएंगे।
- सीट की कुशनिंग बढ़ाने के लिए जेल पैडेड कवर भी बाजार में हैं, जो आपकी राइड को और सुकून भरा बनाते हैं।
- आप साइकल में एक छोटा एयर पंप भी फिट कर सकते हैं जिसके जरिए आप कहीं भी अपनी साइकल में हवा भर सकते हैं।
- छोटा-सा पंक्चर किट जरूर रखें। पंक्चर होने की स्थिति में यह आपकी बड़ी मदद कर सकता है।
- वॉटर बॉटल कैरी करने के लिए होल्डर भी लगवा सकते हैं, यह गर्मी के मौसम में आपको राहत देगा।

साइक्लिंग के फायदे
- यह सबसे आसान और बढ़िया एक्सरसाइज है। बड़े, बुजुर्ग, बच्चे, कोई भी साइक्लिंग कर सकता है।
- वजन घटाने के लिए साइक्लिंग काफी फायदेमंद है।
- रोज साइकल चलाने से दिल की एक्सरसाइज भी होती है और खून का दौरा ठीक होता है। इससे दिल से जुड़े रोगों का रिस्क कम होता है। फेफड़े मजबूत होते हैं।
- साइकल चलाने से पैरों की बढ़िया कसरत होती है और मांसपेशियां मजबूत होती हैं।
- शरीर का इम्यून सिस्टम मजबूत होता है। इससे स्टैमिना भी बढ़ता है।
- रेग्युलर साइक्लिंग आपको तनाव और डिप्रेशन से दूर रखने में मददगार साबित होती है।
- घुटनों के दर्द को कम करने के लिए साइक्लिंग सबसे बढ़िया एक्सरसाइज है। इससे पिंडलियां भी मजबूत होती हैं।

साइक्लिंग के नुकसान
- महानगरों की सड़कों पर पीक ऑवर में साइकल चलाना काफी मुश्किल भरा काम है।
- एक्सिडेंट होने का खतरा लगातार बना रहता है।
- पल्यूशन सीधे तौर पर झेलना पड़ता है।
- नॉर्थ इंडिया के तापमान में बहुत उतार-चढ़ाव होता है। तेज गर्मी, सर्दी के अलावा बारिश में भी साइकिल चलाना काफी मुश्किल है।
- अपनी हाइट के मुताबिक साइकल लेनी चाहिए, वरना पीठ दर्द हो सकता है।

यह भी रखें ध्यान -साइकल को बार-बार गिराने से उसके गियर में दिक्कत आ सकती है इसलिए उसे संभाल कर रखें।
-गियर वाली साइकल में ऑयलिंग काफी जरूरी है, वरना आपको परेशान कर सकती है।
- पहली बार साइकल लेकर निकल रहे हैं तो ज्यादा लंबी दूरी न तय करें। मांसपेशियों में खिंचाव आ सकता है।
- गर्मी का मौसम है, इसलिए साइकल पर निकलने से पहले पीने के पानी का इंतजाम कर लें।
- सिर ढकने के लिए हेलमेट के साथ स्कॉर्फ भी ले सकते हैं, जोकि गर्मी से आपको थोड़ी राहत देगा।​


ये कारपूलिंग ऐप भी काम के...

Odd-Even Ride
इसके जरिए आप अपने पास की कार पूल कर सकते हैं। रजिस्ट्रेशन के बाद आपको अपना नाम, मोबाइल नंबर, वीइकल नंबर, टाइम और कहां जाना है जैसी डिटेल्स डालनी होंगी। अगर आप महिला हैं और सिर्फ महिलाओं के साथ कार शेयर करना चाहते हैं तो वह भी ऑप्शन में भर सकते हैं। टू-वीलर के ओनर भी इसमें खुद को रजिस्टर कर सकते हैं।

PoochhO Carpool
इस ऐप को दिल्ली सरकार ने लॉन्च किया है। 'पूछो कारपूल' ऐप से लोगों को नजदीकी इलाके में कारपूलिंग का ऑप्शन मिलेगा। इसमें रजिस्टर कर लोग 1 से 5 किमी के दायरे में कारपूलिंग तलाश सकते हैं। महिलाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए यूजर्स को मोबाइल नंबर शेयर नहीं करना होता। वे ऐप के चैट फीचर से ही कार ड्राइवर से बात कर सकते हैं।

Orahi
इस ऐप ने हाल में odd-even.com को भी खरीदा है। Orahi में रजिस्टर करने के लिए आधार नंबर या ऑफिशल आईडी की जरूरत होती है। इससे सेफ्टी काफी बेहतर हो गई है।

Shuttl
आप एनसीआर में रहते हैं और ऑड-ईवन की वजह से अपनी कार से ट्रैवल नहीं कर पा रहे तो यह ऐप आपके काम का हो सकता है। यह भीड़भाड़ वाली बसों या शेयर्ड ऑटो से आपको बचाएगा। यह फिलहाल नोएडा और गुड़गांव के 15 रूट्स पर कार-पूलिंग मुहैया करा रहा है। उसमें हुडा सिटी सेंटर मेट्रो से मेदांता और फोर्टिस हॉस्पिटल से लेकर मेट्रो सिटी सेंटर तक जैसे रूट हैं।

BlaBla Car
इस ऐप के जरिए भी आप कार पूल कर सकते हैं। रेट इतने कम हैं कि नोएडा से ग्रीन पार्क जैसे एरिया में जाना हो तो 30 से 50 रुपये तक ही खर्च करने होंगे।

वेबसाइट: oddevenidea.delhi.gov.in मोबाइल: 0959-5561-561 नंबर पर कॉल कर जानकारी हासिल कर सकते हैं।



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दिल घूम-घूम करे तो याद रखें ये बातें...

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जब मन किया चल दिए, जहां मन किया रुक गए। कोई खूबसूरत लोकेशन दिखी तो रुककर सेल्फी ले ली। छोटा-सा ढाबा दिखा तो चाय की चुस्कियों के साथ लोकल लोगों के संग बतिया लिए। न बस पकड़ने की आपाधापी, न ट्रेन छूटने का डर। अलमस्त आवारा बादलों की तरह ऐसी घुमक्कड़ी किसी बंधन में मुमकिन नहीं। इसके लिए चाहिए अपनी बाइक या कार और आजाद ख्याल। बस चाबी घुमाइए और चल पड़िए। अगर आप भी अपनी कार या बाइक से देश-दुनिया के चक्कर लगाना चाहते हैं तो वरुण वागीश की ये जानकारियां आपके काम आएंगी:

हिमालय के सुदूर इलाकों में जहां बस नहीं पहुंच पाती, मेरी बाइक ने पहुंचा दिया। पूर्वोत्तर भारत के जिन इलाकों में ट्रेन अब भी सपना है, वहां अपनी कार ने हमें चलते-फिरते घर जैसा आराम दिया। नेपाल और भूटान जाने से पहले ट्रांसपोर्ट संबंधी कई बुनियादी जानकारी नहीं मिल पाई थी तो अपनी गाड़ी से चले गए। एडवेंचर के साथ-साथ एक सुरक्षा की भावना भी अपनी गाड़ी से घूमते हुए रहती है। मिसाल के तौर पर अरुणाचल प्रदेश के सुदूर उत्तर में मेंचुका जाते हुए रास्ता बेहद खराब था। अंधेरा हो गया था, लेकिन मन में डर नहीं था। तय कर रखा था होटल मिला तो ठीक, वरना कार में ही सो जाऊंगा। इसी उम्मीद ने हौसला पस्त नहीं होने दिया और एक गांव में पनाह मिल ही गई। जम्मू-कश्मीर के भद्रवाह इलाके से उस रास्ते लौटने का मन नहीं था, जिससे गए थे। एक और रास्ते का पता चला, जो जंगलों से होता हुआ सीधे हिमाचल प्रदेश के चंबा निकल जाता है, लेकिन उधर से दिन में इक्का-दुक्का कोई जीप ही गुजरती है। उस वक्त बाइक थी तो सोचा क्यों न नया रास्ता देखा जाए! जब सफर शुरू किया तो कुदरत के ऐसे नजारे देखने को मिल रहे थे, जो कल्पना से ज्यादा सुंदर थे। सारथल होते हुए सीधे चंबा निकले। वहां से डलहौजी और पठानकोट होते हुए दिल्ली। वाकई अपनी गाड़ी से घूमने में होने वाली सुविधा का कोई जवाब नहीं। हालांकि इससे पहले कि आप सफर पर निकलें, अपनी और गाड़ी की जरूरत को ध्यान में रखते हुए कुछ बुनियादी तैयारी कर लें। ऐसे किसी ट्रिप पर निकलने से पहले कुछ बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी होता है। रास्ते की जानकारी: मैप की मदद लें।


मोबाइल में गूगल मैप्स का सहारा लें। ऑफलाइन मैप्स भी डाउनलोड कर लें। इंटरनेट न होने पर गूगल मैप्स काम नहीं कर पाता। गूगल मैप्स ऑफलाइन इस्तेमाल के लिए डाउनलोड हो सकते हैं। ऐप स्टोर से आप ऐसे दूसरे मैप्स भी डाउनलोड कर उसे यूज करने का तरीका इंटरनेट से सीख सकते हैं। जेब इजाजत दे तो गार्मिन के जीपीएस बेस्ड नैविगेटर डिवाइस भी खरीदे जा सकते हैं, जोकि 6000 रुपये से शुरू होते हैं। मौसम की जानकारी: जहां जा रहे हैं इंटरनेट के जरिए उस इलाके के मौसम की जानकारी लें और कपड़े उसी हिसाब से रखें। जींस के अलावा सिंथेटिक कपड़े रखना ज्यादा बेहतर है क्योंकि इनकी देखभाल की कम जरूरत पड़ती है। रुकने की जगह: एडवांस में होटल बुक करवाना जरूरी नहीं। इससे यात्रा के दौरान फिजूल दबाव रहता है, जो आपको ड्राइव का मजा पूरी तरह नहीं लेने देता। फिर भी यह जानकारी जरूर रखें कि रास्ते में पड़ने वाले शहर कितनी दूरी पर हैं ताकि जरूरत पड़ने पर आप वहां पहुंचने के समय का सही अंदाजा लगा सकें। वैसे, गांव-देहात में आज भी लोग टूरिस्टों को आसानी से अपने घर में पनाह दे देते हैं। इससे आपको लोकल चीजों को पास से जानने का मौका मिलता है। गुरुद्वारे में भी मुफ्त में रात गुजार सकते हैं। वैसे , ऑनलाइन होटल बुकिंग साइट्स से आप लगातार अच्छी डील की जानकारी ले सकते हैं।


इमर्जेंसी नंबरों की जानकारी: किसी भी इमर्जेंसी में मदद हासिल कर सकें, इसके लिए इमर्जेंसी नंबरों की जानकारी पहले से लेकर चलें। सबसे काम का नंबर है 100। आप जहां से भी गुज़रेंगे, वहीं के लोकल पुलिस कंट्रोल रूम से यह नंबर कनेक्ट हो जाएगा। अगर मामला पुलिस से जुड़ा नहीं है तो भी मामले की गंभीरता को देखते हुए वे आपको स्थानीय नंबरों की जानकारी दे देंगे। इसके अलावा आमतौर पर हर हाइवे पर इमर्जेंसी नंबर लिखे रहते हैं, जिनसे दुर्घटना जैसे हालात में तुरंत मदद ली जा सकती है। अपने डॉक्टर और गाड़ी मैकेनिक या वर्कशॉप का नंबर भी साथ रखें। गाड़ी की सर्विस बुक में देशभर के सर्विस सेंटरों के एड्रेस और फोन नंबर की लिस्ट होती है, उसे भी संभालकर रखें।

􀀀अपनों के टच में रहें: स्मार्ट फोन की मदद से अपनी लोकेशन रियल टाइम में घर बैठे शुभचिंतकों के साथ शेयर की जा सकती है। उनके स्मार्ट फोन में family Locator ऐप डाल दें। आप सफर में जहां कहीं भी होंगे, उन्हें इसकी जानकारी रियल टाइम में मिलती रहेगी। अपने ऐप स्टोर में फैमिली लोकेटर सर्च करें। ऐसे दर्जनों ऐप मिल जाएंगे। अहम जानकारी नोट करें: अपना नाम, ब्लड ग्रुप और एक इमरजेंसी नंबर एक कार्ड पर लिखकर हमेशा अपनी जेब या पर्स में रखें। गाड़ी के विंडशील्ड या दरवाजे पर भी यह जानकारी लिख सकते हैं। इमर्जेंसी में कोई अनजान व्यक्ति भी ये नंबर देखकर आपके घर पर सूचना भेज सकेगा।

परेशानी का सबब न बन जाए अपनी गाड़ी

टायर पंक्चर, ब्रेकडाउन, लॉन्ग ड्राइव की थकान और ट्रैफिक जाम - ये ऐसी वजहें हैं, जो सफर का मजा किरकिरा कर सकती हैं। हालांकि पहले से तैयारी कर लें तो परेशानियों से बचा जा सकता है। पंक्चर: घिसे हुए और पुराने टायर न सिर्फ पंक्चर का, बल्कि टायर फटने जैसे हादसों का सबसे बड़ा कारण होते हैं इसलिए टायर अच्छी हालत में हों। टायरों में हवा का प्रेशर सही हो। गाड़ी की सर्विस बुक में सही प्रेशर की जानकारी होती है। ब्रेकडाउन: इलाज से बेहतर है बचाव इसलिए गाड़ी को हमेशा दुरुस्त रखें। लंबे सफर से पहले सर्विस करा लें, जिसमें सभी स्टैंडर्ड चेकअप हों। ब्रेक, हेडलाइट, टेललाइट, इंडिकेटर बल्ब, रियर व्यू मिरर, एयर बैग सेंसर आदि सही हों। सुरक्षा सेंसर, इंजन और ब्रेक ऑयल लेवल, एसी कूलेंट आदि सभी अच्छी तरह से चेक करवा लें। सफर के बीच में ब्रेकडाउन हो भी जाए तो कार कंपनी की हेल्पलाइन का सहारा लें, जिसका नंबर सर्विस बुक में होगा। थकान: ड्राइवर को नींद आ जाना अपने देश में सड़क हादसों के प्रमुख कारणों में से एक है। दिमाग थका हो तो फैसला लेने में वक्त लगता है जबकि हाइवे पर तेज रफ्तार के साथ जरूरी है फौरन फैसला लेने की क्षमता। यह तभी मुमकिन है, जब आपका तन और मन फ्रेश होगा। इसलिए सफर से पहले और बीच-बीच में ब्रेक लेते रहें। यह आदत आपकी और गाड़ी की सेहत को बनाए रखेगी। ट्रैफिक जाम: सफर का सारा मजा किरकिरा कर देते हैं जाम। लेकिन आपका स्मार्ट फोन आपको इससे बचा सकता है। मोबाइल में इंटरनेट ऑन कीजिए और जहां जाना है, वहां का एड्रेस डाल दीजिए। फिर वॉइस नैविगेशन के भरोसे सफर तय करें। अगर रास्ते में कहीं जाम होगा, तो 'गूगल बाबा' आपको दूसरे रास्ते से जाने की सलाह दे देंगे। आपके जीपीएस बेस्ड स्मार्टफोन की बदौलत यह सब मुमकिन है। वैसे अनुभव यह भी बताता है कि सड़क की क्वॉलिटी और जाम की जानकारी के लिए रोजाना हाइवे पर चलने वाले ट्रक ड्राइवरों की सलाह पर भी विचार किया जा सकता है।


पहले से करें ये तैयारियां

पंक्चर रिपेयर किट: अचानक होने वाले पंक्चरों से निबटने के लिए पंक्चर रिपेयर किट साथ रखें। 100-150 रुपये में यह बाजार में आसानी से उपलब्ध है। पंक्चर सील करने का तरीका सीखने के लिए किसी पंक्चर रिपेयर करने वाले या यूट्यूब विडियोज़ की मदद ले सकते हैं। ट्यूबलेस टायर: वैसे तो आजकल बाइक और कार में ट्यूबलेस टायर ही लगकर आने लगे हैं। फिर भी अगर आपकी गाड़ी में ट्यूब वाले टायर हैं तो लंबे सफर पर जाने से पहले इन्हें बदलकर ट्यूबलेस टायर लगवा लें। ये बाइक के लिए 1200 और कार के लिए 2500 रुपये से शुरू होते हैं। इनमें होने वाले पंक्चर आसानी से और कम समय में रिपेयर हो जाते हैं। तरीका इतना आसान है कि कोई भी इन्हें रिपेयर कर सकता है। इस बात का ख्याल जरूर रखें कि रॉयल इनफील्ड जैसी कई बाइक कंपनी अभी भी स्पोक वाले पहिए देती हैं, जिनमें ट्यूबलेस टायर लगवाना खतरनाक हो सकता है। ऐसे मामलों में स्पेयर ट्यूब रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

एयर पंप: इमरजेंसी में टायरों में हवा भरने या प्रेशर सही बनाए रखने के लिए इलेक्ट्रिक एयर पंप काफी काम आते हैं। सिगरेट लाइटर या मोबाइल चार्जर वाले सॉकेट से इन्हें चलाया जाता है। वैसे कई लोग अपने साथ पांव से चलने वाले पंप भी रखते हैं। यहां तक कि साइकल की ट्यूब में हवा भरने वाले पारंपरिक पंप से भी लोग काम चला लेते हैं। 100 रुपये से 500 रुपये तक ऐसे पंप बाजार में मिल जाते हैं। पंक्चर सीलेंट: आज ऐसे लिक्विड सीलेंट (300 रुपये से शुरू) भी आसानी से उपलब्ध हैं, जो पंक्चर होते ही टायर के उस हिस्से को सील कर देते हैं, जहां से हवा लीक हो रही होती है। बाजार और ऑनलाइन शॉपिंग पोर्टल्स पर कई ब्रैंड के सीलेंट उपलब्ध हैं। इनको इस्तेमाल करने का तरीका ऑनलाइन विडियो से सीख सकते हैं। वैसे इन पर पूरी तरह निर्भरता भी ठीक नहीं है इसलिए समय-समय पर टायर चेक करते रहें। जहां भी पंक्चर की दुकान नजर आए पंक्चर रिपेयर कराते चलें।

पेट्रोल कैन: लद्दाख, लाहौल-स्पीती, उत्तराखंड, नेपाल, भूटान और अरुणाचल प्रदेश के कई सुदूर हिस्सों में यात्रा करते वक्त अलग-से पेट्रोल-डीजल रखना चाहिए। इन इलाकों में पेट्रोल पंप नहीं हैं। हालांकि पेट्रोल को कैरी करने में सावधानी बरतने की जरूरत होती है वरना यह जानलेवा भी साबित हो सकता है। इन्हें अच्छी क्वॉलिटी की बोतल में अच्छी तरह टाइट बंद करके रखें। इसके लिए बाजार में कई तरह की प्लास्टिक या मेटल की बोतल और कैन उपलब्ध हैं। सैनिक छावनियों के आसपास के बाजारों में ये आसानी से मिल जाती हैं। वैसे कोल्ड ड्रिंक की डेढ़-दो लीटर की खाली बोतलों में भी पेट्रोल-डीजल रख सकते हैं।

बाकी स्पयेर पार्ट्स
कार के लिए जंप स्टार्ट केबल (कार स्टार्ट न होने पर), टो रोप (किसी और गाड़ी से अपनी कार खिंचवाने के लिए), क्लच वायर, हेडलाइट बल्ब, ब्रेक वायर, इंजन ऑयल, डिस्क ब्रेक ऑयल, प्लायर, स्क्रू ड्राइवर, रेंच

बाइक के लिए
सैडल बैग, बंजी रोप (सामान बांधने के लिए), हेड लाइट बल्ब, क्लच वायर, ब्रेक वायर, इंजन ऑयल, डिस्क ब्रेक ऑयल, प्लायर, स्क्रू ड्राइवर, रेंच



गैजेट्स
- स्मार्ट फोन, चार्जर और बैटरी बैंक। जीपीएस बेस्ड नेविगेटर जोकि बिना इंटरनेट के मैप यूज करने और डायरेक्शन आदि बताने में मददगार होता है। कार के मोबाइल चार्जिंग सॉकेट से चलने वाले एडॉप्टर जिनसे कैमरा बैटरी, टैबलेट या लैपटॉप भी चार्ज किए जा सकते हैं। इलेक्ट्रिक कैटल जो कॉफी, चाय, नूडल्स वगैरह बनाने के लिए पानी उबाल सकती है। मल्टिप्लग सॉकेट ताकि होटल के इकलौते पावर सॉकेट से एकसाथ कई डिवाइस चार्ज कर सकें।

कहां जा सकती है आपकी गाड़ी

भारतीय संविधान अपने हर नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में आने-जाने का अधिकार देता है। हां, इंटरनैशनल बॉर्डर के आसपास, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत के कुछ हिस्सों में जाने के लिए स्थानीय प्रशासन या सुरक्षा एजेंसियों से इजाजत लेनी पड़ती है। इसे ILP (इनल लाइन परमिट) कहते हैं। लद्दाख के लिए एसडीएम लेह यह परमिशन देते हैं तो लक्षद्वीप के लिए दिल्ली स्थित लक्षद्वीप भवन, अरुणाचल प्रदेश जाने के लिए अरुणाचल भवन से परमिशन लेनी होती है।

क्या कहते हैं नियम-कानून

अपनी गाड़ी से घूमते वक्त बस आपको उस देश के मोटर वीकल ऐक्ट के नियमों का ख्याल रखना होगा। अमूमन आपको अपने साथ ये ओरिजिनल डॉक्युमेंट्स रखने होंगे। आरसी यानी गाड़ी का रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट, इंश्योरेंस सर्टिफिकेट, पल्यूशन अंडर कंट्रोल सर्टिफिकेट, ड्राइविंग लाइसेंस

घुमक्कड़ी का लाइसेंस: दूसरे देशों में अपनी गाड़ी से घूमने जाना अब भी हम भारतीयों के लिए उतना आसान नहीं, जितना कई यूरोपीय देशों के नागरिकों के लिए है। दरअसल यह सब हमारे देश के दूसरे देशों के साथ संबंधों और समझौतों पर निर्भर करता है। मिसाल के तौर पर यूरोप के नागरिक बेरोकटोक यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में आ-जा सकते हैं। विदेशी टूरिस्ट भी सिर्फ एक शेनगेन वीजा लेकर यूरोपीय संघ के देशों में घूम सकते हैं। भारतीय नागरिकों के लिए यह सुविधा सिर्फ नेपाल और भूटान में हैं। ऐसे में विदेश जाने के लिए कुछ ज्यादा औपचारिकताएं करनी पड़ती हैं। आइए डालते हैं उन पर एक नजर:

वीजा: किसी भी दूसरे देश में एंट्री के लिए इजाजत वीजा के रूप में मिलती है। आपके पासपोर्ट पर वीजा लगने का मतलब है कि अब आप उस देश में जा सकते हैं। हर देश की वीजा फीस अलग-अलग होती है। इसकी जानकारी उनकी ऐंबेसी या उनकी आधिकारिक वेबसाइट से ली जा सकती है।

कारने द पैसाज (CDP): यह एक फ्रेंच शब्द है। वीजा से सिर्फ आपको उस देश में जाने के इजाजत मिलती है, आपकी गाड़ी को नहीं। अपनी गाड़ी को उस देश में ले जाने के लिए 'कारने द पैसाज' की जरूरत पड़ती है। यह इंटरनैशन लेवल पर स्वीकृत ऐसा दस्तावेज है जिसके जरिए टूरिस्ट बिना कस्टम ड्यूटी चुकाए पर्सनल गाड़ी को विदेश में कुछ समय के लिए इस्तेमाल कर सकता है। इस दस्तावेज में गाड़ी के उस देश में अंदर और बाहर जाने की तारीख रिकॉर्ड की जाती है। भारत में कुछ अधिकृत ऑटोमोबाइल असोसिएशन से यह दस्तावेज लिया जा सकता है। ये असोसिएशन हैं The Automobile Association of Eastern India, The Automobile Association of Southern India, Automobile Association of Upper India, The Western India Automobile Association। कारने द पैसाज हासिल करने के लिए 75,000 रुपये फीस चुकानी होती है, फिर चाहे बाइक हो या कार। इसके साथ आपकी गाड़ी की मौजूदा कीमत का दोगुना असोसिएशन के पास बतौर सिक्योरिटी जमा करना होगा, जो लौटने के बाद वापस लिया जा सकता है।

इंटरनैशनल ड्राइविंग लाइसेंस: विदेश जाना चाहते हैं तो इंटरनैशनल लाइसेंस बनवाना बेहतर है। इससे किसी भी देश में परेशानी नहीं होगी। देश के हर राज्य के सरकारी ट्रांसपोर्ट ऑफिस से यह लाइसेंस जारी किया जाता है। दिल्ली में अपना वैध ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट, वीजा, अड्रेस प्रूफ दिखाकर इसे 500 रुपये में बनवाया जा सकता है।

नेपाल

बिना गाड़ी के नेपाल ठीक वैसे ही जा सकते हैं जैसे दिल्ली से गाजियाबाद। लेकिन गाड़ी से जाने के लिए गाड़ी के तमाम वे कागजात चाहिए, जो भारत में जरूरी हैं। नेपाल में एंट्री के लिए भारत की तरफ से कई बॉर्डर पोस्ट हैं। वहां पहुंचते ही अपनी गाड़ी को नेपाल में ले जाने के लिए नेपाली प्रशासन से इजाजत लेनी पड़ती है। ये ऑफिस बॉर्डर पर ही होते हैं। लोगों से पूछताछ कर इनकी जानकारी मिल जाती है। दिनों के हिसाब से एक तय फीस देकर आसानी से इसकी इजाजत मिल जाती है। नेपाल में फीस दिनों के हिसाब से देनी होती है। डेढ़-दो साल पहले मैंने बाइक के लिए 50 रुपये दिए थे, जबकि कार के लिए करीब 300 रुपये रोजाना लिए जा रहे थे।

भूटान

भारत से सड़क से भूटान जाने का एक ही रास्ता है - फुंतशोलिंग होकर। फुंतशोलिंग में आपको अपनी पहचान साबित करनी पड़ती है। वोटर आईकार्ड, पासपोर्ट या आधार कार्ड इसके लिए मान्य हैं। फुंतशोलिंग बस अड्डे पर ट्रांसपोर्ट विभाग से आपको अपनी गाड़ी की अनुमति भी लेनी होगी। इसके लिए दिनों के हिसाब से निर्धारित फीस चुकानी होगी। करीब 3 साल पहले बाइक से भूटान गया था, तो 7 दिनों के लिए 62 रुपये लगे थे। ध्यान रहे कि फीस की रसीद हमेशा संभाल कर रखें। विदेशी नंबर होने की वजह से जगह-जगह पर आपको रोककर रसीद दिखाने को कहा जा सकता है।

बाइक और कार के ट्रैवल में फर्क

बाइक और कार की सामान ढोने की क्षमता अलग-अलग है, इसलिए उसी हिसाब से सामान रखें। मौसम खराब हो या सड़क, बाइक सवार को कार चालक से ज्यादा खतरा रहता है इसलिए एंकल लेंथ शूज, नी गार्ड, सेफ्टी जैकेट, हेल्मेट, ग्लव्स बेहद जरूरी हैं। आजकल सिक्योरिटी की ये तमाम चीजें आसानी से ऑनलाइन मिल जाती हैं, लेकिन याद रखें कि कीमत के चक्कर में क्वॉलिटी से कभी समझौता न करें। वैसे तो कार में एक स्टेपनी कार के साथ ही आती है, लेकिन एहतियात के तौर पर एक और रख लें। कच्ची सड़कों या उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरने की नौबत हो तो कम ग्राउंड क्लीयरेंस वाली कार न ले जाएं। बेशक ऐसे मामलों में बाइक बाजी मार ले जाती है।

बाइकर्स ग्रुप से जुड़ने के लिए bcmtouring.com, youngindians.in, xbhp.com और facebook पर कई बाइकर्स ग्रुप हैं। हालांकि ये सभी अनौपचारिक ग्रुप हैं, यानी कानूनी रूप से इनकी कोई मान्यता नहीं है। वैसे भी बाइकर्स ग्रुप के लिए कोई कानूनी गाइडलाइंस नहीं हैं इसलिए अपने विवेक का इस्तेमाल कर ही इनसे जुड़ें।

ट्रिप कितनी लंबी दिल्ली से लद्दाख: 15 दिन दिल्ली से सांग्ला घाटी (हिमाचल): 6 दिन दिल्ली से सरिस्का नैशनल पार्क: 2 दिन दिल्ली से दमदमा झील: 1 दिन दिल्ली से डोटी-सिलगढ़ी (नेपाल): 4 से 6 दिन तक दिल्ली से पोखरा और काठमांडू (नेपाल): 6 से 14 दिन तक सिलीगुड़ी से थिंपू (भूटान): 6 दिन जयगांव (पश्चिम बंगाल) से पारो (भूटान): 4 दिन इम्फाल (मांडले) से म्यांमार - बैंकॉक, थाइलैंड: 12 दिन

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जल का हल

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हमने कभी पानी के मोल को नहीं समझा और देखते ही देखते पानी अनमोल हो गया। हालात ऐसे आ गए हैं कि देश भर में कई जगह लोग बूंद-बूंद पानी को तरसने लगे हैं। ऐसे में पानी की बचत ही भविष्य को संजो कर रखने का एक साधन बचता है। हम और आप कैसे कर सकते हैं पानी की बचत, एक्सपर्ट्स की मदद से बता रहे हैं अमित मिश्रा:



किसी ने सही कहा है कि हर बदलाव की शुरुआत खुद से होती है। ऐसे में पानी को बचाने की मुहिम में सबकी बराबर की भागीदारी ही संकट से उबरने का एक उपाय है।
घर पर ऐसे बचेगा पानी
जब करें ब्रश या शेव
अक्सर लोग टूथब्रश या शेव करते वक्त वॉश बेसिन में पानी के टैप को खुला छोड़ देते हैं। ऐसे न करें। इससे पानी की काफी बर्बादी होती है। मग में पानी भर कर शेविंग कर सकते हैं। इसी तरह हाथ धोते वक्त भी सोप लगाने के लिए हाथ को गीला करने के बाद टैप बंद कर दें। हाथों पर साबुन अच्छी तरह लगाने और मलने के बाद फिर से टैप चालू करें।
जब नहाने जाएं
नहाने में काफी पानी बर्बाद होता है। खासतौर पर शावर से नहाने में। बाल्टी में पानी लेकर नहाएं। बच्चे भी नहाते वक्त काफी पानी बर्बाद करते हैं। नहाने के लिए 5 मिनट का वक्त तय करें। बालों में शैंपू लगाते वक्त शावर को बंद कर दें। इस तरह से आप रोज तकरीबन 100 लीटर पानी बचा सकते हैं।
टपकने पर नजर
टपकता पानी देखने में कम नजर आता है लेकिन पूरे दिन में इस तरह से कई लीटर पानी बह जाता है। हो सके तो हर साल मेटैलिक टैप के वाशर बदलवा लें। लोग मेन टैप पर तो नजर रखते हैं लेकिन टॉयलेट और सिस्टर्न से टपकते पानी पर ध्यान नहीं देते। इस बात का भी पता करें कि कहीं सिस्टर्न से टॉयलेट सीट के भीतर पानी लीक तो नहीं हो रहा। यह भी देखें कि जहां पर सिस्टर्न टॉयलेट सीट से जुड़ा होता है, वह जोड़ सही है।
जब करें कार-बाइक की धुलाई
कार या बाइक की धुलाई रनिंग वॉटर से करने के बजाय बाल्टी से करें। ऐसा करने से तकरीबन 350 लीटर पानी हर महीने बचा सकते हैं।
कपड़ों की धुलाई
हो सके तो छोटे कपड़ों की रेग्युलर धुलाई हाथों से ही करें। रोज वॉशिंग मशीन लगाने से बेहतर है, हफ्ते में 2 दिन ही लगाएं। अब मार्केट में कम पानी की खपत में कपड़े धोने वाली फ्रंट लोड मशीनें आ गई हैं, इन्हें ही खरीदें। ये मशीनें कुछ महंगी जरूर हैं। रनिंग वॉटर पर चलने वाली ऑटोमैटिक वॉशिंग मशीनें अमूमन पानी की खपत ज्यादा करती हैं। कपड़ों की धुलाई के बाद निकले पानी को टब में जमा कर लें। फिर इसे पोंछा लगाने और फर्श की धुलाई करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
सिस्टर्न फिट तो वॉशरूम हिट
टॉयलेट में नए जमाने के सिस्टर्न (फ्लश) 2 पुश बटनों के साथ आते हैं। एक छोटा और एक बड़ा। छोटे बटन से ही फ्लैश करें। इससे कम पानी में सफाई हो जाएगी। हो सके तो सिस्टर्न में रेत से भरी हुई 1 लीटर की बोतल रख दें। इससे सिस्टर्न की कैपेसिटी घट जाएगी और पानी की बचत होगी। ऐसा करके घर का हर मेंबर रोज तकरीबन 50 लीटर पानी बचा सकता है।
जब सब्जी-बर्तन धोएं
किचन में सब्जियां या बर्तनों को रनिंग वॉटर में न धो कर, बर्तन में पानी भर कर धोएं। सब्जियां और बर्तनों को धोने में इस्तेमाल होने वाले पानी को नाली में बहने के बजाय पौधों में डालने के लिए यूज करें। पौधों को सुबह या शाम को धूप कम होने पर ही पानी दें।
जब पेट्स को नहलाएं
अपने पेट्स को लॉन में नहलाएं ताकि पानी घास और पौधों को मिल सके। बर्फ न करें बर्बाद
अगर ड्रिंक्स पीने के बाद गिलास में आइस क्यूब्स बच जाएं तो उन्हें सिंक में फेंकने के बजाय पौधों के गमले में डाल दें। ऐसे ही जमीन पर गिरी बर्फ के साथ भी कर सकते हैं।
वॉटर मीटर पर रखें नजर
घर पर लगा वॉटर मीटर आपको पानी की खपत पर नजर रखने में मदद करेगा। एक दिन रात में मीटर की रीडिंग लें और अगले दिन फिर उसी वक्त पर रीडिंग लें। इससे खपत पर नजर रख कर बचत की जा सकती है।
घर में मददगारों को सिखाएं
घर पर काम करने वाली मेड और माली आदि को देश में पानी को लेकर पैदा हुए बुरे हालात को लेकर एजुकेट करें। उन्हें टीवी और अखबारों में इस तरह की खबरों से वाकिफ करवाने से वे भी पानी की बचत को गंभीरता से लेना शुरू करेंगे।
जब पार्टी में जाएं
अक्सर देखने को मिलता है कि लोग पार्टियों में पानी की पूरी बोतल लेकर कुछ पानी पीने के बाद बोतल फेंक देते हैं। अगर पानी की पूरी बोतल एक बार में नहीं पी जा सकती तो उसे साथ ले जाकर बाद में इस्तेमाल करें। अगर पार्टी आप आयोजित करें तो पानी की बचत को ध्यान में रखते हुए गिलास में पानी सर्व करें।

करें वॉटर हार्वेस्टिंग
वैसे तो तकरीबन हर राज्य सरकार पानी को बचाने से लेकर जमा करने तक योजनाएं बना रही लेकिन इसमें लोगों की भागीदारी के बिना मुहिम का परवान चढ़ना मुमकिन नहीं है। दिल्ली में घरों की छत पर बारिश के पानी को जमा करने के लिए दिल्ली जल बोर्ड खास तौर पर वित्तीय मदद भी देता है। इस तरह की मदद के लिए लोकल बॉडीज (रजिस्टर्ड आरडब्ल्यूए आदि) छतों पर लगाए गए वाटर हार्वेटिंग प्लांट की कुल कीमत का 50 फीसदी और अधिकतम 50 हजार रुपये तक सहायता ले सकती हैं। इसके लिए हर जोनल ऑफिस में मौजूद इंजीनियर से मदद ली जा सकती है। वित्तीय सहायता के लिए इन डॉक्युमेंट्स की जरूरत होगी:
- आरडब्ल्यूए या जो भी रजिस्टर्ड संस्था लोन ले रही है, उसके रजिस्ट्रेशन की सेल्फ अटेस्टेड कॉपी।
- वॉटर हार्वेस्टिंग स्ट्रक्चर की डिटेल्ड जानकारी।
- पूरे प्लान के ले-आउट और सिस्टम कैसे काम करेगा, यह जानकारी।
- कॉन्ट्रैक्टर को पेमेंट किस तरह से किया जाना है, उसके बारे में जानकारी। मिसाल के तौर पर चेक से या डायरेक्ट अकाउंट में ट्रांसफर आदि।
- वॉटर हार्वेटिंग प्लांट के रखरखाव के लिए एक नॉन जुडिशल स्टांप पर अथॉरिटी के साथ एग्रीमेंट पर साइन।

RO को NO-NO
हर घर की जरूरत बन चुका आरओ 1 लीटर पानी को साफ करने के लिए तकरीबन 3 लीटर पानी को बहा देता है। आरओ वॉटर फिल्टर का इस्तेमाल पानी में पाए जाने वाले मिनरल (टीडीएस) को घटाने में किया जाता है। इन मिनरल की वजह से ही पानी का स्वाद कुछ कसैला लगता है। 1000 टीडीएस या उससे कम का पानी पीने लायक होता है और दिल्ली में अमूमन लेवल इससे कम ही होता है। लोग स्वाद को सुधारने के चक्कर में आरओ लगवा कर पानी की बर्बादी करते हैं। अगर आरओ लगवाना ही है तो उससे बूंद-बूंद टपकने वाले पानी को किसी बर्तन या बाल्टी में जमा कर लें।
क्या है टीडीएस की सही मात्रा
अधिकतम सीमा: 1000 एमजी/ लीटर तक (इससे ज्यादा टीडीएस पर आरओ ठीक)
कम से कम: 80 एमजी/ लीटर तक (इससे कम टीडीएस भी नुकसानदेह)
सही मात्रा: 400-500 एमजी/ लीटर (WHO के मुताबिक)

आरओ के ऑप्शन
- पानी को उबाल कर भी टीडीएस कम होता है।
- क्लोरीन की एक टैब्लेट 20 लीटर पानी को साफ करती है।
- सेरामिक फिल्टर बैक्टीरियल प्रदूषण दूर कर सकता है।
- यूवी (अल्ट्रावॉयलेट) फिल्टर का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। ....................................................................................................... लें तकनीकी पहरेदार की मदद
शहरों में पानी की काफी ज्यादा बर्बादी ओवर फ्लो हो रही टंकियों से होता है। ऐसे में इससे बचने का सबसे अच्छा तरीका है कि वॉटर टैंकों में ओवरफ्लो अलार्म सिस्टम को लगवाया जाए। मार्केट में मूल रूप से दो तरह के अलार्म सिस्टम आ रहे हैं:
सर्किट बेस्ड अलार्म
इस तरह के सिस्टम में काफी आसान तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। इसके दो हिस्से होते हैं। एक अलार्म जो पावर लाइन से जुड़ा रहता है और घर के भीतर होता है और दूसरा टैंक में फिक्स मेटैलिक पिन।
कैसे करता है काम
टैंक के अंदर ऊपर वाले हिस्से में पॉजिटिव और निगेटिव पिन पड़े रहते हैं। जैसे ही पानी भर कर ऊपर के लेवल पर पहुंचता है, सर्किट जुड़ जाता है और अलार्म बजने लगता है। ऐसे में यूजर मोटर बंद कर देता है जिससे पानी और अलार्म से आ रही आवाज दोनों बंद हो जाती हैं।
खूबी - इसकी कीमत काफी कम होती है। 200 से 500 रुपये तक में मिल जाता है।
- इसे इंस्टॉल करना आसान है और कोई भी आम इलेक्ट्रिशन इसे फिक्स कर सकता है।
खामी
- टैंक में पड़े मेटैलिक पिन पर या तो जंग जम जाती है या फिर पानी के खारेपन से सॉल्ट जमा होने की वजह से यह काम करना बंद कर देता है।
- छत पर लगे तारों का सेटअप आंधी-तूफान या बंदर आदि खराब कर देते हैं।
कहां मिलेगा: इन्हें किसी भी ई-कॉमर्स साइट्स या मार्केट में हार्डवेयर शॉप से आसानी से खरीद कर प्लंबर से फिक्स करवाया जा सकता है।

चंद ऑप्शन
iota Water tank Overflow Alarm - 200 रुपये
Veettex Tank Overflow Alarm - 250 रुपये
Aqua Guru Water Tank Overflow Alarm - 390 रुपये
नोट: इनके अलावा भी मार्केट में अच्छे सर्किट बेस्ड अलार्म सिस्टम उपलब्ध हैं।

सेंसर वाले अलार्म सिस्टम
परंपरागत ओवरफ्लो अलार्म के बजाय इसमें हाई क्वॉलिटी सेंसर का उपयोग किया जाता है। इससे टैंक में कई लेवल पर पानी की मॉनिटरिंग, अलार्म, वॉटर फ्लो अलर्ट जैसे एडवांस काम भी किए जा सकते हैं।
कैसे करता है काम
इसमें हाई क्वॉलिटी सेंसर लगे होते हैं। इसे टैंक के बाहर कहीं फिट कर दिया जाता है। इसके सेंसर पानी की पोजिशन भांप कर एसएमएस या एक ऐप के जरिए पूरी जानकारी दे देते हैं। इसमें सिर्फ एक डिब्बा होता है और किसी भी तरह का वायर नहीं होता।
खूबी
- इससे न सिर्फ वॉटर लेवल बल्कि लाइन में पानी आने का अलर्ट भी पाया जा सकता है।
- पानी भरते ही अपने आप मोटर बंद होने से लेकर पानी आने पर फिर से चालू हो जाने जैसे ऑटोमैटिक ऑप्शन उपलब्ध।
- इसे एक ऐप के जरिए कंट्रोल भी किया जा सकता है। मिसाल के तौर पर इंटरनेट मौजूद होने पर कहीं से भी बैठ कर मोटर को स्विच ऑन और ऑफ किया जा सकता है।
- ऐप में यह भी देखा जा सकता है कि कितना पानी भरा है। इससे एक ही छत पर रखे कई टैंकों का एक साथ अलर्ट लिया जा सकता है।
- इन्हें बैटरी या सोलर सेल के जरिए चलाया जा सकता है।
- पानी के कॉन्टैक्ट में न होने की वजह से खराब नहीं होते।
खामी
- इनकी कीमत परंपरागत अलार्म सिस्टम के मुकाबले काफी ज्यादा होती है।
- इंस्टॉल करने के लिए कंपनी के एक्सपर्ट की जरूरत होती है।
- ऐसे अलार्म सिस्टम मार्केट में कम मौजूद होने की वजह से सर्विस की दिक्कत आ सकती है।
- छोटे शहरों में उपलब्धता काफी कम है।
कीमत
इसमें एक ही कंपनी के 3 मॉडल मार्केट में आसानी से मिल सकते हैं।
Aquabrim SENSE, ACE और PRIME - कीमत 6500 से 10 हजार रुपये तक

कहां से खरीदें
फिलहाल मार्केट में Aquabrim नाम का सेंसर बेस्ड अलार्म सिस्टम उपलब्ध है। इसे स्नैपडील और अमेजॉन जैसी ऑनलाइन साइट्स से खरीदा जा सकता है। कंपनी की वेबसाइट aquabrim.com पर जाकर दिए गए नंबरों पर कॉल करके खरीदा जा सकता है। यहां पर फोन करने के बाद एक्सपर्ट बताई गई जगह पर इंस्टॉल कर देता है।

कब तक रहेगा पानी सही

अक्सर सुबह पानी भरते वक्त पिछले दिन का बचा पानी फेंक दिया जाता है। इसकी जरूरत नहीं है। यह पानी इस्तेमाल के लिए बिल्कुल ठीक है। एक तरफ पानी बचाने की मुहिम तो दूसरी तरफ पानी को सहेजने की चुनौती। हम यह तो जानते हैं कि पानी को कैसे बचाना है लेकिन यह जानना भी जरूरी है कि पानी कितने दिनों तक पीने या इस्तेमाल करने लायक बना रहता है। आइए जानते हैं कि पानी कितने दिनों तक रहता है एक दम फिट:
पीने का पानी
- पानी वैसे तो अपने आप में तो कभी खराब नहीं होता लेकिन जिस बर्तन और जिस जगह उसे स्टोर किया जाता है, उसकी वजह से वह खराब हो सकता है।
- पैक किया गया पानी मैन्युफेक्चरिंग डेट से 2 साल तक पीने लायक होता है। भले ही उसमें मौजूद मिनरल्स की वजह से उसका स्वाद कुछ बदल जाए लेकिन सेहत पर इसका कोई बुरा असर नहीं पड़ता।
- एक बार पैकिंग खुलने के बाद पानी 2-3 दिनों तक पीने लायक बना रहता है। बस ध्यान इस बात का रखना है कि उसे धूप, गर्मी और केमिकल जैसे कि थिनर, पेंट या पेट्रोल-डीजल से दूर रखा जाए।
- अगर पैक्ड पानी को फ्रिज में रखा जाए तो 5-6 दिनों तक आराम से पिया जा सकता है।
- वॉटर प्यूरिफायर से निकले हुए पानी को 2-3 दिन तक फ्रिज में रख कर पिया जा सकता है।
- प्लास्टिक के बर्तन में रखा पानी कॉपर या तांबे के बर्तन में रखे पानी के मुकाबले जल्दी खराब हो जाता है। कांच की बोतल या गिलास में भी पानी ज्यादा दिन तक अच्छा बना रहता है।
नहाने का पानी
- नहाने के लिए बाल्टी में रखा पानी 7-10 दिनों तक आराम से इस्तेमाल किया जा सकता है। बस उसमें मिट्टी या किसी भी तरह का कूड़ा-करकट न पड़ा हो।
- यहां भी स्टील की बाल्टी में रखे पानी की उम्र प्लास्टिक की बाल्टी या टब में रखे पानी से ज्यादा होती है।

टेक्नो ट्रिक्स
वेबसाइट
saveourwater.com/what-you-can-do/tips पर पानी को बचाने के लिए बेहतरीन टिप्स मिल सकते हैं।
जल है तो जीवन है
अगर पानी को बचाने की जरूरत अब भी समझ में न आई हो तो इन विडियोज को देख लें
nbt.in/savewater
अवधि: 1 मिनट लगभग
nbt.in/water
अवधि: 1:45 मिनट

फेसबुक पेज
Neeranjali
इस पेज पर पानी को बचाने के टिप्स के साथ ही बढ़ती जा रही परेशानी के हालात के बारे में जानने को बहुत कुछ मिलता है।

वॉटर एक्सपर्ट्स
​ -राजेंद्र सिंह
-आबिद सूरती
-एस. ए. नकवी
-आलोक कुमार

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फॉरन जाएं, 1 लाख में 2

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दुनिया भर में ऐसी कई जगहें हैं, जहां आप कम बजट में विदेश यात्रा का अपना शौक पूरा सकते हैं। महज 1 लाख रुपये में कोई कपल 5 दिन और 4 रातों के लिए विदेश घूमकर आ सकता है...दुनिया भर में ऐसी कई जगहें हैं, जहां आप कम बजट में विदेश यात्रा का अपना शौक पूरा सकते हैं। महज 1 लाख रुपये में कोई कपल 5 दिन और 4 रातों के लिए विदेश घूमकर आ सकता है...

जस्ट जिंदगी: आग लग जाए तो कैसे बचें, बता रहे हैं एक्सपर्ट्स

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गर्मियों में आग लगने के मामले काफी बढ़ जाते हैं। इससे निपटने के लिए ऑफिस, मॉल, सिनेमा हॉल, बस, ट्रेन आदि में पूरे इंतजाम किए जाते हैं, लेकिन घर को हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं। घर में आग न लगे, इसके लिए हमें क्या करना चाहिए और अगर आग लग जाए तो उससे कैसे निपटें, एक्सपर्ट्स की मदद से बता रहे हैं अनुज जोशी:

गर्मियों में नमी कम होती है और तामपान बढ़ जाता है इसलिए कोई भी चीज आसानी से आग पकड़ लेती है। इस मौसम में इलेक्ट्रिक वायर भी जल्दी गर्म हो जाते हैं और जरा-सा ज्यादा लोड पड़ने पर स्पार्क होने से आग लग जाती है। वैसे, घर में ऐसी कई चीजें होती हैं, जो आग लगने की वजह बन सकती हैं। इनका ध्यान रखना जरूरी है:

एसी:

एसी की ठीक से देखभाल न की जाए तो यह खतरनाक साबित हो सकता है। एसी आमतौर पर 15 एंपियर तक करंट झेल सकता है। अच्छी तरह रखरखाव वाला एसी 12 एंपियर का करंट लेता है, जबकि अगर एसी को बिना सालाना सर्विसिंग किए चलाया जाए तो वह 18 एंपियर तक करंट लेता है।

इससे न सिर्फ वायर पर लोड बढ़ता है, बल्कि एसी जल भी सकता है। शॉर्ट सर्किट से घर में आग भी लग सकती है। जब न्यूट्रल, फेज और अर्थ, तीनों वायर या कोई दो वायर आपस में टच हो जाती हैं तो शार्ट सर्किट होता है।

क्या करें: एसी के लिए हमेशा एमसीबी (MCB) स्विच लगवाएं। नॉर्मल या पावर स्विच में एसी का प्लग न लगाएं। सीजन शुरू होने से पहले एसी की सर्विस जरूर कराएं। हो सके तो सीजन के बीच में भी एक बार सर्विस कराएं। जब भी सर्विस कराएं, ट्रांसफॉर्मर आदि का प्लग खुलवा कर चेक कराएं कि कहीं कोई तार ढीली तो नहीं। एसी से आग की एक बड़ी वजह तारों के ढीला होने से स्पार्क होना है। एसी या इलेक्ट्रॉनिक सॉकेट के पास पर्दा न रखें क्योंकि स्पार्क होने पर पर्दा आग पकड़ सकता है। एसी को रिमोट से बंद करने के बाद उसकी MCB को भी बंद करना चाहिए। एसी को लगातार 12 घंटे से ज्यादा न चलाएं। खिड़की-दरवाजे खोलकर एसी न चलाएं।

वायर और सर्किट: घर में वायरिंग कराते हुए हम पैसे बचाने के चक्कर में अक्सर सस्ती वायर डलवा देते हैं। इसके अलावा, एक बार वायरिंग कराकर हम निश्चिंत हो जाते हैं और उसे अपग्रेड नहीं कराते, जबकि वक्त के साथ घर में इलेक्ट्रिक गैजेट्स बढ़ाते जाते हैं। बड़ा टीवी, बड़ा फ्रिज, ज्यादा टन का एसी, माइक्रोवेव आदि। घर में लगी पुरानी वायर इतना लोड सहन नहीं कर पाती और शॉर्ट सर्किट हो जाता है। घरों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण यही होता है।

क्या करें: घर में हमेशा ब्रैंडेड वायर इस्तेमाल करें। सस्ती वायर खरीदने से बचें। वायर हमेशा आईएसआई मार्क वाली खरीदें और जितने एमएम की वायर की इलेक्ट्रिशियन ने सलाह दी है, उतने की ही खरीदें। घर के लिए वायर 1, 1.5, 2.5, 4, 6 और 10 एमएम की होती हैं। मीटर और सर्किट के बीच 10 एमएम की वायर, बाकी घर में पावर प्लग के लिए 4 एमएम और बाकी के लिए 2.5 एमएम की वायर लगती है। घर में पीवीसी वायर लगानी चाहिए, जो 1 लेयर की होती है। यह आसानी से गरम नहीं होती।

वायर में टॉप ब्रैंड हैं: फिनॉलेक्स, प्लाजा, आरआर आदि। अगर आप किराये पर किसी घर में आएं हैं और घर का लोड जानना चाहते हैं तो बिजली बिल से जान सकते हैं। उस पर घर का लोड दर्ज होता है। हर 5 साल में इलेक्ट्रिशन बुलाकर वायर चेक जरूर करानी चाहिए। साथ ही मेन सर्किट बोर्ड पर पूरा लोड डालने से अच्छा है कि दो बोर्ड बनाकर लोड को बांट दें। मीटर-बॉक्स भी लकड़ी के बजाय मेटल का लगवाएं। इससे आग लगने का खतरा कम हो जाता है।

दीया और अगरबत्ती: सुबह-शाम घर में पूजा करते हुए दीया और अगरबत्ती जलती छोड़ दें और उन पर ध्यान न दें तो भी आग लग सकती है।

क्या करें: दीया जलाकर उसके ऊपर शीशे की चिमनी रख सकते हैं, जैसी पहले लैंपों में होती थी। इससे आग लगने के चांस कम होंगे।

कम जगह, ज्यादा सामान: आजकल घर के साइज छोटे हो रहे हैं और सामान काफी ज्यादा। फर्नीचर, पर्दे और घर के दूसरे साजो-सामान भी ऐसे चलन में हैं जो जल्दी आग पकड़ते हैं। मसलन पॉलिस्टर के पर्दे, सिंथेटिक कपड़े, फोम के सोफे और गद्दे आदि।

क्या करें: घर में जरूरत का सामान ही रखें और फालतू चीजों को निकालते रहें। इसके अलावा इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स अच्छी कंपनी और बढ़िया क्वॉलिटी के होने चाहिए।

लापरवाही से बचें, रखें ध्यान
- हर रात गैस सिलेंडर की नॉब को बंद करके ही सोना चाहिए। साथ ही गैस के पाइप को हर 6 महीने में बदलते रहना चाहिए।
- ओवरलोडिंग से बचें। अक्सर हम एक ही इलेक्ट्रॉनिक सॉकेट में टू-पिन या थ्री-पिन वाला प्लग लगा देते हैं। इससे लोड बढ़ जाता है और स्पार्किंग होने लगती है।
- रसोई में चूल्हे पर दूध का पतीला या तेल की कड़ाही चढ़ाकर निश्चिंत होना भी सही नहीं। ऐसा कर हम अक्सर दूसरे कामों में बिजी हो जाते हैं और तेल बेहद गर्म होकर आग पकड़ लेता है या फिर दूध उबल कर चूल्हे पर गिर जाता है। इससे चूल्हे की आग बुझ जाती है और गैस लीक होती रहती है, जो आग पकड़ लेती है।
- खराब रबड़ या खराब सीटी वाला प्रेशर कुकर यूज करना भी खतरनाक है। ऐसा होने पर कुकर ब्लास्ट कर सकता है।
- किचन में खाना बनाते समय ढीले-ढाले और सिंथेटिक कपड़े न पहनें। ये आग जल्दी पकड़ते हैं।
- इनवर्टर में पानी सही रखें। कम पानी होने, इनवर्टर की तार को अच्छी तरह कवर नहीं करने या फिर तार को ढीला छोड़ देने से स्पार्किंग हो सकती है।
- बच्चे के हाथ में माचिस न दें। यह आग लगने की वजह बन सकता है।
- फ्रिज के दरवाजे पर लगी रबड़ को अच्छी तरह साफ करें, वरना दरवाजा सही से बंद नहीं होगा। इससे कम्प्रेसर गर्म होकर आग लगने की वजह बन सकता है।
- कपड़े प्रेस करने के बाद गर्म आयरन को किसी कपड़े, पर्दे या इलेक्ट्रॉनिक प्लग के पास न रखें। गर्म आयरन की गर्मी से ये सभी चीजें आग पकड़ सकती हैं।
- बाथरूम के अंदर स्विच न लगवाएं, वरना नहाते समय या कपड़े धोते समय पानी उस पर गिर सकता है, जिससे स्पार्क हो सकता है। अंदर लगना ही है तो ऊंचाई ज्यादा हो, जहां तक पानी की छीटें न जा सकें।
- हर इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक आइटम को एक दिन में लगातार चलाने की तय सीमा होती है। फिर चाहे वह एसी हो, पंखा हो, टीवी या फिर मिक्सी ही क्यों न हो। हर प्रॉडक्ट की पैकिंग पर यह जानकारी होती है। जरूरत से ज्यादा चलाने पर इलेक्ट्रॉनिक आइटम गर्म हो जाते हैं और आग लगने का कारण बन सकते हैं।
- जब भी घर से बाहर जाएं तो सभी स्विच और इनवर्टर जरूर बंद करें।


करके रखें तैयारी -
आग शुरू में हमेशा हल्की होती है। उसे उसी समय रोक देना बेहतर है, लेकिन अक्सर उस वक्त हम घबरा जाते हैं और कोई कदम नहीं उठा पाते। यह भी कह सकते हैं कि हम इसलिए कदम उठा नहीं पाते क्योंकि हमने पहले से तैयारी नहीं की होती है। मसलन घर में फायर एक्सटिंगविशर रखा है, लेकिन हमें उसे चलाना नहीं आता। ऐसे में जरूरी है कि हम आग से निपटने के लिए पहले से तैयार रहें। एक्सपर्ट मानते हैं कि आग कैसे बुझानी है, एक-दूसरे को कैसे बचाना है, इन सबके लिए सभी को हर दो-तीन महीने में प्रैक्टिस जरूर करनी चाहिए। मेन गेट के अलावा, आग लगने पर और कहां से सुरक्षित निकल सकते हैं, यह भी पहले से सोच कर रखें और इसकी प्रैक्टिस भी करते रहें।

आग लग जाए तो...
- घबराएं नहीं और जिस चीज में आग लगी है, उसके आसपास रखी सभी चीजों को हटाने की कोशिश करें, ताकि आग को फैलने का मौका न मिले।
- अगर शॉर्ट सर्किट से आग लगती है तो मेन सर्किट को बंद कर दें और फायर एक्सटिंगविशर का प्रयोग करें। अगर यह नहीं है तो आग पर मिट्टी या रेत डालें। पानी न डालें। इलेक्ट्रिकल फायर में पानी का इस्तेमाल इसलिए नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे करंट लग सकता है।
- आग ज्यादा है तो घर के सभी सदस्यों को इकट्ठे कर सुरक्षित जगह पर जाने की कोशिश करें। अगर बिल्डिंग में रहते हैं तो लिफ्ट की जगह सीढ़ियों के जरिए नीचे उतरें।
- आग लग जाने पर धुआं फैलता है इसलिए मुंह को ढककर निकलें।
- खाना बनाते समय अगर कढ़ाई में आग लग जाए तो उसे किसी बड़े बर्तन से ढक देना चाहिए। इससे आग बुझ जाएगी।
- अगर सिलिंडर में आग लग जाती है तो सबसे पहले उसकी नॉब को बंद करने की कोशिश करें। फिर गीला कपड़ा या बोरी डालकर उसे ठंडा करने की कोशिश करें। साथ ही सिलिंडर को खींचकर खुली जगह पर ले जाएं।

...गर कोई जल जाए
- कपड़ों या शरीर में आग लग जाए तो खड़े न रहें और न ही भागें। मुंह को ढककर जमीन पर लेट जाएं और रेंगकर चलें। इससे आग बुझ जाएगी। किसी और शख्स में आग लगी हो तो कंबल या मोटा कपड़ा डालकर आग बुझाएं। आग बुझाने के बाद उस शख्स पर पानी डालें।
- खिड़कियां खोल दें ताकि धुएं से दम न घुटे। धुएं में दम घुटने से अगर कोई बेहोश हो गया है तो सबसे पहले उसे खुली हवा में ले जाएं ताकि ऑक्सिजन मिल सके। आमतौर पर घर में ऑक्सिजन नहीं होती इसलिए मरीज को तुरंत हॉस्पिटल ले जाएं। मुंह से हवा देने की कोशिश न करें क्योंकि इससे मरीज को कोई फायदा नहीं होगा।
- जख्म पर टूथपेस्ट या किसी तरह का तेल लगाने की गलती न करें। इससे जख्म की स्थिति गंभीर हो सकती है और डॉक्टर को जख्म साफ करने में भी दिक्कत होगी।
- जख्म मामूली है तो उस पर सिल्वर सल्फाडाइजीन (Silver Sulfadiazine) क्रीम लगाएं। यह मार्केट में एलोरेक्स (Alorex), बर्निल (Burnil), बर्नएड (Burn Aid), हील (Heal) आदि ब्रैंड नेम से मिलती है। अगर जख्म ज्यादा हो तो हॉस्पिटल ले जाने तक उस पर नॉर्मल पानी डालते रहें ताकि जख्म गहरा न हो जाए। ये उपकरण हैं कारगर
आग कैसे और कहां लगी है, इसके आधार पर फायर एक्स्टिंगग्विशर को 5 कैटिगरी में बांटा गया है। हर फायर एक्स्टिंगग्विशर पर कैटिगरी लिखी होती है। आग लगने की वजह के मुताबिक उन्हें यूज करें:

Class A: सॉलिड यानी कागज, लकड़ी, कपड़ा, प्लास्टिक आदि से लगने वाली आग
Class B: लिक्विड यानी पेट्रोल, पेंट, स्प्रिट या तेल से लगने वाली आग
Class C: गैस यानी एलपीजी, वेल्डिंग गैस और बिजली के उपकरण से लगने वाली आग
Class D: मेटल यानी मैग्नीशियम, सोडियम या पोटैशियम से लगने वाली आग
Class K: कुकिंग ऑयल से लगने वाली आग


आग के क्लासिफिकेशन के अनुसार ही फायर एक्स्टिंगग्विशर का भी क्लासिफिकेशन किया गया है:
वॉटर एंड फोम : क्लास A की आग के लिए
कार्बनडाईऑक्साइड : क्लास B और C की आग के लिए
ड्राई केमिकल : क्लास A, B और C की आग के लिए
वेट केमिकल : क्लास K की आग के लिए
क्लीन एजेंट : क्लास B और C की आग के लिए
ड्राई पाउडर : क्लास B की आग के लिए
वॉटर मिस्ट : क्लास A और C की आग के लिए


आमतौर पर घर में ड्राई केमिकल वाला फायर एक्स्टिंगग्विशर ही रखा जाता है। इस तरह के एक्स्टिंगग्विशर के सिलिंडर पर ABC लिखा होता है। मार्केट में इसके रेट वेट के हिसाब से हैं।

1 किलो : 740 रुपये
2 किलो : 900 रुपये
4 किलो : 1400 रुपये
6 किलो : 1740 रुपये


आप इन्हें ऑनलाइन भी खरीद सकते हैं। इनमें टॉप ब्रैंड हैं: सीजफायर (Ceasefire), फायरफॉक्स (Firefox), अतासी (Atasi), अग्नि (Agni) आदि। इन कंपनियों के कार के भी फायर एक्स्टिंगग्विशर आते हैं। सिलिंडरों के अलावा मॉड्यूलर एक्स्टिंगग्विशर भी बहुत काम की चीज है। अभी तक यह ऑफिस या इंडस्ट्रियल एरिया में ही लगाया जाता था, लेकिन अब धीरे-धीरे इसका इस्तेमाल रेजिडेंशल एरिया में भी होने लगा है। इसे घर में कहीं भी लगा सकते हैं, लेकिन किचन में लगाना सबसे बेहतर है।

यह सीलिंग में फिट होता है। इसके अंदर एक छोटा-सा बल्ब लगा होता है, जो 65 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तापमान पहुंचते ही फट जाता है और उसमें से पाउडर निकलने लगता है, जो आग बुझा देता है। छोटा 1800 रुपये में और बड़ा 2400 रुपये में आता है। आपने घर में जो भी फायर एक्स्टिंगग्विशर रखा है, उसे साल में एक बार चेक जरूर करें। उसकी नोब ग्रीन एरिया में होनी चाहिए।
फायर एक्स्टिंगग्विशर चलाना सीखें: nbt.in/eyOxEZ



कार में लग जाए आग तो...
कहा जाता है कि जिस कार में सेंट्रल लॉक लगा होता है, आग लगने पर उस कार के दरवाजे नहीं खुलते, लेकिन ऐसा नहीं है। आग लगने पर भी दरवाजे खुल जाते हैं। अगर दरवाजे नहीं खुलें तो अगली सीट के हेड रेस्ट को निकालकर शीशे को तोड़ सकते हैं। कुछ कारों में गियर लॉक लगा होता है। उस गियर लॉक से भी शीशा तोड़ा जा सकता है। साथ ही कार में हमेशा छोटी हथौड़ी, हॉकी स्टिक या फिर रॉड रखनी चाहिए ताकि आग लगने पर शीशा तोड़ा जा सके। इसके अलावा, कार में फायर एक्सटिंगविशर जरूर रखें।

घर बनाते हुए रखें ध्यान

- घर, कोठी, रेजिडेंशल बिल्डिंग आदि बनाते वक्त बिल्डिंग बायलॉज को फॉलो करना चाहिए। लेकिन 15 मीटर से ऊंची बिल्डिंग बनाते वक्त इसे फॉलो करना अनिवार्य है, वरना फायर डिपार्टमेंट से एनओसी नहीं मिलेगी।
- अमूमन सभी मल्टिस्टोरी बिल्डिंगों में लिफ्ट जरूर होती है। लेकिन इसके साथ ही सीढ़ियां भी जरूर होनी चाहिए ताकि आग लगने पर सीढ़ियों के जरिए आराम से बाहर निकला जा सके। सीढ़ियों की चौड़ाई कम-से-कम 1 मीटर होनी चाहिए।
- रेजिडेंशल बिल्डिंग्स में हर दो फ्लोर छोड़कर एक रेस्क्यू बालकनी होना जरूरी है। यह इसलिए होती है ताकि आग लगने पर सभी यहां जमा हो सकें और फायर ब्रिगेड वाले उन्हें आसानी से निकाल सकें। इन बालकनी को बनाने का फायदा तभी है, जब बिल्डिंग में रहने वाले हर तीसरे-चौथे महीने छोटी-सी मॉक ड्रिल करें। किसी भी तरह की आपदा से निपटने के लिए यह जरूरी है।
- पानी की एक टंकी बिल्डिंग के ऊपर और एक अंडरग्राउंड होनी चाहिए ताकि आग लगने पर वहां से पानी निकालकर आग बुझाई जा सके।
- 15 से 40 मीटर ऊंची बिल्डिंग के चारों ओर 6 मीटर और 40 मीटर से ऊंची बिल्डिंग के लिए 9 मीटर तक की सड़क होनी चाहिए ताकि फायर ब्रिगेड की गाड़ियों को वहां तक पहुंचने और चारों तरफ घूमने में परेशानी न हो और वे आग को बुझा सकें।
- आपका घर फायर-प्रूफ है या नहीं, इसकी जांच प्राइवेट फायर अडवाइजर से करा सकते हैं। ऑनलाइन सर्च करने पर ये आपको मिल जाएंगे। दिल्ली में रहते हैं तो दिल्ली फायर सर्विस के डायरेक्टर के नाम लेटर लिख पास के फायर स्टेशन में दे सकते हैं। दिल्ली फायर सर्विस का कर्मचारी घर आएगा और चेक करेगा कि घर फायर-प्रूफ है या नहीं। यह सर्विस फ्री है।


फायर इंश्योरेंस भी जरूरी-
घर का फायर इंश्योरेंस जरूर कराना चाहिए। जानते हैं फायर इंश्योरेंस से जुड़े चंद अहम सवालों के जवाब:

कौन ले सकता है फायर इंश्योरेंस?
जिस किसी ने भी लीगल तरीके से प्रॉपर्टी या घर खरीदा है, वह फायर इंश्योरेंस ले सकता है।

इसकी क्या जरूरत है?
फायर इंश्योरेंस घर में आग लगने और उससे नुकसान होने पर उसे कवर करने का गारंटी देता है। नियमानुसार रेजिडेंशल एरिया के लिए फायर इंश्योरेंस जरूरी नहीं है, लेकिन इसे लेना फायदेमंद रहता है और किसी हादसे की सूरत में हमारी मदद करता है। प्रॉपर्टी की मौजूदा मार्केट वैल्यू के मुताबिक इंश्योरेंस का अमाउंट तय होता है।

किस रेजिडेंशल प्रॉपर्टी के लिए इंश्योरेंस ले सकते हैं?
जो भी प्रॉपर्टी आपने खरीदी है, मसलन अपार्टमेंट, फ्लैट्स, कोठी आदि, उसका इंश्योरेंस करा सकते हैं। यहां तक कि रेंट पर ली गई रेजिडेंशल प्रॉपर्टी का भी फायर इंश्योरेंस करवा सकते हैं। टीवी, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, फर्नीचर, सभी तरह के गैजेट्स यानी घर में इस्तेमाल होने वाला एक-एक सामान इस इंश्योरेंस में कवर होता है।

फायर इंश्योरेंस में कैसे हादसे कवर होते हैं?
किसी भी तरह की आगजनी, एयरक्राफ्ट क्रैश, प्राकृतिक आपदा (बाढ़, आंधी, भूकंप, लैंडस्लाइड आदि) जैसी स्थिति में घर को होने वाला नुकसान फायर इंश्योरेंस में कवर होता है।

इंश्योरेंस का प्रीमियम और अवधि कितनी होती है?
इंश्योरेंस कंपनियां प्रॉपर्टी की कीमत और इंश्योरेंस की कीमत के आधार पर प्रीमियम ऑफर करती हैं, जोकि आमतौर पर कम ही होता है। आप एड-ऑन कवर भी ले सकते हैं जिसमें आर्किटेक्चर की फीस आदि कवर हो जाती है। इसके लिए एक्स्ट्रा प्रीमियम देना पड़ सकता है। इंश्योरेंस की अवधि अमूमन एक साल की होती है, लेकिन कुछ केस में यह 10 साल तक भी हो सकती है।

एक्सपर्ट्स पैनल
- जी. सी. मिश्रा, डायरेक्टर, दिल्ली फायर सर्विस
- रवि गोस्वामी, ब्रांच मैनेजर, नैशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड
- पी. एस. एन. राव, एचओडी, डिपार्टमेंट ऑफ हाउसिंग, स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर
- डॉ. नवीन राणा, सीनियर फिजिशन

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जानें, स्पा से कैसे करें तन और मन को तरोताजा

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गर्मियां जोरों पर हैं। ऐसे में स्पा के जरिए तन और मन को तरोताजा कर सकते हैं। स्पा न सिर्फ आपको फ्रेश महसूस कराएगा, बल्कि कई लाइफस्टाइल बीमारियों में भी यह आपको राहत दिला सकता है। एक्सपर्ट्स की मदद से स्पा के बारे में तमाम जानकारियां दे रही हैं प्रियंका सिंह:

गर्मियों में स्पा की डिमांड काफी ज्यादा होती है। आयुर्वेदिक सेंटरों से लेकर बड़े होटलों, रिजॉर्ट्स, जिम तक में स्पा का इंतजाम होता है।

क्या है स्पा
स्पा शब्द लैटिन लैंग्वेज से आया है, जिसका मतलब है मिनरल्स से भरपूर पानी में स्नान। स्पा थेरपी यूरोपीय देशों से शुरू हुई और धीरे-धीरे पूरी दुनिया में फैल गई। बॉडी मसाज, बॉडी रैप, सोना बाथ, स्टीम बाथ आदि को मिलाकर स्पा कहते हैं। मोटे तौर पर 3 R यानी Relax, Rejuvinate और Regain Health स्पा से जुड़े हैं। अगर रिलैक्स कराने के लिए स्पा लेना चाहते हैं तो खुद चुन सकते हैं। इसमें आपकी सेहत और खूबसूरती को बेहतर करने और रिलैक्सेशन के लिए दी जानेवाली थेरपी शामिल होती है। लेकिन अगर किसी बीमारी के इलाज के तौर पर कराना चाहते हैं तो आयुर्वेदिक डॉक्टर (वैद्य) से पूछ कर कराएं। लाइफस्टाइल प्रॉब्लम जैसे कि नींद न आना, मोटापा, जोड़ों में दर्द, बाल झड़ना, डिप्रेशन, मुंहासे आदि का इलाज स्पा थेरपी से किया जाता है।

फायदे हैं तमाम
- तनाव कम कर मन को रिलैक्स करता है। - तन और मन को तरोताजा करता है। - ब्लड सर्कुलेशन ठीक करता है। - शरीर के जहरीले तत्वों को बाहर निकालने में मदद करता है। - शरीर में कसावट लाकर बुढ़ापे की रफ्तार धीमी करता है। - जोड़ों में लचीलापन लाता है।

किस उम्र में कराएं
आमतौर पर 12 साल से पहले स्पा कराने की सलाह नहीं दी जाती। दरअसल, इस उम्र में बच्चे का शरीर काफी नाजुक होता है। तेज मालिश आदि से उसे नुकसान हो सकता है। 12 से 18 साल के बीच भी कुछ ही तरह की थेरपी दी जाती हैं जैसे कि मसाज, शिरोधारा, सॉना बाथ आदि। हालांकि अगर सिर्फ मसाज करानी है तो 5 साल की उम्र के बच्चों की भी करा सकते हैं। 18 साल या इससे ज्यादा कोई भी स्पा थेरपी करा सकते हैं।

कितनी तरह का
स्पा 2 तरह का होता हैः वेट और ड्राई
वेट में स्टीम, सॉना और जूकॉजी आते हैं, जबकि ड्राई में मसाज, फेशियल, पेडिक्योर, मेनिक्योर, सैलून सुविधाएं आदि आती हैं।



स्पेशल थेरपी
स्पा में मसाज सबसे खास है। इसके अलावा शिरोधारा, सॉना, स्टीम, जकूजी आदि भी होते हैं।

मसाज
मसाज या मालिश करीब 45 मिनट से घंटा भर की जाती है। यह कई तरह की होती है:
आयुर्वेदिक मसाज: इसके जरिए आमतौर पर लाइफस्टाइल बीमारियों का इलाज किया जाता है। इस ट्रीटमेंट के दौरान आयु‌र्वेदिक डॉक्टर का वहां मौजूद होना बहुत जरूरी है। इस इलाज के दौरान आमतौर पर मेडिकेटिड ऑयल (जड़ी-बूटियों आदि मिलाकर तैयार किया गया) से मसाज की जाती है, जिसे अभ्यंगम कहा जाता है। इसमें 1 या 2 लोग मिलकर फुल बॉडी मसाज करते हैं।
स्वीडिश मसाजः शरीर पर गोल-गोल मूवमेंट के साथ आराम से मसाज की जाती है। यह काफी सॉफ्ट होती है इसलिए आमतौर पर महिलाएं इसे कराना पसंद करती हैं।
बेलिनिस मसाजः इसमें काफी प्रेशर लगाकर मसाज की जाती है। ज्यादा जोर एक्यूप्रेशर पॉइंट्स पर होता है।
इंडोनेशियन मसाजः इसमें इंडोनेशियन ऑयल यूज होते हैं। प्रेशर मीडियम होता है।
थाई मसाजः यह मसाज के सबसे पुराने तरीकों में से है। इसे ड्राई मसाज भी कहा जाता है क्योंकि तेल के बजाय पाउडर का यूज होता है।
डीप टिश्यू मसाजः इसमें प्रेशर काफी ज्यादा होता है। आमतौर पर स्पोट्र्सपर्सन और जिम जानेवाले लोग इसे कराना पसंद करते हैं। इसमें जोड़ों का लचीलापन बढ़ता है।
फेशियल मर्मा: इसके लिए ट्रेनिंग जरूरी है। ट्रेंड एक्सपर्ट शरीर के अलग-अलग हिस्सों को अलग-अलग प्रेशर के साथ दबाकर मसाज करते हैं।
ध्यान रखें
खाली पेट कराएं। बेकफास्ट के कम-से-कम डेढ़ घंटे बाद और लंच के ढाई घंटे बाद कराएं।



शिरोधारा
कई तेलों को मिलाकर तेल तैयार किया जाता है, जिसे सिर पर एक धारा के रूप में करीब 45 से 60 मिनट तक गिराया जाता है। इसमें महानारायण तेल, नीलभृंगादि, तिल का तेल आदि यूज करते हैं, जिन्हें अलग-अलग तेल मिलाकर तैयार किया जाता है। इससे मन रिलैक्स होता है और कंसंट्रेशन बढ़ता है। वैसे, स्पा में मसाज के लिए गुलाब, चमेली, लैवेंडर, लोटस, नीम आदि के तेल का भी खूब यूज होता है।
ध्यान रखें
इस दौरान आंखें न खोलें।

स्टीम बाथ
इसमें एक चैंबर या कमरा होता है, जिसमें पानी को उबालकर स्टीम पैदा की जाती है। कस्टमर को इसमें बिठा दिया जाता है। इसमें बैठने के बाद मूवमेंट मुमकिन नहीं है। आमतौर पर 25-30 मिनट स्टीम दी जाती है। स्टीम चैंबर ऑनलाइन भी मिलते हैं। ये करीब 2000 रुपये से शुरू होते हैं। इनसे घर में ही स्टीम ले सकते हैं।
ध्यान रखें
स्टीम लेने से पहले 1 गिलास नॉर्मल पानी पिएं। अंदर भी पानी की बॉटल ले जाएं और बीच-बीच में भी पानी पीते रहें। स्टीम लेने के दौरान सिर के ऊपर या गर्दन के पीछे एक गीला टॉवल रखना चाहिए। इसे कोल्ड कंप्रेसर कहते हैं। यह बेचैनी, चक्कर आदि से राहत दिलाएगा।



इसमें ड्राई हीट होती है। इसमें एक बंद कमरा होता है। कोयले से पत्थरों को गर्म किया जाता है। इसमें बड़ा कमरा होता है इसलिए घूमने-फिरने या बैठने-लेटने आदि का ऑप्शन होता है। सॉना भी आमतौर पर 25-30 मिनट किया जाता है।
ध्यान रखें
यहां भी स्टीम वाली ही सावधानियां बरतें। इसमें ज्यादा गर्मी के कारण बेचैनी और घबराहट महसूस हो सकती है। शुरुआत में कम देर से करें।

जकूजी
इसमें एक बड़े बाथ टब में बिठाया जाता है, जिसमें चारों तरफ से जगह-जगह लगे जेट में से गुनगुने पानी की तेज धाराएं आकर शरीर पर पड़ती हैं। यह करीब 20-30 मिनट कराया जाता है।



पंचकर्मा
आयुर्वेद में इलाज के लिए पंचकर्म विधि का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें अलग-अलग क्रियाओं से शरीर को शुद्ध और दुरुस्त किया जाता है। पंचकर्म के 2 हिस्से होते हैं:
पूर्वकर्म: इसमें स्नेहन और स्वेदन आते हैं।
प्रधानकर्मः इसके 5 हिस्से होते हैं: वमन, विरेचन, आस्थापन बस्ति, अनुवासन-बस्ति और शिरो-विरेचन या शिरोधारा।

स्नेहनः इसमें घी या तेल पिलाकर और मालिश करके शरीर के दोषों को दूर किया जाता है।
स्वेदनः इसमें अलग-अलग तरीकों से शरीर से पसीना निकाल कर बीमारियों से निपटा जाता है।

आगे की क्रिया करने से पहले ये पूर्वकर्म के ये दोनों कर्म करने जरूरी हैं। इसके बाद प्रधानकर्म किया जाता है। इसके तहत ये क्रियाएं होती हैं:

वमनः इस कर्म के जरिए कफ से पैदा होनेवाली बीमारियों (खांस, बुखार, सांस की बीमारी आदि) का इलाज किया जाता है। इसमें दवा या काढ़ा पिलाकर उलटी (वमन) कराई जाती है। इससे कफ और पित्त बाहर आ जाते हैं।

विरेचनः पित्त वाली बीमारियों के लिए विरेचन किया जाता है। इससे पेट की बीमारियों में राहत मिलती है। इसके लिए अलग-अलग दवाएं और काढ़े पिलाए जाते हैं।

आस्थापन बस्तिः इसका दूसरा नाम मेडिसिनल एनिमा भी है। इसमें खुश्क चीजों का क्वाथ बनाकर एनिमा दिया जाता है। इससे पेट एवं बड़ी आंत के वायु संबधी सभी रोगों में लाभ मिलता है।

अनुवासन बस्तिः इस प्रक्रिया में स्निग्ध (चिकने) पदार्थ जैसे कि दूध, घी, तेल आदि के मिश्रण का एनिमा लगाया जाता है। इससे भी पेट एवं बड़ी आंत की बीमारियों में राहत मिलती है।

शिरोविरेचन या शिरोधारा: इसमें नाक से अलग-अलग तेलों को सुंघाया जाता है और सिर पर तेल की धारा डाली जाती है। इससे सिर के अंदर की खुश्की दूर होती है। यह आंखों की बामारियों, ईएनटी प्रॉब्लम, नींद न आना और तनाव जैसी बीमारियों में राहत मिलती है।



कुछ और थेरपी
हॉट स्टोन थेरपीः इसमें करीब 30 मिनट की मसाज के बाद तेल में डूबे गर्म पत्थर बॉडी पर करीब 15-20 मिनट के लिए रखे जाते हैं। इससे प्रेशर पॉइंट बेहतर काम करने लगते हैं।
बैंबू थेरपीः यह करीब-करीब हॉट स्टोन थेरपी जैसा ही है। स्टोन रखने के बजाय बैंबू से मालिश की जाती है।
हॉट टब थेरपी: इसमें एक टब में गर्म पत्थर रखे जाते हैं और मिनरल वॉटर से इसे भर कर कस्टमर को इसमें लिटा दिया जाता है। जब यह वॉटर गर्म पत्थरों के ऊपर से गुजरता है तो हीट बनती है जो कस्टमर को काफी रिलैक्स करती है।
इससे आनंद भी खूब आता है।
अरोमा थेरपी: इसमें तिल के तेल में अरोमा यानी खुशबू (यूकेलिप्टस, गुलाब, लैवेंडर, चमेली आदि) डालकर मालिश करते हैं। साथ ही, कमरे में भी टी-लाइट या दूसरे तरीकों से उसी खुशबू का संचार किया जाता है। खुशबू काफी रिलैक्स करती है। लेवेंडर का इस्तेमाल शांति के लिए, लेमन ग्रास का रिलैक्स के लिए, पिपरमेंट का रिफ्रेंशमेंट के लिए।
बॉडी रैप/पैक: इसमें बॉडी पर अलग-अलग तरह के पैक लगाए जाते हैं जैसे कि मड पैक। इसमें शरीर पर मिट्टी का लेप किया जाता है। इसके अलावा दूध में फलों का गूदा और जड़ी-बूटियां मिलाकर गाढ़ा पैक बनाना या उबले चावलों में अदरक, इलायची आदि मिलाकर पैक बनाना आदि। इन्हें बॉडी पर लगाकर बॉडी को सूती कपड़े की पट्टियों से लपेट दिया जाता है।
मड पैक थेरपी: मिट्टी में नीम की पत्तियां या जड़ी-बूटियां पीसकर मिलाते हैं। इससे शरीर को कूलिंग इफेक्ट मिलता है और दर्द भी कम हो जाता है।
पोटली थेरपी: नीम, चंदन आदि बूटियां को सूती कपड़े की पोटली में बांधकर हल्का गर्म करके सिकाई की जाती है।
ब्यूटी ट्रीटमेंट: इसमें फेस के लिए फेशियल, पैरों के लिए पेडिक्योर, हाथों के लिए मैनिक्योर और बालों के लिए हेयर स्पा आदि आते हैं। इन सभी में क्लीनिंग, स्क्रबिंग, मसाज, पैक आदि यूज करते हैं। आमतौर पर पहले क्लिंजिंग, फिर स्क्रबिंग, फिर मसाज और आखिर में पैक लगाया जाता है।

स्पा और आयुर्वेदिक इलाज में फर्क
स्पा बॉडी और मन को रिलैक्स करने के लिए होता है, जबकि आयुर्वेदिक उपचार में किसी बीमारी का इलाज किया जाता है। मसलन जोड़ों के दर्द के इलाज के लिए कटि बस्ती करते हैं। इसमें घुटने पर आटे की टोकरी-सी बनाकर लगाते हैं और उसमें गर्म तेल डालते हैं। करीब 20-25 मिनट घुटना इसमें रखकर फिर उस तेल से घुटने की मालिश करते हैं। शुगर के मरीजों को पोटली ट्रीटमेंट देते हैं। स्पा कोई भी करा सकता है, जबकि आयुर्वेदिक इलाज बीमारों का किया जाता है।

स्पा और मसाज में फर्क
मसाज स्पा का एक हिस्सा है। किसी भी तरह की मसाज स्पा में ही आती है। लेकिन स्पा में मसाज के अलावा स्टीम, सॉना, पैक और रैप आदि भी आते हैं।

कहां-कहां होते हैं स्पा
स्पा कई जगहों पर होते हैं। उसके आधार पर भी स्पा की कैटिगरी बांटी गई है:
अर्बन स्पा: यह शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, मॉल, हेल्थ क्लब, एयरपोर्ट आदि पर होता है। यहां आप मसाज, हेयरकेयर, फेशियल आदि करा सकते हैं।
मेडिकल स्पा: मेडिकल स्पा में स्किन में दाग-धब्बे और कालापन, झुर्रियां आदि के अलावा मोटापे के लिए भी लेजर या बॉटोक्स आदि यूज किया जाता है। यह आपकी स्किन को ध्यान में रखकर किया जाता है।
डेस्टिनेशन स्पा: इसमें आमतौर पर वहीं रहना (2-5 दिन) होता है और वॉटर थेरपी ज्यादा यूज होती है। साथ ही, फिजिकल एक्टिविटी भी कराई जाती है।
होटल/रिजॉर्ट स्पा: बड़े-बड़े होटल और रिजॉर्ट में स्पा का इंतजाम होता है। यह आमतौर पर रिलैक्सेशन के लिए होता है। इसमें भी मसाज, सोनाबाथ आदि का इंतजाम होता है।
क्रूज/शिप स्पा: शिप या क्रूज में भी स्पा का इंतजाम होता है। दूसरे स्पा की तरह की यहां भी लोगों को रिलैक्सेशन कराया जाता है।

कौन न कराए
- बुखार, इन्फेक्शन और चोट में न कराएं।
- सर्जरी के बाद भी 6 महीने तक परहेज करें।
- हाई बीपी के मरीज स्टीम या सॉना न कराएं।
- पैरालिसिस या कैंसर जैसी बीमारियों में भी ट्रीटमेंट के तौर पर स्पा नहीं कराना चाहिए। हां, रिलैक्शेन के लिए कुछ थेरपी करा सकते हैं।
- प्रेग्नेंसी में स्पा थेरपी नहीं करानी चाहिए। 3 से 6 महीने की प्रेग्नेंसी में फुट थेरपी आदि करा सकते हैं, लेकिन इसके पहले या बाद में वह भी नहीं। नॉर्मल डिलिवरी के बाद 3 महीने तक और सिजेरियन के बाद 6 महीने तक न कराएं।

कितना कराएं
ज्यादा-से-ज्यादा 15 दिन में एक बार या फिर 6-9 महीने में हफ्ते भर लगातार कराएं। बाकी आयुर्वेदिक डॉक्टर की सलाह से लेकर भी करा सकते हैं। ध्यान रखें कि यह आदत बेशक बन जाए, लेकिन लत नहीं।

क्या हैं रेट
यूं तो ब्रैंड नेम, सुविधा और बीमारी आदि के अनुसार रेट तय होते हैं लेकिन फिर भी मोटे तौर पर एक थेरपी के लिए 1000 से 3000 रुपये तक खर्च होते हैं।

और कुछ सावधानियां
- अच्छे स्पा में ही कराएं, वरना इन्फेक्शन के अलावा आपके गलत इस्तेमाल के चांस भी बन जाते हैं।
- मसाज और स्टीम के दौरान बॉडी का टेंपरेचर बढ़ जाता है। ब्लड सर्कुलेशन भी सिर की तरफ जाता है। इससे चक्कर या उलटी आदि महसूस हो सकती है। परेशान न हों। यह जल्द ही ठीक हो जाता है।
- अगर ज्यादा दिक्कत लगे तो केबिन से बाहर निकल आएं और आराम से लेट जाएं। थोड़ी देर में नॉर्मल महसूस करने लगेंगे।
- कोई हेल्थ इश्यू है तो स्पा करने वाले को पहले से बताएं।
- स्किन सेंसेटिव है तो भी जानकारी दें।

कैसे पहचानें कि कौन बेहतर
स्पा कैसा है, यह आप अपनी 5 सेंस से पहचान सकते हैः
- आंखों से देखकर कि माहौल कैसा है। साफ-सुथरा और अच्छा है या नहीं।
- नाक से सूंघकर देखें कि खुशबू अच्छी है या नहीं।
- स्किन से पता लगता है कि टेंपरेचर सही है या नहीं। कम टेंपरेचर में बॉडी रिलैक्स रहती है।
- अच्छे स्पा में जूस आदि पीने को देते हैं। इसके टेस्ट (जीभ से) से लेवल का अनुमान लगा सकते हैं।
- कान को पसंद आनेवाला सॉफ्ट म्यूजिक भी अहम है।

स्पा का सही तरीका
- सबसे पहले 1 गिलास पानी पीने को दें।
- फिर 5 मिनट सोना कराएं।
- इसके बाद 45 से 60 मिनट मसाज करें।
- फिर एक गिलास पानी पीने को दें।
- 5-10 मिनट स्टीम दिलाएं।
- फिर नहाने को बोलें।
- आखिर में एक गिलास जूस पीने को दें।


क्या लेकर जाएं
- एक जोड़ी अंडरगारमेंट्स
- एक टॉवल

एक्सपर्ट्स पैनल डॉ. वी. आर. दिलीप, आयुर्वेदिक एक्सपर्ट, बापू नेचर केयर हॉस्पिटल डॉ. विकास विनीत, आयुर्वेदिक एक्सपर्ट, आर्ट ऑफ लिविंग डॉ. राहुल डोगरा, एक्सपर्ट, कैराली आयुर्वेदिक ग्रुप डॉ. अमित बांगिया, डर्मटॉलजिस्ट, एशियन इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज

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घर होगा गार्डन-गार्डन

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घर में गार्डन बनाने का सपना तो सभी का होता है, लेकिन कभी जगह तो कभी जानकारी की कमी से यह सपना पूरा नहीं हो पाता। बेशक थोड़ी-सी कोशिश से आप कम जगह में भी बढ़िया गार्डन तैयार कर सकते हैं, जिसमें सजावटी फूलों से लेकर तमाम फल और सब्जियां भी उगा सकते हैं। अपनी सेहत के साथ-साथ इससे आप इन्वाइरनमेंट की हिफाजत में भी योगदान दे सकते हैं। जानते हैं, घर पर गार्डनिंग के टिप्स:

अगर आपको हरियाली से प्यार है और आप छोटा-सा ही सही, लेकिन अपना गार्डन चाहते हैं तो यह बेशक मुमकिन है। जगह की कमी के बावजूद आप बेहतर टेरस या किचन गार्डन बना सकते हैं। यहां गार्डनिंग कर आप सजावटी पौधों और फूलों के अलावा फल-सब्जियां भी लगा सकते हैं। आप टेरस, बालकनी, खिड़कियां या लिविंग रूम या फिर छोटे से लॉन में भी हरियाली बिखेर सकते हैं। आप कोई भी पौधा लगाएं, उससे पहले कुछ चीजों के बारे में जानना जरूरी है।

मिट्टी की तैयारी
पौधे लगाने से पहले गमलों में से मिट्टी निकाल दें। हो सके तो इसे 2-3 दिनों तक धूप में खुला छोड़ दें। इससे मिट्टी में मौजूद कीड़े-मकोड़े और फफूंद खत्म हो जाएंगे। फिर मिट्टी में कंपोस्ट खाद या गोबर की खाद अच्छी तरह मिलाकर गमलों में भर दें। गमलों को ऊपर से करीब एक-तिहाई खाली रखें ताकि पानी डालने पर मिट्टी और खाद बहकर बाहर न निकले।

गमले कौन-से लें
मिट्टी के गमले सबसे अच्छे होते हैं। आप इन्हें प्लास्टिक की ट्रे पर रख सकते हैं ताकि गंदगी न फैले। मजबूती के लिए सीमेंट के गमलों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। प्लास्टिक के गमले उतने सही नहीं होते, क्योंकि इनमें पौधों का विकास रुक जाता है। मिट्टी के गमलों पर पेंट की जगह गेरू का इस्तेमाल करें। साइज के हिसाब से मिट्टी के गमले 80 रुपये से 500 रुपये तक में मिल जाएंगे। वैसे, आप पौधे लगाने के लिए पुरानी बाल्टी, टब और यहां तक कि बोतलों तक का इस्तेमाल कर सकते हैं।

बीज बोने की तैयारी
तैयार मिट्टी को गमलों में भरने से पहले गमले के बॉटम में (जहां पानी निकलने की जगह बनी होती है) पॉट के टूटे हुए टुकड़े या छोटे पत्थर रखें, ताकि पानी के साथ मिट्टी का पोषण बाहर न निकले। फिर मिट्टी में बीज लगाएं। जब भी कोई बीज रोपें, उसे उसके आकार से दोगुना मोटी मिट्टी की परत के नीचे तक ही अंदर डालें, वरना अंकुर फूटने में लंबा वक्त लगेगा। मिट्टी डालने के बाद हल्का पानी डाल दें। इस समय इन्हें धूप लगना जरूरी है। ऐसा न होने पर ये आकार में छोटे और कमजोर रह जाएंगे। अगर पौधों को दूसरे गमले में लगाना है तो शाम या रात को यानी ठंडे वक्त पर ट्रांसफर करें और तब करें, जब पौधों में 4-6 पत्तियां आ चुकी हों। ट्रांसफर करने के बाद थोड़ा पानी जरूर डालें।

खाद की जरूरत
पौधों को खाद जरूर चाहिए। यह खाद गोबर की या मार्केट में मिलनेवाले केमिकल फर्टिलाइजर्स हो सकते हैं। नीम, सरसों या मूंगफली की खली भी खाद के रूप में इस्तेमाल की जाती है। इनमें प्रोटीन की मात्रा ज्यादा होती है। खाद मोटे तौर पर 2 तरह की होती है:
1. जैविक खाद (ऑर्गेनिक फर्टिलाइजर): यह खाद जीवों से बनती है, जैसे गोबर की खाद, पशुओं-मनुष्यों के मल-मूत्र से बनने वाली खाद। इनमें हानिकारक केमिकल्स नहीं होते। 2. रासायनिक खाद (केमिकल फर्टिलाइजर): यह खाद नाइट्रोजन, पोटाश और फॉस्फोरस के कंपाउंड वाली होती है। इसके इस्तेमाल से मिट्टी कम समय में ज्यादा उपजाऊ हो जाती है। इसका ज्यादा इस्तेमाल करने से जमीन में पोषक तत्वों का असंतुलन हो जाता है, जिससे आगे चलकर जमीन बंजर भी हो सकती है। जहां तक हो सके, घरेलू बगीचे में रासायनिक खाद के इस्तेमाल से बचना चाहिए।

कितनी खाद: आमतौर पर किसी अच्छी नर्सरी से ऑर्गेनिक खाद के पैकेट मिल जाते हैं। इनमें नीमखली, बोनमील, सरसों खली, कंपोस्ट वगैरह शामिल हैं। ये आमतौर पर 40 से 80 रुपये प्रति किलो के हिसाब से मिलती हैं। आमतौर पर पौधों को लगाते समय और दोबारा उनके फूल आते समय खाद दी जाती है। वैसे, महीने में एक बार खाद डाल सकते हैं। छोटे पौधों में मुट्ठी भर और बड़े पौधों में दो मुट्ठी खाद आमतौर पर काफी रहती है। गर्मियों में कम खाद देनी चाहिए।
नोट: खाद तभी दें, जब गमलों की मिट्टी सूखी हो। खाद देने के बाद मिट्टी की गुड़ाई कर दें। इसके बाद ही पानी दें।

खुद तैयार करें खाद: कंपोस्ट यानी कूड़े से बना खाद (आप इसे नर्सरी से खरीद सकते हैं या खुद भी बना सकते हैं), लाल मिट्टी, रेत और गोबर का खाद बराबर मात्रा में मिलाएं। अगर जगह हो तो कच्ची जमीन में एक गहरा गड्ढा खोदें, वरना एक बड़ा मिट्टी का गमला लें। इसके तले में मिट्टी की मोटी परत डालें। इसके ऊपर किचन से निकलने वाले सब्जियों और फलों के मुलायम छिलके और पल्प डालें। अगर यह कचरा काफी गीला है तो इसके ऊपर सूखे पत्ते या न्यूज पेपर डालें। इसके ऊपर मिट्टी की मोटी परत डालकर ढक दें। इस प्रॉसेस को गड्ढा या गमला भरने तक दोहराते रहें। इस मिक्सचर के गलकर एक-तिहाई कम होने तक इंतजार करें। इस प्रोसेस में तकरीबन 3 महीने का वक्त लगता है। अब पोषण से भरपूर इस खाद को निकालकर किसी दूसरे गमले में मिट्टी की परतों के बीच दबाकर सूखे पत्तों से ढककर रख दें। 15-20 दिन में यह खाद इस्तेमाल के लिए पूरी तरह तैयार हो जाएगी। मिट्टी के साथ मिलाकर सब्जियां और फल उगाने के लिए इसका इस्तेमाल करें। खाली हुए गड्ढे या गमले में खाद बनाने की प्रक्रिया दोहराते रहें। इसी तरह, बाजार से सरसों की खली खरीदकर लाएं। खली को पौधों में डालने के लिए इस तरह पानी में भिगोकर रात भर रखें कि अगले दिन वह एक गाढ़े पेस्ट में तब्दील हो जाए। इस पेस्ट को मिट्टी में अच्छी तरह से मिलाकर इसे अपने गमलों में डालें। मिट्टी और खली का अनुपात 10:1 होना चाहिए यानी 10 किलो मिट्टी में 1 किलो खली मिलाएं। इसे गमलों में डालने के बाद मिट्टी की गुड़ाई कर दें ताकि खली वाली मिट्टी गमले की मिट्टी के साथ मिक्स हो जाए।

ये टूल्स हैं यूजफुल
1. गार्डन ग्लव्ज 2. खुरपी या फावड़ा 3. बाल्टी 4. पौधों को सीधा करने के लिए पतली लकड़ियां और सुतली 5. पौधों की कटाई-छंटाई के लिए कैंची जिसे सिकेटियर्स (secateurs) भी कहते हैं।

ऐसे करें देखभाल

पानी का पैमाना
ज्यादा पानी देने से मिट्टी के कणों के बीच मौजूद ऑक्सिजन पौधों की जड़ों में नहीं पहुंच पाती इसलिए आपको जब गमले सूखे लगें, तभी पानी डालें। मौसम का भी ध्यान रखें। सर्दियों में हर तीसरे-चौथे दिन और गर्मियों में रोजाना (हो सके तो दिन में 2 बार भी) पानी डालना चाहिए। पानी सुबह या शाम के वक्त ही देना चाहिए। भूलकर भी तेज धूप में पौधों में पानी न डालें। इससे पौधों के झुलसने का खतरा रहता है। अगर किसी वजह से कुछ दिनों के लिए घर से दूर रहने की नौबत आए तो गमलों में पानी ऊपर तक भर दें। इसके अलावा इनडोर पौधों को कमरे से निकालकर खुले बरामदों में रख दें ताकि उन्हें खुली हवा लग सके। बारिश के मौसम में खुले में रखे पौधे एक हफ्ते तक बिना सिचाई के भी हरे-भरे रह सकते हैं।
नोट: अगर 10-15 दिनों के लिए घर से बाहर जा रहे हैं तो जाने से पहले गमले या पॉट में लीचन/मॉस (तालाब में उगने वाले कुछ खास पौधे जो नर्सरी से मिल जाएंगे) को अच्छी तरह बिछाकर पानी डालें। इससे लंबे समय तक पौधों में नमी बनी रहेगी।

धूप है बेहद जरूरी
पौधों के लिए धूप जरूरी होती है, लेकिन दोपहर की कड़ी धूप से पौधों को बचाएं। इनडोर पौधों को भी थोड़ी देर के लिए धूप दिखानी चाहिए। इन्हें हफ्ते में कम-से-कम 3 दिन सुबह के वक्त डेढ़-दो घंटे के लिए धूप में रखें। फिर अंदर रख दें। गर्मियों में पौधों को कड़क धूप से बचाएं। इसके लिए इनके ऊपर नेट लगा सकते हैं, जोकि नर्सरी या गार्डनिंग के सामान वाली दुकान से आसानी से मिल जाता है।

नियमित करें गुड़ाई
गमलों या क्यारियों की मिट्टी को हवा और पानी अच्छी तरह मिलता रहे इसके लिए पौधों की गुड़ाई करना जरूरी है। गमलों की मिट्टी में उंगली गाड़कर देखें। अगर मिट्टी बहुत सख्त है तो गुड़ाई करें। कम से कम महीने में एक बार मिट्टी की गुड़ाई करें। इससे मिट्टी ढीली रहेगी और अपने आप उग आई घासों की भी सफाई हो जाएगी।



अलग-अलग किस्म के पौधे

फूल और सजावटी पौधे
इनमें पाम, साइकस पाम, अडिका पाम, मनीप्लांट, जैट्रोपा, बॉटल ब्रश आदि के अलावा फूलों की ढेर सारी वैरायटी के पौधे आते हैं। इन पौधों को मौसम के हिसाब से कैटिगरी में बांट सकते हैं:
बारहमासा पौधे : बोगनवेलिया, हैबिस्कस, रात की रानी, चमेली, मोतिया, मोगरा, मोरपंख, फाइकस, गेंदा आदि।
गर्मी के पौधे : कॉसमॉस (पीला), जीनिया, सूरजमुखी, टिथोनिया, गेलार्डिया आदि। इनके लिए बीज फरवरी के आखिरी दिनों में लगाएं ताकि करीब 2 महीने में, यानी अप्रैल के महीने तक फूल निकल आएं।
मॉनसून के पौधे : ऐजेरेंटम, बालसम, एमरेंथस, टोरिनिया, गामफेरिना, कनेर आदि। इन्हें मॉनसून के दिनों में 15 जून के बाद लगाना जाना चाहिए। इसमें करीब दो-ढाई महीने में फूल आ जाते हैं।
सर्दी के पौधे: गुलाब, कॉर्न फ्लॉवर, कारनेशन, डेजी, डहेलिया, गुलदाउदी, हॉलीहॉक, गेंदा, कॉसमॉस (पिंक और वाइट) आदि। इनके बीज अक्टूबर में बोए जाते हैं और दिसंबर-जनवरी में फूल आ जाते हैं।


बिना मिट्टीवाले पौधे
कुछ पौधे ऐसे होते हैं, जिन्हें लगाने के लिए मिट्टी की जरूरत नहीं होती। ये खाली पानी में भी बढ़िया तरीके से बढ़ते हैं। इनमें खास है मनीप्लांट, वॉटर लैट्यूस, लिली, लोटस, सिंगोडियम आदि। इन्हें बोतल में लगाना बेहतर रहता है। हालांकि मेटल के पॉट में इसे लगाने से बचना चाहिए क्योंकि खाद से मेटल में रिएक्शन हो सकता है। बोतल में नॉर्मल पानी भरें। चाहें तो उसमें फ्लॉरिस्ट फोम, सजावटी पत्थर आदि डाल सकते हैं। एक छोटा टुकड़ा चारकोल भी डाल सकते हैं ताकि पानी साफ रहे और उसमें बदबू न हो। गर्मियों में 3-4 दिन और सर्दियों में हफ्ते भर में पानी बदलते रहें। पानी डालते वक्त इंडोर पौधों के पत्तों पर भी पानी छिड़कना चाहिए क्योंकि धूल से पत्ते खराब हो सकते हैं। मनीप्लांट: लोग घरों में मनीप्लांट सबसे ज्यादा लगाना पसंद करते हैं। इसे मिट्टी या पानी, दोनों में लगा सकते हैं। मनीप्लांट लगाने के लिए सर्दियों का सीजन बेस्ट रहता है। इसे ज्यादा धूप की जरूरत नहीं होती, लेकिन हफ्ते में कम-से-कम एक बार कुछ घंटों के लिए सुबह की धूप में निकालकर रखें। अगर मनीप्लांट पानी में लगा है तो उसका पानी 15 दिन में एक बार जरूर बदलें और पानी साफ रखें। अगर प्लांट की ग्रोथ रुक गई हो तो इस पानी में दो-तीन दाने यूरिया खाद के डाल दें।

फल और सब्जियां
- हमेशा नैचरल ब्रीडिंग वाले बीजों का इस्तेमाल करें, न कि हाइब्रिड का। नैचरल ब्रीडिंग वाले पौधों में फल और सब्जियां ज्यादा स्वादिष्ट होती हैं।
- सब्जियों में शुरू में आप पुदीना, धनिया, करी पत्ता, हरी मिर्च, लेमन ग्रास या अलग-अलग तरह के साग उगा सकते हैं। इन्हें फलने-फूलने के लिए ज्यादा धूप की जरूरत नहीं होती। इन्हें लिविंग-रूम या खिड़की के पास भी रखा जा सकता है। आसान सब्जियों और फलों को उगाकर धीरे-धीरे आप गार्डनिंग की तकनीक सीख जाएंगे। फिर टमाटर, भिंडी, बींस, गांठ गोभी, बैगन, शिमला मिर्च जैसी तमाम सब्जियां आसानी से उगा सकेंगे। करेला और खीरा जैसी सब्जियों की बेलें न सिर्फ आपको फल देंगी बल्कि आपकी छोटी-सी बालकनी की खूबसूरती भी बढ़ा सकती हैं। वैसे, सबसे आसानी से उगने वाली सब्जियां हैं: मिर्च, भिंडी और बैंगन। ये करीब 45 दिनों में तैयार हो जाती हैं। - फलदार पौधों के लिए आपको इसके कलम (बडिंग) किए हुए पौधे की जरूरत होगी। अगर आपके पास टेरेस या लॉन में ज्यादा खुली जगह है तो आप अमरूद, अनार और अनन्नास भी उगा सकते हैं। अमरूद और आम की ऐसी किस्में भी मार्केट में मिल जाएंगी, जो साइज में छोटी होती हैं, लेकिन फल भरपूर देती हैं।

कब लगाएं, कौन-सी सब्जियां
गर्मियों की सब्जियां: बेल वाली सब्जियां जैसे कि घिया, तोरी, करेला, टिंडा, खीरा, ककड़ी आदि। इसके अलावा बैंगन, भिंड़ी, टमाटर आदि भी घर में लगा सकते हैं। इनके बीज फरवरी या मार्च के शुरू में लगाएं ताकि करीब 2 महीने बाद अप्रैल-मई में सब्जियां मिल सकें।
सर्दियों की सब्जियां: पालक, मेथी, गाजर, फूलगोभी, बंदगोभी, मूली, ब्रोकली, चुकंदर आदि लगा सकते हैं। इनके बीज मई-जून में लगाएं ताकि सितंबर-अक्टूबर से सब्जियां मिलने लगें।
नोट: टमाटर साल में 2 बार लगाया जा सकता है, अक्टूबर और मार्च में। अगर पौधों की पत्तियां सिकुड़ रही हों या भूरे चकत्ते दिख रहे हों या पौधे का तना गल रहा हो तो समझ जाएं कि उनमें आयरन की कमी हो गई है। ऐसे में 1 लीटर पानी में 1 आयरन कैप्सूल घोलें और टमाटर के हर पौधे में आधा-आधा कप पानी डालें। अगले दिन पान में इस्तेमाल होने वाले चूने की 3 चुटकी 1 लीटर पानी में मिला लें और टमाटर के पौधों में आधा-आधा कप डालें। इससे पौधों में न्यूट्रिशन की कमी दूर हो जाएगी।



मेडिसिनल पौधे
नीम, तुलसी, एलोवेरा, गिलोय, लौंग, पुदीना आदि ऐसे पौधे हैं, जो सेहत के लिए काफी फायदेमंद हैं और इन्हें छोटी-मोटी बीमारियों में यूज कर सकते हैं।
तुलसी तो प्राय: सबके घर में होती ही है। यह एक नाजुक पौधा है। सर्दियों में यह मुरझा जाती है, इसलिए इसे टेंपरेचर के तेज उतार-चढ़ाव से बचाना चाहिए। तेज सर्दी के दिनों में इसे घर के अंदर रखें। अगर तेज कोहरा पड़ रहा है तो तुलसी के पौधे को हल्के कपड़े से ढका भी जा सकता है। पौधे को सर्दी के मौसम में धूप दिखाना भी बेहद जरूरी है। इसके अलावा, समय-समय पर गुड़ाई भी करते रहना चाहिए। गर्मियों में इसे तेज धूप से बचाना चाहिए।

मच्छर भगानेवाले पौधे
कई पौधे ऐसे होते हैं जो मच्छर भगाने में मदद करते हैं और हवा को भी साफ करते हैं। ऐसे पौधों में खास हैं गेंदा, लेमन बाम, तुलसी, नीम, लैवेंडर, रोजमेरी, हार्समिंट, सिट्रोनेला आदि।
गेंदा: इसकी गंध बहुत तीखी होती है और मच्छरों को पसंद नहीं आती। ये कीड़ों को भी दूर रखते हैं।
रोजमेरी: 4-5 फुट लंबे ये पौधे और इसके नीले फूल गर्मी के मौसम में तेजी से बढ़ते हैं। सर्दी में इसके गमले को घर के अंदर रखना चाहिए। इनसे मच्छर दूर रहते हैं।
लेमन बाम: यह दिखने में पुदीने के पौधे की तरह लगता है, लेकिन इसमें नींबू की महक आती है। इस पौधे को लगाने से मच्छर दूर रहते हैं।
हार्समिंट: यह एक तरह का मिंट है जिससे कसैली गंध आती है।
लैवेंडर: इस पौधे की खुशबू बड़ी तेज होती है और मच्छर इससे दूर रहते हैं।
इनके अलावा तुलसी, लौंग, नीम, पुदीना आदि से भी मच्छर दूर रहते हैं और ये हवा को भी तरोताजा बनाए रखने में मदद करते हैं।

एक्सपर्ट पैनल
मदन कोहली, बागवानी एक्सपर्ट
अशोक पाहूजा, सीड एक्सपर्ट

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घी-तेल न बिगाड़े खेल

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कॉलेस्ट्रॉल दिल की बीमारी की बड़ी वजह है। ऐसे में एक्सपर्ट कम फैट वाले खाने को तरजीह देते रहे हैं ताकि कॉलेस्ट्रॉल न बढ़े। लेकिन लेटेस्ट रिसर्च कहती हैं कि कॉलेस्ट्रॉल बढ़ने में खाने का ज्यादा रोल नहीं है। साथ ही, दिल की बीमारी के लिए तेल से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट। कॉलेस्ट्रॉल को दूर करने में सही खानपान की जानकारी एक्सपर्ट्स की मदद से दे रही हैं प्रियंका सिंह:

अमेरिकी सरकार ने हाल में अपने सिटिजंस के लिए डाइटरी गाइडलाइंस जारी की हैं। 572 पेज की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि खाने से मिलनेवाला कॉलेस्ट्रॉल यानी डाइटरी कॉलेस्ट्रॉल दिल के लिए नुकसानदेह नहीं है। पहले कहा जाता था, किसी भी शख्स को अपनी डाइट में रोजाना 300 मिलीग्राम से ज्यादा कॉलेस्ट्रॉल (अंडे का पीला हिस्सा, मक्खन, घी, क्रीम, चीज़, रेड मीड आदि) नहीं खाना चाहिए, वरना दिल की बीमारी हो सकती है। लेकिन नई गाइडलाइंस में इससे उलट कहा गया है कि डाइटरी कॉलेस्ट्रॉल और ब्लड कॉलेस्ट्रॉल के बीच कोई कनेक्शन नहीं है।
इस रिसर्च की अहम बातें हैं:
- कॉलेस्ट्रॉल दिल की बीमारी की बड़ी वजह है, यह सही है लेकिन हम खाने में जो कॉलेस्ट्रॉल ले रहे हैं, उसका कोई खास खतरा नहीं है।
- ट्रांस फैट्स सेहत के लिए बेहद नुकसानदेह हैं। ट्रांस फैट्स तेल को बार-बार गर्म करने या बहुत तेज गर्म करने पर पैदा होते हैं। ये वनस्पति घी में ज्यादा पाए जाते हैं।
- LDL (बैड कॉलेस्ट्रॉल) भी खतरनाक हो सकता है। यह बेशक आर्टरीज को ब्लॉक न करे, लेकिन इसके छोटे पार्टिकल्स आर्टरीज में सूजन पैदा कर सकते हैं।
- सैचुरेटिड फैट्स (घी, बटर, चीज, रेड मीट आदि) से दिल की बीमारी का सीधा कनेक्शन नहीं है।
- रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट (सफेद चीनी, सफेद चावल और सफेद मैदा) फैट से कहीं ज्यादा नुकसानदेह हैं।

बेशक इन तमाम बातों से हमारे मन में कुछ सवाल उठते हैं और यहां हमने उन्हीं सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश की है।

क्या ये गाइडलाइंस भारतीयों के लिए भी लागू होती हैं?
बहुत हद तक। हालांकि हमें और भी ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है क्योंकि हम भारतीयों को जापानियों के मुकाबले 20 गुना, चीनियों के मुकाबले 6 गुना ज्यादा और अमेरिकियों के मुकाबले 3 गुना ज्यादा दिल की बीमारियों का खतरा होता है। इसके अलावा, हम एक्सरसाइज करने में पीछे और खाने में भी आगे रहते हैं। ऐसे में हमें ज्यादा सावधान रहने और अपने खानपान को बेहतर करने की जरूरत है।

कॉलेस्ट्रॉल क्या है और इसके क्या नुकसान हैं?
कॉलेस्ट्रॉल वैक्स जैसी चिपचिपी चीज है जो शरीर की सभी कोशिकाओं में पाई जाती है। हमारे नर्वस सिस्टम से लेकर डाइजेशन तक में यह मदद करता है। कई हॉर्मोंस भी इससे बनते हैं। लेकिन अगर यह बढ़ जाए तो आर्टरीज में जमा होने लगता है। तब यह दिल की बीमारी की वजह बनता है। कई बार इस जमा कॉलेस्ट्रॉल में से कोई हिस्सा टूटकर आर्टरीज को ब्लॉक कर देता है, जिससे हार्ट अटैक या स्ट्रोक हो सकता है। हमारे शरीर में कॉलेस्ट्रॉल तब जमा होता है, जब हमारी आर्टरीज़ में सूजन हो या वे पूरी तरह स्वस्थ न हों। CRP (सी-रिएक्टिव प्रोटीन) ब्लड टेस्ट मार्कर से आर्टरीज की सूजन का पता लगाया जाता है।

क्या खाने से जुड़ा कॉलेस्ट्रॉल खतरनाक है?
नहीं, अगर आप स्वस्थ हैं तो खाने में कॉलेस्ट्रॉल वाली चीजों का ब्लड कॉलेस्ट्रॉल पर ज्यादा असर नहीं पड़ता। इसकी वजह है कि हमारे शरीर में मौजूद 85 से 88 फीसदी ब्लड कॉलेस्ट्रॉल लिवर बनाता है। सिर्फ 12 से 15 फीसदी कॉलेस्ट्रॉल ही हमें डाइट से मिलता है। लेकिन अगर पहले से ही कॉलेस्ट्रॉल ज्यादा है या रिस्क फैक्टर हैं (फैमिली हिस्ट्री, स्मोकिंग, मोटापा आदि) तो खाने के कॉलेस्ट्रॉल पर कंट्रोल रखना भी बहुत जरूरी है यानी आपको कॉलेस्ट्रॉल बढ़ाने वाली चीजें नहीं खानी चाहिए। कॉलेस्ट्रॉल को कंट्रोल रखने के लिए जरूरी है कि हम ट्रांस फैट और रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट न खाएं। हां, फैट को पूरी तरह डाइट से निकालने की जरूरत नहीं है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि गुलाबजामुन खाने से बेहतर है घर पर बनाए पकौड़े खाना।

क्या अब कॉलेस्ट्रॉल जांच की जरूरत नहीं रही?
कॉलेस्ट्रॉल जांच की जरूरत तो अब भी है क्योंकि हार्ट अटैक और स्ट्रोक की सबसे बड़ी वजहों में से एक कॉलेस्ट्रॉल का बढ़ा होना है। कॉलेस्ट्रॉल की जांच के लिए लिपिड प्रोफाइल टेस्ट होता है। इसमें एचडीएल (गुड कॉलेस्ट्रॉल), एलडीएल (बैड कॉलेस्ट्रॉल) और ट्राइग्लिसरॉइड और इनकी रेश्यो की जांच होती है। यह टेस्ट करीब 8-12 घंटे की फास्टिंग के बाद होता है। इस दौरान कोई दवा लेने से बचें। कुल कॉलेस्ट्रॉल 200 एमजी/डीएल या इससे कम होना चाहिए। अगर रिस्क फैक्टर नहीं है तो 30 साल की उम्र के बाद कॉलेस्ट्रॉल टेस्ट कराएं। अगर सब कुछ नॉर्मल निकलता है तो भी हर 3 साल में एक बार टेस्ट कराएं। 45 साल के बाद हर साल टेस्ट कराएं।

क्या अब घी, मक्खन, चीज से परहेज की जरूरत है?
पहले देसी घी, मक्खन, चीज आदि को सेहत के लिए काफी खतरनाक माना जा रहा था, जोकि पूरी तरह सही नहीं है। आप स्वस्थ हैं तो खाने में रिफाइंड ऑयल के साथ-साथ देसी घी, मक्खन, चीज आदि फैट ले सकते हैं, लेकिन ज्यादा नहीं। आप हफ्ते में 3-4 अंडे का पीला हिस्सा भी ले सकते हैं, लेकिन वनस्पति घी से दूर रहें और एक बार से ज्यादा गर्म किया तेल यूज न करें। ध्यान रखें कि घी और तेल बहुत पुराना न हो। एक साल से पुराना तेल और 6 महीने से ज्यादा पुराना देसी घी यूज न करें। जिनका कॉलेस्ट्रॉल ज्यादा है, वे किसी भी तरह के सैचुरेटिड फैट से दूर ही रहें तो अच्छा है।

जितना चाहें, घी या मक्खन खा सकते हैं?
नहीं, फैट लिमिट में ही खाना चाहिए। स्वस्थ हैं तो भी रोजाना 3-4 चम्मच से ज्यादा फैट न लें। इसमें देसी घी, मक्खन और रिफाइंड ऑयल सभी कुछ शामिल है।

तो कौन-सा कुकिंग ऑयल अच्छा है?
किसी एक तेल के बजाय बदल-बदल कर और कॉम्बिनेशन में तेल यूज करें, मसलन एक महीने सरसों और मूंगफली का तेल यूज करें तो दूसरे महीने रिफाइंड और कनोला का। आप अपनी पसंद से कॉम्बिनेशन बना सकते हैं। इससे शरीर को सभी जरूरी फैट्स मिल जाते हैं। खाने के तेल में मोनो-अनसैचुरेटिड (मूफा) और पॉली-अनसैचुरेटिड (पूफा) फैट मिक्स होना चाहिए। पूफा में दो हिस्से होते हैं ओमेगा-3 और ओमेगा-6। दोनों ही हार्ट के लिए बेहद जरूरी हैं। मूफा ऑलिव ऑयल, राइस ब्रैन, सरसों, मूंगफली आदि में ज्यादा होता है तो पूफा सफोला या सैफ्लार, कनोला, सनफ्लार आदि में। कोकोनट ऑयल भी सैचुरेटिड होने के बावजूद कॉलेस्ट्रॉल नहीं बढ़ाता। उत्तर भारत में रहनेवालों को इसे यूज नहीं करना चाहिए लेकिन तटीय इलाकों में रहनेवाले इसे खा सकते हैं क्योंकि वे आमतौर पर घी-मक्खन कम खाते हैं। मोटे तौर पर ऑलिव ऑयल, कनोला ऑयल, सोयाबीन, सनफ्लार, सैफ्लार, राइस ब्रैन और सरसों के तेल को अच्छा मान सकते हैं। वैसे, सबसे अच्छा है कि एक-तिहाई सैटचुरेटिड (देसी घी), एक-तिहाई ओमेगा-3 (सरसों का तेल) और एक-तिहाई ओमेगा-6 (सनफ्लार) ले लें। तीनों को रोजाना एक-एक चम्मच खा सकते हैं। आजकल मार्केट में ब्लेंड ऑयल (मिले-जुले तेल) भी मिलते हैं। इन्हें भी इस्तेमाल कर सकते हैं।

तेल खरीदते हुए क्या देखें?
केमिकली एब्स्ट्रैक्ट ऑयल के बजाय प्रेस्ड ऑयल लें। तेल की बॉटल पर लिखा होता है कि तेल प्रेस्ड ऑयल है या केमिकली एब्स्ट्रैक्ट। कच्ची घानी का तेल (सरसों का तेल) प्रेस्ड ऑयल की कैटिगरी में आता है। अच्छे तेल में ओमेगा-3, 6 और 9 होने चाहिए। तेल में ओमेगा-3 और 6 के बीच 1: 5-10 का रेश्यो होना चाहिए। मसलन अगर 1 ग्राम ओमेगा 3 ले रहे हैं तो 5-10 ग्राम ओमेगा-6 लेना चाहिए। ओमेगा-3 के सोर्स काफी कम हैं, मसलन फिश, राजमा, अलसी व अखरोट आदि, जबकि ओमेगा-6 हर अनाज, हर दाल और हर तेल में होता है। तेल खरीदते हुए देखें कि ओमेगा-3 ऊपर लिखा हो और ओमेगा-6 नीचे यानी ओमेगा-3 ज्यादा और ओमेगा-6 कम। साथ ही, ट्रांस फैट जीरो होना चाहिए। यह सारी जानकारी तेल की बॉटल के लेबल पर लिखी होती है।

कौन-से तेल या घी अच्छे नहीं हैं?
खाने के तेल को अगर बहुत तेज गर्म किया जाता है या बार-बार गर्म किया जाता है तो उसकी केमिकल बॉन्डिंग चेंज हो जाती है। इन्हें ट्रांस सैचुरेटिड फैट कहा जाता है। ये सेहत के लिए अच्छे नहीं होते। कई बार वेजिटेबल ऑयल में हाइड्रोजन मिलाकर वनस्पति घी तैयार किया जाता है। ऐसा ऑयल की लाइफ और स्वाद बढ़ाने के लिए किया जाता है ताकि यह देसी घी जैसा लगे। लेकिन हाइड्रोजिनेशन की प्रक्रिया में इनमें भारी मात्रा में ट्रांस फैट आ जाते हैं। ये शरीर को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। ट्रांस फैट्स बैड कॉलेस्ट्रॉल बढ़ाते हैं और गुड कॉलेस्ट्रॉल को कम करते हैं। ये शरीर में सूजन भी बढ़ाते हैं। सैचुरेटिड और ट्रांस सैचुरेटिड फैट सर्दियों में जम जाते हैं। चिप्स, नमकीन, बेकरी प्रोडक्ट्स, जंक फूड आदि के अलावा बाहर के खाने (रेस्तरां से लेकर स्ट्रीट फूड तक) में ट्रांस फैट काफी होते हैं क्योंकि एक ही तेल को बार-बार यूज किया जाता है।

क्या फैट से ज्यादा रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट नुकसान देता है?
आमतौर पर तेल कम खाने पर जोर हम सभी देते रहे हैं इसलिए हाल के बरसों में लोगों ने घी-तेल खाना कम भी किया है, लेकिन रिफाइंड कार्बोहाइड्रेड तेल से भी ज्यादा नुकसानदेह हैं। न सिर्फ दिल के मरीज, बल्कि स्वस्थ लोग भी रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट कम खाएं। यह शुगर और स्टार्च की वह फॉर्म होती है, जो नैचरल नहीं है। ये खाने की नैचरल चीजों से ही बनते हैं लेकिन इन्हें प्रोसेस करके रिफाइन कर दिया जाता है। बारीक होने की वजह से ये जल्दी पचते हैं और फटाफट ग्लूकोज में बदल जाते हैं। इससे जल्दी भूख लगती है और हम मोटापे का शिकार हो जाते हैं। फिर इन्हें तेज तापमान पर ट्रीट किया जाता है और पॉलिश आदि भी किया जाता है। मसलन चोकर समेत आटा खाना फायदेमंद है, सूजी कम फायदेमंद है और मैदा नुकसानदेह। इसी तरह ब्राउन राइस खाने का कोई नुकसान नहीं है, जबकि वाइट राइस फायदेमंद नहीं हैं। तमाम मिठाइयां, फास्ट फूड, कोल्ड ड्रिंक्स, आइसक्रीम, बेकरी प्रोडक्ट्क्स, नूडल्स, बर्गर, पित्जा आदि रिफाइंड कार्ब की कैटिगरी में आते हैं। इन्हें खाने से कॉलेस्ट्रॉल डिपॉजिट बढ़ता है और डायबीटीज के चांस बढ़ जाते हैं। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि चाशनीवाली मिठाई में 50 फीसदी और ड्राई मिठाई में 30 फीसदी शुगर होती है। इसमें एक ग्राम मिठाई में 4 कैलरी होती हैं। एक चम्मच तेल में 9 कैलरी जबकि एक चम्मच मिठाई में करीब 45 कैलरी होती हैं। जाहिर है, रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट फैट से ज्यादा नुकसानदेह हैं।

लिवर को फिट रखने के लिए क्या करें?
लिवर और कॉलेस्ट्रॉल के बीच सीधा संबंध है। लिवर को ठीक रखना जरूरी है क्योंकि लिवर ठीक है तो कॉलेस्ट्रॉल बढ़ेगा ही नहीं। दूसरी ओर, कॉलेस्ट्रॉल ज्यादा है तो फैटी लिवर हो सकता है। शराब पीना लिवर के लिए बेहद नुकसानदेह है। जो लोग शराब पीते हैं, वे हफ्ते में 2-3 बार 1 छोटे पैग से ज्यादा शराब न पिएं। ज्यादा तला-भुना खासकर ट्रांस फैट या रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट खाने से लिवर पर जोर पड़ता है। सभी तरह के प्रोसेस्ड और जंक फूड (बिस्किट, कुकीज, मट्ठी, पेस्ट्री, केक, आइसक्रीम, भुजिया, पित्जा, चिप्स आदि) में काफी ट्रांस फैट होता है, जो सीधा लिवर पर असर करता है। इसके अलावा पेनकिलर, एंटीबायोटिक या स्टेरॉइड क्रीम/इंजेक्शन का इस्तेमाल डॉक्टर की सलाह पर ही करें, क्योंकि इनका लिवर पर सीधा बुरा असर हो सकता है। स्टेरॉइड हॉर्मोंस होते हैं और इनका इस्तेमाल इनफर्टिलिटी, सर्जरी, साइनस आदि में परेशानी बढ़ने पर होता है। ज्यादा पेनकिलर और एंटीबायोटिक लेने से किडनी, लिवर और हार्ट पर बुरा असर पड़ता है। जरूरत लगे तो पेनकिलर के तौर पर क्रोसिन या पैरासिटामोल लें। ये एक दिन में 4 बार तक लेने पर भी खतरनाक नहीं हैं, लेकिन कॉम्बिफ्लेम, ब्रूफेन, वॉवरेन आदि से बचें। लिवर को फिट रखने के लिए सेब, ओट्स, जूस, सलाद, चोकर मिला आटा खाएं। इसके अलावा लिवर को डिटॉक्सिफाइ करने के लिए अलोवेरा जूस, आंवला जूस और वेजिटेबल जूस लें। इन तीनों को मिलाकर रोजाना एक गिलास जूस लें।

कैसी हो सही डाइट?
दिल और लिवर को फिट रखने के लिए बैलेंस्ड डाइट लेनी चाहिए। ऐसी चीजें खाएं, जिनमें फाइबर खूब हो, जैसे कि गेहूं, ज्वार, बाजरा, जई आदि। दलिया, स्प्राउट्स, ओट्स और दालों के फाइबर से कॉलेस्ट्रॉल कम होता है। आटे में चोकर मिलाकर इस्तेमाल करें। हरी सब्जियां, साग, शलजम, बीन्स, मटर, ओट्स, सनफ्लावर सीड्स, अलसी आदि खाएं। इनमें फॉलिक एसिड होता है, जो कॉलेस्ट्रॉल लेवल को मेंटेन करने में मदद करता है। अलसी, बादाम, बीन्स, फिश और सरसों तेल में काफी ओमेगा-थ्री होता है, जो दिल के लिए अच्छा है। मेथी, लहसुन, प्याज, हल्दी, बादाम, सोयाबीन आदि खाएं। इनसे कॉलेस्ट्रॉल कम होता है। एचडीएल यानी गुड कॉलेस्ट्रॉल बढ़ाने के लिए रोजाना 5-6 बादाम खाएं। इसके अलावा ओमेगा-थ्री वाली चीजें अखरोट, फिश लिवर ऑयल, सामन मछली, फ्लैक्स सीड्स (अलसी के बीज) खाने चाहिए। कॉलेस्ट्रॉल लिवर के डिस्ऑर्डर से बढ़ता है। चीनी के बजाय गुड़, शहद या खांड खाएं। मिठाई कम खाना कॉलेस्ट्रॉल कम करने का अच्छा तरीका है।

एक्सरसाइज कौन-सी करें?
कॉलेस्ट्रॉल को ठीक रखने और दिल को दुरुस्त रखने के लिए रोजाना 10 हजार कदम चलना चाहिए जोकि मोटे तौर पर करीब 6 किमी होता है। रोजाना इतना चलना मुमकिन नहीं हो पाता इसलिए चलने का कोटा पूरा करने के लिए हफ्ते में 80 मिनट की ब्रिस्क वॉक जरूर करें। रोजाना कम-से-कम आधा घंटा कार्डियो एक्सरसाइज (तेज वॉक, जॉगिंग, साइकलिंग, स्विमिंग, एरोबिक्स, डांस आदि) करें। अगर तरीके से करें तो ब्रिस्क यानी तेज वॉक जॉगिंग यानी हल्की दौड़ से भी बेहतर साबित होती है, क्योंकि जॉगिंग में जल्दी थक जाते हैं और घुटनों की समस्या होने का खतरा होता है। वॉक और ब्रिस्क वॉक में फर्क यह है कि वॉक में हम 1 मिनट में आमतौर पर 40-50 कदम चलते हैं जबकि ब्रिस्क वॉक में 1 मिनट में लगभग 80 कदम चलते हैं। जॉगिंग में 160 कदम चलते हैं। एक्सरसाइज शुरू करने से पहले 5 मिनट वॉर्म-अप यानी हाथ-पांव हिलाएं, हल्की जंपिंग आदि करें और खत्म करने के बाद 5 मिनट कूल डाउन यानी आराम से बैठ कर लंबी सांसें लें और छोड़ें। साथ ही योग और प्राणायाम करें। रोजाना आधा घंटा योगासन करें। इसमें आसन, ध्यान, गहरी सांस और अनुलोम-विलोम को शामिल करें। सुबह-शाम 10-10 मिनट मेडिटेशन करें। शांत जगह पर बैठकर आती-जाती सांसों पर ध्यान दें। इससे शरीर में ऑक्सिजन की मात्रा बढ़ती है। साथ ही, बीपी कंट्रोल होता है।

दिल के लिए और क्या खतरनाक है?
स्ट्रेस, स्मोकिंग और सेडेंटरी लाइफस्टाइल यानी एक्सरसाइज न करना दिल के लिए खतरनाक साबित होता है। ट्रांस फैट या लगातार ज्यादा कार्ब वाली डाइट लेना भी दिल के लिए घातक साबित होता है। इसके अलावा पलूशन दिल की बीमारियों की बड़ी वजह बन रहा है। मोटापा भी दिल के लिए घातक है। पुरुषों की कमर का घेरा 36 सेमी. से ज्यादा और महिलाओं की कमर की घेरा 32 इंच से ज्यादा हो तो खतरे की घंटी है।

एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. अशोक सेठ, चेयरमैन, फॉर्टिस एस्कॉर्ट्स हार्ट इंस्टिट्यूट
डॉ. के. के. अग्रवाल, सेक्रेटरी जनरल, आईएमए
डॉ. अश्विनी मेहता, सीनियर कार्डियॉलजिस्ट, गंगाराम हॉस्पिटल
डॉ. शिखा शर्मा, न्यूट्री-डाइट एक्सपर्ट
डॉ. अंजुल जैन, सीनियर कार्डियॉलजिस्ट












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क्या आप जानते हैं कि यू-ट्यूब के लिए विडियो बनाकर आप नेम-फेम पाने के साथ-साथ कमाई भी कर सकते हैं? जी हां, यह संभव है। जरूरत है बस एक यू-ट्यूब चैनल बनाने और उस पर अपने विडियो अपलोड करते रहने की। कैसे बनाएं यू-ट्यूब चैनल और कैसे पाएं उसके जरिए कामयाबी, अपने अनुभव और एक्सपर्ट्स से बातचीत के आधार पर बता रहे हैं रजत त्रिपाठी:

यू-ट्यूब पर एक से बढ़कर एक दिलचस्प चैनल्स हैं। वे पॉपुलैरिटी बटोरने के साथ-साथ अच्छी-खासी कमाई भी कर रहे हैं। आप भी इस प्लैटफॉर्म पर अपना विडियो चैनल लॉन्च कर सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले आपको एक गूगल अकाउंट की जरूरत होगी। अपने चैनल के नाम का gmail अकाउंट बनाएं। इसके बाद उस अकाउंट में लॉग-इन कर दूसरे टैब में youtube.com ओपन करें। यहां आप अपनी प्रोफाइल पिक्चर पर क्लिक करेंगे तो आपको Creator studio नजर आएगा। इसे क्लिक करें और आप पहुंच जाएंगे अपने चैनल के डैशबोर्ड पर।

चैनल को सजाएं : डैशबोर्ड पर आप सबसे पहले चैनल को सजाने का काम करें। चैनल के लिए एक अच्छा बैनर बनाएं। यू-ट्यूब के बैनर का साइज 2560X1440 पिक्सल रखें। यह फाइल 4 एमबी से कम ही रहे। इस साइज का बैनर कंप्यूटर, मोबाइल और टीवी पर सही से डिस्प्ले होगा। ध्यान रखें, आप जिस इमेज को अपने गूगल प्लस अकाउंट के लिए यूज करेंगे, वही यू-ट्यूब चैनल के आइकन की तरह भी डिस्प्ले होगी। यह इमेज ही आपके चैनल की पहचान होगी इसलिए इसे खुद डिजाइन करें, कहीं से कॉपी न करें।

डिटेल्स: बैनर और लोगो के बाद बारी आती है डिसक्रिप्शन यानी कंटेंट की जानकारी और डिटेल्स देने की। डैशबोर्ड पर जाकर अपने चैनल के बारे में लिखें। लोगों को बताएं कि आपके चैनल पर कैसा कंटेंट है, कब उसे अपलोड किया जाता है और आपसे कोई कैसे कॉन्टैक्ट कर सकता है आदि।

नाम हो यूनिक: यू-ट्यूब चैनल बनाने के लिए आपके पास एक अच्छा नाम होना बहुत जरूरी है। नाम थोड़ा अलग होना चाहिए और आपके चैनल के कंटेंट को बताने वाला होना चाहिए। नाम चुनने से पहले रिसर्च जरूर करें। चेक करें कि कहीं आपके चुने हुए नाम से कोई और चैनल तो नहीं है!

प्रॉडक्शन का खेल
एक अच्छा यू-ट्यूब चैनल बनाने के लिए आपके पास अच्छा कंटेंट होना चाहिए। आपके कंटेंट के कारण ही लोग आपके चैनल पर बार-बार आएंगे। यू-ट्यूब विडियो के लिए आपके पास अच्छा आइडिया, कैमरा, विडियो एडिटर और स्क्रिप्ट होनी चाहिए। प्रॉडक्शन का काम 3 फेज में बंटा होता है: प्री-प्रॉडक्शन, प्रॉडक्शन और पोस्ट प्रॉडक्शन।

प्री-प्रॉडक्शन
रिसर्चः विडियो बनाने के लिए सबसे पहले रिसर्च जरूर करें। रिसर्च से पता चलता है कि किस आइडिया या टॉपिक पर विडियो पहले से ही अपोलेड हैं। अगर आप किसी ऐसे टॉपिक पर विडियो बना रहे हैं जो पहले से ही यू-ट्यूब पर मौजूद है तो आपके विडियो को कम ही लोग देखेंगे। ऑडियंस नए कंटेंट को काफी पसंद करती है। उदाहरण के तौर पर नजर बट्टू चैनल को देखिए। वह सोशल मुद्दों पर देसी अंदाज में कॉमेडी कंटेंट बनाते हैं। ऐसा कंटेंट लोगों को काफी पसंद आता है।
स्क्रिप्टः विडियो के लिए सबसे ज्यादा जरूरी होती है अच्छी स्क्रिप्ट। आप पहले विडियो स्टोरी को लिखिए।
स्क्रिनप्लेः स्क्रिनप्ले में आप एक-एक सीन को लिखते हैं। एक सीट कई सारे शॉट्स को मिलाकर बनता है। जैसे स्क्रिप्ट के अनुसार एक्टर को कार से उतरकर घर में जाना है। तो आप पहले कार का शॉट लेंगे, फिर कार के रूकने का और फिर कार के गेट ओपन होने और एक्टर के उतरने के। यहा पूरा एक सीन होगा। स्क्रिनप्ले में आप एक एक शॉट के बारे में लिखते हैं।
लोकेशनः विडियो इनडोर शूट होगा या आउटडोर शूट होगा, यह क्लियर रखें। आप अपने घर में विडियो शूट कर सकते हैं। अगर आप बाहर शूट कर रहे हैं तो अपने साथ अपना आई-डी प्रूफ जरूर रखें और कोशिश करें कि आपके शूट के कारण किसी को कोई दिक्कत न हो। अगर आप पब्लिक को अपने शूट में शामिल कर रहे हैं तो इसके लिए उनकी परमिशन जरूर लें। अगर आप को स्ट्रीट इंट्रव्यू कर रहे हैं तो लोगों से पहले ही पूछ लें कि क्या वह विडियो शूट के लिए तैयार हैं? उनके साथ जबरदस्ती न करें और आपकी टीम में जिसकी कम्यूनिकेशन स्किल्स अच्छी हैं उसे ही लोगों को अप्रोच करने के लिए कहें।

प्रॉडक्शन
विडियो बनाना प्रॉडक्शन में आता है। विडियो अच्छा बनना चाहिए, फिर चाहे वक्त ज्यादा ही क्यों न लगे। कई बार घंटों के शूट के बाद भी सिर्फ कुछ मिनट का ही विडियो निकलकर आता है। एक विडियो बनाने में कई बार घंटों लगते हैं तो 2 से 3 दिन भी लग जाते हैं। विडियो बनाने के लिए आपको कुछ टूल्स चाहिए:

1. कैमरा : अगर आपके पास डीएसएलआर कैमरा है तो अच्छी बात है। इस कैमरे से अच्छी क्वॉलिटी आती है। डीएसएलआर कैमरे 20 हजार रुपये से शुरू होते हैं। कैमरा नहीं है तो आप शुरुआत अपने फोन से भी कर सकते हैं। आई-फोन है तो बेस्ट है, वरना 8 मेगापिक्सल से ज्यादा वाले फोन ठीक हैं। आप 1500 रुपये रोजाना पर कैमरापर्सन भी हायर कर सकते हैं।

2. ट्राइपोड : शूट करते वक्त कैमरा हिले नहीं, इसके लिए ट्राइपोड यूज करें। मिनी ट्राइपोड की कीमत 300 रुपये है। आप ज्यादा हाइट के लिए दूसरे ट्राइपोड यूज कर सकते हैं। इनकी रेंज 800 रुपये से शुरू होती है। आप चाहें तो सेल्फी स्टिक को भी यूज कर सकते हैं।

3. रिफ्लेक्टर: ज्यादा लाइट होने पर एक्टर्स के फेस पर शैडो बनेगी और विडियो में यह खराब लगता है। ऐसे में आपको रिफ्लेक्टर की जरूरत होती है। इसके लिए आप थर्माकोल यूज कर सकते हैं। जिस डायरेक्शन से लाइट आ रही है, इसे उसके अपोजिट दिशा में रखें।

4. माइक: इसके लिए आप अपने घर में रखे किसी पुराने फोन को यूज कर सकते हैं, लेकिन एक बार चेक जरूर कर लें। इसके अलावा आप कॉलर माइक से भी शुरुआत कर सकते हैं। यह 1500 रुपये तक में मिल जाएगा या फिर 1000 रुपये रोजाना किराये पर भी ले सकते हैं।

5. मेकअप: एक्टर्स का मेकअप जरूरी है। हल्का मेकअप खुद भी कर सकते हैं।

6. बैकअप: शूट के दौरान बैकअप जरूर रखें। कैमरे की एक्स्ट्रा बैटरी, सप्लीमेंट माइक (मोबाइल फोन) और रिफ्लेक्टर अपने साथ लेकर चलें। कई बार ऐसा होता है कि अच्छा कंटेंट शूट करने का मौका आपको एक बार ही मिलता है, लेकिन इक्विपमेंट के काम न करने से यह मौका हाथ से निकल जाता है।

पोस्ट प्रॉडक्शन
पोस्ट प्रॉडक्शन में रॉ विडियो में काट-छांट कर काम की क्लिप निकाली जाती है और उसे एडिट किया जाता है। विडियो एडिटिंग के लिए कई सॉफ्टवेयर यूज किए जाते हैं। एडोब प्रीमियर (Adobe Premiere), फाइनल कट प्रो (Final Cut Pro) और सोनी वेगस प्रो (Sony Vegas Pro) जैसे सॉफ्टवेयर से आप अपने विडियो को अच्छे तरीके से एडिट कर सकते हैं। इनकी रेंज 18 हजार से शुरू होकर एक लाख रुपये तक होती है। आप शुरुआत इनके ट्रायल वर्जन से कीजिए। अगर आप विडियो एडिट करना नहीं जानते हैं तो यू-ट्यूब की मदद से एडिटिंग सीख सकते हैं। एडिटिंग की शुरुआत Windows Movie Maker से भी कर सकते हैं।

ध्यान से अपलोड करें विडियो
विडियो एडिट करने के बाद बारी आती है उसे यू-ट्यूब पर अपलोड करने की। विडियो का टाइटल ऐसा रखें जो बताए कि विडियो में क्या है? टाइटल के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करें जो आप खुद किसी विडियो को सर्च करने के लिए यू-ट्यूब पर डालते हैं। इसके बाद विडियो डिस्क्रिप्शन में विडियो के बारे में डिटेल्स दें। बताएं कि ऑडियंस को विडियो में क्या देखने को मिलेगा। की-वर्ड्स में ऐसे शब्दों को यूज करें जो आपके विडियो से मैच होते हैं।

प्रमोशन से मिलेगी पहचान
विडियो अपलोड करने के बाद इसका प्रमोशन जरूर करें। शुरुआत में आप अपने परिवार, दोस्त, साथियों और जाननेवालों को अपना विडियो देखने के लिए कहें। वट्सऐप ग्रुप, फेसबुक, ट्विटर और हाइक जैसे तमाम सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म पर अपने विडियो को शेयर करें और लोगों को उसे देखने के लिए रिक्वेस्ट करें। अपने विडियो को शेयर कराने के लिए आप फेसबुक पर लाखों लाइक्स वाले पेज को कॉन्टेक्ट करें और उन्हें अपने विडियो शेयर करने की रिक्वेस्ट करें। आप वेबसाइट एडिटर्स से भी विडियो को शेयर करने की रिक्वेस्ट कर सकते हैं।

ऐसे होगी कमाई
यू-ट्यूब से धन विडियो मोनेटाइजेशन के जरिए कमाए जाते हैं। चैनल के विडियो को मोनेटाइज करने के लिए आप क्रिएटर स्टूडियो पर क्लिक कर अपने चैनल पर आइए। यहां आपको लेफ्ट हैंड पर चैनल लिखा दिखेगा, इसमें स्टेटस और फीचर पर क्लिक करें, वहां मोनेटाइजेशन का ऑप्शन मिलेगा। इसे आपक एनएबल कर दीजिए। एनएबल बटन को क्लिक करने के बाद यू-ट्यूब आपसे मोनेटाइजेशन चालू करने के लिए पूछता है। इसे क्लिक करते ही यू-ट्यूब पार्टनरशिप का फॉर्म आपके सामने ओपन हो जाता है। फॉर्म भरें और अपने गूगल ऐड सेंस अकाउंट को इससे लिंक करें। गूगल एक हफ्ते के अंदर आपको मोनेटाइजेशन रिव्यू भेजता है। अगर आपके चैनल पर ऑरिजिनल कंटेंट है तो आपका चैनल मोनेटाइज हो जाता है।
विडियो मोनेटाइज होने से आपका विडियो शुरू होने से पहले यू-ट्यूब ऐड चलाता है। यू-ट्यूब विडियो के नीचे भी प्रॉडक्ट ऐड डिसप्ले करता है। इस ऐड के जरिए ही आपकी कमाई होती है। अगर कोई यूजर इस ऐड पर क्लिक करता है तो आपको और ज्यादा फायदा होगा। अक्सर सुनने को मिलता है कि इंडिया में हर 1000 व्यू पर यू-ट्यूब कंटेंट क्रिएटर को एक डॉलर देता है, लेकिन यू-ट्य़ूब से कमाई किसी एक फैक्टर पर डिपेंड नहीं करती। आपके चैनल पर व्यू किन देशों से आ रहे हैं और कौन कितने देर तक विडियो देखा रहा है, इन बातों पर रेवेन्यू निर्भर होता है। रेवेन्यू के लिए सिर्फ यू-ट्यूब के व्यू पर निर्भर न रहें। इन ऑप्शंस पर भी जोर दें:

ब्रैंड इंडॉर्समेंट : यू-ट्यूब पर ब्रैंड इंडॉर्समेंट से काफी रेवेन्यू आता है। आप अपने चैनल के हिसाब से किसी ब्रैंड को अप्रोच कर सकते हैं। कई ब्रैंड खुद भी उभरते यू-ट्यूब चैनल को कॉन्टैक्ट करते हैं। ब्रैंड इंडॉर्समेंट के लिए जरूरी है कि आपके चैनल की कोई फिक्स्ड थीम हो और आपकी ऑडियंस वहां दिखाए जा रहे प्रॉडक्ट को कंयूज्म कर सके। आप चाहें तो विडियो में किसी वेबसाइट का केवल लिंक देकर भी ब्रैंड इंडॉर्समेंट कर सकते हैं। व्यूज और सब्सक्राइबर्स के हिसाब से आप डील कर सकते हैं। कंपनियां एक विडियो के लिए 40 हजार से 15 लाख रुपये तक देने के लिए तैयार हो जाती हैं।

मर्चेंडाइज़: जैसे-जैसे आपका चैनल लोगों के बीच पॉपुलर होता है, वैसे-वैसे आप खुद एक ब्रैंड बन जाते हैं। आप अपने ब्रैंड की टी-शर्ट, घड़ी, ब्रैसलेट, कप जैसी चीजें बेच सकते हैं। अगर आपकी फैन फॉलोइंग अच्छी है तो लोग आपके मर्चेंडाइज़ प्रॉडक्ट को खरीदेंगे। इसके लिए जरूरी है कि आप हर विडियो में अपने प्रॉडक्ट को खुद ही इंडॉर्स करें और जरूरत पड़ने पर शुरू में फ्री या डिस्काउंट पर भी प्रॉडक्ट को सेल करें।

कब और कैसे आएंगे पैसे: विडियो अपलोड करने के 1 महीने और 25 दिन बाद आपके अकाउंट में पैसा आना शुरू होता है। इसके लिए आपको सबसे पहले गूगल ऐडसेंस (Google Adsense) अकाउंट बनाना होगा। इसके लिए आप अपना जीमेल अकाउंट ओपन करें और दूसरे टैब में गूगल ऐडसेंस ओपन करके अपनी सारी डिटेल्स डाल दें। इसके बाद आपको अपने गूगल ऐडसेंस अकाउंट को यू-ट्यूब चैनल से लिंक करना होता है। यू-ट्यूब से होने वाली सारी कमाई इस ऐडसेंस के जरिए ही आपके अकाउंट में आती है।

कामयाबी के लिए

डिमांड को समझें: सबसे जरूरी है कि आप लोगों की पसंद को समझें। आपको समझ डिवलेप करनी होगी कि लोग क्या देखना चाहते हैं। इसके लिए ट्विटर ट्रेंड, फेसबुक ट्रेंड, टॉप स्टोरीज़ और वायरल कंटेंट पर नजर रखें। आजकल लोग अपनी जॉब और लाइफ में काफी उलझे हुए हैं। ऐसे में ह्यूमन टच और ह्यूमर वाले विडियो लोगों को काफी पसंद आते हैं। विडियो का टॉपिक चुनते वक्त या स्क्रिप्ट लिखते हुए कोशिश करें कि आप ह्यूमन इमोशंस को जरूर टच करें। मोटिवेट करनेवाले, प्रेरणा देनेवाले और कॉमिडी वाले विडियो लोगों को ज्यादा पसंद आते हैं।

ऑडियंस से करें बातः आप विडियो के जरिए अपनी ऑडियंस से बात करने की कोशिश करें। उन्हें विडियो पर कमेंट करने के लिए कहें और उनसे सवाल पूछें। उन्हें अपने साथ कनेक्ट होने का मौका दें। इससे वह आप पर भरोसा करेंगे और आपके अगले विडियो का बेसब्री से इंतजार करेंगे।

टारगेट ऑडियंस: आप अपने टारगेट ऑडियंस के बारे में क्लियर रहें। आपको पता होना चाहिए कि आप किस कैटिगरी के लिए कंटेंट बना रहे हैं। चैनल डैशबोर्ड पर भी डेटा चेक करते रहें और पता करें कि आपके ऑडियंस कौन हैं?

निरंतरता: अपने चैनल पर लगातार विडियो अपलोड करते रहें। एक तय वक्त पर विडियो अपलोड करने से ऑडियंस आपको सीरियली लेती हैं। इससे आपके चैनल पर ढेर सारा कंटेंट भी जमा हो जाता है। जब कोई नया यूजर आपके चैनल पर आता है तो उसे देखने के लिए काफी विडियो मिलते हैं। लगातार विडिय़ो अपलोड करने से आप मार्केट में अपनी पहचान दर्ज करते हैं।

सब्सक्राइब करवाएं: अपने विडियो लोगों को सबस्क्राइब करने के लिए बोलें। आपके पास जितने ज्यादा सब्सक्राइबर्स होंगे, आपका विडियो उतना ज्यादा वायरल होगा। शुरुआत अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों से करें। लोगों को बताएं कि चैनल सब्सक्राइब करने के लिए कोई फीस नहीं देनी होती। इंडिया में काफी लोग विडियो देखते हैं, लेकिन चैनल को सबस्क्राइब नहीं करते। जब भी आप नया कंटेंट यू-ट्यूब पर अपलोड करेंगे, आपके सब्सक्राइबर्स को इसके बारे में मेल मिल जाएगा और वे आसानी से विडियो देख सकेंगे।

यू-ट्यूब करेगा मदद
अगर आपका मन भी यू-ट्यूब विडियो बनाने का है, लेकिन आपके पास सुविधाएं नहीं हैं तो परेशान होने की जरूरत नहीं है। आपको बस शुरुआत करनी है। यू-ट्यूब खुद ही आपकी मदद करेगा:

यू-ट्यूब स्पेसः यू-ट्य़ूब खुद चाहता है कि आप कंटेंट प्रोड्यूस करें। इंडिया में मुंबई में यू-ट्यूब स्पेस मौजूद है। यहां जाकर आप फ्री में यू-ट्यूब का स्टूडियो, कैमरा, माइक, लाइट और प्रॉडक्शन की तमाम चीजें यूज कर सकते हैं। यू-ट्यूब स्पेस को यूज करने के लिए आपको 4 शर्तों पर खरा उतरना पड़ता है:
1. आपकी उम्र 18 साल से ज्यादा हो
2. आपके पास 1000 से ज्यादा सबस्क्राइबर्स हों
3. आपके चैनल पर कॉपीराइट का कोई क्लेम न हो
4. आपने एक बार यू-ट्य़ूब का अनलॉक स्पेस सेशन अटेंड किया हो

वर्कशॉप और हैपी आवर्सः यू-ट्यूब स्पेस मुंबई में वर्कशॉप और हैपी आवर्स भी करवाता है। आप इसमें भी हिस्सा ले सकते हैं। यहां आपको दूसरे यू-ट्यूबर्स से मिलने का मौका मिलेगा। उनके काम के तरीके को आप समझ पाएंगे और अपने चैनल को भी प्रमोट कर पाएंगे। यू-ट्यूब समय-समय पर वर्कशॉप भी करवाता है, जहां प्रॉडक्शन के बारे में काफी कुछ सीखने को मिलेगा।
यहां रखें नजरः यू-ट्यूब ढेरों इवेंट करवाता है। जहां जाकर आप ब्रैंड मैनेजमेंट, ऑडियंस ग्रोथ और कंटेंट प्रॉडक्शन के बारे में प्रफेशनल लोगों से जान सकते हैं। यू-ट्यूब वर्कशॉप और ट्रेनिंग से जुड़ी सारी जानकारी यू-ट्यूब क्रिएटर पर मिल जाएगी। आप यू-ट्यूब क्रिएटर ट्विटर हैंडल (@YTCreatorsIndia) को फॉलो करें और वेबसाइट (youtube.com/yt/creators/ ) पर नजर रखें। आप @YouTubeSpaceMum को भी जरूर फॉलो करें। ट्रेनिंग और प्रॉडक्शनः आप यू-ट्यूब स्पेस को अनलॉक करने के लिए ऑनलाइन अप्लाई कर सकते हैं। इसकी जानकारी आपको गूगल पर मिल जाएगी। मुंबई में लाइव सेशन हर महीने के पहले गुरुवार को होता है। इस दौरान यू-ट्यूब स्पेस बुक करने की जानकारी, कॉपीराइट क्लेम और यू-ट्यूब के दूसरे प्रोग्राम के बारे में जानकारी दी जाती है। इस सेशन में एक यू-ट्यूब चैनल से 3 लोग भाग ले सकते हैं।

इन बातों से बचें
यू-ट्यूब चैनल बनाने के बाद आपको आपको कुछ चीजों का खास ख्याल रखना पड़ता है। ऐसा न करने पर आपके चैनल को खमियाजा भुगतना पड़ सकता है। चैनल पर कंटेंट अपलोड करते वक्त ये सावधानियां बरतें:

गलत जानकारीः यू-ट्यूब सिस्टम आसानी से आपके कंटेंट को पहचान लेता है। ऐसे में आपके विडियो में जो कंटेंट है, वही विडियो के टाइटल और डिस्क्रिप्शन में लिखें। अगर यूजर्स को गलत इंफर्मेशन देकर अपने चैनल तक लाते हैं तो आपका चैनल ब्लॉक कर दिया जाएगा। अगर आप कहते हैं कि आपकी विडियो में फूड रेसिपी है तो विडियो रेसिपी का ही होना चाहिए, डांस या सॉन्ग का नहीं।

कॉपीराइटः ऐसा कोई भी कंटेंट अपने चैनल पर अपलोड न करें, जो आपका ऑरिजिनल कंटेंट नहीं है। किसी और के बनाए कंटेंट को अपलोड करने से रेवन्यू नहीं मिलेगा। विडियो में बैकग्राउंड म्यूजिक के लिए भी कॉपीराइट वाले म्यूजिक न यूज करें। ऐसा करने पर यू-ट्यूब आपको कॉपीराइट संबंधी नोटिस दे सकता है। अगर आपने कोई कॉपीराइट कंटेंट यूज किया तो आप अपने चैनल के विडियो मैनेजर सेक्शन में जाकर चेक कर सकते हैं कि क्या यू-ट्यूब ने आपको कॉपीराइट नोटिस इशू किया है? ऐसा होने पर आपके विडियो का रेवेन्यू आपको न मिलकर, कॉपीराइट यूजर को जाएगा। अगर आप बैकग्राउंड म्यूजिक यूज करना चाहते हैं तो आपको यू-ट्यूब से ऑडियो मिल जाएगा। इसके लिए चैनल में क्रिएट पर जाइए, यहां आपको ऑडियो लाइब्रेरी मिलेगी। यहां से जिस म्यूजिक को आप यूज करना चाहते हैं वह आपको मिल जाएगा।

अडल्ट कंटेंट से बचें: गूगल अडल्ट कंटेंट को प्रमोट नहीं करता। अगर आप विडियो में अडल्ट कंटेंट डालते हैं तो भी आप मुसीबत में पड़ सकते हैं। अगर आपके विडियो पर व्यू आते भी हैं तो आपको इस कंटेंट के लिए रेवन्यू नहीं मिलेगा।

एक्सपर्ट्स पैनल
-भुवन बाम, फाउंडर, बीबी की वाइन्स
- राहुल भट्टाचार्य, फाउंडर, क्विक रिएक्शन टीम
- करन चावला, फाउंडर, द टीन ट्रोल्स
- लव रुद्राक्ष, फाउंडर, लव रुद्राक्ष

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बरकरार रहेगी जान-ए-जिगर

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वैसे तो ज्यादा फैट शरीर के हर हिस्से के लिए मुश्किलें खड़ी करता है, लेकिन अगर इसकी पैठ लिवर तक हो गई तो मुश्किलें काफी बढ़ जाती हैं। हालांकि थोड़ा-सा ख्याल रख कर लिवर को सेफ रखा जा सकता है। फैटी लिवर, इससे जुड़ी दिक्कतों और उसके समाधान के बारे में एक्सपर्ट्स की मदद से बता रही हैं पूजा मेहरोत्रा:

लिवर हमारे शरीर का जादुई पिटारा है। यह शरीर के 500 से ज्यादा गतिविधियों में शामिल रहता है। प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और फैट को पचाने का काम भी लिवर ही करता है। बड़ी बात यह है कि लिवर तभी हार मानता है जब इसकी 75 फीसदी कोशिकाएं डैमेज हो जाती हैं।

लिवर के काम
- नुकसानदायक चीजों को शरीर में पहुंच कर नुकसान पहुंचाने से रोकता है और उसे शरीर से बाहर निकालने में मदद करता है। - लिवर आपके शरीर में ग्लूकोज को भी कंट्रोल करता है। ऐसे में यह इंसानों के लिए बेहद महत्वपूर्ण ऑर्गन है।

मोटापा और फैटी लिवर
-हर मोटा इंसान फैटी लिवर की परेशानी की चपेट में आ सकता है। डायबीटीज के 70 से 80 फीसदी मरीजों को फैटी लिवर का खतरा बना रहता है। मोटापा खतरनाक है या नहीं इसे बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) से नापा जा सकता है। पहले यह 50 से 60 साल के आयु वर्ग के लोगों में ज्यादा पाई जाती थी, लेकिन धीरे-धीरे इस बीमारी ने युवाओं को भी अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया है।
-लगभग 32 फीसदी भारतीयों को फैटी लिवर की शिकायत है।
-मोटापे और डायबीटीज के शिकार 70-80 फीसदी लोग फैटी लिवर के मरीज हैं।
-फैटी लिवर से पीड़ित 20 फीसदी लोग आगे चलकर लिवर की गंभीर बीमारी की चपेट में आ जाते हैं।
-भारत में लिवर की गंभीर बीमारी में फैटी लिवर तीसरा सबसे बड़ा कारण है।
- लिवर ट्रांसप्लांट के लिए अपने सगे संबंधियों को लिवर दान करने के लिए आगे आने वालों में से 80 फीसदी लोग खुद फैटी लिवर के मरीज होते हैं। इसकी वजह से ट्रांसप्लांट में काफी परेशानी होती है।

जब फैटी लिवर दे दस्तक
फैटी लिवर होने पर शरीर में कई तरह के बदलाव होते हैं:
-पेट अपने आकार से काफी बड़ा हो जाता है।
-शरीर लगातार ओवरवेट रहता है।
-लंबे वक्त तक फैट जमा रहने की वजह से लिवर का आकार बढ़ जाता है और इसमें सूजन आ जाती है।
-मितली आना
-चिड़चिड़ाहट होना
-भूख न लगना
-आलस आना
-शरीर का रंग बदलने लगना (पैरों में ब्राउन पैच, आंखों में पीलापन बना रहना)
-पैरों में लगातार सूजन का रहना, पैरों की स्किन के कलर में बदलने के साथ कमजोरी
-हमेशा थकान महसूस करना
-वजन का अचानक कम हो जाना
-चक्कर आना
-पेट में राइट साइड ऊपर की ओर लगातार दर्द रहने जैसे लक्षण लिवर में हो रही गड़बड़ियों के संकेत हैं।

फैटी लिवर और ऐल्कॉहॉल
ऐल्कॉहॉल फैटी लिवर के लिए जिम्मेदार हो सकता है। फैटी लिवर दो तरह के हो सकते हैं: ऐल्कॉहॉलिक और नॉन-ऐल्कॉहॉलिक इसका सबसे बड़ा कारण एल्कॉहॉल है, लेकिन दूसरे कारण भी हो सकते हैं।

कितना ऐल्कॉहॉल सेफ?
सबसे पहले इस बात को समझना जरूरी है कि ऐल्कॉहॉल न लेना लिमिटेड ऐल्कॉहॉल लेने से बेहतर ऑप्शन है। फिर भी अगर कोई ऐल्कॉहॉल लेता है तो मात्रा का ख्याल रखना चाहिए। इंटरनैशनल रिसर्च के अनुसार यदि कोई रोज लगभग 30 एमएल ऐल्कॉहॉल (3 स्टैंडर्ड पैग) लेता है तो यह सेफ है। यानी एक हफ्ते में यदि कोई पुरुष लगभग 200 एमएल और महिला करीब 130 एमएल ऐल्कॉहॉल ले तो इसे लिवर झेल लेता है। इससे ज्यादा ऐल्कॉहॉल लेने से फैटी लिवर होने की आशंका बनी रहती है। लिमिट से ज्यादा शराब पीने की आदत से लिवर के सेल्स में बैड फैट जमा होता जाता है उन्हें डैमेज करता जाता है। फैटी लिवर के पेशंट्स ज्यादातर वही लोग होते हैं जो रेग्युलर शराब पीते हैं। शराब पीने वाले 80-90 फीसदी लोगों को फैटी लिवर की शिकायत देखने को मिलती है।
नॉन ऐल्कॉहॉलिक फैटी लिवर: यह टर्म उन लोगों में इस्तेमाल किया जाता है जो बहुत कम या बिल्कुल ऐल्कॉहॉल नहीं लेते। कई बार कमर की ज्यादा चौड़ाई (40 इंच से ज्यादा), जॉन्डिस का ठीक से इलाज न कराना और हाई कॉलेस्ट्रॉल की डायट की वजह से यह फैटी लिवर डिवेलप होता है।

क्या है जांच
-ब्लड टेस्ट और अल्ट्रासाउंड
-निडल बायप्सी
खर्च: अलग-अलग पैथॉलजी अपने हिसाब से रेट तय करते हैं लेकिन अमूमन 7-8 हजार रुपये में सारे टेस्ट हो जाते हैं।

बचाव और इलाज
फैटी लिवर का तब तक कोई खास इलाज नहीं है, जब तक कि हालात बढ़ कर फाइब्रोसिस या सिरोसिस तक न पहुंच जाएं और लिवर ट्रांसप्लांट की नौबत न आ जाए।

फैटी लिवर का हार्ट कनेक्शन
लिवर में फैट जमा होने के कारण हार्ट तक जाने वाली खून की धमनियों में फैट जमा हो जाता है और इसकी वजह से हार्ट अटैक हो सकता है। जब यही ब्लॉकेज ब्रेन में जाने वाली नसों में होने लगे तो ब्रेन हैमरेज का खतरा रहता है।

बचाव
-मोटापे को कंट्रोल करें।
-ब्लड शुगर कंट्रोल में रखें।
-यदि मोटे हैं तो एकदम से वजन कम न करें। हर साल अपने कुल वजन के 10 फीसदी के बराबर वजन कम करने का टारगेट रखें। मिसाल के तौर पर अगर वजन 100 किलो है तो पहले साल 10 किलो वजन कम करने और उसके अगले साल 9 किलो कम करने का टारगेट रखें।
-शराब और सिगरेट पीना फौरन बंद कर दें।
-कॉलेस्ट्रॉल और बीपी को कंट्रोल में रखें।
-हेल्दी और संतुलित खाना खाएं।
-रेग्युलर एक्सरसाइज करें।
-फाइबर युक्त चीजें जैसे फल, सब्जियां, बींस और साबुत अनाज आदि को अपनी डायट में ज्यादा मात्रा में शामिल करें।
-तला-भुना और जंक फूड खाने से बचें।
-किसी डायटिशन की मदद से फूड चार्ट बनवाएं और उसके हिसाब से खाना खाएं।
-डॉक्टर से पूछे बिना पेन किलर्स या और कोई दवा न लें।

योग रखेगा लिवर फिट
लिवर की परेशानियों से बचने के लिए अतिरिक्त पवनमुक्तासन, वज्रासन, मर्करासन आदि का अभ्यास करना चाहिए। ये बेहद फायदेमंद होते हैं।

ऐसे करें पवनमुक्तासन
पीठ के बल जमीन पर लेट जाएं। दाएं पैर को घुटने से मोड़कर इसके घुटने को हाथों से पकड़कर घुटने को सीने के पास लाएं। इसके बाद सिर को जमीन से ऊपर उठाएं। उस स्थिति में आरामदायक समय तक रुककर वापस पहले की स्थिति में आएं। इसके बाद यही क्रिया बाएं पैर और फिर दोनों पैरों से एक साथ करें। यह पवनमुक्तासन का एक चक्र है। एक या दो चक्रों से शुरू करके धीरे-धीरे इसकी संख्या बढ़ाकर 10-15 बार कर सकते हैं।

ऐसे करें शीतली प्राणायाम
लिवर बढ़ने की समस्या से ग्रस्त लोगों को शीतकारी या शीतली प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। पद्मासन, सिद्धासन, सुखासन या कुर्सी पर रीढ़, गला और सिर को सीधा कर बैठें। दोनों हाथों को घुटनों पर आराम से रखें। आंखों को ढीली बंद कर चेहरे को शांत रखें। अब जीभ को बाहर निकालकर दोनों किनारों से मोड़ लें। इसके बाद मुंह से गहरी और धीमी सांस बाहर निकालें। शुरुआत में इसे 12 बार करें। धीरे-धीरे बढ़ाकर 24 से 30 तक ले जाएं।

फायदेमंद है शशांकासन
खरगोश की तरह बैठ कर दोनों पैर घुटने से मोड़ कर बैठें या वज्रआसन में भी बैठते हुए लंबी गहरी सांस छोड़ते हुए अपने हाथों और माथे को जमीन पर टच कराएं। कुछ देर इसी अवस्था में रुकें। ऐसे में सांस की स्थिति सामान्य रखें। इस आसन को पांच बार करना चाहिए।

होम्योपैथी का भी लें सहारा
होम्योपैथी में भी कुछ दवाएं हैं जो लिवर के खासकर फैटी लिवर के मरीजों को दी जाती हैं। ये दवाएं असरदार करने में वक्त लगाती हैं लेकिन इनका कोई साइड इफेक्ट नहीं हैं। दवाएं लेने के साथ ही एक्सरसाइज भी करनी होगी।
- फॉस्फोरस-5-5 गोलियां दिन में तीन बार दो हफ्ते तक।
- लाइकोपोडियम 30- 5-5 गोलियां दिन में तीन बार दो हफ्ते तक।
- चेलिडोनियम मेगस मदर टिंचर- 10 बूंदे आधा कप पानी के साथ लेने से लिवर पर जमी की चर्बी में कमी आती है।

आजमाएं आयुर्वेदिक नुस्खे
फैटी लिवर का इलाज आयुर्वेद में भी मुमकिन है:
-आयुर्वेद में गर्म छाछ बहुत उपयोगी मानी गई है। छाछ को हल्का गुनगुना कर उसमें हल्दी और जीरे का छौंक लगा कर पीने से काफी मदद मिलती है।
-हल्दी में पाए जाने वाले एंटी-ऑक्सीडेंट लिवर सेल्स को मजबूत बनाता है। इसलिए खाने में हल्दी का उपयोग करें।
- संतरे का रस, जौ का पानी और नारियल पानी रेग्युलर पीने से लिवर की सेहत बनी रहती है।
- गाजर और टमाटर खाने से भी फैटी लिवर के मरीजों को फायदा होता है।
- फैटी लीवर से छुटकारा पाने में ग्रीन टी बड़े पैमाने पर असर करती है। बेहतर परिणाम के लिए ग्रीन टी को रोजमर्रा के आहार में शामिल करें और इसके एंटी-ऑक्सिडेंट गुणों की वजह से यह फैटी लिवर की समस्या से छुटकारा दिलाता है।

मिथ मंथन
शराब की बजाय बियर पीना सेफ
रोजाना 300 एमएल यानी एक केन से ज्यादा बियर पीना भी फैटी लिवर का कारण हो सकता है। लंबे वक्त तक यह आदत घातक साबित हो सकती है। तकरीबन 3 स्टैंडर्ड पैग से ज्यादा शराब भी घातक सिद्ध हो सकती है।

शराब पीने वालों को होता है फैटी लिवर
यह मान्यता गलत है कि फैटी लिवर की शिकायत सिर्फ शराब पीने वालों को ही होता है। शराब फैटी लिवर की बड़ी वजह जरूर है, लेकिन अकेली वजह नहीं। शराब पीने और न पीने वाले फैटी लिवर के पेशंट्स की संख्या लगभग बराबर है।

मोटे लोगों को होता है फैटी लिवर
अक्सर मान लिया जाता है कि फैटी लिवर सिर्फ मोटे लोगों को ही होता है। सचाई यह है कि दुबले लोग भी अपनी खान-पान की आदतों जैसी दूसरी वजहों से बड़ी संख्या में फैटी लिवर की समस्या के शिकार पाए जाते हैं।

जब आए नौबत ट्रांसप्लांट की
लिवर ट्रांसप्लांट लिवर की बीमारी की वह आखिरी स्टेज है, जहां मरीज के शरीर में नया लिवर लगाकर जीवन दिया जाता है। इस ऑपरेशन की सफलता का दर तकरीबन 94 फीसदी है। लिवर ट्रांसप्लांट से लेकर डोनर तक को ढूंढने तक में आने वाला खर्च मरीज-मरीज पर निर्भर करता है। यह 15 से 40 लाख तक हो सकता है।

ट्रांसप्लांट की जरुरत कब
- जब मरीज का लिवर बहुत ज्यादा डैमेज हो चुका होता है और ठीक से काम नहीं कर रहा होता।
- यदि लिवर हेपैटिक कोमा हो या फिर गैसट्रोइटोंटेसटाइनल ब्लीडिंग हो रही हो। लिवर कैंसर में या फिर सिरोटिक लिवर में बदल चुका हो, तब ट्रांसप्लांट ही आखिरी रास्ता बचता है।
-अर्जेंट लिवर ट्रांसप्लांट उन मरीजों का होता है जिनका लिवर काम करना पूरी तरह से बंद कर चुका होता है। इसके कई कारण हो सकते हैं। मुख्य कारण हेपेटाइटिस बी, हेपेटाइटिस ए, हेपेटाइटिस ई आदि।

डोनर क्या और कब
-ट्रांसप्लांट में मरीज और डोनर का ब्लड ग्रुप एक होना चाहिए।
-डोनर को फैटी लिवर के साथ कोई और बीमारी नहीं होनी चाहिए।
-लिवर जादूई अंग है। यह खुद अपना इलाज कर लेता है। डोनर का लिवर 6-9 सप्ताह में फिर से आ जाता है।
-डोनर की उम्र 50 साल से कम होनी चाहिए।
-बॉडी मास इंडेक्स 25 से कम होना चाहिए।

एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. अनूप मिश्रा, सी-डॉक, फोर्टिस, दिल्ली
डॉ. अनूप सराया, एम्स, दिल्ली
डॉ. नवल विक्रम, एम्स, दिल्ली
डॉ. गीता रमेश, कैराली आयुर्वेदिक हीलिंग सेंटर
सुनील सिंह, योग गुरु
डॉ. सुचीन्द्र सचदेव, होम्योपैथी एक्सपर्ट
डॉ. नीलम मोहन, मेदांता, गुड़गांव







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दांतों को रखना हो दुरुस्त तो इन पर दें ध्यान

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हमारी सेहत, स्वाद और सुंदरता, इन तीनों के लिए दांतों का सही-सलामत रहना बेहद जरूरी है। दांतों की बीमारियों के लिए तमाम इलाज मौजूद हैं। वक्त के साथ कई नई तकनीक भी शामिल हो रही हैं, जो दांतों के इलाज को आसान और बेहतर बना रही हैं। दांतों की हिफाजत और बेहतर इलाज पर एक्सपर्ट्स से बात करके जानकारी दे रही हैं प्रियंका सिंह:

सुंदर दांत हमारी शख्सियत को निखारते हैं। अगर दांतों की कोई समस्या हो तो न सिर्फ दिखने में खराब लगते हैं, बल्कि खाना-पीना भी मुश्किल हो जाता है। आमतौर पर दांतों से जुड़ीं 2 तरह की समस्याएं होती हैं: 1. मसूढ़ों से जुड़ीं, 2. दूसरी दांतों संबंधी।

मसूढ़ों की बीमारियां

पायरिया


पायरिया मसूढ़ों और हड्डी की बीमारी होती है। इसमें सांसों से बदबू और दांतों से खून आता है। शुरुआत में दर्द नहीं होता इसलिए बीमारी बढ़ती जाती है। वक्त पर इलाज न हो तो आगे जाकर दांत हिलने लगते हैं और निकल भी जाते हैं। इसकी मुख्य वजह ढंग से सफाई न करना है। हालांकि डायबीटीज या पैरंट्स में किसी को पायरिया होना भी वजह हो सकती है।

नॉर्मल ट्रीटमेंट

स्केलिंग यानी मसूढ़ों की सफाई की जाती है। एक सिटिंग के लिए 900 से 3500 रुपये खर्च आता है। फिर मसूढ़ों और हड्डी के संक्रमित टिशूज को हटा दिया जाता है। इससे बीमारी वहीं थम जाती है और आगे नहीं बढ़ती। एक दांत के लिए करीब 600-1200 रुपये चार्ज किए जाते हैं। फिर दांतों को पॉलिश भी किया जाता है ताकि उन पर सफाई से बनने वाली बारीक लाइनों पर प्लाक जमा न हो और दांत स्मूद बने रहें। इस पूरे प्रोसेस में 3-4 सिटिंग्स तक लग जाती हैं।

लेटेस्ट तकनीक

मोटे तौर पर ऊपर लिखा प्रोसेस ही किया जाता है, लेकिन नॉर्मल क्लीनिंग के बजाय लेजर क्लीनिंग की जाती है। इसमें ब्लीडिंग नहीं होती और दर्द भी नहीं होता। 2 सिटिंग्स में ट्रीटमेंट पूरा कर दिया जाता है। पूरे इलाज का खर्च आता है करीब 5000 रुपये। पायरिया से बचने के लिए बेहतर है कि हर 6 महीने में डेंटिस्ट को दिखाकर दांतों की क्लीनिंग करा लें।

बदरंग और धब्बेदार मसूढ़े

मसूढ़े अगर नॉर्मल पिंक कलर के न होकर नीले-जामनी जैसे या दाग-धब्बेदार होते हैं तो देखने में काफी खराब लगते हैं और खूबसूरती को कम करते हैं।

नॉर्मल ट्रीटमेंट

स्कैल्पिंग यानी मसूढ़ों के ऊपर की एक लेयर को हटा दिया जाता है, जिससे नीचे की साफ लेयर ऊपर आ जाती है। आमतौर पर 2-3 सिटिंग्स में इलाज होता है और हर सिटिंग के लिए 8-12 हजार रुपये तक चार्ज किए जाते हैं। कई बार दोबारा कराना पड़ सकता है।

लेटेस्ट तकनीक

आजकल इसके लिए लेजर की मदद ली जाने लगी है। लेजर की मदद से डॉक्टर ऊपरी लेयर हटा देते हैं। इस प्रोसेस में दर्द बिल्कुल नहीं होता और रिजल्ट भी बेहतर है। अक्सर एक सिटिंग में ही काम पूरा हो जाता है। 10 से 15 हजार रुपये चार्ज किए जाते हैं। हालांकि इसका एक नुकसान यह है कि कई बार 2-3 साल में इस प्रोसेस को दोबारा कराना पड़ सकता है।

उठे हुए मसूढ़े

कई बार पैदाइशी तो कभी-कभार किसी बीमारी (मिर्गी आदि) या दवाओं (बीपी, इम्युनिटी की दवा आदि) के सेवन से मसूढ़े सूजे और उठे हुए नजर आते हैं।

नॉर्मल ट्रीटमेंट

कंटूरिंग यानी मसूढ़ों की ऊपरी परत को छीलकर मसूढ़ों को एक लेवल में लाया जाता है। इसके लिए 2-3 सिटिंग्स लगती हैं और कुल 3-5 हजार रुपये खर्च आता है।

लेटेस्ट तकनीक

आजकल लेजर से कंटूरिंग की जाती है। इसमें एक ही सिटिंग में इलाज हो जाता है। हालांकि यह थोड़ा महंगा पड़ता है। मुंह के एक हिस्से के लिए 5-7 हजार रुपये तक खर्च करने पड़ सकते हैं।

दांतों की समस्या

दांतों की समस्याओं में प्रमुख हैं:

सेंसिटिविटी


दांतों में ठंडा-गर्म महसूस करने की समस्या काफी कॉमन है। इसकी वजह आमतौर पर दांतों की ऊपरी परत का हटना होता है जोकि बेहद हार्ड ब्रश यूज करने, बार-बार और ज्यादा देर तक ब्रश करने, दांतों का सही अलाइनमेंट में न होने, कार्बोनेटिड ड्रिंक्स (कोल्ड ड्रिंक्स आदि) ज्यादा पीने आदि से हो सकती है।

नॉर्मल ट्रीटमेंट

सेंसिटिव टूथपेस्ट यूज करने की सलाह दी जाती है। इसमें फ्लोराइड की मात्रा ज्यादा होती है। यह 200-250 रुपये में मिल जाता है।

लेटेस्ट तकनीक

डी-सेंसिटाइजेशन तकनीक से दांतों पर ऐंटि-सेंसिटिविटी मटीरियल (डेंटीन बॉन्डिंग एजेंट) लगाते हैं। इससे दांतों की सेंसिटिविटी कम हो जाती है। 1-2 सिटिंग में काम पूरा हो जाता है और हर दांत के लिए 600-700 रुपये चार्ज किए जाते हैं। इस प्रोसेस को साल-दो साल में रिपीट कराना पड़ता है। इसके अलावा, लेजर से भी सेंसिटिविटी हटाते हैं। 800 से 1200 एक दांत का चार्ज किया जाता है।

केरीज या कैविटी (कीड़ा लगना)

ज्यादा मीठा खाने, सही से दांत साफ न करने, दांत कुरेदते रहने या फिर स्लाइवा के केरीज प्रोन होने पर दांतों में बैक्टीरिया लग जाता है जो केरीज या कैविटी (छेद) की वजह बनता है।

नॉर्मल ट्रीटमेंट

कैरीज होने पर पहले अमल्गम (सिल्वर/गोल्डन) फिलिंग की जाती थी, लेकिन बाद में कंपोजिट फिलिंग की जाने लगी। इसमें अल्ट्रावॉयलेट रेज की मदद से सेटिंग की जाती है। अगर कैविटी बहुत गहरी है तो रूट-कनाल किया जाता है। मैनुअली रूट-कनाल कराने पर 3-4 सिटिंग्स की जरूर पड़ती है, जिसमें 10-15 दिन लगते हैं। इसके लिए 2500 से 4000 रुपये तक चार्ज किए जाते हैं।

लेटेस्ट तकनीक

अगर केरीज की वजह से सिर्फ वाइट दाग दिखने शुरू हुए हैं तो दांत में मिनरल कंटेंट बढ़ा देते हैं, ताकि कैविटी हो ही नहीं। इसके लिए री-मिनरलाइजिंग टूथपेस्ट (फ्लोराइड आदि) यूज करने की सलाह ही जाती है। यह करीब 1000-1500 रुपये का आता है। तकनीकी लिहाज से सबसे ज्यादा काम रूट-कनाल के फील्ड में हुआ है। यह अब पहले के मुकाबले काफी आसान और कम समय में होने लगी है। इसमें दर्द भी नहीं होता। नई तकनीक की रूट कनाल को सिंगल सिटिंग रूट कनाल कहा जाता है और इसे रोटरी मशीन से किया जाता है। शेप बेहतर आती है और एक ही सिटिंग में प्रोसेस पूरा हो जाता है। लेकिन सिंगल सिटिंग रूट कनाल तभी की जाती है, अगर दांत में ज्यादा इन्फेक्शन न हो। इसके लिए 4-8 हजार रुपये चार्ज किए जाते हैं। रूट कनाल के बाद कैप लगवाना जरूरी होता है। कैप में 5-15 हजार रुपये खर्च आता है।

दागदार दांत

दांतों पर दाग 2 तरह के होते हैं


अंदरूनी और बाहरी। बाहरी दाग आमतौर पर खाने की आदतों से पड़ते हैं, मसलन चाय-कॉफी, पान, तंबाकू, हल्दी, मसाले आदि ज्यादा मात्रा में खाने से। अच्छी तरह ब्रश करने और फ्लॉस से सफाई करने से बाहरी दाग साफ हो जाते हैं। इन्हें ब्लीचिंग से भी खत्म किया जा सकता है, लेकिन अंदरूनी दागों को विनियर (लेमिनेशन) की मदद से छुपाया जा सकता है।

बाहरी दागों के लिए

दांतों की बाहरी परत पर मौजूद दागों को हटाने के लिए ब्लीचिंग यूज कर सकते हैं। ब्लीचिंग सिर्फ नेचरल दांतों पर ही काम करती है, क्राउन, वेनर या फिलिंग वाले दांतों पर नहीं। ब्लीचिंग 2 तरह से होती है: ऑफिस ब्लीचिंग औप होम ब्लीचिंग। पहली बार ब्लीचिंग क्लिनिक से ही करानी चाहिए। फिर चाहें तो घर पर कर सकते हैं।

नॉर्मल ट्रीटमेंट

क्लिनिकल ब्लीचिंग 1-2 सिटिंग्स में होती है और इसके लिए 10-15 हजार रुपये खर्च होते हैं। होम ब्लीचिंग किट की मदद से घर पर भी ब्लीचिंग की जा सकती है। इस किट में ब्लीचिंग ट्रे और जेल होता है। यह किट कोलगेट और ओपेलसेंस आदि ब्रैंड्स की आती है। इसे डॉक्टर की सिफारिश पर ही लेना चाहिए। यह 5-7 हजार रुपये में मिल जाती है।

लेटेस्ट तकनीक

आजकल लेजर ब्लीच यूज की जाती है। इसमें करीब 45 मिनट का टाइम लगता है और ज्यादा वाइटनिंग होती है। इससे सेंसिटिविटी नहीं होती, जबकि नॉर्मल ब्लीचिंग से यह हो सकती है। हालांकि वह भी 2-3 दिन में खत्म हो जाती है। इसके लिए 15-25 हजार रुपये खर्च आता है।

अंदरुनी दागों के लिए

ये दाग दांत के अंदर होते हैं और इन्हें निकालना काफी मुश्किल होता है। इसके लिए ये तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं:

नॉर्मल ट्रीटमेंट

दांतों के अंदर दागों को हटाने के लिए विनियर (veneer) यानी लेमिनेशन तकनीक यूज की जाती है। दांत अगर थोड़े-बहुत आगे-पीछे हैं या फिर हल्की टूट-फूट है तो भी इस तकनीक को यूज किया जाता है। विनियर पोर्सलिन की पानी जैसी पतली परत होती है, जोकि दांतों के ऊपर लगा दी जाती है। दांतों का नाप लेकर सिरेमिक या पोर्सलिन की परत लैब में तैयार की जाती है। इस लेयर को सामने दिखनेवाले दांतों के ऊपर लगा दिया जाता है। इसे फिट करने के लिए इनेमल की एक हल्की परत हटाई जाती है। विनियर 5-7 साल तक चल जाते हैं। कंपोजिट के मुकाबले सिरेमिक या पोर्सलिन विनियर बेहतर होते हैं, लेकिन एक बार लगवाने के बाद विनियर हमेशा लगवाने पड़ते हैं क्योंकि ऑरिजिनल दांत की ऊपरी परत हटा दी जाती है। कंपोजिट विनियर 4-5 हजार और सिरेमिक विनियर 15-20 हजार रुपये में लगते हैं।

लेटेस्ट तकनीक

आजकल विनियर्स के अलावा ल्यूमिनियर भी लगाए जाते हैं। ये करीब-करीब विनियर्स जैसे ही होते हैं, लेकिन ज्यादा पतले होते हैं। विनियर्स जहां 1 एमएम की मोटाई तक बनते हैं, वहीं ल्यूमिनियर्स और भी बारीक बनते हैं। ल्यूमिनियर्स के लिए दांतों की परत काटनी नहीं पड़ती है। ये भी सामने की तरफ लगाए जाते हैं और कीमत करीब 25-35 हजार रुपये होती है।

गैप वाले या टेढ़े-मेढ़े दांत

कई बार दांतों के बीच गैप होता है या दांत एक-दूसरे के ऊपर चढ़े होते हैं। इन तरह की समस्याओं के लिए कई तरह के इलाज मौजूद हैं:

नॉर्मल ट्रीटमेंट

इसके लिए बॉन्डिंग या क्राउन/कैप करा सकते हैं। बॉन्डिंग में कंपोजिट फिलिंग के मटीरियल को सीधे दांत के ऊपर लगाया जाता है, जो पॉलिश और फिनिशिंग के बाद ऑरिजिनल दांत का हिस्सा लगने लगता है। एक दांत के लिए 1500 से 3500 रुपये खर्च आता है।

रूट कनाल वाले दांतों के अलावा ब्रिजेस को सपोर्ट करने और बदरंग व टेढ़े-मेढ़े दांतों पर क्राउन या कैप लगाए जाते हैं। क्राउन मेटल के अलावा नैचरल दिखनेवाले पोर्सलिन, सिरेमिक, अक्रेलिक या कंपोजिट मटीरियल से बनाए जाते हैं। अगर रखरखाव ठीक से किया जाए और फ्लॉस से रोजाना साफ किया जाए तो क्राउन आमतौर पर 5-7 साल चल जाते हैं। दो सिटिंग्स में काम हो जाता है और 12 से 15 हजार रुपये प्रति दांत खर्च आता है। लेकिन इन सबसे बेहतर है कि ब्रेसेस। इसमें नेचरल दांतों को कोई नुकसान नहीं होता। ब्रेसेस की मदद से टेढ़े-मेढ़े दांतों को लेवल में लाया जाता है। मेटेलिक के अलावा सिरेमिक, कलर्ड और लिंगुअल ब्रेसेस आते हैं। लिंगुअल ब्रेसेस दांतों के अंदर की तरफ से लगाए जाते हैं और बाहर से नजर नहीं आते। ब्रेसेस हटाए जाने के बाद रिटेनर्स लगाए जाते हैं। ये अक्रेलिक से बने इम्प्लांट्स होते हैं जो तारों की मदद से दांतों के पीछे लगाए जाते हैं। इस पूरे प्रोसेस को पूरा होने में करीब डेढ़-दो साल लगते हैं। मेटल ब्रेसेस 30-40 हजार रुपये, सिरेमिक ब्रेसेस 40-70 हजार रुपये और अलाइनर्स 1 से 2 लाख में लगते हैं।

लेटेस्ट तकनीक

आजकल दांत के ही रंग के ब्रेसेस लगाए जाते हैं। साथ ही, ट्रांसपैरंट अलाइनर्स भी लगाए जाते हैं। हालांकि मेटल, सिरेमिक, अलाइनर्स आदि के रिजल्ट अमूमन एक जैसे ही होते हैं। लेकिन मेटेलिक ब्रेसेस देखने में खराब लगते हैं, जबकि अलाइनर्स यानी इनविजिबल ब्रेसेस अलग से नजर नहीं आते और देखने में खराब नहीं लगते। इन पर 1.5 से 2.5 लाख खर्च आता है।

जब लगवाना हो दांत

अगर दांत निकल जाए तो नया दांत लगाने के लिए ब्रिजेस, इम्प्लांट्स, डेंचर यूज किए जाते हैं।

नॉर्मल ट्रीटमेंट

जो दांत निकल गया है, उसके आसपास के दांतों पर कैप/क्राउन फिक्स्ड कर दी जाती हैं और उनकी मदद से मिसिंग दांत लगा दिया जाता है। इसे ब्रिजेस कहा जाता है। इसमें आसपास के दांतों को काटा जाता है। यह परमानेंट तकनीक है और मसूढ़ों, हड्डियों और आसपास के दांतों की स्थिति को देखकर इसे लगाने का फैसला किया जाता है। एक ब्रिज के लिए 18-30 हजार रुपये खर्च आता है। इसके अलावा एक-दो दांत या पूरे दांतों का डेंचर भी लगवा सकते हैं। डेंचर अक्सर हिलते रहते हैं और बाहर भी निकल आते हैं। इस वजह से ये सुविधाजनक नहीं होते। इम्प्लांट डेंचर और ब्रिजेस, दोनों से बेहतर है क्योंकि इसमें आसपास के दांतों के सपोर्ट की जरूरत नहीं पड़ती। इम्प्लांट लगाने के लिए टाइटेनियम से बनी स्क्रू शेप की डिवाइस मसूढ़े में फिट कर दी जाती है, जिस पर नया दांत लगाया जाता है। गाजर-नारियल जैसी मजबूत चीजों को भी काटा जा सकता है। ये ज्यादा स्थायी और सुरक्षित होते हैं। अगर एक दांत लगाना है तो इंप्लांट और एक कैप से काम चल जाता है। अगर एक से ज्यादा दांत लगाने होते हैं तो इम्प्लांट और ब्रिजेस की मदद से लगाए जा सकते हैं। इसके लिए 2 सिटिंग्स लगती हैं और पूरे ट्रीटमेंट में तीन से छह महीने लगते हैं। एक दांत के लिए 15-30 हजार रुपये खर्च आता है।

लेटेस्ट तकनीक

अब एक ही दिन में नया दांत लगाया जा सकता है। पहले इसके लिए कई महीने इंतजार करना पड़ता था। यहां तक कि जिस दिन दांत निकला है, उसी दिन नया दांत लगाया जा सकता है। इसे इमिडिएट लोडिंग इम्प्लांट कहा जाता है। ऐसा सिर्फ सामने वाले दांतों के लिए मुमकिन है। लेकिन ये परमानेंट नहीं होते और इनसे हार्ड चीजें नहीं खा सकती। 6 महीने बाद परमानेंट दांत लगवाना होता है। एक दांत के लिए 40-60हजार रुपये खर्च आता है। इसी तरह हाइब्रिड डेंचर भी आ गए हैं। इन्हें भी दांत निकलवाने के साथ ही लगवा सकते हैं। 6 महीने बाद परमानेंट डेंचर बनवाना होता है। ये फिक्स रहते हैं और इनसे आराम से कोई भी चीज खा सकते हैं। कुल 2-2.5 लाख रुपये खर्च होते हैं।

5 टिप्स दांतों के लिए

1. दांतों को हेल्थी बनाए रखने के लिए जरूरी है कि दांतों को 2 बार कायदे से साफ किया जाए। हर बार 2-3 मिनट ब्रश करें। मुलायम ब्रश से दांतों की ऊपरी और भीतरी, दोनों तरफ सफाई करें। 3-4 महीने में ब्रश जरूर बदल दें। रोजाना फ्लॉस यूज करें। ​उंगलियों से मसूढ़ों की मालिश करें। कुछ भी खाने-पीने के बाद कुल्ला करें। 2. तेज-तेज ब्रश करने से बचें। इससे दांत घिस जाते हैं। दांतों में धागे आदि न फंसाएं। न ही कोई नुकीली चीज दांतों के बीच डालें। 3. चूइंग-गम, टॉफी, दांतों में चिपकनेवाली और खट्टी चीजें ज्यादा न खाएं। पान-तंबाकू, गुटका आदि के सेवन से बचें। चाय-कॉफी भी कम पिएं। 4. अगर रात में सोते हुए दांत चबाने की आदत है तो नाइट गार्ड्स पहनें। इससे दांत घिसेंगे नहीं। 5. साल में 2 बार डेंटिस्ट से अपने दांतों का चेकअप जरूर कराएं। दांतों में दर्द, सड़न, सेंसिटिविटी होने तक का इंतजार करें। जो भी इलाज कराएं, पूरा कराएं।

बच्चों के दांतों का रखें ख्याल

6 महीने से एक साल की उम्र में एक बार बच्चे को डेंटिस्ट के पास जरूर ले जाना चाहिए। फिर 7-8 साल की उम्र में भी डेंटिस्ट को जरूर दिखाएं। इससे दूध के और परमानेंट दांतों में किसी भी बीमारी की शुरुआत में ही पता लग सकता है और बीमारी को बढ़ने से रोका जा सकता है।

बच्चे का जब पहला दांत निकले, तभी से ब्रशिंग शुरू कर देनी चाहिए। छोटे बच्चों के लिए बेहद सॉफ्ट ब्रश आते हैं। ब्रश साइज में छोटा और आगे से पतला होना चाहिए। 6-7 साल की उम्र तक पैरंट्स को खुद बच्चे के दांत ब्रश करने चाहिए क्योंकि इस उम्र तक वह खुद ढंग से ब्रश नहीं कर पाता। मसूढ़ों की मालिश उंगली से करें।


उसे शुरू से ही सुबह और रात यानी 2 बार ब्रश करने की आदत डालें। 6 साल की उम्र से पहले बच्चे को फ्लोराइड वाला टूथपेस्ट न दें। मटर के दाने के बराबर टूथपेस्ट ब्रश करने के लिए काफी होता है।

बच्चों को दांतों पर फ्लोराइड ऐप्लिकेशन करा सकते हैं। डॉक्टर बच्चे का दांतों पर फ्लोराइड वार्निश कर देते हैं, जिससे कैविटी की आशंका काफी कम हो जाती है। पहली बार वार्निश 3 साल की उम्र में और इसके बाद 7 साल, 10 साल और 13 साल की उम्र में कराएं। यानी जब-जब नए दांत आते हैं, तब-तब वार्निश करा लेनी चाहिए।

बच्चों के दांतों में पिट ऐंड फिशर सीलेंट करा सकते हैं। दरअसल, हमारी दाढ़ों में कई ऐसी जगहें होती हैं, जहां खाना फंस सकता है। इन जगहों को सील कर देते हैं तो कीड़ा लगने की आशंका काफी कम हो जाती है।

अगर दूध के दांतों में कीड़ा लग गया है तो इंतजार करने के बजाय फिलिंग कराएं। कोई दांत निकल गया है तो स्पेस मेंटेनर लगवा दें, ताकि उस दांत की जगह बनी रहे।

खाने के बीच में शुगर, टॉफी-चॉकलेट आदि न दें। इससे कैविटी होने के चांस बढ़ जाते हैं। मीठा देना ही है तो प्रॉपर खाने के साथ खिलाएं और इसके बाद कुल्ला करा दें।

ज्यादा जानकारी के लिए

ऐप्स Brush DJ
: यह दिन में 2 बार ब्रश करने, 3 महीने में ब्रश बदलने, 6 महीने में डेंटिस्ट से चेकअप कराने जैसे तमाम अपडेट आपको देता है। इसे डेंटिस्ट ने बनाया है। यह ऐप आईफोन और एंड्रॉयड दोनों के लिए है। Aquafresh Brush Time: यह ऐप बच्चों को सही तरीके से ब्रश करना सिखाता है। साथ ही, इस पर चलनेवाले मजेदार गानों पर नाचते-गाते बच्चे 2 मिनट अच्छी तरह से ब्रशिंग कर सकते हैं। यह ऐप आईफोन और ऐंड्रॉयड दोनों के लिए है।

फेसबुक पेज Smith Dental Care, Danny O'Keefe | Family Dental Care, Logan Dental Care जैसे कई पेज फेसबुक पर हैं, जिन पर दांतों की देखभाल और इलाज से जुड़ी बहुत सारी इर्न्फेशन मिल सकती है।

वेबसाइट knowyourteeth.com: इस वेबसाइट पर जाकर आप अपने दांतों के बारे में A से Z तक सारी जानकारी हासिल कर सकते हैं। webmd.com/oral-health: इस साइट से आप अपने दांतों को सेहतमंद बनाने की तमाम जानकारी पा सकते हैं। kidshealth.org: बच्चों के दांतों की हिफाजत के लिए आपको जरूरी टिप्स मिल सकते हैं इस वेबसाइट से।

विडियो nbt.in/F8Pb9a: सही से ब्रश करना दांतों की बीमारियों को दूर रखने के लिए बेहद जरूरी है। ब्रश करने का सही तरीका जानने के लिए देखें यह विडियो।

एक्सपर्ट्स पैनल - डॉ. महेश वर्मा, डायरेक्टर-प्रिंसिपल, मौलाना आजाद डेंटल कॉलेज - डॉ. प्रवीन कुमार, हेड, डेंटिस्ट्री डिपार्टमेंट, मैक्स हॉस्पिटल - डॉ. गगन सबरवाल, सर्जन, फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टिट्यूट - डॉ. मीरा सिंह, सीनियर डेंटिस्ट, जे.पी. हॉस्पिटल

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जानें, सेहत के लिए बेहतर हैं ये ब्रेड और बटर

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ब्रेड्स के बिना हमारा खाना पूरा नहीं होता। इन ब्रेड्स के बिना न सिर्फ हमारा ब्रेकफास्ट अधूरा है, बल्कि कई तरह की डिशेज का स्वाद भी नहीं लिया जा सकता। ब्रेड्स पर बटर के अलावा भी दूसरे कई स्प्रेड्स लगाए जाते हैं। सेहत के लिहाज से कौन-सी ब्रेड्स और स्प्रेड्स बेहतर हैं, एक्सपर्ट्स से बात करके बता रही हैं प्रियंका सिंह:-

ब्रेड्स में आमतौर पर आटा, शुगर (थोड़ी-सी), नकम (जरा-सा), ओट्स, दूध, ऑइल, प्रिजर्वेटिव्स आदि डाले जाते हैं। इसके अलावा टेस्ट के अनुसार अलग-अलग चीजें भी डाली जाती हैं। ब्रेड्स को यीस्ट की मदद से खमीर उठाकर बनाया जाता है। ब्रेड्स की कई वरायटी मार्केट में मौजूद है। इनमें खास हैं:-

वाइट ब्रेड: सबसे कॉमन है वाइट ब्रेड। वाइट ब्रेड को मैदा से तैयार किया जाता है। इसे बनाने की प्रक्रिया में इसकी न्यूट्रिशन वैल्यू काफी कम हो जाती है क्योंकि गेहूं का छिलका (ब्रैन) और ऊपरी कोने वाला हिस्सा (जर्म) आदि निकल जाते हैं। इससे फाइबर और दूसरे पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं। ऐसे में सिर्फ स्टार्च से भरपूर हिस्सा बचता है यानी इसे खाने से पोषण नहीं मिलता। वाइट ब्रेड खाना चाहते हैं तो इसके साथ अंडा, पनीर, हरी सब्जियां (टमाटर, प्याज, खीरा आदि) या आवोकाडो (नाशपाती जैसा फल) आदि खाएं। इससे आपके ब्रेकफास्ट की न्यूट्रिशनल वैल्यू बढ़ जाती है।

ब्राउन ब्रेड: ब्राउन ब्रेड को आमतौर पर लोग आटा ब्रेड समझकर खरीदते हैं। लेकिन यह भी ज्यादातर मैदा की ही बनती है। कई कंपनियां आर्टिफिशल कलर या केरेमल (शुगर को जलाकर बनाया जानेवाला प्रोडक्ट) डालती हैं, जिससे ब्रेड का कलर ब्राउन हो जाता है। आमतौर पर न्यूट्रिशन के लिहाज से यह वाइट ब्रेड से खास बेहतर नहीं होती। हालांकि ब्रिटैनिया का दावा है कि ब्राउन ब्रेड में गेहूं का आटा और फाइबर ज्यादा मात्रा में होता है और कई तरह के मिनरल व विटमिन भी मिलाए जाते हैं, जो इसे वाइट ब्रेड से बेहतर बनाते हैं। वैसे, एक्सपर्ट्स के मुताबिक खरीदने से ब्राउन ब्रेड के कवर पर लिखी सामग्री अच्छी तरह पढ़ें और देखें कि उसमें होल वीट फ्लार लिखा हो।

होल वीट ब्रेड: यह ब्रेड गेहूं के आटे से बनती है। पैकेट के ऊपर होल वीट या होल ग्रेन लिखा देखकर ही खरीदें। इसमें फाइबर ज्यादा मात्रा में होता है। एक स्लाइस में 2-3 ग्राम तक फाइबर होता है। यह पाचन और पोषण, दोनों लिहाज से बेहतर है। हालांकि अगर ब्राउन या होलवीट ब्रेड सॉफ्ट और लाइट है तो इसमें होलवीट आटा ज्यादा होने के चांस कम हैं। बेहतर है कि पैकेट के ऊपर लिखी सामग्री देख लें। अक्सर उसमें गेहूं का आटा (40-45 फीसदी), होल वीट आटा (20-25 फीसदी),वीट फाइबर (4-5 फीसदी) आदि होते हैं। आप अलग-अलग ब्रैंड की ब्रेड लेकर तुलना कर सकते हैं। जिस ब्रेड में होल वीट आटा ज्यादा हो, वही खरीदें क्योंकि उसमें रिफाइंड आटा (मैदा) कम होगा।

मल्टिग्रेन ब्रेड: इसमें आटे के अलावा ओट्स (जौ), फ्लैक्स-सीड्स (अलसी), सनफ्लार सीड्स (सूरजमुखी के बीज), बाजरा, रागी आदि भी होते हैं। लेकिन आपको पैकेट को गौर से पढ़ना होगा कि उसमें क्या-क्या चीजें हैं और कितनी मात्रा में हैं। जो चीज पहले होगी, वह ज्यादा मात्रा में होगी और जो बाद में लिखी होगी, वह कम होगी। आमतौर पर मल्टिग्रेन ब्रेड में भी आटा या मैदा 50-60 फीसदी तक होता है, लेकिन इससे ज्यादा हो तो सही नहीं है।

सैंडविच ब्रेड: यह साइज में बड़ी और मोटी होती है ताकि स्टफिंग को अच्छी तरह होल्ड कर सके। इसे जंबो ब्रेड भी कहा जाता है। यह मैदा, आटा और मल्टिग्रेन, तीनों ही तरह की मिलती है। आमतौर पर होटल, रेस्ट्रॉन्ट, ऑफिस आदि में बिकती है।

फ्रूट ब्रेड: टेस्ट बढ़ाने के लिए इसमें वनीला, पाइनएपल आदि फ्रूट एसेंस और टूटी-फ्रूटी आदि मिलाए जाते हैं, लेकिन इनमें फ्रूट नहीं होते। हां, यह हल्की मीठी होती है और टेस्ट बढ़ाने के लिए इस पर स्प्रेड आदि लगाने की जरूरत नहीं होती। वैसे असली फ्रूट वाली ब्रेड भी मिलती है, जिसमें खास है बनाना ब्रेड। असली फ्रूट ब्रेड बड़ी बेकरी पर ही मिलती हैं।

फ्लेवर्ड ब्रेड: इसमें अलग-अलग टेस्ट की ब्रेड मिलती है। सबसे कॉमन है गार्लिक ब्रेड यानी लहसुन वाली ब्रेड। इसके अलावा मशरूम, चीज आदि फ्लेवर भी मिलते हैं।

पाव/बन: ये भी ब्रेड की ही फॉर्म हैं। बर्गर बन जैसे होते हैं पाव। इन्हें पाव भाजी, वड़ा पाव, दाबेली आदि में यूज किया जाता है।

खास ब्रेड: आजकल बड़ी बेकरीज़ में एग्जॉटिक ब्रेड भी मिलती हैं। इनमें फोकाशियास (Foccaccias), फ्रेंच ब्रेड (French bread), चियाबाता (Ciabatta), पेनिनिस (Paninis) खास हैं।

1. फोकाशियास इटैलियन स्टाइल की ब्रेड है, जिसमें ऑलिव ऑयल काफी ज्यादा होता है। यह बाहर से क्रिस्पी और अंदर से बेहद सॉफ्ट होती है।

2. फ्रेंच ब्रेड फ्रांस में उतनी ही कॉमन है, जितनी हमारे यहां रोटी। इंडिया में गार्लिक ब्रेड इसी से बनाते हैं।

3. चियाबाता फ्लैट ब्रेड होती है और इसकी मोटाई ज्यादा नहीं होती। यह ज्यादातर सेंडविच में यूज होती है।

4. पेनिनिस ग्रिल्ड ब्रेड होती है। यह देखने में काफी अच्छी और टेस्टी होती है।

5. पीता (peeta) ब्रेड राउंड होती है, जिसे बीच से काटकर स्टफिंग करते हैं। इसे पॉकेट ब्रेड भी कहा जाता है क्योंकि इसमें अंदर की तरफ स्टफिंग की जाती है।

पोटैशियम ब्रोमेट का रोल

आमतौर पर बड़े लेवल पर जब ब्रेड बनाई जाती है तो उसमें इम्प्रूवर मिलाए जाते हैं। ये केमिकल भी हो सकते हैं और नैचरल भी। इनका काम ब्रेड को ज्यादा सॉफ्ट और फूला हुआ बनाना है। इन केमिकल्स में प्रमुख हैं: पोटैशियम ब्रोमेट और पोटैशियम आयोडेट। बहुत सारे देशों ने इन्हें बैन किया हुआ है क्योंकि लिमिट से ज्यादा यूज करने पर ये कैंसर पैदा कर सकते हैं। WHO/FAO के मुताबिक पोटैशियम ब्रोमेट बहुत ज्यादा मात्रा में यूज करने से कैंसर की वजह बन सकता है। पोटैशियम आयोडेट भी ज्यादा मात्रा में यूज किया जाए तो थायरॉयड ग्लैंड इन्फेक्शन की वजह बन सकता है। हमारे देश में फूड सेफ्टी ऐंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया (FSSAI) ने ब्रेड में इन दोनों केमिकल्स के यूज की इजाजत दी हुई थी। हाल में सेंटर ऑफ साइंस ऐंड इन्वायरनमेंट की रिपोर्ट आई। इसके मुताबिक ज्यादातर ब्रेड्स में ये तय मात्रा से ज्यादा मात्रा में पाए गए। हालांकि ब्रिटैनिया का दावा है कि दूसरी लैब में चेक कराने पर ब्रिटैनिया और एक दूसरे सैंपल में ये केमिकल ज्यादा मात्रा में नहीं मिले। वैसे इंटरनैशनल एजेंसी ऑफ रिसर्च ऑन कैंसर ने ब्रोमेट को प्रोसेस्ड रेड मीट से कम खतरनाक करार दिया है। बहरहाल, FSSAI ने ब्रेड में इनका यूज बैन कर दिया गया। अब ज्यादातर कंपनियां इन केमिकल्स का यूज नहीं कर रहीं और ज्यादातर ब्रेड्स पर लिखा भी होता है, 'नो पोटैशियम ब्रोमेट, नो पोटैशियम आयोडेट'।

नुकसानदेह नहीं है ब्रेड

मल्टिग्रेन और होल वीट ब्रेड कॉम्प्लेक्स कार्ब का अच्छा सोर्स है। अगर ब्रेड को लो-ग्लाइसिमिक इंडेक्स (जो चीजें धीरे-धीरे ग्लूकोज में बदलती हैं) वाली चीजें जैसे कि ओट्स, नट्स, छिलका, सोया, दालों आदि से बनाया जाए तो मेटाबॉलिज्म बढ़ता है। जिसका सीधा असर ब्लड शुगर और वजन पर होता है। ऐसी ब्रेड धीरे-धीरे डाइजेस्ट होकर ग्लूकोज में बदलती हैं। अगर ब्लड शुगर धीरे-धीरे बढ़ती है तो ब्लड शुगर और फैट लेवल को रेग्युलेट करने के लिए कम मात्रा में इंसुलिन की जरूरत होती है। साथ ही, इससे लंबे समय तक पेट भरा होने का भी अहसास होता है। हमें अपने खाने की कुल कैलरी में से 45 से 50 फीसदी तक कॉम्प्लेक्स कार्बोहाइड्रेट से लेनी चाहिए। इस लिहाज से ब्रेड खाना भी बुरा नहीं है। ब्रेड में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, फाइबर और कैल्शियम अच्छी मात्रा में होता है। थोड़ा फैट और आयरन भी होता है लेकिन ट्रांस-फैट और कॉलेस्ट्रॉल नहीं होता। हालांकि कोई भी ब्रेड जिसमें ज्यादा मैदा (वाइट और ब्राउन ब्रेड) है, उसे कम ही खाना चाहिए क्योंकि मैदा रिफाइंड कार्ब है और यह सेहत के लिए अच्छी नहीं होती। जिन लोगों को ग्लूटन इनटॉलरेंस (ग्लूटन से दिक्कत) या गेहूं से एलर्जी हो, उन्हें ब्रेड नहीं खानी चाहिए। ग्लूटन वह केमिकल होता है, जो किसी खाने की चीज को चिपचिपा बनाता है।

कौन-सी ब्रेड बेस्ट

टेस्ट के लिहाज से तो आप कोई भी ब्रेड खा सकते हैं लेकिन पोषण की बात करें तो मल्टिग्रेन ब्रेड दूसरी ब्रेड से बेहतर हैं। इनमें पोषण ज्यादा होता है और ये पचती भी जल्दी हैं। इनसे लंबे समय तक पेट भरा रहता है। मोटे तौर पर ऐसे रेटिंग कर सकते हैं:

1. मल्टिग्रेन ब्रेड

2. होलवीट ब्रेड

3. ब्राउन ब्रेड

4. वाइट ब्रेड

चेक करें एक्सपायरी डेट

हर ब्रेड पर एक्सपायरी डेट या बेस्ट बिफोर डेट लिखी होती है। उसी तारीख से पहले ब्रेड खत्म कर लें। हालांकि स्टोरेज ठीक है तो 1-2 दिन ज्यादा भी यूज कर सकते हैं। फिर भी एक्सपायरी डेट तक यूज कर लेना बेहतर है। जब ब्रेड बच रही है तो एक्सपायरी डेट के एक दिन पहले उसके ब्रेड क्रम्प्स बना लें। इसके लिए ब्रेड को आंच पर हल्का-हल्का सेक लें। माइक्रोवेव में भी सेक सकते हैं। फिर इसका चूरा बनाकर एयर टाइट डिब्बे में रख लें। कटलेट, रोल्स आदि में इनका यूज करें। एयर टाइट डिब्बे में रखने पर ये 2-3 महीने आराम से चल जाते हैं।

कुछ दूसरे यूज भी

ब्रेड को टोस्ट, सैंडविच, रोल्स, ब्रेड पकौड़ा, कटलेट, फ्रेंच टोस्ट, ब्रेड उत्पम, ब्रेड पित्जा आदि बनाने के लिए तो यूज किया ही जाता है, इसके कुछ दूसरे भी यूज हैं। अगर कुल्फी बना रहे हैं और दूध को गाढ़ा करने का टाइम नहीं है तो दूध में 2-3 ब्रेड्स डाल दें। इससे दूध फटाफट गाढ़ा हो जाएगा और कुल्फी गाढ़ी और स्वादिष्ट बनेगी। इसी तरह कोफ्ते या मंचूरियन बॉल्स बनाते समय ब्रेड मिलाने से घोल अच्छी तरह बंध जाता है और गिरता नहीं है।

खुद बनाएं ब्रेड

आप घर पर खुद ही ब्रेड बना सकते हैं। एक कटोरी में थोड़ा पानी ले लें। अंदाज से जितना ब्रेड बनाना चाहते हैं, उसके मुताबिक पानी लें। इसमें थोड़ा यीस्ट डालकर गर्म जगह पर रख दें। यीस्ट ग्रॉसरी शॉप से मिल जाता है। 30-45 मिनट में इसमें झाग उठने लगेंगे। फिर इसमें मैदा या आटा, एक चुटकी नमक, एक चम्मच चीनी डाल लें। अगर फ्लैक्स-सीड्स, गार्लिक आदि डालना चाहते हैं, तो वे सब चीजें डालकर गूंथ लें। करीब 30 मिनट के लिए छोड़ दें। फिर से गूंथें। इसके बाद इसे शेप दें या मोल्ड में डालें। 180 डिग्री पर 20-25 मिनट के लिए माइक्रोवेव में बेक करें। बाहर निकाल कर ठंडा होने दें और पीस काट लें।

टेस्ट कम, पर सेहतमंद अगर सेहत के लिहाज से खाना है तो हमें टेस्ट को बदलना होगा। मल्टिग्रेन या चोकर के साथ बनाने पर रोटियां थोड़ी सख्त हो जाती हैं। अगर कुटू में कुछ मिलाया नहीं जाएगा तो उसकी पूरियां फूलेंगी नहीं क्योंकि कुटू में ग्लूटन नहीं होता, इससे वह चिपचिपा नहीं होता। इसी तरह अगर मोटे आटे से ब्रेड बनाई जाएगी तो वह भी थोड़ी सख्त होगी। मैदा से बनी ब्रेड जैसी सॉफ्ट नहीं होगी। ऐसी ब्रेड टेस्ट में भुरभुरी लगे लेकिन सेहत के लिए बेहतर होती है।

मिथ मंथन

1. कच्ची ब्रेड नहीं खाना चाहिए

कोई ब्रेड कच्ची नहीं होती। ब्रेड को बेक करके बनाया जाता है इसलिए उसे बिना सेके खा सकते हैं।

2. ब्रेड को फ्रिज में न रखें

अगर ब्रेड को खोला नहीं है तो नॉर्मल टेंपरेचर पर रख सकते हैं लेकिन एक बार खोलने के बाद उसे अच्छी तरह कवर करके फ्रिज में रखें। बाहर रखेंगे तो वह ड्राई हो जाएगी और जल्दी खराब भी हो जाएगी।

3. पेट को नुकसान करती है ब्रेड

ब्रेड पेट को नुकसान नहीं करती। उलटे कहा जाता है कि पेट खराब हो तो थोड़ा दही और केला के साथ ब्रेड खानी चाहिए। हालांकि कुछ लोगों को ब्रेड से गैस की हल्की-फुल्की दिक्कत हो सकती है लेकिन ज्यादा पानी पीने और फिजिकल एक्सरसाइज करने से यह दिक्कत दूर हो जाती है।

4. गेहूं से होता है ब्राउन कलर कोई भी ब्रेड, जिसका कलर रोटी से ज्यादा गहरा है, उसमें रंग मिलाए जाने की संभावना है। जैसे कि ब्राउन ब्रेड भी ज्यादातर नॉर्मल मैदा वाली ब्रेड ही होती है। उसका ब्राउन कलर अक्सर केरेमल या कलर की वजह से नजर आता है।

5. पैरों से गूंथा जाता है ब्रेड का आटा

बड़े लेवल पर ब्रेड फैक्टरियों में बनाई जाती है। वहां आटा गूंथने से लेकर शेप देने और ब्रेड को काटने तक का काम मशीनों के जरिए होता है। लेकिन आप घर पर भी ब्रेड बना सकते हैं। फैक्टियों में ब्रेड कैसे बनाई जाती है, यह आप इस विडियो से देख सकते हैं: nbt.in/Bread

मस्का का चस्का

ब्रेड पर लगाने के लिए जैम से लेकर बटर और सैंडविच स्पेड तक तमाम ऑप्शन हैं। डालते हैं मुख्य स्प्रेड्स की खासियतों के बारे में:-

बटर

बटर मुख्य तौर पर 2 तरह का मिलता है: नमक वाला और बिना नमक वाला। बिना नमक वाला सफेद होता है और नमक वाला पीला। इसके अलावा आजकल फ्लेवर्ड बटर भी मिलता है, जिसमें गार्लिक या हर्ब्स आदि मिली होती हैं। बटर टेस्ट में काफी अच्छा लगता है। इनमें हमारी हड्डियों को मजबूत बनाने के लिए जरूरी नैचरल फैट्स होते हैं। दिन में आधे से 1 छोटा चम्मच तक बटर काफी है। इससे ज्यादा न खाएं। हालांकि अगर जमकर एक्सरसाइज या भाग-दौड़ वाला काम करते हैं तो ज्यादा भी खा सकते हैं।

पीनट बटर

यह मूंगफली से बनाया जाता है। मूंगफली को भूनकर उसमें ऑइल मिलाते हैं। इसमें डेयरी बटर नहीं होता इसलिए यह कॉलेस्ट्रॉल फ्री होता है। हालांकि अगर पाम ऑइल आदि मिलाया गया है तो सेहत के लिए नुकसानदेह है। इसे खरीदते हुए देख लें कि कौन-कौन सी चीजें मिलाई गई हैं। वह पीनट बटर अच्छा होता है, जिस पर 100 फीसदी पीनट बटर लिखा होता है। यह टेस्ट में हल्का मीठा लगता है और बहुतों को पसंद नहीं आता।

नो-कॉलेस्ट्रॉल स्प्रेड्स

आजकल मार्केट में नो-कॉलेस्ट्रॉल स्प्रेड्स भी मिलते हैं। इन्हें मार्गेरिन (margarine) कहा जाता है। इंडिया में ये न्यूट्रालाइट (Nutralite), डिलिशस (Delicious), लाइट (Lite) आदि ब्रैंड नेम से मिलते हैं। इनमें कॉलेस्ट्रॉल नहीं होता क्योंकि ये वेजिटेबल ऑइल से बनते हैं। लेकिन गाढ़ा करने के लिए ऑइल को हाइड्रोजिनेट किया जाता है। इसके लिए इनमें निकल और कैडमियम जैसे मेटल मिलाए जाते हैं जो ब्लड प्रेशर से लेकर कैंसर और लंग्स व किडनी की बीमारियों तक की वजह बन सकते हैं। इनमें ट्रांस-फैट्स भी होते हैं।

मियोनिज

यह एक फ्रेंच सॉस है लेकिन अब दुनिया भर में यूज होती है। खासकर बर्गर, सैंडविच, सलाद आदि में। इसे तेल, अंडे, विनेगर, नीबू रस और हर्ब्स आदि से तैयार किया जाता है। इंडियन टेस्ट को ध्यान में रखते हुए एगलेस मियोनिज भी मिलती है, जिसमें अंडा नहीं होता। इनमें सैचुरेटिड और ट्रांस-फैट नहीं होते। इस तरह ये सेहत के लिए नुकसानदेह नहीं हैं। हां, कैलरी काफी ज्यादा होती है, इसलिए कम मात्रा में खाना चाहिए।

सैंडविच स्प्रेड

ये काफी चिकने और गाढ़े होते हैं और टेस्ट में काफी अच्छे लगते हैं। ज्यादातर सैंडविच स्प्रेड मियोनिज या वेजिटेबल ऑइल (सोयाबीन, कनोला, कॉर्न, ऑलिव, सनफ्लार आदि) से तैयार किए जाते हैं। इनमें सब्जियों या फलों के छोटे पीस मिलाए जाते हैं। इनमें कई तरह के फ्लेवर (गार्लिक, चिली, मशरूम आदि) भी मिलते हैं। इनमें सैचुरेटिड फैट और ट्रांसफैट आमतौर पर नहीं होते। इन्हें सैंडविच, पित्जा या परांठों में यूज कर सकते हैं। इनमें नुकसानदेह चीजें नहीं होतीं लेकिन ज्यादा कैलरी होने की वजह से कभी-कभार ही खाना चाहिए।

चीज स्प्रेड

चीज स्प्रेड या चीज स्लाइस मुख्य रूप से चीज से बनाई जाती हैं और चीज दूध से। इस तरह चीज स्प्रेड या स्लाइस में दूध तो होता ही है, साथ ही विनेगर, लेमन जूस, शुगर आदि मिलाया जाता है। इनमें सैचुरेटिड फैट होते हैं लेकिन ये नुकसानदेह नहीं हैं। हां, हाई कैलरी की वजह से ज्यादा खाने से बचना चाहिए। वैसे, चीज स्प्रीड के मुकाबले डायरेक्ट चीज खाना बेहतर है।

जैम या जेली

जैम या जेली ब्रेड पर लगाकर खा सकते हैं। इनमें फलों के गूदों के अलावा ऐंटि-ऑक्सिडेंट, अमीनो-ऐसिड्स, मिनरल्स, विटमिन आदि भी कुछ मात्रा में होते हैं। शुगर काफी ज्यादा होती है और कई बार फल भी अच्छी क्वॉलिटी के यूज नहीं किए जाते इसलिए इन्हें भी हेल्थी नहीं माना जा सकता।

मोटे तौर पर न्यूट्रिशन के लिहाज से स्प्रेड्स को ऐसे रेट कर सकते हैं:

1. पीनट बटर

2. बटर

3. चीज स्प्रेड

4. मियोनिज/सैंडविच स्प्रेड

5. जैम

खुद बनाएं हेल्थी स्प्रेड एक कटोरी दही लें। उसे किसी कपड़े में बांधकर 1-2 घंटे के लिए टांग दें। जब वह गाढ़ा हो जाए तो उसमें लहसुन, हरी मिर्च, ऑरिगैनो आदि मिला लें। इसे ब्रेड पर लगाकर खाएं।

एक्सपर्ट्स पैनल

डॉ. शिखा शर्मा, न्यूट्री-डाइट एक्सपर्ट कुणाल कपूर, सिलेब्रिटी शेफ इशी खोसला, न्यूट्रिशन-डाइट एक्सपर्ट सुधीर नेमा, वीपी, रिसर्च, डिलेवपमेंट ऐंड क्वॉलिटी, ब्रिटैनिया

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मॉनसून: बीमारियां, परहेज और उनका इलाज

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मॉनसून झमाझम बारिश और गर्मागर्म चाय-पकौड़ों का मौसम है। अपनी सेहत को लेकर हम जरा लापरवाह हो जाएं तो यह मौसम परेशानी का सबब भी बन जाता है। बरसात के दिनों में होने वालीं आम बीमारियों और उनकी रोकथाम पर डालते हैं एक नजर:

नजर न लग जाए...

बरसात के दिनों में आंखों की बीमारियां होना आम है। आंखों की बीमारियों में सबसे कॉमन कंजंक्टिवाइटिस है:

कंजंक्टिवाइटिस

आंख के ग्लोब पर (बीच के कॉर्निया एरिया को छोड़कर) एक महीन झिल्ली चढ़ी होती है, जिसे कंजंक्टाइवा कहते हैं। कंजंक्टाइवा में किसी भी तरह के इंफेक्शन या एलर्जी होने पर सूजन आ जाती है, जिसे कंजंक्टिवाइटिस कहा जाता है। इसे आई फ्लू या पिंक आई नाम से भी जाना जाता है। यह बीमारी आम वायरल की तरह है। जब भी मौसम बदलता है, इसका असर देखा जाता है। कंजंक्टिवाइटिस 3 तरह का होता है: वायरल, एलर्जिक और बैक्टीरियल।

कैसे पहचानें?

कंजंक्टिवाइटिस का पता आमतौर पर लक्षणों से ही लग जाता है। फिर भी यह किस टाइप का है, इसकी जांच के लिए स्लिट लैंप माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल किया जाता है और बैक्टीरियल इंफेक्शन के कई मामलों में कल्चर टेस्ट भी किया जाता है।

क्या है बचाव?

बचाव के लिए साफ-सफाई रखना सबसे जरूरी है। इस सीजन में किसी से भी (खासकर जिसे कंजंक्टिवाइटिस हो) हाथ मिलाने से भी बचें क्योंकि हाथों के जरिए इंफेक्शन फैल सकता है। दूसरों की चीजों का भी इस्तेमाल न करें। आंखों को दिन में 5-6 बार ताजे पानी से धोएं। बरसात के मौसम में स्विमिंग पूल में जाने से बचें। गर्मी के मौसम में अच्छी क्वॉलिटी का धूप का चश्मा पहनना चाहिए। चश्मा आंख को तेज धूप, धूल और गंदगी से बचाता है, जो एलर्जिक कंजंक्टिवाइटिस के कारण होते हैं।

इलाज

सुबह के वक्त आंख चिपकी मिलती है और कीचड़ आने लगता है, तो यह बैक्टिरियल कंजंक्टिवाइटिस का लक्षण हो सकता है। इसमें ब्रॉड स्पेक्ट्रम ऐंटिबायॉटिक आई-ड्रॉप्स जैसे सिप्रोफ्लॉक्सोसिन (Ciprofloxacin), ऑफ्लोक्सेसिन (Ofloxacin), स्पारफ्लोक्सेसिन (Sparfloxacin) यूज कर सकते हैं। एक-एक बूंद दिन में तीन से चार बार डाल सकते हैं। दो से तीन दिन में अगर ठीक नहीं होते तो किसी आंखों के डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए।

अगर आंख लाल हो जाती है और उससे पानी गिरने लगता है, तो यह वायरल और एलर्जिक कंजंक्टिवाइटिस हो सकता है। वायरल कंजंक्टिवाइटिस अपने आप 5-7 दिन में ठीक हो जाता है लेकिन इसमें बैक्टीरियल इंफेक्शन न हो, इसलिए ब्रॉड स्पेक्ट्रम (Spectrum) ​ ऐंटिबायॉटिक आई-ड्रॉप का इस्तेमाल करते रहना चाहिए। आराम न मिले तो डॉक्टर से सलाह लें।

आंख में चुभन महसूस होती है, तेज रोशनी में चौंध लगती है, आंख में तेज खुजली होती है, तो यह एलर्जिक कंजंक्टिवाइटिस हो सकती है। क्लोरफेनेरामिन (Chlorphenaramine) और सोडियम क्रोमोग्लाइकेट (Sodium Cromoglycate) जैसी ऐंटिएलर्जिक आई-ड्रॉप्स दिन में तीन बार एक-एक बूंद डाल सकते हैं। 2-3 दिन में आराम न मिले तो डॉक्टर की सलाह लें।

ध्यान रखें

आंखों को दिन में 5-6 बार साफ पानी से धोएं। आंखों को मसलें नहीं, क्योंकि इससे रेटिना में जख्म हो सकता है। ज्यादा समस्या होने पर खुद इलाज करने के बजाय डॉक्टर की सलाह लें।

कंजंक्टिवाइटिस में स्टेरॉयड वाली दवा जैसे डेक्सामिथासोन (Dexamethasone), बीटामिथासोन (Betamethasone) आदि का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। अगर जरूरी है, तो सिर्फ डॉक्टर की सलाह से ही आई-ड्रॉप्स डालें और उतने ही दिन, जितने दिन आपके डॉक्टर कहें। स्टेरॉयड वाली दवा के ज्यादा इस्तेमाल से काफी नुकसान हो सकता है।

ये सभी दवाएं जेनरिक हैं। दवाएं बाजार में अलग-अलग ब्रैंड नामों से उपलब्ध हैं।

स्किन की समस्या

बारिश के दिनों में स्किन से जुड़ी कई समस्याएं बढ़ जाती हैं। इनमें खास हैं:

फंगल इन्फेक्शन

बारिश में रिंगवॉर्म यानी दाद-खाज की समस्या बढ़ जाती है। पसीना ज्यादा आने, नमी रहने या कपड़ों में साबुन रह जाने से ऐसा हो सकता है। इसमें रिंग की तरह रैशेज़ जैसे नजर आते हैं। ये अंदर से साफ होते जाते हैं और बाहर की तरफ फैलते जाते हैं। इनमें खुजली होती है और एक से दूसरे शख्स में फैलते हैं।

इलाज

ऐंटिफंगल क्रीम क्लोट्रिमाजोल (Clotrimazole) लगाएं। जरूरत पड़ने पर डॉक्टर की सलाह से ग्राइसोफुलविन (Griseofulvin) या टर्बिनाफिन (Terbinafine) टैबलट ले सकते हैं। ये जेनेरिक नेम हैं। फंगल इन्फेक्शन बालों या नाखूनों में है तो खाने के लिए भी दवा दी जाती है। फ्लूकोनाजोल (Fluconazole) ऐसी ही एक दवा है।

फोड़े-फुंसी/दाने

इन दिनों फोड़े-फुंसी, बाल तोड़ के अलावा पस वाले दाने भी हो सकते हैं। आमतौर पर माना जाता है कि ऐसा आम खाने से होता है, लेकिन यह सही नहीं है। असल में यह नमी में पनपने वाले बैक्टीरिया से होता है।

इलाज

दानों पर ऐंटिबायॉटिक क्रीम लगाएं, जिनके जेनेरिक नाम फ्यूसिडिक एसिड (Fusidic Acid) और म्यूपिरोसिन (Mupirocin) हैं। परेशानी बढ़ने पर क्लाइंडेमाइसिन (Clindamycin) लोशन लगा सकते हैं। यह लोशन मार्केट में कई ब्रैंड नेम से मिलता है। ऐंटिऐक्ने साबुन एक्नेएड (Acne-Aid), एक्नेक्स (Acnex), मेडसोप (Medsop) आदि भी यूज कर सकते हैं। ये ब्रैंड नेम हैं। जरूरत पड़ने पर डॉक्टर ऐंटिबायॉटिक टैबलट देते हैं।

घमौरियां/रैशेज़

स्किन में ज्यादा मॉइस्चर रहने से कीटाणु आसानी से पनपते हैं। इससे रैशेज और घमौरियां हो जाती हैं। ये ज्यादातर उन जगहों पर होती हैं, जहां स्किन फोल्ड होती है, जैसे जांघ या बगल में। पेट और कमर पर भी हो जाती हैं।

इलाज

ठंडे वातावरण, यानी एसी और कूलर में रहें। दिन में एकाध बार बर्फ से प्रॉबल्म एरिया की सिकाई कर सकते हैं और घमौरियों और रैशेज पर कैलेमाइन (Calamine) लोशन लगाएं। खुजली ज्यादा है तो डॉक्टर की सलाह पर खुजली की दवा ले सकते हैं।

ऐथलीट्स फुट

जो लोग लगातार जूते पहने रहते हैं, उनके पैरों की उंगलियों के बीच की स्किन गल जाती है। समस्या बढ़ जाए तो इन्फेक्शन नाखून तक फैल जाता है और वह मोटा और भद्दा हो जाता है।

इलाज

हवादार जूते-चप्पल पहनें। जूते पहनना जरूरी हो तो पहले पैरों पर पाउडर डाल लें। बीच-बीच में जूते उतार कर पैरों को हवा लगाएं। जहां इन्फेक्शन हो, वहां क्लोट्रिमाजोल (Clotrimazole) क्रीम या पाउडर लगाएं। इलाज खुद करना सही नहीं है। फौरन डॉक्टर को दिखाएं। वह जरूरत पड़ने पर ऐंटिबायॉटिक या ऐंटिफंगल मेडिसिन देगा।

बाल न बनें बवाल

मौसम बदलने पर बाल थोड़ा ज्यादा झड़ते हैं। बारिश के मौसम में अगर बालों को साफ और सूखा रखें तो झड़ने की शिकायत नहीं होगी:

फंगल इंफेक्शन

बारिश में बालों में पानी रहने से फंगल इन्फेक्शन हो सकता है। बच्चों के बालों में फंगल इन्फेक्शन ज्यादा होता है। डैंड्रफ भी एक किस्म का फंगल इन्फेक्शन ही है। हालांकि थोड़ी-बहुत डैंड्रफ होना सामान्य है लेकिन ज्यादा होने पर यह बालों की जड़ों को कमजोर कर देती है।

कैसे करें बचाव

बाल कटवाते वक्त हाइजीन का खास ख्याल रखें। देखें कि कंघी साफ हो। हो सके तो अपनी कंघी साथ लेकर जाएं।

इलाज

डैंड्रफ से छुटकारे के लिए इटोकोनाजोल (Etoconazole), जिंक पायरिथिओनाइन (Zinc Pyrithionine यानी ZPTO) या सिक्लोपिरॉक्स ऑलोमाइन (Ciclopirox Olamine) शैंपू का इस्तेमाल करें। बालों के बीच में फंगल इन्फेक्शन हो तो क्लोट्रिमाजोल (Clotrimazole) लगा सकते हैं। यह जेनरिक नेम है। तेल न लगाएं वरना इन्फेक्शन फैल सकता है। फौरन डॉक्टर को दिखाएं।

ध्यान दें

बाल प्रोटीन से बनते हैं, इसलिए हाई प्रोटीन डाइट जैसे कि दूध, दही, पनीर, दालें, अंडा (सफेद हिस्सा), फिश, चिकन आदि खूब खाएं।

विटामिन-सी (मौसमी, संतरा, आंवला आदि), ऐंटिऑक्सिडेंट (सेब, नट्स, ड्राइ-फ्रूट्स) के अलावा सी फूड और हरी सब्जियां खूब खाएं।

बाल ज्यादा देर गीले न रहें। ऐसा होने पर बाल गिर सकते हैं।

बालों को साफ रखें और हफ्ते में दो बार जरूर धोएं। जरूरत पड़ने पर ज्यादा बार भी धो सकते हैं।

बाल नहीं धोने हैं तो नहाते हुए शॉवर कैप से बालों को अच्छी तरह ढक लें।

बाल धोने के बाद अच्छी तरह सुखाएं। पंखे या ड्रायर को थोड़ा दूर रखकर बाल सुखा लें।

मॉनसून के दिनों में बालों में तेल कम लगाएं क्योंकि मौसम में पहले ही नमी काफी होती है।

पेट की गड़बड़ी

बरसात में दूषित खाने और पानी के इस्तेमाल से पेट में इन्फेक्शन यानी गैस्ट्रोइंटराइटिस हो जाता है। ऐसा होने पर मरीज को बार-बार उलटी, दस्त, पेट दर्द, शरीर में दर्द या बुखार हो सकता है।

डायरिया

डायरिया गैस्ट्रोइंटराइटिस का ही रूप है। इसमें अक्सर उलटी और दस्त दोनों होते हैं, लेकिन ऐसा भी मुमकिन है कि उलटियां न हों, पर दस्त खूब हो रहे हों। यह स्थिति खतरनाक है। डायरिया आमतौर पर 3 तरह का होता है :

वायरल

वायरस के जरिए ज्यादातर छोटे बच्चों में होता है। यह सबसे कम खतरनाक होता है। इसमें पेट में मरोड़ के साथ लूज मोशंस और उलटी आती है। काफी कमजोरी भी महसूस होती है।

इलाज

वायरल डायरिया में मरीज को ओआरएस का घोल या नमक और चीनी की शिकंजी लगातार देते रहें। उलटी रोकने के लिए डॉमपेरिडॉन (Domperidone) और लूज मोशंस रोकने के लिए रेसेसाडोट्रिल (Racecadotrill) ले सकते हैं। पेट में मरोड़ हैं तो मैफटल स्पास (Maflal spas) ले सकते हैं। 4 घंटे से पहले दोबारा टैबलट न लें। एक दिन में उलटी या दस्त न रुकें तो डॉक्टर के पास ले जाएं।

बैक्टीरियल

इस तरह के डायरिया में तेज बुखार के अलावा पॉटी में पस या खून आता है।

इलाज

इसमें ऐंटिबायॉटिक दवाएं दी जाती हैं। अगर किसी ने बहुत ज्यादा ऐंटिबायॉटिक खाई हैं, तो उसे साथ में प्रोबायॉटिक्स भी देते हैं। दही प्रोबायॉटिक्स का बेहतरीन नेचरल सोर्स है।

प्रोटोजोअल

इसमें भी बैक्टीरियल डायरिया जैसे ही लक्षण दिखाई देते हैं।

इलाज

प्रोटोजोअल इन्फेक्शन में ऐंटि-अमेबिक दवा दी जाती है।

ध्यान रखें

यह गलत धारणा है कि डायरिया के मरीज को खाना-पानी नहीं देना चाहिए। मरीज को लगातार पतली और हल्की चीजें देते रहें, जैसे कि नारियल पानी, नींबू पानी (हल्का नमक और चीनी मिला), छाछ, लस्सी, दाल का पानी, ओआरएस का घोल, पतली खिचड़ी, दलिया आदि। सिर्फ तली-भुनी चीजों से मरीज को परहेज करना चाहिए।

मॉनसून में रखें ख्याल

1. हवादार कपड़े पहनें


मॉनसून में ढीले, हल्के और हवादार कपड़े पहनें। टाइट और ऐसे कपड़े न पहनें, जिनका रंग निकलता हो। ध्यान रखें कि कपड़े धोते हुए उनमें साबुन न रहने पाए, वरना स्किन इन्फेक्शन हो सकता है। अगर बारिश में कपड़े भीग गए हैं तो फौरन बदल लें ताकि सर्दी-जुकाम न हो।

2. शरीर को साफ रखें

इन दिनों शरीर की साफ-सफाई का ज्यादा ध्यान रखें। जितना मुमकिन हो, शरीर को सूखा और फ्रेश रखें। बारिश में बार-बार भीगने से बचें। ऐंटिबैक्टीरियल साबुन जैसे मेडसोप (Medsoap), सेट्रिलैक (Cetrilak) आदि से दिन में दो बार नहाएं। बरसात में नहाने के बाद साफ पानी में डिसइन्फेक्टेंट (डिटॉल, सेवलॉन आदि) मिलाकर अच्छी तरह नहाएं। दूसरे का टॉवल या साबुन शेयर न करें। बाहर से आकर हैंड सैनिटाइजर का इस्तेमाल जरूर करें। खाना खाने से पहले हाथ जरूर धोएं।

3. बाहर न खाएं

इस मौसम में खाने में बैक्टीरिया जल्दी पनपता है। बाहर जाकर पानी पूरी, भेल पूरी, चाट, सैंडविच आदि खाने से बचें। कटे फल और सब्जियां खाने से भी इन्फेक्शन का खतरा रहता है। इनसे बचें। बाहर का जूस या पानी ना पिएं। बोतलबंद पानी या उबले हुए पानी को ही पीने की आदत डालें। इस दौरान तेल-भुने के बजाय हल्का खाना खाने की आदत डालें, जो आसानी से पच सके क्योंकि बरसात में गैस, अपच जैसी पेट की समस्याएं ज्यादा होती हैं। अपने पाचन तंत्र को बेहतर बनाने के लिए लहसुन, काली मिर्च, अदरक, हल्दी और धनिया का सेवन करें। बासी खाना खाने से भी बचें।

4. सब्जियों को अच्छी तरह धोएं

फल और सब्जियों को अच्छी तरह धोएं, खासकर पत्तेदार सब्जियों को क्योंकि इस मौसम में उनमें कई तरह के लारवा और कीड़े आदि होते हैं। हल्के गर्म पानी से धोएं। फिर उन्हें आधे घंटे तक नमक मिले पानी में भिगोकर रखें। सब्जियों को पकाने से पहले 5 मिनट उबाल लें तो और भी अच्छा है। इससे कीटाणु तो खत्म होंगे ही, फल-सब्जियों पर लगे आर्टिफिशल कलर और केमिकल भी हट जाएंगे। इसके अलावा सब्जियों को अच्छी तरह पकाएं। कच्चा या अधपका खाने का मतलब है कि आप बीमारियों को दावत दे रहे हैं।

5. पानी उबाल कर पिएं

मानसून में सिर्फ फिल्टर्ड और उबला हुआ पानी ही पिएं। ध्यान रहे कि पानी को उबाले हुए 24 घंटे से ज्यादा न हुए हों। अपने फ्रिज की बोतलों को बदलने और हर तीसरे-चौथे दिन साफ करने की आदत डालें। इस मौसम में कई बार प्यास नहीं लगती फिर भी दिन में 8-10 गिलास पानी जरूर पिएं, वरना शरीर में पानी की कमी हो सकती है।

6. घर को साफ-सुथरा रखें

बारिश के दिनों में मक्खी-मच्छर आदि पनपने लगते हैं। ऐसे में घर को पेस्ट फ्री बनाना जरूरी है। कॉकरोच, मक्खी-मच्छर आदि को दूर रखने के लिए पेस्ट कंट्रोल वाला स्प्रे कराएं। खिड़कियों पर जाली लगवाएं ताकि बाहर से कीट अंदर न आ सकें। बालकनी या छत आदि पर पानी जमा न होने दें, वरना मच्छर पैदा हो सकते हैं और मलेरिया या डेंगू फैला सकते हैं। घर में कपूर जलाएं। इससे मक्खियां दूर भागती हैं।

7. एक्सर्साइज जरूर करें

बारिश की वजह से इन दिनों कई बार मॉर्निंग वॉक पर नहीं जा पाते इसलिए घर पर ही एक्सरसाइज जरूर करें। एक्सरसाइज करने से इम्युनिटी बढ़ती है इसलिए बीमारी आसानी से अटैक नहीं कर पाती। साथ ही, पसीना निकलने से शरीर की सफाई हो जाती है।

8. बच्चों का रखें ख्याल

बच्चों को बारिश में ज्यादा न भीगने दें। उन्हें इस मौसम में इनडोर गेम्स खेलने के लिए प्रेरित करें। घर से बाहर भेजें तो पूरे कपड़े (पूरी बाजू की शर्ट और फुल पैंट) पहना कर भेजें। इससे मच्छर के काटने से बच जाएंगे। बच्चों को स्विमिंग पूल न ले जाएं क्योंकि उसके पानी के जरिए एक से दूसरे को इन्फेक्शन होने का खतरा होता है।

9. ​पहनें खुले फुटवेयर

बरसात के दिनों में अपने जूतों का खास ख्याल रखें। इन दिनों बंद जूते न पहनें क्योंकि ऐसा करने से पैरों में ज्यादा मॉइस्चर जमा हो सकता है, जो यह इन्फेक्शन की वजह बन सकता है। इन दिनों लेदर के शूज पहनने से भी बचें। खुले फुटवियर पहनें लेकिन बारिश या कीचड़ में गंदा होने पर पैरों को फौरन धो लें, वरना गंदगी से भी इन्फेक्शन हो सकता है। ध्यान रखें कि फुटवेयर फिसलने वाले न हों।

10. ​छाते से करें दोस्ती

हर घर में छाता होता है और अक्सर लोग तेज धूप में छाता लेकर चलते भी हैं लेकिन मॉनसून में अक्सर छाता घर भूल जाते हैं। जब भी घर से निकलें, छाता या रेनकोट साथ लेकर निकलें, फिर चाहे आसमान में बादल हों या न हों। दरअसल, इन दिनों अचानक बारिश हो जाती है इसलिए पहले से छाता अपने साथ रखना जरूरी है। बच्चों के स्कूल बैग में भी रेन कोट या छाता रखना न भूलें।

मॉनसून में पेट केयर

अगर आपके घर में कोई पालतू जानवर (पेट) है तो मॉनसून में उसकी देखभाल की खास जरूरत है:

1. साफ-सफाई

जब भी बाहर से घुमाकर लाएं, गुनगुने पानी में एंटी-सेप्टिक डालकर अपने डॉगी के पंजों को अच्छी तरह धोएं। फिर पंजों के बीच के स्पेस को टॉवल से अच्छी तरह पोंछें ताकि फंगल इन्फेक्शन न हो। मॉनसून में भीगने पर बालों से भी बदबू आने लगती है इसलिए उसे मेडिकेटिड पाउडर लगाएं। रोजाना कंघी भी करें ताकि फालतू बाल निकल जाएं।

2. कीड़ों की काट

अपने डॉगी को पेट में होनेवाले कीड़ों की दवा जरूर दिलाएं क्योंकि इन दिनों पेट में कीड़े होने की आशंका ज्यादा होती है। महीने में डी-वॉर्मिंग की एक गोली दें। बालों में जुएं न हों, इसके लिए एंटी-टिक्स पाउडर लगाएं।

3. पैक्ड फूड पर जोर

बेहतर है कि रेग्युलर मीट के बजाय इस सीजन में रेडी-टु-ईट खाना खिलाएं। हो सकता है कि आप जो मीट मार्केट से खरीद कर लाएं, वह दूषित हो। ऐसे में आपके डॉगी को डायरिया होने के चांस होते हैं। पानी भी साफ पिलाएं। उसके खाने और पानी का बाउल रोजाना कम-से-कम 2 बार साफ करें।

4. जादू की झप्पी

आंधी-तूफान और बिजली की गड़गड़ाहट से कई बार जानकर डर जाते हैं। अगर आपका डॉगी भी डरा दिखे, कांपने लगे, छुपने या काटने की कोशिश करे तो वह डरा हो सकता है। उसे प्यार से पुचकारें और गले लगाएं। देर तक उसकी कमर पर हाथ फेरें और उसे सहलाएं। इससे डर कम होगा और वह अच्छा महसूस करेगा।

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